शुक्रवार, अप्रैल 30, 2010

नीतीश स्‍पीक्‍स- लफत्‍तू रीड्स

लफत्‍तू हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत के लिए नए नहीं हैं नीतीश जरूर हैं इसलिए लपूझन्‍ना के लफत्‍तू के सामने नीतीश जो बेचारे पहली पहली हिन्दी ब्लॉग पोस्ट लिख रहे हैं (दरअसल इतिहास की पहली मुख्‍यमंत्रीय हिन्‍दी पोस्‍ट) को इतने जमे हुए पात्र लफत्‍तू के सामने खड़ा कर देना, है तो नीतीश के साथ अन्‍याय ही पर सारा अन्‍याय जनता के ही खिलाफ क्‍यों हो थोड़ा बहुत नेता के साथ भी तो होना चाहिए :)। अपनी पोस्ट में नीतीश ने अपराध नियंत्रण पर अपने कामों को गिनाया है ठीक है एक सीएम टाईप बातचीत है (या कहें सीएम के पीआरओ टाईप) दूसरी ओर लपूझन्‍ना की अगली किस्त में 'नागड़ादंगल और दली को आग कैते ऐ'  इस कड़ी में वैदजी के भाषण पर अपने हीरो लफत्‍तू की कमेंटरी है अब इसे आप हमारी ब्‍लॉगरी खुराफात ही कहें कि हमें नीतीश के भाषण में वैदजी दिखे और लफत्‍तू में तो लफत्‍तू ही दिख सकता है। तो लीजिए नीतीश स्‍पीक्‍स और लफत्‍तू रीड्स हाजिर है ये केवल दो टेक्‍स्‍ट का एक साथ ब्‍लॉग पाठ है इसमें उतना ही पढें :)  -

नीतीश स्‍पीक्‍स

लफत्‍तू रीड्स

          ये कतई आसान न था । मुझे इस प्रयास में उस मिथक को तोड़ना था कि बिहार में अपराध नियंत्रण किसी के वश में नहीं है । मैं इसके लिये कृतसंकल्‍प था किन्‍तु मुझे इस बात का ख्‍याल रखना था‍ कि हमें इस उद्देश्‍य की प्रा‍प्ति कानून के दायरे में ही करनी थी । विगत में देश के विभिन्‍न भागों से आयी खबरों के कारण मुझे इस बात का इल्‍म था कि कानून-व्‍यवस्‍था के नियंत्रण के नाम पर अक्‍सर मानवाधिकारों का उल्‍लंघन होता है । इसी लिये मुझे यह सुनिश्चित करना था कि हमारी लक्ष्‍य प्राप्‍ति की दिशा में इस प्रकार की चूक न हो ऐते बोल्लिया जैते आप छमल्लें हम कोई दंगलात से आए हैं. थब को पता ए

          सन 2006 में मैंने लंबित मामलों के त्‍वरित निष्‍पादन हेतु एक मींटिग आहूत की ....मेरी जानकारी में भारत में ये अपने प्रकार की पहली पहल थी । ....हमने एक 'एक्‍शन प्‍लान' के तहत हजारों लंबित मामलों की सुनवाई हेतु 'स्‍पीडी ट्रायल' की व्‍यवस्‍‍था की, ...... हमारी सरकार अपराध नियंत्रण की दिशा में किसी तरह की कोताही बर्दाश्‍त नहीं करेगी । .....हमारे शासन काल में एक भी संप्रदायिक दंगे या जातीय संघर्ष की घटना नही हुई है । ..... हमारी सरकार ने थानों के रख-रखाब के लिये एक विशेष वार्षिक कोष का गठन किया ।

