गुरुवार, दिसंबर 31, 2009

तुलसी और दुर्वासा इतने भौंडे तो नहीं थे

ब्लॉग पर कविता लिखना कितना आसान है उसका एक उदाहरण देखिये. स्वनामधन्य महाकवि श्री अलबेला खत्री ने एक कविता लिखी है. कविता का शीर्षक है; "लोग माथा पीट रहे हैं और तुम लिंग पकड़ कर बैठी हो."

शीर्षक पढ़ लिया? अब कविता का कंटेंट पढ़िए;

कहीं स्वाइन फ्लू जैसा रोग है
कहीं आँगन में पसरा सोग है

कहीं ठण्ड के मारे हड्डियाँ चटक रही हैं
कहीं भूखी बुढ़िया भिक्षा को भटक रही है

लेकिन तुम्हें दिखाई नहीं देता
रुदन किसी का सुनाई नहीं देता

इसीलिए
शायद इसीलिए इतना ऐंठी हो
लोग माथा पीट रहे हैं
और तुम लिंग पकड़ कर बैठी हो

तुम्हारे दिल में ज़रा भी दर्द नहीं है
लगता है
तुम्हारी ज़िंदगी में कोई मर्द नहीं है

वरना ऐसे फालतू काम नहीं करती
भले लोगों को बदनाम नहीं करती

क्योंकि देह जिसकी असंतुष्ट होती है
सारी दुनियाँ उसके लिए दुष्ट होती है

न तो कोई ढंग का काम कर पाती है
न वह आराम से आराम कर पाती है

देखो ज़रा....
जग हर्ष मन रहा है
नव वर्ष मना रहा है
और तुम?
हाँ हाँ तुम!
अपने आपको
भाषा की जंजीरों में जकड कर बैठी हो
दुनियाँ चाँद पर पहुँच गयी
और तुम यहाँ लिंग पकड़ कर बैठी हो

लिंग ही पकड़ना था तो
किसी ज्योतिर्लिंग को पकड़ती
काशी में शिवलिंग को पकड़ती
मेवाड़ में एकलिंग को पकड़ती
तुम भी तर जाती
तुम्हारा कुनबा भी तर जाता
जहर जीतता भरा है
तुम्हारे भीतर' वह मर जाता

लेकिन तुम्हारे ऐसे सौभाग्य कहाँ?
सूर्पनखा के भाग्य में वैराग्य कहाँ?
उसे तो नाक कटनी है
और लुटिया डुबानी है
हे आधुनिक सूर्पनखा!
पुल्लिंग और स्त्रीलिंग में क्या सार है?
मेरी आँख से देख इसके अलावा भी संसार है
मगर तुम जिद्दी प्राणी हो' सच पहचानोगी नहीं
अपने घमंड के आगे किसी को मानोगी नहीं

इसलिए
ऐंठी रहो!
ऐंठी रहो
ऐंठी रहो
हम तो अपने काम में लग रहे हैं
तुम लिंग पकड़कर
बैठी रहो!
बैठी रहो!
बैठी रहो!

महाकवि की इस कालजयी कविता पर रामचरित मानस तथा भगवद गीता के जानकार और देवभाषा के पक्षधर श्री अरविन्द मिश्र की टिप्पणी पढ़िए;

जबर्दस्त- कवि अपने पर उतरता है तो दुर्वासा भी बनता है और तुलसी भी.
नववर्ष की मंगल शुभकामनाएं

आदरणीय राज भाटिया जी की टिप्पणी पढ़कर लगा जैसे वे भी ऐसा कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं पाए. पता नहीं क्या मजबूरी थी? उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;

अलबेला भाई जीयो खूब जीयो, बहुत सुन्दर और सटीक कविता कही, जो बात हम सब नहीं कह पाए वो आपने कह दी, हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा......
इस कालजयी कविता का सन्दर्भ अरविन्द मिश्र जी की पोस्ट है. जहाँ आयी टिप्पणियां भी महाकवि अलबेला खत्री जी की कविता से जरा भी कमतर नहीं हैं.

आप में से कुछ कह सकते हैं कि केवल एक पोस्ट को इतना महत्व देने की क्या ज़रुरत है? या फिर यह कि मुझे चिट्ठाचर्चा जैसे मंच इस्तेमाल कर किसी के खिलाफ लिखना शोभा नहीं देता.

मेरा कहना है;

ब्लॉग जगत को ख़राब किया जा रहा है.
ब्लॉग जगत में गुटबाजी हो रही है.
ब्लॉग जगत से गंध आ रही है.
कुछ लोगों ने ब्लॉग जगत को बर्बाद करने का बीड़ा उठा लिया है.

या इसी तरह की और बातें कहने वाले लोग खुद क्या कर रहे हैं? ब्लॉगर का स्त्रीलिंग क्या होना चाहिए? क्या महिला ब्लॉगर को ब्लागरा कहा जा सकता है? ऐसी बातों को आधार बनाकर दस लाइन की पोस्ट लिखकर तथाकथित बहस चलाकर ब्लॉग जगत का क्या भला किया जा रहा है? कितना भला किया जा रहा है? कहने की ज़रुरत नहीं कि रचना जी की टिप्पणियों और उनकी पोस्ट को आधार बनाकर कुछ लिखना और उसपर तथाकथित बहस करवाना किस तरह की ब्लागिंग है?

मैं और मेरे जैसे तमाम लोग यह मानते हैं कि ब्लॉग अभिव्यक्ति का माध्यम है. जो चाहे लिख सकते हैं. लेकिन क्या ऐसा कुछ लिखा जाना चाहिए जैसा परम आदरणीय अलबेला खत्री जी ने लिखा है? भौंडेपन की कोई लिमिट है कि नहीं? पाकिस्तानी हास्यास्पद रस के कलाकारों के साथ टेलीविजन पर तथाकथित लाफ्टर के फटके मारते-मारते इतना गिर जायेंगे कि ब्लॉग पर इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करेंगे? और टिप्पणी करने वाले बुद्धिजीवी उन्हें तुलसी और दुर्वासा बता रहे हैं.

कौन सी बहस महत्वपूर्ण है? यह कि "महिला ब्लॉगर को ब्लागरा कहा जाय?" या फिर यह कि "किसी के खिलाफ इस तरह की कविता लिखी जा सकती या नहीं?"

एक बार सोचियेगा.

मैं आदरणीय अरविन्द जी से और परम आदरणीय अलबेला खत्री जी से कहना चाहता हूँ कि उनके खिलाफ लिखने का या उन्हें केंद्र में रखकर चर्चा करने का मेरा कोई ध्येय नहीं है. बात केवल इसलिए उठाई गई है ताकि चिट्ठाकार यह तय कर सकें कि तथाकथित बहस के लिए कौन सा मुद्दा ज्यादा महत्वपूर्ण है?

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रविवार, दिसंबर 27, 2009

आइए, एक दूजे को चिट्ठा ईनाम बांटें…

blog award

उड़नतश्तरी चिट्ठे के बाजू पट्टी में अमित गुप्ता द्वारा दिए गए ब्लॉग पुरस्कार पर नजर गई तो वहाँ से कड़ी दर कड़ी खोजते पुरस्कारों का खजाना मिल गया. वैसे भी ब्लॉग पुरस्कारों का मौसम चला आया है. तो क्यों न लगे हाथ आप भी अपने पसंदीदा चिट्ठों, चिट्ठाकारों को दना दन एकाध नहीं, बल्कि कई कई चिट्ठापुरस्कार बांट दें? चिट्ठा पुरस्कारों के लिए, यकीन मानिए, श्रेणियों की कोई कमी नहीं! और काम एकदम सरल! बस आपको देने वाले का (अपना) नाम भरना है, पाने वाले का नाम व ईमेल पता भरना है और पुरस्कारों में से एक को चुनना है, और भेजें बटन दबा देना है.

आइए, देखें कुछ नमूने -

dead cockroach award

मरा तिलचट्टा पुरस्कार? ये क्या अवार्ड है भई? पर, आप यकीनन अपने  कुछ पसंदीदा  ब्लॉगों को ये अवार्ड देना नहीं चाहेंगे?

 

cow fart award

हम्म… गाय के गोबर का अवार्ड तो फिर भी काम का होता… यहाँ धरती पहले से गरम है और मीथेन गैस और पैदा की जा रही है.. मगर, ऐसे पुरस्कार योग्य चिट्ठे कुछेक तो होंगे ही जो चिट्ठाजगत के माहौल को गर्म बनाए रखने में अपना अच्छा खासा खून पसीना बहाते फिरते हैं?

 

चलिए, मजाक बहुत हो गया. असली किसम के अवार्ड भी हैं यहाँ – (वैसे ऊपर के अवार्ड ज्यादा असली हैं,)

most unique blog of the year

 

कुछ और पुरस्कार नामों पर सरसरी नजर-

choose award

 

वाह! हर संभव श्रेणी के पुरस्कार हैं यहाँ पर तो. इस लिहाज से तो हर चिट्ठा कोई न कोई पुरस्कार (रों) के लिए शर्तिया क्वालीफ़ाई करेगा ही.

तो, देर किस बात की? दे दना दन और ले दना दन वाला काम क्यों न चालू करें? बस, यहाँ क्लिक करें.

इसके बावजूद भी यदि आपका ब्लॉग मेरे ब्लॉग की तरह सचमुच अभागा है, तो उसे इनमें से किसी एक (या अनेक) बढ़िया  पुरस्कार से सजाने के लिए स्वयं आप अपने लिए किसी अनामी ईमेल खाते से ईनाम अपने खाते पर भेज सकते हैं.

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शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009

नो लल्‍लो-चप्‍पो: एक वर्तनीदोष चर्चा.... मास्साब टाईप

कई लोगों को लगता है कि भई चिट्ठाचर्चा दोषों की उपेक्षा करती है तिस पर हम जैसे मास्‍साब को तो चाहिए कि वे जमकर छिद्रान्‍वेषण करें दोष दर्शन, परदोष प्रदर्शन करें। काहे नहीं करते... इसलिए कि खुद हमारे चिट्ठाकर्म में जितने वर्तनीदोष होते हैं उतने अगर कक्षा में ब्लैकबोर्ड पर हो जाएं तो बालक हड़ताल कर दें :) पर जो अपने दोष देखने लगे वो भी भला कोई ब्‍लॉगर है.

तो आज की चर्चा आज की पोस्‍टों में वर्तनी (बोले तो स्‍पैलिंग) की गलतियॉं खोजने वाली चर्चा है। अलग अलग पोस्‍टों में जो गलतियॉं हैं उन्‍हें बोल्‍ड भर कर रहे हैं आप उनके सही रूप को सुझा सकते हैं। पोस्‍टों के लेखक इसे शुद्धतावाद न मानें ज्‍यादा से ज्‍यादा हमारे अपने होने को जस्‍टीफाई करने की कोशिश मान सकते हैं :)। वैसे गलत स्पैलिंग कोई बहुत बड़ा दोष नहीं है तथा हम खुद पर्याप्‍त समर्थ दोषी व्‍यक्ति हैं पर हॉं इस तक में हम सबसे समर्थ नहीं हैं। इस हुनर के सबसे माहिर उस्‍ताद अपने कुन्‍नु भाई हैं.. हैं कि नहीं।

तो चलते हैं आज की पोस्‍टों की ओर-

मत विमत की अनुजा ने स्‍त्री प्रश्‍न के धर्म जैसी संस्‍थाओं के स्त्रीविरोध को पुन: कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया है...बहुत ही दमदार पोस्‍ट है जिसपर आस्था के मारे कई पाठक आ आ के सफाई सी दे रहे हैं ... धत्‍त हम तो पोस्‍ट की तारीफ करने लगे जबकि हमें तो गलती खोजनी हैं सो देखें

बाबजूद इसके स्त्रियां धर्म और ईश्वर के प्रति इस कदर प्रतिबद्ध नजर आती हैं

जहां से वो कभी बाहरर नहीं आ पाती।

उन लड़कियों को जो या तो परिक्षा देने जा रही होती हैं

इसे उनका एक महत्वपूर्ण क्रांतिकार कदम कहा-माना जाएगा

इस मामले में बतंगड़ के हर्षवर्धन एक दम बेकार पत्रकार हैं हम पूरा आलेख चाट गए पर वर्तनी की गलती न खोज पाए ... ये ठीक बात नहीं है... दूसरे की रोजी का भी ध्‍यान रखना चाहिए भई। भारतीय नागरिक ने भी पत्रकारीय लेख लिखा है पर कम से कम हमारे लिए थोड़ी गुंजाइश रखी है न-

शायद उन्हें यह पता नहीं होगा कि शाह बनो को गुजरा भत्ता न देने के लिए

चोखेरबाली पर एक अ-चोखेरबाली पोस्‍ट है जिसमें एक 'बेचारी' बहन की पीड़ा दिख रही है जिसमें अरैंज्‍ड विवाह के बेबात के तनावों पर बात की गई है...स्त्री विमर्श...वो पता नहीं-

बस उनके बोल बचन अच्छे नहीं लगे।

भाजपा नेत्री किरध महेश्‍वरी के ब्‍लॉग पर कश्‍मीर में सेना बनाए रखने के पक्ष में तर्क दिए गए हैं-

जम्मू कश्मीर राज्य में आंतरिक सुरक्षा की स्थिती भयावह बनी हुई है।

केन्द्र सरकार विस्थापित पंडितों के पुर्नवास के लिए कदम क्यों नही उठा रही है।

वंदना अवस्‍थी की कहानी अनिश्चितता में

मैंने भी अपना सूटकेस और बैग सम्हाला और एक डिब्बे की तरफ़ चल पड़ा

उसके जाते ही घर के माहौल में जिस तेज़ी के साथ परिवर्तन हुआ, उसे देखते, मह्सूते हुए घर में रह पाना बड़ा मुश्किल था,

एक लड़के को ट्यूशन पढ़ने लगा था

कहानी गिरीजेश राव की प्रिंटर की धूल और मोटी रोटियॉं भी है पर दोष वही है हर्षवर्धन वाला पूरी कहानी पढ़ लो एक गलती न मिले... कित्‍ता बुरा लगता है सोचो सुबह से शाम हो जाए कंटी डाले एक मछली न फंसे ... नो गुड।

घुघुतीजी की ऑक्‍टोपस प्रजाति की आदत पर पोस्‍ट

एक औक्टॉपस की प्रजाति तो ऐसा बिल्कुल नहीं सोचती

रवि रतलामीजी को मंथन पुरस्‍कार प्राप्‍त होने पर संजीव की पोस्‍ट

निश्चित ही रवि भईया के इस प्रयास से छत्‍तीसगढी भाषा का विकास संभव होगा एवं जमीनी स्‍तर पर अधिकाधिक लोगों को कम्‍प्‍यूटर तकनीकि का ज्ञान सहज रूप से प्राप्‍त हो सकेगा.

जसवीर की कविता यूनिफार्म

जो रिक्‍शे चला रहे हैं
जो चाय बना रहे हैं
और गुब्‍बारे बेच रहे हैं
तभी तो हौंसला बना है मुझमें
भीड़ की विपरीत दिशा में चलने का

वर्तनीदोष पराक्रम में गिरिजेश राव और हर्षवर्धन भाई जैसे त्रुटिकृपण लोग रंगनाथजी से शिक्षा ले सकते हैं जो शीर्षक से ही बोल्‍ड हैं-

दो व्यस्क स्त्री और पुरूष किन-किन शर्तों पर शारीरिक संबंध बना सकते हैं ?