बली बली योजनाएं बन रई ऐं बच्चो देश के बिकास के लिए ... हमाले पैले पलधानमन्त्री नेरू जी ने दिश के बिकास के लिए बली बली योजनाएं बनाईं ... बली बली मशीनें बिदेस से मंगवाईं ... रेलगाड़ियां और मोटरें मंगवाईं ... पानी के औल हवा के जआज मंगवाए ... तब जा के हमाला बिकास हो रा ए ...
           वर्षों बाद लोग देर रात तक अपने परिवार के सदस्‍यों के साथ सड़क पर पु:न दिखने लगे । एक वक्‍त था जब समाज में भय इस कदर व्‍याप्‍त था कि पटना के रेस्‍त्ररां में बमुश्किल एक या दो ग्राहक रात्रि में देखे जाते थे । अब आलम यह है कि लोंगों को होटलों में प्रवेश के लिये कतार में लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है । यहॉं तक कि लोग परिवार सहित नाईट शो में भी सिनेमा हॉल में फिर से दिखने लगे हैं । मुझे यह कहने में लेशमात्र झिझक नहीं है कि यह परिवर्त्तन मूलत: अपराध पर नियंत्रण होने के कारण संभव हो पाया । इसका प्रभाव अन्‍य क्षेत्रों पर भी हुआ बली बली योदनाएं बन लई ऐं ... बले आए नेलू जी ... बले बले दाम बन लए ऐं ... तूतिया थाले नेलू जी ... जाज खलीद लए ऐं ... कूला खलीद लए ऐं ... मेले कद्दू में गए छाले बैदजी और नेलू जी ... तल तैलने तलते ऐं याल
       बिहार में यह अब संभव नही है कि कोई व्‍यक्ति जुर्म करके सजा से बचा रह सके ।---उन्‍हें अब इस बात का पता है कि कोई है जो उन पर नजर बनाये हुये है दली को आग कैते ऐं औल बेते बुदी को लाक ... और उछ आग से निकले बारूद को विछ्छनात कैते हैं
        अपनी काले शीशे चढ़े वाहनों की खिड़कियों से बंदूके दिखाने का शौक था या फिर उन्‍हें जिन्‍हें शादी-विवाह के अवसर पर शामियाने में अपनी गैर-लाईसेंसी हथियार से गोली दागकर शक्ति प्रदर्शन की अभिरूचि थी बन गया बेते थब का नागलादन्गल. तूतिया ऐं थब छाले.
आप छमल्लें काला तत्मा पैनने वाला आदमी कबी सई नईं हो सकता.

 

अन्‍य पोस्‍टों में रवीश की महानगर के कार्नर उद्यमों पर पोस्‍ट बेहद अहम है-

ऐसी दुकानें हर शहर की खासियत होती हैं। एक ऐसी जगह होती हैं जहां आपकी पहचान सबसे ज्यादा सुरक्षित होती है। कोई नहीं देख सकता और वहां कोई नहीं आ सकता। ये वो जगह होती हैं जहां आप वर्जनाओं को तोड़ने जाते हैं। सिगरेट पी लेते हैं। पान खा लेते हैं और कहीं कोने में निवृत्त भी हो लेते हैं।

जब अहम को खोजने की प्रक्रिया शुरू हो ही चुकी है तो गिरिजेशराव की पोस्‍ट पढ़े और अपने हिस्‍से के कुरूक्षेत्र को पहचानें-

पिछ्ले सप्ताह से निकलना प्रारम्भ किया तो देखा कि कुरुक्षेत्र फिर से तैयार है। गाजर घास के सफेद फूल अपने चरम पर हैं। यही समय है कि उन्हें नष्ट किया जाय। श्रीमती जी कहती रहती हैं - एक अकेला क्या कर लेगा? कोई पुरुष मेरी बैचैनी देखता तो कहता - अकेले क्या उखाड़ लोगे ?

 

इसी क्रम में दो खोजपूर्ण पोस्‍ट विनीत तथा सुरेश चिपलूनकर की हैं विनीत ने मीडिया हाउस में यौन शोषण तथा सुरेशजी ने बैरकपुर की खिलाड़ी छात्राओं के साथ दुर्व्‍यवहार को सामने लाने का काम किया है।