जो औरतें या पुरूष संस्थागत रूप से वेश्यावृत्ति को अपनाते हैं

वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने या देने की बहस का केन्द्रिय प्रश्न यह है

 

सुनीता सर्दी में स्‍नान पुराण लेकर आई हैं-

हर सुबह उस व1त उनका मूड उखड़ जाता है, जब पत्नी न नहाने पर बार-बार उलाहना देती है।

अरे भाभी जी, सर्दी में नहाना अति उत्तम है, और वह भी ठंडे पानी से तो समझो कि सो रोगों की दवा।

खैर शर्मा जी को विप8िा में देख मौजीराम ने दोस्त होने का फर्ज निभाया और उन्हें शीत स्नान का नुसखा बताया।

जिन पोस्‍टों का उल्‍लेख हम नहीं कर पाए हैं अनिवार्य नहीं कि उनमें वर्तनी की गलतियॉं हैं नहीं.. बस इतना समझें कि ग्‍लानि सर उठा रही है कि बस करो अगर किसी ने लौट कर आपके ब्‍लॉग से कापी पेस्‍ट शुरू कर दिया तो कहॉं जाओगे... सा हमारी ओर से भी शास्‍त्रीजी की ही तरह ईसा जयंती की शूभकामनाएं-

ईसा-जयंती के इस पावन पर्व पर

आप सब को ईश्वर की असीम आशिष प्राप्त हो

 

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गुरुवार, दिसंबर 24, 2009

बड़ी घिनौनी लगती है अब आदम की बू-बास मियां

बहुत दिनों बाद आज चिट्ठाचर्चा करने बैठा हूँ. लगता है जैसे भूल गया हूँ कि कहाँ से शुरू करें और कहाँ ख़तम करें? लेकिन चर्चा करनी है तो कहीं से भी शुरू कर दूँ न. करीब बारह बजे रात के आस-पास से शुरू करूं तो पहले भोजपुरिया बाबू क्या कहीं, उसपर नज़र टिक जायेगी. भोजपुरिया बाबू का कहना है कि झारखण्ड में जनादेश खंडित है.

अब आप सोचिये कि नेताओं को पग-पग पर दोष देने वाले जनों का आदेश ही खंडित है. नतीजा यह कि नेता महिमा-मंडित है. अरे, ई तो कविता टाइप बन गया. जी हाँ, भोजपुरिया भाई के अनुसार वहां के मास्टर जी, सौरी-सौरी गुरु जी, एक बार फिर से उभरे हैं. अब वे उभरे हैं तो आदेश देने वाला जन तो डूबेगा ही. जाइए और जाकर पढ़िए कि भोजपुरिया भाई क्या विचार रखते हैं इस जनादेश पर.
जो जन अपना ही आदेश खंडित करेगा उसके साथ क्या-क्या हो सकता है, यह बता रहे हैं डॉक्टर मान्धाता सिंह. उनका कहना है कि सरकार तो लोकतांत्रिक है मूल उसका चरित्र जनविरोधी और राजशाही वाला है. अब बताइए, सरकारों का भी चरित्र ऐसा न रहे तो किसका होगा? झिंगुरी लोहार का? डॉक्टर सिंह के अनुसार;

छोडिये जाने दीजिये. वहीँ जाकर पढ़ लीजिये. ये रहा लिंक. उनका ब्लॉग सुरक्षित है.

बताइए, असुरक्षित जन और कुछ नहीं तो ब्लॉग ही सुरक्षित कर ले रहा है और उसी को अपना अचीवमेंट मान रहा है. वैसे अचीवमेंट का क्या है? हम सांसदों के खाने पर होने वाले खर्चे को उस रेट से कम्पेयर लें जिस रेट पर उन्हें खाना मिलता है. उसके बाद यह मानें कि ये हमारा अचीवमेंट है. खुशदीप सहगल जी ने यह अचीव किया है. आप खुद ही पढ़िए. ये रहा लिंक.

सुनते हैं डॉक्टर लोहिया भी नेहरु जी के ऊपर होने वाले खर्च का हिसाब रखते थे और कहते थे कि जिस दिन हिसाब पूरा हो जाएगा, समाजवादियों की सरकार बन जायेगी. हिसाब रखते-रखते डॉक्टर साहेब चल बसे. समाजवादी गणित टें बोल गया. उनके शिष्य बाद में नेहरु जी की पार्टी को समर्थन देने के लिए दिल्ली में डिनर अटेंड करते रहे.

कल रात हिंदी ब्लागरी (या ब्लागरा?) ने अपने शैशवकाल से एक बार फिर निकलने की कोशिश की. नतीजा यह हुआ कि एक बढ़िया परिपक्व बहस छेड़ी गई जिसमें अरविन्द जी ने पूछा कि; जैसे अदाकारा, शायरा वैसे ब्लागरा/चिट्ठाकार क्यों नहीं?
इस सवाल पर तमाम बेहतरीन टिप्पणियां आई हैं क्योंकि अरविन्द जी ने यह विषय खुली चर्चा के लिए रख दिया है. उन्हें संस्कृत के विद्वान् की ज़रुरत है जो इस पर प्रकाश डाल सके. देखिये, अगर आप भी कुछ कर सकते हैं तो बाकी लोगों की तरह कुछ कीजिये.

कुछ और करिए या न करिए, हो सके तो संजय पटेल जी की पोस्ट पढ़िए. रफ़ी साहब के ड्राईवर श्री अल्ताफ हुसैन खान का रफ़ी साहब की यादों के बारे में एक साक्षात्कार दिया है. बेहतरीन पोस्ट है. एक जगह अल्ताफ साहब कहते हैं;

"साहब के चाहने वाले और क़रीबी दोस्त उन्हें आलम पनाह कहा करते थे, क्योंकि हमारे साहब को अंदाज़ ही कुछ ऐसा था। बड़े क़रीने के आदमी थे। कहीं भी कार रुकवा कर चाहने वालों से मिल लेते थे। हर ख़त का जवाब ख़ुद लिखते थे। जब हमने आलम-पनाह कहरने की कोशिश की तो मना कर दिया। कहा - मैं रफ़ी ही ठीक हूँ और वह भी मोहम्मद रफ़ी।"


विष्णु बैरागी जी ने तीन मैकेनिक्स के बारे में लिखा है. उनका कहना है कि;

"कुछ दिनों से मैं तीन मिस्त्रियों (मेकेनिकों) से दुःखी हूँ। मेरी व्यथा-कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ और उम्मीद कर रहा हूँ ऐसा केवल मेरे साथ नहीं हो रहा होगा।"


बेहतरीन पोस्ट है. एक मैकेनिक ईश्वर के बारे में विष्णु जी लिखते हैं;

"उसकी हँसी मेरे गुस्से को अधिक टिकने नहीं देती। उसकी विनम्रता मुझ जैसे कुटिल आदमी को भी साध लेती है और मैं उसके सामने परास्त हो जाता हूँ। कहता हूँ - ‘अब तुझे नहीं बुलाऊँगा।’ वह मुँह फेरकर, हँसते हुए कहता है - ‘तो बताओ जरा, किसे बुलाओगे।’"


समीर भाई का लैपटॉप नहीं रहा. मैंने तो शुरू-शुरू में ही सबकुछ बता दिया लेकिन समीर भाई ने लैपटॉप के बारे में बाद में बताया. शेर ठोकने के बाद. जिन्हें यह शिकायत है कि हिंदी ब्लागरी में सस्पेंस नहीं लिखा जाता वे आज से शिकायत करना बंद कर दें....:-)

पाठकों से टिपण्णी के माध्यम से श्रद्धांजलि व्यक्त करने के लिए निवेदन करते हुए उन्होंने लिखा;

"निवेदन: कृप्या टिप्पणी के माध्यम से अपनी श्रृद्धांजलि अर्पित करें तो मुझे आपका पता वापस मिले वरना तो वो सब साथ ले ही गया है."


लोगों ने उनकी बात मानते हुए टिप्पणियों में श्रद्धांजलि दे दी है. आप ने अगर अभी तक नहीं दी है तो दे आइये.

निशांत जी ने आज ईसा मसीह के जीवन से एक कहानी छापी है. क्रिसमस का मौसम है सो ईसा मसीह के जीवन में घटी घटना से बढ़िया और क्या हो सकता है? आप कहानी पढ़ें. सुन्दर कहानी है.

अलबेला खत्री जी ने सूचना दी है कि उन्होंने अभीजीत सावंत के साथ मिलकर लाफ्टर के फटके में धमाल मचा दिया है. बता रहे हैं कि फिल्मसिटी में इस धमाल की शूटिंग पूरी हो गई है.

अभिषेक ने एक पोस्ट लिखी है. समाज में तमाम तरह के लूप के बारे में. पढ़िए. वे लिखते हैं;

"माइकल डग्लस का वालस्ट्रीट फिल्म का एक डायलोग याद आता है: 'एक समय मैं जिसे दुनिया की सारी दौलत समझता था वो आज एक दिन की कमाई है '. मेरे एक दोस्त ऐसे हैं जिनकी महीने की कमाई और मेरे एक समय के संसार की सारी दौलत में आराम से मैच हो जायेगा."


वाल स्ट्रीट के बारे में बात करते हुए अभिषेक लिखते हैं;

"वैसे 'ज़ीरो सम गेम' से वालस्ट्रीट का एक और डायलोग याद आया:
Bud Fox: How much is enough?
Gordon Gekko: It's not a question of enough, pal. It's a zero sum game, somebody wins, somebody loses. Money itself isn't lost or made, it's simply transferred from one perception to another."


आज विनोद कुमार पाण्डेय जी का जन्मदिन है. उन्हें जन्मदिन की बधाई.

"क्या हिन्दु धर्म अब उन अपराधियों, हत्यारों, भू-माफियाओं, हवाला कारोबारीयों के बल पर जिन्दा रहेगा,जो भगवा धारण कर लोगों को छल रहे है?"


योगेन्द्र मौदगिल जी की गजल पढ़िए. उनका ब्लॉग सुरक्षित है इसलिए ये अशआर मैं खुद टाइप कर रहा हूँ. मेरी मेहनत के लिए भी मुझे दाद दीजियेगा प्लीज. योगेन्द्र जी लिखते हैं;

उन सब ने खंडित कर डाला जिनपर था विश्वास मियां
क्या अपनों को धर के चाटे क्या अपनों की आस मियां

इस बस्ती से आते-जाते नाक पे कपड़ा रख लेना
बड़ी घिनौनी लगती है अब आदम की बू-बास मियां


पूरी गजल आप उनके ब्लॉग पर पढ़िए.

आज की चर्चा में बस इतना ही.आप सब को क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनाएं.

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बुधवार, दिसंबर 23, 2009

भोपाल, बंगलौर,दिल्ली,पूना और रायपुर

कल संजय बेंगाणी के हवाले से खबर मिली कि रविरतलामीजी को भी मीडिया मंथन पुरस्कार मिला है। सो उनको यानि की रविरतलामी जी को भी बधाई।

इनामों की इस कड़ी में एक और इनाम की घोषणा कल हुई। ब्लाग जगत के जुड़े इस पुरस्कार की  विस्तार से जानकारी लीजिये।

प्रवीण पाण्डेयजी बंगलौर की हरियाली की किस्सा सुना रहे हैं:

image बेंगळुरु को बागों का शहर कहा जाता है और वही बाग बढ़ती हुयी वाहनों की संख्या का उत्पात सम्हाले हुये हैं। पार्कों के बीचों बीच बैठकर आँख बन्द कर पूरी श्वास भरता हूँ तो लगता है कि वायुमण्डल की पूरी शीतलता शरीर में समा गयी है। यहाँ का मौसम अत्यधिक सुहावना है। वर्ष में ६ माह वर्षा होती है। अभी जाड़े में भी वसन्त का आनन्द आ रहा है। कुछ लिखने के लिये आँख बन्द करके सोचना प्रारम्भ करता हूँ तो रचनात्मक शान्ति आने के पहले ही नींद आ जाती है। यही कारण है कि यह शहर आकर्षक है।

प्रवीण जी की पोस्ट के अंश दोहराते हुये श्रीश पाठक ’प्रखर’ लिखते हैं: यह विश्लेषण रोचक है और सोचने के और कई तार देता है. मोहक सी हरी-भरी जानकारी...प्रवीण भाई आपको पढ़ना बेहद अच्छा लगता है..थोड़ा और लिखा करिये ना...!

ज्ञानजी फ़टाफ़ट फ़ोटो भी सटा दिये। अब सब देखिये आप उधर ही। बंगलौर के किस्से पढ़ते  हुये मुझे बंगलौर में ही बसी पूजा की कविता याद आती है जिनका मन दिल्ली के लिये हुड़कता है:

image बंगलौर में पढ़ने लगी है हलकी सी ठंढ
कोहरे को तलाशती हैं आँखें
मेरी दिल्ली, तुम बड़ी याद आती हो
पुरानी हो गई सड़कों पर भी
नहीं मिलता है कोई ठौर
नहीं टकराती है अचानक से
कोई भटकी हुयी कविता
किसी पहाड़ी पर से नहीं डूबता है सूरज

पार्थसारथी एक जगह का नाम नहीं
इश्क पर लिखी एक किताब है
जिसका एक एक वाक्य जबानी याद है
जिन्होंने कभी भी उसे पढ़ा हो

अभिषेक ओझा काफ़ी दिन बाद गणितगीरी के लिये आये और कहानी सुनाये:

image गणित ने लड़ाइयाँ जीती है. गणित की एक शाखा का नाम ‘ऑपरेशनस रिसर्च’ ही इसीलिये पड़ा क्योंकि उसका विकास द्वितीय विश्वयुद्ध के समय युद्ध रणनीति बनाते समय हुआ. वालस्ट्रीट गणितीय फोर्मूलों पर चलता है, किसी भी नयी दवाई को बाजार में लाना हो या मौसम की भविष्यवाणी करनी हो या फिर नए मौद्रिक नीति की घोषणा करनी हो... गणित के प्रयोगों की सूची कभी नहीं ख़त्म होने वाली.

अनिल पुसदकर भी काफ़ी दिन से नेपथ्य में थे। पता चला उनके दुश्मनों की कुछ तबियत भी नासाज थी। कल उनसे टेलीवार्ता हुई तो हालचाल पता चले। उन्होंने फ़िर से हलचल मचाते हुये लिखना शुरू कर ही दिया। देखिये तो सही:

image छत्तीसगढ मे इन दिनो नगरीय निकाय के चुनावो की धूम है।चुनावो में हर प्रत्याशी चाहता है कि उसकी बात अख़बारों के जरिये जनता के सामने आ जाये। और अख़बारो का शायद काम भी यही है आम आदमी की आवाज़ को पूरी ताक़त से उठाना।पर छत्तीसगढ मे इन दिनो या कह लिजिये कुछ समय से एक नया ही ट्रेंड चल रहा है पैकेज के नाम पर।


पैकेज याने याने रेट तय किजिये फ़िर जो चाहे छपवा लिजिये।दो बार विज्ञापन तो साथ मे दो बार भी खबर भी।तीन बार विज्ञापन तो तीन बार खबर और कोम्बो पैक यानी की सिर्फ़ आपकी आवाज़ उठाने के साथ-साथ विरोधी की आवाज़ नही सुनने या जनता को नही सुनाने का ठेका।सबके अलग अलग रेट्।लोकसभा और विधानसभा चुनावो के बाद पैकेज का जादू जब नगर निगम और नगर पालिका चुनाव मे भी सर पर चढ कर बोलने लगा तो मुझे लगा कि ऐसे मे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करने का अधिकार अख़बारों को नही रहा।

महिलाओं में गाली, शराब और सिगरेट....!!! में अदा जी ने विस्तार से लिखा है। गाली क्यॊम् देते हैं, कौन वर्ग की महिलायें क्या गाली देती हैं, शराब सिगरेट और बीड़ी के किस्से भी हैं लोगों के। इस लेख के कुछ अंश यहां

image महिलाएं भी गालियाँ देतीं हैं...लेकिन ज्यादातर....या तो वो बहुत हाई क्लास औरतें होतीं हैं जो हाई क्लास गलियाँ देतीं हैं....अंग्रेजी में......या फिर नीचे तबके कि महिलाओं को सुना है चीख-पुकार मचाते....मध्यमवर्ग कि महिलाएं यहाँ भी मार खा जातीं हैं....न तो वो उगल पातीं हैं न हीं निगल पातीं हैं फलस्वरुप...idiot , गधे से काम चला लेतीं हैं....हाँ idiot , गधे का प्रयोग ही हम भी करते हैं....और बाकि जो भी 'अभीष्ट' गालियाँ हैं....उनमें कोई रूचि नहीं है...