नाउ मसिजीवी लीव्‍स।।

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गुरुवार, अप्रैल 29, 2010

दागदार न्यूज चैनल वर्धा-पुराण और अटकी हुई टिप्पणी

कल विनीतकुमार ने दागदार हुआ स्टार न्यूज, वहशी बॉस हुए बेनकाब पोस्ट में स्टार न्यूज की अन्दरकी कहानी बयान की। एक प्रतिष्ठित माने जाने वाले न्यूज चैनल में एक महिला कर्मी के शोषण की कहानी बताते हुये अपनी बात कहते विनीत ने लिखा:
ये एक ऐसे चैनल की कहानी है जो 'आपको रखे आगे'के दावे के साथ हमारे बीच पैर पसार रहा है। जाहिर है इस 'आप' में स्त्रियां भी शामिल है। अब गंभीर सवाल है कि जिस आगे रखने के काम में लोग लगे हैं,वहां काम करनेवाली स्त्रियां की धकेली जा रही हों,इतनी गुलाम है कि वो अपने साथ हुई ज्यादती की बात तक नहीं कर सकती, अगर करती है तो उसे धमकियां झेलनी पड़ती है,नौकरी से हाथ धोने पड़ते हैं। दुनियाभर के लोगों की कहानी सुनाने और बतानेवाले लोगों मेँ ठीठपना इस हद तक है कि वो इसें या तो नजरअंदाज कर जाते हैं या फिर पूरे मसले को दफनाने की कोशिश करते हैं,ऐसे में आप कैसे और किस तरह से आगे होने के दावे कर सकते हैं? आपको लगता है कि ये लाइनें बिजनेस और विज्ञापन की पंचलाइन से कुछ आगे जाकर असर करेगी?


उधर अविनाश अपने मोहल्ले में वर्धा यज्ञ करवा रहे हैं। वे वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय को लगातार माइक्रोस्कोप से देखे जा रहे हैं। इस सिलसिले वे वहां आते-जाते पर भी निगाह रखे हैं। इसी महीन कैमरे की जद में आये हैं राजकिशोरजी। बस फ़िर क्या! अविनाश ने उनकी जाति, पद लालसा और धमकियाना अन्दाज जैसी बातों को बल-भर देख डाला। अविनाश को दी गयी शायद बुजुर्गाना सलाह-
अविनाश जी, आपकी प्रतिभा और श्रम शक्ति का मैं कायल हूं। आपसे मुझे प्रेम और सद्भाव है। मैं चाहता हूं कि आप इसका बेहतर उपयोग करें। इससे आपका और दुनिया का भला होगा। अभी आप जो कुछ कर रहे हैं, उससे तो आप न घर के रहेंगे न घाट के।
में से आखिरी बात को धमकी की तौर पर छांट कर अविनाश ने अपने मोहल्ला लाइव में पेश कर दिया। देखिये!

उधर अफ़लातूनजी मुख्यमंत्री बिहार के ब्लॉग में दम किये पड़े हैं। मुख्यमंत्रीजी अपनी पहली पोस्ट अंग्रेजी में लिखे इसलिये अफ़लातूनजी उनसे नाराज हैं! इसके पहले एक गड़बड़ी नितीशजी ये कर दिहिन कि वो अफ़लातूनजी की टिप्पणी को रोक लिहिन। बस अफ़लातून जी ने एक ठो पोस्ट धांस दी-सेन्सरशिप में यकीन रखने वालों का माध्यम ब्लॉग नहीं है,नीतीश कुमार! अरे अफ़लू भैया तनिक गम खाओ! मुख्यमंत्रीजी अभी लिखना शुरू किये हैं। पहले स्वागत सत्कार करो एहिके बाद हल्ला-गुल्ला करा जाये।

मुख्यमंत्री जी ने आपकी टिप्पणी रोक ली तो भैया आप हमसे एक ठो पहेली में सवाल पूछ लिहौ-बूझौ तो जाने कि कौन सी टिप्पणी आप किये हुइहौ। गजब है भैया।

अरे भाई नितीश कुमार को अगर कोई बात नहीं जमी तो नहीं छापे होंगे उसे अपने ब्लॉग पर छाप देव और एक ठो पोस्ट निकाल लेव। अब ये क्या कि बेचारे नवोदित ब्लॉगर को हड़का रहे हो कि अंग्रेजी में काहे लिखते हैं! लिख रहे हैं ई का कम है। दूसरी पोस्ट से हिन्दी में आ भी तो गये। उसके लिये बधाई दिये क्या?

अफ़लातूनजी ने अपनी टिप्पणी को बूझने के लिये जो तीन विकल्प दिये हैं वे ये हैं:
१.हिन्दी के प्रयोग से देशवासी आपको अपने अधिक निकट व आत्मीय पाएँगे 20%
२.नरेन्द्र मोदीजी के प्रति आपका सार्वजनिक व्यवहार जरूर आहत करने वाला है. 20%
३.पहली पोस्ट अंग्रेजी में लिखना शर्मनाक था। हिन्दी लिखने में न शर्माइए । 60%