फिर भी, किसी महिला का सिगरेट पीना, शराब पीना या गाली देना बहुत बुरी आदत मानी जायेगी लेकिन इस कारण से उसे चरित्रहीन नहीं कहा सकता .....इन आदतों और चरित्र में कोई सम्बन्ध नहीं है....हाँ, इन आदतों से उसके मनोबल/आत्मबल को आँका जा सकता है....लेकिन सम्मान को नहीं.....

 

निरंतर फ़िर से नेट पर

कल डा.अनुराग आर्य के ब्लाग पर मैंने पढ़ा था--जिंदगी में हमारी सबसे बड़ी ग्लानि हमारे द्वारा किये ग़लत काम नही अपितु वे सही काम होते है जो हमने नही किये!

इतने दिनों के नेट सक्रियता के समय में मुझे एक अफ़सोस होता है वह यह कि हम निरंतर जैसी पत्रिका के कई अंक निकालने के बावजूद उसको नियमित न रख सके। आज उसके पुराने अंक फ़िर से देखे तो बीते दिनों की याद आ गयी। अद्भुत  सामूहिक् लगन से हम लोगों ने कुछ दिन यह पत्रिका निकाली। समय की कमी के कारण अंग्रेजी लेखों के पैराग्राफ़ बांट –बांट कर किये। पहले तीन –पैरा तुम करो उसके बाद के तीन तुम और उसके बाद के हम। इस तरह काम न हमने पहले किया कभी न बाद में। कुछ पुराने अंक देखिये। इसमें अतानु डे का इंटरव्यू भी है जिसमें वे कहते हैं

ब्लॉग से देश नहीं बदलेगाः अतानु डे

और भी बहुत कुछ है जो आप यहां पायेंगे और जैसा शायद और कहीं आपको न दिखा हो। कच्चा चिट्ठा में मैंने उस समय के कुछ ब्लागरों के बारे में लिखा था। समीरलाल का कच्चा चिट्ठा भी यहां मौजूद है। समीरलाल अगर इसे पढ़ें तो शायद उनकी यह चिर-शिकायत कुछ कम हो सके कि हम उनके बारे में लिखते नहीं।

और भी बहुत कुछ है  यहां पर! आने वाले समय में अगर निरंतर दुबारा से शुरू कर सकने में सहयोग दे सका तो इसे अपनी उपलब्धि मानूंगा।

फ़िलहाल इतना ही। शेष फ़िर। चलते-चलते रमानाथ अवस्थी जी की पंक्तियां दोहराता हूं:

आज इस वक्त आप हैं,हम हैं
कल कहां होंगे कह नहीं सकते।
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।

वक्त मुश्किल है कुछ सरल बनिये
प्यास पथरा गई तरल बनिये।
जिसको पीने से कृष्ण मिलता हो,
आप मीरा का वह गरल बनिये।

जिसको जो होना है वही होगा
जो भी होगा वही सही होगा।
किसलिये होते हो उदास यहाँ
जो नहीं होना है नहीं होगा।

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मंगलवार, दिसंबर 22, 2009

तरकश को मंथन मीडिया अवार्ड

image विस्फ़ोट के हवाले से मिली खबर है कि  तरकश को मिला मंथन मीडिया अवार्ड!  इस् समाचार की जानकारी देते हुये आगे बताते हैं विस्फ़ोट के साथी --

ज्ञान विज्ञान से जुड़े हिन्दी पोर्टल तरकश.कॉम को ई न्यूज श्रेणी में प्रतिष्ठित मंथन मीडिया अवार्ड से सम्मानित किया गया है. यह मीडिया अवार्ड 19 दिसंबर को दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान दिया गया.

मंथन डिजिटल मीडिया अवार्ड इंटरनेट पर सफल या इन्नोवेटिव साइटों को दिया जाता है. मंथन को हिन्दी की ई न्यूज श्रेणी में यह पुरस्कार दिया गया है. पुरस्कार देते हुए मंथन के निर्णायक मंडल ने कहा है कि "तरकश एक अनोखी साइट है जो स्थानीय भाषा में लोगों तक उपयोगी लेख पहुंचा रही है. तरकश देश के उन लोगों का प्रतिनिधित्व कर रही है जो अंग्रेजी की बजाय हिन्दी को प्राथमिकता देते हैं."

मंथन पुरस्कार का आयोजन हर साल डिजिटल एम्पावरमेन्ट फाउण्डेशन के द्वारा वर्ल्ड समिट अवार्ड और भारत सरकार के सूचना तकनीकि मंत्रालय के साथ मिलकर किया जाता है. दक्षिण एशिया में यह डिजिटल मीडिया का सबसे बड़ा पुरस्कार माना जाता है. तरकश का संचालन अहमदाबाद से संजय बेंगाणी और पंकज बैंगाणी करते हैं. दोनों ही तकनीकि कार्यों में दक्ष में है और तरकश नेटवर्क के तहत विभिन्न प्रकार की साइटों का संचालन कर रहे हैं.

हालांकि हमारा मानना है कि अब तरकश.कॉम में अब ऐसी सामग्रियों की भरमार है जो सेमी पोर्न केटेगरी में आती हैं. लेकिन इसके लिए तरकश के संचालकों को भी दोषी नहीं माना जा सकता. आज हिन्दी की जितनी बड़ी वेबसाइटें हैं वे सब सेमी पोर्न साइट में तब्दील हो गयी हैं क्योंकि हिन्दी में ऐसे कंटेट को पढ़नेवालों की तादात सबसे अधिक है.

बेंगाणी बंधुओं को हमारी भी बधाई।

image रचना त्रिपाठी की नयी पोस्ट् का शीर्षक अपने आपमें पूरी पोस्ट है। शीर्षक ही अपनी पूरी कह देता है--जिस दिन एक गृहिणी के कार्यों को महत्व मिलने लगेगा उसी दिन नारीवादी आन्दोलन समाप्त हो जायेगा…।अपनी बात कहने के लिये जिस बात का उदाहरण पेश किया रचनाजी ने वह वही वाक्य था जिसके लिये नामवर जी के बयान की लोगों ने कड़ी आलोचना की थी।उन्होंने लिखा--

इलाहाबाद में हुए ब्लॉगर सम्मेल्लन में नामवर सिंह जी का यह वक्तव्य मुझे बहुत अच्छा लगा था कि ब्लॉगरी में  हम कुछ भी लिखने पढ़ने को स्वतंत्र है लेकिन इसके साथ एक जिम्मेद्दारी भी है कि हम क्या लिख रहे हैं। हमें स्वतंत्र होना चाहिए मगर स्वछन्द नही होना चाहिए कि जो मन में आया लिख दिया। ब्लॉगरी भी एक जिम्मेद्दारी है। इसी प्रकार हम अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से किसी भी क्षेत्र में भाग नहीं सकते।

नामवरजी ने भी जब इस बात को कहा था तब भी उनका इशारा शायद इसी तरफ़ रहा होगा कि स्वतंत्रता को स्वछंदता की तरह न लें। लेकिन भाई लोगों ने उनके इस कहे को अभिव्यक्ति पर अंकुश की तरह लिया और उनको जमकर गरियाते हुये अपनी जबान साफ़ की।

किसी बात को संदर्भों से काटकर अपने मतलब की बात उछालकर गरियाना/रोना/धोना हमेशा से हर समाज में होता रहा है।

image बात गरियाने की आई तो चलिये मामला अदालत तक ले चला जाये। द्विवेदीजी ने एक किस्सा बयान किया है जिसमें आरोपी छूट गया। कल की उनकी पोस्ट में चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी ने अपनी बात रखी-