अफ़लातून जी कौन सी टिप्पणी नितीशकुमारजी ने दबा ली यह तो अब अफ़लातूनजी ही कन्फ़र्म करेंगे। वैसे 60% लोगों ने यह मत दिया है कि पहली पोस्ट अंग्रेजी में लिखना शर्मनाक था। हिन्दी लिखने में न शर्माइए । ही वह टिप्पणी होगी जो नितीशकुमार जी के ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं हुई। वैसे भी नरेन्द्र मोदी जी के जिक्र वाली टिप्पणी का उस पहली पोस्ट से कोई संबंध नहीं है। अगर यह शर्मनाक वाली टिप्पणी ही है अफ़लातूनजी की तो मेरी समझ में यह जबरियन उनको अर्दभ में लेने की कोशिश है और फ़िर यह साबित करना कि नितीश कुमार अपनी आलोचना बर्दास्त नहीं कर पाते। हिन्दी के प्रयोग से देशवासी आपको अपने अधिक निकट व आत्मीय पाएँगे! जैसी टिप्पणियां बहुत लोगों ने की हैं और वे प्रकाशित भी हुई हैं। अगर यह प्रकाशित नही हुई तो किसी अनजान चूक की वजह से हुई होगी।

अब फ़िर बात इस पर कि अगर अफ़लातूनजी ने यह लिखा -पहली पोस्ट अंग्रेजी में लिखना शर्मनाक था। हिन्दी लिखने में न शर्माइए ।और उसे नितीश कुमारजी के ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं किया गया तो मेरी समझ में ऐसा होना संभव है। नितीशकुमार जी का ब्लॉग उनका जो भी व्यक्ति संभालता होगा वह इस तरह की टिप्पणी जिसमें नितीश कुमार के लिये शर्मनाक लिखा हो प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं करेगा। इसे नितीशकुमार जी ही कर सकते होंगे। और मुख्यमंत्री से यह उम्मीद रखना कि वे अपनी दुनियादारी और राजनीति छोड़कर आपकी टिप्पणी प्रकाशित करें देख-देखकर उनके साथ अन्याय होगा।

मेरी समझ में अगर अफ़लातूनजी ने यह टिप्पणी की तो जबरियन भाव मारने के लिये की। बेहतर शब्द चयन किया जा सकता था।

एक मुख्यमंत्री तो अगर जनता से संवाद के लिये अंग्रेजी में बात शुरू करता और अगली पोस्ट में ही हिन्दी में आ जाता है तो उसकी तारीफ़ की जानी चाहिये न कि यह बवाल खड़ा किया जाना कि उन्होंने आपकी टिप्पणी इसलिये रोक ली क्योंकि आपने उनके अंग्रेजी में लिखने को शर्मनाक बताया था।

अफ़लातूनजी देखें कि जब उन्होंने ब्लॉग लिखना शुरू किया तो शुरुआती पोस्टें कौन भाषा में लिखते थे। हिन्दी में लिखना शुरू करने के पहले वे भी तो अंग्रेजी में ही लिखते थे। इत्ता काहे गरमाते हैं मुख्यमंत्रीजी पर भाई! नये ब्लॉगर हैं वो! सीखते-सीखते सीखेंगे।

इसी समय मुझे परसाईजी के लेख का शीर्षक याद आ रहा है जो उन्होंने समाजवादियों के विरोध करने के अन्दाज के बारे में लिखा था- वॉक आउट, स्लीप आउट, ईट आउट!

शोभना चौधरी ने एक अधूरी कविता लिखी:
कभी खुद से मुलाकात करनी हो तो तन्हाई में डूब कर देखो
कभी खुद को सुकून देना हो तो खुद की परछाई से लड़कर देखो
कभी खुद को ऊंचाई पर पाना हो तो सपनों को बुनना सीखो
कभी खुशियों को दामन में समेटना हो तो दुखों से लड़ना सीखो

यहां टिपियाने पहुंचे गिरिजेश राव ने लिखा:
कमाल है मैं भी 4 पंक्तियों पर अटकने के बाद उन्हें पोस्ट कर यहाँ आया हूँ !
अब गिरिजेश राव की भी अधूरी पंक्तियां देखी जायें:कौन कहता है
आसमाँ में नहीं होते सुराख
ग़ौर से देखिए हमने भी कुछ बनाए हैं ।
नज़र भटकती नहीं किनारों की महफिल पर
ज़ुनूँ का शौक तो मझधार की बलाए हैं।


अपनी कविता के बारे में खुलासा भी कर दिया गिरिजेश ने:
स्पष्ट है कि पहली पंक्ति दुष्यंत से प्रेरित है। पहली दो पंक्तियों का संशोधन अमरेन्द्र जी ने किया है। अंतिम दो पंक्तियों को आचार्य जी ने पास कर दिया :) ;)
जाने क्यों न तो इनके पहले कुछ रचा जा रहा और न बाद में। जैसा है प्रस्तुत है।


अब ई अमरेन्द्र कविताई ही सुधारते रहेंगे तो इम्तहान की तैयारी को करी भैया?

नये ब्लॉगर


  1. राजे शा का ब्लॉग चित्रगान है। अपने बारे में लिखते हुये बताते हैं-
    एक आम आदमी के पास होता क्‍या है उसके बारे में बताने के लि‍ए। वो रोज 8 से 10 घंटे कि‍सी नौकरीधंधे में बि‍ताता है। उसकी इच्‍छाएं बचपन की तरह ही साथ्‍ा छोड़ चुकी होती हैं।
    आगे की बात उनके ब्लॉग पर ही देखिये। उनका खुद का फोटो भी है भाई!


  2. अभिषेकगर्ग अपनी पोस्ट में लिखते हैं-
    में तो बस इतनी रेकुएस्ट कर रहा हूँ की कृपया अपने माँ- बाप को भरपूर सम्मान दे क्योंकि उन्ही के आशिर्बाद और मेहनत से आप इस मुकाम पर पहुंचे हैं.

  3. रवीन्द्र गोयल परी कथा में बताते हैं:
    विनम्रता और मधु स्वभाव से
    जिसने दिलों को जीता है
    प्यार से सभी घर वाले
    कहते उसे स्मिता हैं।

  4. तंत्र मंत्र के ब्लॉग वैसे तो हम नहीं बांचते लेकिन जब इस वाले तंत्र-मंत्र वाले ब्लॉग में ये देखा तो लगा ये बहुतों के काम आ सकता है:
    आज एक म‎हिला से मैरे मोबाइल पर बात हुई वह बहुत दुखी थी, कारण आज कल उसके प‎तिदेव उन पर एंव बच्चों पर कम ध्यान देते है और नेट पर ज्यादा से ज्यादा समय दे रहे है ।

  5. मार्च से लिखना शुरू करने वाले अरविन्द माधुरी गुप्ता से बहुत खफ़ा हैं और कहते हैं:
    दरअसल यह देश से तो गद्दारी है ही, उससे भी ज्यादा खुद से गद्दारी है। देश तो आपको देर-सवेर भूल जायेगा, या माफ़ कर देगा लेकिन खुद से कहा तक भाग पाएंगी?

  6. अपनी दसवीं पोस्ट में प्रियंका अपने मन के भाव व्यक्त करती हैं:
    में आज गलत सही के फेर में नहीं पड़ना छह रही.... सिर्फ अच्छा बुरा मुझे खटक रहा है। खटकने के लिए कारन तो नहीं है॥ क्यूंकि में भी बंकि लोगो की तरह ही हु... मुझे भी बाकियों की तरह इस पर चर्चा कर इससे छोड़ देना चाहिए .... पर में ऐसा नहीं कर प् रही॥

  7. कैलाश वर्मा की तीन सालों में चौथी पोस्ट है यह
    :
    वो खिल खिला रहा हैं
    बातें किसी तो वो कर रहा हैं
    वो देखो उस छाव में
    किसी से वो कुछ जिकर कर रहा हैं

  8. दिल्ली में रहने वाले केदारनाथ’कादर’ की पोस्ट में देखिये दर्द के कित्ते नमूने हैं:
    दर्द क्या सिर्फ सहने के लिए होता है
    या दर्द होता है इसलिए हम सहते हैं
    दर्द को कोई दर्दवान ही समझता है
    दर्द अपनी अपनी सोच पर निर्भर है


  9. शेरो-शायरी में देखिये जलवे शेर और शायरी के बजरिये देव!
    तेरा ही ज़ोर रहे मेरे दस्तो बाज़ू में,
    तेरी ही क़ुव्वते परवाज़ बालों पर में रहे।
    मुझे दिखा दे तू शाहराए इश्क़ ऐ दोस्त,
    कि सुबहो शाम मेरा हर कदम सफ़र में रहे।

  10. जान्ह्ववी भट्टाचार्य बताती हैं जिन्दगी की गणित के बारे में
    कुछ गुज़रे हुए "पल" ऐसे होते हैं
    जो जीए जाते हैं हर "पल"
    जिनकी महक "याद" बनकर
    ता-उम्र महकाती है
    हर "सांस" में
    जीया हुआ हर "पल"
    फिर क्या ज़िन्दगी में
    "आज" और "कल"......