आदरणीय द्विवेदी जी. आप की अदालत में मुजरिम हाज़िर है :)
मेरी टिप्पणी पर बात चली है तो बता दूं कि मेरी टिप्पणी चिट्ठा चर्चा में लगी थी जो सुजाता जी की उस टिप्पणी की प्रतिक्रिया थी कि जब पुरुष गाली दे सकता है तो महिला क्यों गाली नहीं दे सकती? मेरा कहना था कि गाली ही क्यों, सिगरेट भी पी सकती है, शराब भी और पुरुष की तरह रेड लाईट...। इसका आशय यह था कि गिरावट में भी क्या स्त्री पुरुष का मुकाबला करेगी? जैसा कि आपने ठीक ही कहा कि मुद्दा विषय से दूर चला गया। केंद्र में मुद्दा नहीं ‘कोई cmpershad ’ आ गया। बात दूर तक जाती देख कर मैंने चिट्ठा चर्चा में क्षमा भी मांग ली थी। शायद बात आई गई हो गई... पर नहीं, एक बार फिर रचनाजी ने उस टिप्पणी का लिंक पुनः चिठाचर्चा पर हाल ही में दिया। बात को आगे नहीं बढाते हुए मैंने उसे इग्नोर कर दिया।
विषय अपनी जगह है और मेरा प्रश्न भी- नारी पुरुष के मुकाबिल किस हद तक गिरना चाहती है। क्या ‘नारी’ के पास इसका उत्तर है... या केवल पुरुष को केवल कोसने का ही कार्य करती रहेंगी??
यदि वह गाली तक ही रुकना चाहती तो यह भी स्पष्ट कर दे ॥

image सिद्धार्थ त्रिपाठी ने अपनी पोस्ट खाकी में भी इन्सान बसते हैं और कम्प्यूटर में…!?! में खाकी में इंसान का जिक्र किया है। इस किताब के पन्ने खुलने लगे हैं ब्लाग पर और लिखा गया है--इलाहाबाद में ट्रेनिंग के शुरुआती अनुभव आँखें खोलने वाले थे…! अशोक कुमार जी के अनुभव आप देखिये। पढिये। सराहिये। उनसे अनुरोध ही कि वे आगे भी लिखते रहें। किताब से इतर संस्मरण भी।

इस ब्लाग पर किताब के बारे में जो समीक्षा विभूति राय जी ने लिखी है उसको पढ़कर पहली नजर में लगता है कि उन्होंने आई.ए.एस. और आई.पी.एस्. सेवाओं के तुलनात्मक अध्ययन जैसे किसी शोध की समीक्षा लिखी है। इस पर श्रीलाल शुक्ल जी का लेख सफ़ेद कालर का विद्रोह याद आता है। जिसमें उन्होंने लिखा है:

.१.इंजीनियर ,डाक्टर, सिविल सर्वेंट आदि जब ’युद्ध मार्ग पर प्रवृत्त ’ होते हैं तो मुझे इत्मिनान रहता है कि वे ऐसे खच्चर हैं जो तबेले में तलियाउझ करेंगे , कुछ देरे तबेले के बाहर टहलेंगे भी और फ़िर तबेले के अन्दर आकर अपने-आपको बन्द कर लेंगे।
२. इस तरह सारा विद्रोह और आन्दोलन एक उस तालाब की शक्ल ले लेता है जिसमें गन्दे पानी की लहरें एक-दूसरे पर टूट रही हैं और बड़े जोश के सथ एक-दूसरों को काट रही हैं और तालाब के बाहर किनारे पर खड़े भारी-भरकम पेड़ों को इनसे कोई खतरा नहीं है।

बहरहाल अशोक कुमार जी का स्वागत है ब्लाग जगत् में।

कल की अपनी टिप्पणी में डा.अनुराग आर्य ने अपनी इस पोस्ट का जिक्र किया। मैंने इसे दुबारा पढ़ा और एक बार फ़िर मन अनमना हो गया। डा.अनुराग की लेखनी में हलचल मचाने की जबरदस्त ताकत है। अपने लेख की शुरुआत ही वे करते हैं इस वाक्य से---

जिंदगी में हमारी सबसे बड़ी ग्लानि हमारे द्वारा किये ग़लत काम नही अपितु वे सही काम होते है जो हमने नही किये
- आज सुबह ९.१५ मिनट पर मेरी दोस्त डॉ प्रिया का एस .एम्.एस

इसके बाद कैंसर से जूझती अपनी मित्र के बारे में। इस पोस्ट के ये संवाद आशा की कहानी कहते हैं:

उसके एक हफ्ते बाद हम सब मिलकर लॉन्ग ड्राइव पर समंदर पे गये ....वहां समंदर के किनारे खड़े होकर उसने फ़िर कहा "देखा मै neurologist बनकर रहूंगी ".......

......एक साधारहण इन्सान अपनी हठ ओर लगन से कब जिंदगी को इबारत में बदल लेने की ठान ले …कौन जाने ! कही पढ़ी हुई ऐसी बातें जब सामने से गुजरे तो ?

जिंदगी से रोज उसी शिद्दत से जूझना ओर पल पल के लिये लड़ना ,कहते है औरत अपने अधूरे सपने बेटी की आँखों में डाल देती है उन्हें उतने ही जतन ओर प्यार से सहेजती है ,पर टूटे सपनो को रोज सिलेवार लगाना उन्हें जोड़ने की जद्दोजहद मेरी जबान में उसे हिम्मत नही कहते ,हिम्मत से बड़ी ,उससे जुदा कोई चीज़ है .

बाद में कैंसर से जूझते हुये कृपा की मौत हुई। डा.अनुराग की कल की टिप्पणी के बाद मुझे परसाई जी लिखा संस्मरण याद आया जो उन्होंने मुक्तिबोधजी के मरने के बाद लिखा था--

बीमारी से लड़कर मुक्तिबोध निश्चित जीत गये थे। बीमारी ने उन्हें मार दिया ,पर तोड़ नहीं सकी। मुक्तिबोध का फौलादी व्यक्तित्व अंत तक वैसा ही रहा। जैसे जिंदगी में किसी से लाभ के लिये समझौता नहीं किया,वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को वे तैयार नहीं थे।
वे मरे। हारे नहीं। मरना कोई हार नहीं होती।

नीचे का अंग्रेजी वाला कार्टून समीरलालजी ने मेल से भेजा। शायद कल की चर्चा पर अपनी टिप्पणी के रूप में। फ़िलहाल इतना ही।

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सोमवार, दिसंबर 21, 2009

पांच पोस्ट, पच्चासों कार्टून और चंद एकलाईना

 

एक इंसान हूँ मैं तुम्हारी तरह

image श्रीवास्तव जी जैसे लोगो को देखकर लगता है हम किस बात पे इतराते है ....ओर हमने किया ही क्या है अब तक ?ये वो लोग है जो बिना इश्तेहार बाजी के वर्तमान सिस्टम में रहते उसकी कमियों को जानते बूझते इससे कम या ज्यादा कुछ निकालकर उसे बेहतर कामो में इस्तेमाल कर रहे है ....अब समय दूसरा है सलमान जब विवाद में फंसते है तो अचानक उनकी चेरिटिया बढ़ जाती है .इमेज मेक ओवर प्रोसेस है.......परोपकार भी करना है ओर यश की चाहत भी है .....जाने दो इमोशनल हो जायूंगा तो बहुत कुछ कह जायूंगा ...
ओर हां तुम सुनो ......तुम वाकई असाधारण हो ...

 

ये बयान् जारी किया गया डा.अनुराग आर्य द्वारा कंचन की इस पोस्ट पर।यह पोस्ट पढ़कर एक बार फ़िर लगा कि कंचन संस्मरण् लेखन में  उस्ताद हैं। गौतम राजरिशी लिखते हैं:

          • कहते हैं बार मौन रहना बड़े-से-बड़े संवादों से ज्यादा श्रेयष्कर होता है, किंतु इस ब्लौग पर अपना मौन प्रदर्शित कैसे करूं...?
            अपनी वर्तमान स्थिति में जब रोज जूते के लेस बाँधने या कमीज का बटन बंद कर पाने की नाकामी पर खुद पर झुंझलाता हूँ तो तुम हौसलों की टोकरी लिये चली आती हो। सोचने लगता हूँ कि मेरी तो ये बस कुछेक महीनों के लिये है और तुम...उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़!image
            i salute you, dear sis!