  11. आर.रेनुकुमार अपने को समय के हाथ में अदना सा खिलौना बताते हैं। गीत अभी जिन्दा हैं उनके ब्लॉग का नाम है। रवीन्द्र नाथ जी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुये वे पेश करते हैं:
    कंटकों के पथ मिले , चलता रहा
    भीड़ का एकांत भी छलता रहा
    मैं दिया-सा रात भर जलता रहा
    टिमटिमाता था अंधेरे में अटल विश्वास
    एक पल तो बैठने दो आज अपने पास।

  12. हिमांशु पन्त की सुनिये:
    लो जी चिट्ठाजगत का एक और चिट्ठा.. भीड़ मे एक और अटपटा सा नाम घूमता चश्मा. हाँ जी बिलकुल अपने चश्मे के भीतर से जो दुनिया देखता चलूँगा या देखा है हाल फिलहाल तक उसका कच्चा चिट्ठा और मन के उदगार निकालने की एक नयी कोशिश करने को इस चिट्ठे को अवतरित कर दिया है. सच बोलूँ तो नक़ल ही की है बाकी चिट्ठों की. लेख लिखता रहता हूँ पर पुराने ब्लॉग मे कविता भी ग़जल भी और लेख भी सब कुछ लिख डाल रहा था तो खुद भी खिचड़ी लगने लग गयी थी. अपने 'अपूर्ण' दोस्त को देखा की एक नया ब्लॉग बना दिया कुछ इधर उधर की लिखने को तो बस मुझे भी हो गयी खुजली और बना डाला ये चिट्ठा
    .

  13. यसोदा कुमावत का कहना है शबनमी शायरी की पहली पोस्ट में:
    एक मुलाक़ात करो हमें दोस्त समझकर |
    हम निभाएंगे दोस्ती अपना समझकर ||

    मेरी दोस्ती पर एतबार मत करना |
    हम दोस्ती भी करते हे प्यार समझकर ||

  14. रतन चंद 'रत्नेश'जी का ब्लॉग अभी बन रहा है।

मेरी पसंद


गीत !
हम गाते नहीं
तो कौन गाता?

ये पटरियां
ये धुआँ
उस पर अंधरे रास्ते
तुम चले आओ यहाँ
हम हैं तुम्हारे वास्ते।

गीत !
हम आते नहीं तो
कौन आता?

छीनकर सब ले चले
हमको
हमारे शहर से
पर कहाँ सम्भव
कि बह ले
नीर
बचकर लहर से।

गीत!
हम लाते नहीं
तो कौन लाता?

प्यार ही छूटा नहीं
घर-बार भी
त्यौहार भी
और शायद छूट जाये
प्राण का आधार भी

गीत!
हम पाते नहीं
तो कौन पाता?

विनोद श्रीवास्तव

और अंत में


१.मसिजीवी ने अपनी चर्चा में रश्मि रविजा की एक पोस्ट शामिल की थी!

इस पर रश्मिजी की टिप्पणी थी:
हम्म...आपने ब्लोगवाणी खोला,चर्चा के लिए, तभी हमारे पोस्ट तक भी पहुँच गए...शुक्रिया.

वैसे चिट्ठाचर्चा की परंपरा देखी है कि कुछ चयनित ब्लोग्स की हर पोस्ट शामिल की जाती हैं...और बहुत ख़ुशी होती है जान कि हमारे ब्लॉगजगत में इतना अच्छा लिखने वाले हैं कि उनकी हर पोस्ट recommend की जाती है,पढने को (चर्चा का अर्थ ,मेरी समझ से recommend करना ही होता है,) यह जान भी सुकून मिला कि हमारे जैसे अति साधारण लिखने वाले भी दो-तीन महीने में दस-बीस पोस्ट के बाद कुछ ऐसा लिख जाते हैं कि उसे चर्चा लायक समझा जाता है.