अब लेख/संस्मरण के बारे में  हम क्या लिखें। आप देखिये स्वयं ही। अलबत्ता कंचन के बारे में कुछ् जानना हो तो पढिये-

अन्य होंगे चरण हारे

रेशम की एक डोर से संसार बांधा है ,
आइए झांके हृदय गवाक्ष के अंदर और मिलें कंचन सिंह चौहान से..

image मज़े का अर्थशास्त्र .... बेहतरीन् व्यंग्य लेख है। इसमें शेफ़ाली जी ने नौकरी पेशा महिलाओं के दुख-दर्द को मजे-मजे से बयान किया है। अद्भुत  नजर है शेफ़ाली की और कमाल का अंदाजे बयां। जब् वे लिखती हईं--

बरसात का वह दिन आज भी मेरी रूह कंपा देता है जब उफनते नाले के पास खड़ी होकर मैंने साहब से फोन पर पूछा था, ''सर, बरसाती नाले ने रास्ता रोक रखा है ,आना मुश्किल लग रहा है, आप केजुअल लीव लगा दीजिए. साहब फुंफ्कारे  '''केजुअल स्वीकृत नहीं है, नहीं मिल सकती'' कहकर उन्होंने फोन रख दिया. मैंने गुस्से में आकर चप्पलों को हाथ में पकड़ा और दनदनाते हुए वह उफनता नाला पाल कर लिया, जिसमे दस मिनट पहले ही एक आदमी की बहकर मौत हो चुकी थी,

तो परसाई  जी का वाक्य याद आता है- जो लोग् प्रॉपर चैनल  नहीं पार कर पाते वे इंगलिश चैनल् पार कर् जाते हैं।

शेफ़ाली पाण्डेय के इस लेख में कामकाजी महिलाओं के किस्से पढ़ते-पढ़ते लगता है कि वे अपनी स्मृति में सब किस्से सहेजकर रखती जाती हैं और मौका मिलते ही ब्लाग पर् पोस्ट् कर् देती हैं। अब इसको देखिये--

मेरे साथ काम करने वाले एक सहकर्मी के प्रति मेरी कुछ कोमल भावनाएं थीं , वह अक्सर काम - काज में मेरी मदद किया करता था .एक दिन उसकी मोटर साइकल में बैठकर बाज़ार गई तो वह उतरते समय निःसंकोच कहता है ''पांच रूपये खुले दे दीजियेगा .''

क्या-क्या दिखायें आपको ? आप तो पूरा लेख ही बांचिये।शायद  आप् भी वही कहें जो

isibahane ने कहा…

जो लिखा गया है, वो हमने अपनी कामकाजी मांओं और बहनों को जीते देखा है या कहूं भोगते देखा है। सौ फ़ीसदी सच। पढ़ते-पढ़ते लगा कि जाने-अनजाने हम इन बेहद ज़हीन महिलाओं को शायद उतनी तवज्जो, उतनी इज़्ज़त नहीं देते जितना उनका हक़ है।

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पंखों की नेमत और उड़ने की कला 

अपनी तारीफ़् करते हुये  प्रमोद ताम्बट लिखते  हैं--बचपन से ही अपने आप को व्यंग्य के काफी करीब पाया इसीलिए पिछले 27 साल से नेक नेक ही सही इस सागर में कुछ कुछ बूंदे पटकता आ रहा हूँ।
प्रमोद ताम्बट का लेख
पंखों की नेमत और उड़ने की कला रविवारीय नई दुनिया में छपा। उसके कुछ अंश देखिये:

१.कुछ कीड़े तीर की गति से किसी के थोबडे़ पर जा भिड़ते हैं, या कपड़ों में जा घुसते हैं और अंततः इस गुस्ताखी के लिए उस गुस्सैल बंदे के हाथों मसलकर मार दिये जाते हैं, उड़ने की इतनी अनोखी और महत्वपूर्ण कला धरी की धरी रह जाती है।

२.एक होता है मच्छर, सुविधाजनक रूप से आदमी का खून पीने के लिए इसे छोटे-छोटे पंख और एक नुकीली स्ट्राँ मिली हुई है, गॉड गिफ्ट की तरह, मगर यह प्राणी कान पर भिन-भिन कर या आदमी के सर पर चक्करदार उड़ानें लगा-लगाकर अपना टाइम खराब करता है। आखिरकार किसी स्प्रे का शिकार होकर स्वर्ग सिधार जाता है। image

३.कीट-पतंगे, चाहें तो ‘पतंगों’ की तरह उन्मुक्त उड़ान भर सकते हैं, मृत्यु उनके करीब भी नहीं आ सकती। मगर नहीं, वे उड़ेंगे तो सीधे अपनी मौत की दिशा में दौडेंगे। दो कौड़ी की ‘शमा’ या सौ-दो सौ वॉट के बल्ब की मामूली सी गर्मी में जल मरेंगे।

४.अद्भुत है यह उड़ने की कला भी, जिनके पास पंखों की नेमत है वे उँचाई पर जाने के लिए उनका उपयोग नहीं कर पा रहे, और जिनके पास किसी साइज़, कलर, डिजाइन का कोई पंख नहीं वे आसमान में बैठे नीचे लोगों पर कुल्लियाँ कर रहे हैं।

 

प्रमोदजी नियमित व्यंग्य लिखते हैं। ब्लाग की दुनिया में दो महीना पहले आये। अभी तक दस् पोस्टें लिखीं। आशाहै कि नियमित ब्लागर बन् जायेंगे जल्द् ही।

कौन कहता है ’पा’ अमिताभ बच्चन की फ़िल्म है

image अजय कुमार झा
ऐसी फ़िल्म समीक्षा पहले कहीं नहीं देखी पढी ..एक एक पहलू पर जितनी बारीकी और बेबाकी से लिखा आपने वो काबिले तारीफ़ है ।
Blogger अजित वडनेरकर 

बहुत प्रभावी आलेख।
समीक्षा की एक नई और अनूठी शैली। सार्थक लेखन से लगातार चूकते जा रहे प्रिंट मीडिया में इसक किस्म की किसी वैचारिक पहल के लिए अब जगह शायद नहीं बची है। इसीलिए अनुराग जैसे रचनात्मक ऊर्जा वाले लोगों के लिए ब्लाग वह स्पेस उपलब्ध कराता है, जहां बिना कंधा-कोहनी टकराने की चिंता किए वे विषय के एक एक पहलू से गुजरने का जोखिम आसानी से ले सकते हैं।
बधाई अनुराग। आपकी जै हो।

इन दो टिप्पणियों को मिलाकर कुल जमा चार टिप्पणियां हैं अनुराग अन्वेषी की पोस्ट में जिनमें उन्होंने कौन कहता है ’पा’ अमिताभ बच्चन की फ़िल्म है कहते हुये अनूठी समीक्षा की है। ब्लाग में ताला लगा होने के कारण् मैं पोस्ट के अंश नहीं पेश् कर पा रहा हूं लेकिन आप देखिये इस् पोस्ट को! अनुराग कहते  हैं कि यह् फ़िल्म किसी एक्टर के लिये नहीं याद की जायेगी। बल्कि यह् फ़िल्म याद की जायेगी कर्स्ट्न टिंबल और डोमिनिक के लाजबाब मेकअप और बाल्की के जबर्दस्त निर्देशन् और् सधी हुई स्क्रिप्ट् के लिये ।

और भी बहुत् कुछ है जिसके लिये यह पोस्ट याद रखने लायक है। आप स्वयं देखिये।

इसी फ़िल्म की समीक्षा करते हुये अजय ब्रह्मात्‍मज ने लिखा- image

सबसे पहले आर बाल्की को बधाई कि उन्होंने फिल्म को भावनात्मक विलाप नहीं होने दिया है। उन्होंने ऑरो को हंसमुख, जिंदादिल और खिलंदड़ा रूप दिया है। हालांकि प्रोजेरिया की वजह से ही ऑरो में हमारी दिलचस्पी बढ़ती है, लेकिन लेखक और निर्देशक आर बाल्की ने बड़ी सावधानी से इसे कारुणिक नहीं होने दिया है। कुछ दृश्यों में ऑरो की मां से सहानुभूति होती है, लेकिन फिर से बाल्की उस सहानुभूति को बढ़ने नहीं देते। वे मां की दृढ़ता और ममत्व को फोकस में ले आते हैं। कामकाजी महिला और उसके विशेष बच्चे के संबंध को बाल्की ने व्यावहारिक और माडर्न तरीके से चित्रित किया है। यह पा की बड़ी खासियत है।

image
माई नेमिज चन्द्रभूषण मिश्रा

 

चंदू भाई हमारे पसंदीदा चिट्ठाकार हैं। वे कम लिखते हैं लेकिन जब लिखते हैं बेहतरीन लिखते हैं। जिस भी विषय पर लिखते हैं अपने समय, आसपास, दुनिया जहान का हिसाब-किताब टटोलते हुये लिखते हैं।
यहां और वहां क्या, तब और अब क्या में  वे लिखते हैं:
 
भविष्य के बारे में व्यवस्थित रूप से सोचना, किसी खास मसले से जुड़ी अनंत संभावनाओं को खारिज करते हुए सिर्फ एक पर उंगली रख देना खुद में एक बड़ा कौशल है। गणित और भौतिकी का तो मूल काम ही यही है।

इसी लेख में वे टेलीपैथी या पूर्वाभास के बारे में बताते हुये लिखते हैं:

अट्ठारहवीं सदी की गणितज्ञ मारिया एग्नेसी रेखागणित की जटिल समस्याओं के हल नींद में खोज लेती थीं और आंख खुलते ही उन्हें कॉपी में उतार देती थीं। पिछली सदी के जीनियस भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का कहना था कि उनकी कुलदेवी नामगिरि सपने में आकर उनके कठिन सवाल सुलझा जाती हैं। बेंजीन की संरचना पर काम कर रहे फ्रेडरिक केकुले को सपने में एक सांप दिखा जो अपनी पूंछ अपने मुंह में दबाए हुए था और यहीं से एक शास्त्र के रूप में ऑगेर्निक केमिस्ट्री की नींव पड़ गई। अल्बर्ट आइंस्टाइन ने जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी तक पहुंचाने वाला अपना गेडानकेनएक्सपेरिमंट एक दोपहर में दिवास्वप्न देखते हुए किया था।

अंग्रेजी अपनी दिव्यता खो रही है  में वे बताते हैं कि
किसी धौंस, अनुशासन या मजबूरी के तहत नहीं, सहज जीवनचर्या के तहत अंग्रेजी अपना कर उसी में सोचने-समझने और मजे करने वाली कोई पीढ़ी मेरे परिवार में अब तक नहीं आई है।

नवभारत टाइम्स ,दिल्ली में सम्पादक चंद्रभूषण जी के लेख पढ़कर भाषा, भाव, सोच हर स्तर पर हमेशा कुछ न कुछ इजाफ़ा होता है। इन्हीं चंदू भैया को पकड़ लिया शब्दों के सफ़र वाले अपने अजितजी ने और कहा लिखो बकलमखुद।  पहली किस्त् में चंदू जी ने अपने बचपन के किस्से लिखे और अपनी परेशानी अपने दोस्त् को बतायी। आप् भी सुनिये न:

लड़कियों के बीच परवरिश लड़कों को शायद कुछ ज्यादा ही संवेदनशील बना देती है, लेकिन इसकी अपनी कई मुश्किलें भी हुआ करती हैं। बहुत साल बाद इसी शहर में बी.एससी. करते हुए मैंने अपने दोस्त पंकज वर्मा को अपनी परेशानी बताई। 'यार, लगता है मैं कभी प्रेम नहीं कर पाऊंगा।' 'क्यों?' 'जबतक किसी लड़की से मेरा परिचय नहीं होता, मैं उसके पीछे पलकें बिछाए घूमता हूं, लेकिन जैसे ही परिचय होता है, बातचीत होती है, वह मुझे बहन जैसी लगने लगती है।'

दूसरी किस्त में उन्होंने अपने अंग्रेजी सीखने के किस्से बयान किये और इसके अलावा भी जो लिखा उसको पढ़ते हुये

इस् पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये अभिषेक ओझा ने लिखा:

पता नहीं क्यों बकलमखुद में अपने जैसे लोग ही मिलते हैं. कहीं न कहीं हर कड़ी में अपने जैसीimage बात दिख जाती है.

इसी पोस्ट् में चंदू जी के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुये Kishore Choudhary ने लिखा:

चंद्रभूषण जी से परिचय पहलू जितना ही है. आपका लेखन सजग व चिंतनशील है. मैंने पहलू पर जितनी भी पोस्ट देखी वे समग्र मानवता की चिंता से पूर्ण और सर्वकालीन चिंतन से भरी थी. समाज के सबसे निचले तबके की बात हो या अर्थजगत के महामाक्कारों की करतूते सब पर पैनी नज़र हमेशा बनी रही है. आज बाकलम खुद के फिर से आरम्भ हुए इस नए अभियान में मेरी आशाएं अद्वेत रूप से बलिष्ठ है कि पाठकों को कई अविस्मर्णीय पहलुओं और सामाजिक जीवन के साथ साथ बेहद निजी अनुभवों से भी दो चार होने का अवसर मिलेगा.

आप देखिये बकलम खुद के बहाने चंद्र्भूषणजी को पढिये और आनंदित होइये।

एक लाईना

  1. आज शिखा वार्श्नेय तथा यूनुस खान का जनमदिन है –बधाई दे दिये भाई! हैप्पी बड्डे
  2. क्या नारी ही गृहिणी हो सकती है पुरुष हाऊस हसबैंड नहीं… क्या पुरुष को नारी का स्थान ले लेना चाहिये.. –अरे सब गड़्बड़ा देगा।
  3. अपुन गधे ही भले...खुशदीप –बनना बेकार है।
  4. ब्लॉग मित्रों और पाठकों, मैं फ़ॉर्म में आने की कोशिश कर रहा हूं…[14]-अभी तो फ़र्मा बन रहा होगा।
  5. कैसे करूँ, किस-किस को दूँ!!!!   -किसी  को न् देव! सबअपने पास रखो।
  6. कब कटेगी चौरासी- कब पढ़ेंगे आप  आप बांच लिये  होगया ]
  7. हम सब स्वार्थी हैं –जाड़ा है मान लिया।
  8. का बताएं भैया! हम तो निपट गंवईहा ठहरे.!!! –ठहरे काहे  चलते रहो।
  9. "जरा इन नए ब्लॉगर्स की भी सोचें …. !!!!" (चर्चा मंच)  -पर भी नहीं आये।
  10. बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी.... –बिना किराये के घुमायेगी।
  11. जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ  -सोचना कोई अच्छी बात है का  ?

काजल कुमार के चुनिन्दा कार्टून
image पिछली चर्चा में डा.अनुराग आर्य ने साल भर के चुनिन्दा कार्टून पेश करने का आदेश दिया था। हमने उनके आदेश का पालन करते हुये काजल कुमार के  सन २००९ के कार्टून में से चुनिन्दा कार्टून यहां पेश करने का तय किया। ये कार्टून यहां पेश हैं। काजल कुमार के बारे में ज्यादा कुछ जानने के लिये उनका इंटरव्यू बांचिये जो ताऊ ९ वीं पहेली जीतने पर लिया गया था। काजल कुमार शायद अन्य कार्टूनिस्टों के मुकाबले कुछ अधिक ब्लागर हैं और ब्लाग पोस्टों पर    संक्षिप्त परन्तु चुटीली टिप्पणी करते रहते हैं। टिप्पणियां पढ़कर लगता है कि वे यहां कार्टून लिख रहे हैं। शुरुआती  कार्टून वे कार्टून हैं जो उन्होंने ब्लागजगत के बारे में ही बनाये हैं! तो आप देखिये काजल कुमार के कुछ चुनिन्दा कार्टून, पढिये उनका इंटरव्यू और बताइये कैसा लग यह तामझाम!

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और अंत में: फ़िलहाल इतना ही। बाकी भी चलता ही रहेगा। आप मस्त रहिये जैसे हमेशा रहते हैं।

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