वैसे मैं यह निवेदन करने आई थी कि मैं इस चर्चा के स्तर के अनुकूल नहीं लिखती ...अतः मेरी पोस्ट कृपया चर्चा में शामिल ना करें. पर एक तो आप अक्सर चर्चा नहीं करते और ब्लोगवाणी में पोस्ट देखी थी आपने, इसलिए कुछ कहना बेमानी है...फिर भी दूसरे चर्चाकारों से यही अनुरोध है कि मेरी पोस्ट में कुछ आपत्तिजनक लगे, या किसी बात का विरोध या आलोचना करनी हो तभी मेरी पोस्ट शामिल करें...अन्यथा नहीं. मेरे जैसे अति-साधारण लिखने वाले का भी साधारण सा पाठकवर्ग है. और मैं उसी से संतुष्ट हूँ.


जितना मुझे समझ में आया उससे ऐसा लगा कि रश्मिजी को इस बात की नाराजगी है कि कुछ लोगों की पोस्टों की चर्चा अक्सर होती है और उनकी पोस्टों की चर्चा दो-तीन माह में एकाध बार ही हो पाती है। इसीलिये उन्होंने यह अनुरोध/आग्रह किया कि उनकी चर्चा यहां न की जाये।

अब मैं और मेरे साथी क्या करते हैं यह तो आगे आने वाला समय बतायेगा। लेकिन चिट्ठाचर्चा में चिट्ठों की चर्चा के तरीके के बारे में मैं बहुत विस्तार से अपनी पोस्ट चिट्ठाचर्चा के बहाने कुछ और बातें में अपनी बात कह चुका हूं:
कई बार यह भी सोचते हैं कि इस पोस्ट की चर्चा करेंगे ! ऐसे करेंगे ,वैसे करेंगे। लेकिन पोस्ट बटन दबने के बाद दिखता है अल्लेव वो हमारी दिलरुबा पोस्ट तो नदारद है। उसकी चर्चाइच नहीं हो पायी। शकुन्तला की अंगूंठी की तरह उसे समय मछली निगल गयी। फ़िर सोचते हैं कि दुबारा करेंगे/तिबारा करेंगे तो उसे शामिल कर लेंगे लेकिन ऐसा अक्सर नहीं होता। सब मामला उधारी पर चला जाता है। लेकिन कभी-कभी सरकी पोस्टें मेले में बिछड़े जुड़वां भाइयों से दिख जाती हैं तो उनका जिक्र धक्काड़े से कर देते हैं।

यह तो हमारी बात है। हमारे अलावा हमारे साथियों की पसन्द/नापन्द है। किसी को एक तरह की पोस्ट पसंद हैं किसी को दूसरी तरह की। उसके हिसाब से चर्चा करते हैं साथी लोग। अब इसके बावजूद किसी के चिट्ठे की चर्चा चिट्ठाचर्चा में नहीं हो पाती और कोई कहता है कि चर्चा में पक्षपात होता है, मठाधीशी है तो यह कहने का उसका हक बनता है। उसका मौलिक अधिकार है– हरेक को अपनी समझ जाहिर करने का बुनियादी अधिकार है।

कभी-कभी यह भी होता है कि कोई पोस्ट चर्चा के तुरंत पहले पोस्ट होती है या फ़िर चर्चा के तुरंत बाद। वह शामिल नहीं हो पाती। अगले दिन तक वह इधर-उधर हो जाती है। वैसे भी हमारा यह कोई दावा भी नहीं है कि हम लोग सब चिट्ठों की चर्चा करेंगे। या सब बेहतरीन पोस्टों की चर्चा करेंगे। या ऐसा या वैसा। हम तो जैसा बनता है वैसा चर्चा करते रहने वाले घराने के चर्चाकार हैं। उत्कृष्टता या श्रेष्ठता का कोई दावा हम नहीं करते। हमे तो जो चिट्ठे दिख गये, जित्ते हमने पढ़ लिये उनकी चर्चा कर देते हैं। जितना खिड़की से दिखता है/बस उतना ही सावन मेरा है वाले सिद्धान्त के अनुसार जित्ते चिट्ठे बांच लिये उतने लिंक टांच दिये के नारे के हिसाब से चर्चा कर देते हैं। अब उसी में कोई चर्चा अच्छी या बहुत अच्छी निकल जाये तो उसका दोष हमें न दिया जाये।


रश्मिजी ने मेरी यह पोस्ट पढ़ी होती तो शायद उनको कुछ कम शिकायत होती और तब शायद चर्चा करने में होने वाली हम लोगों की समस्याओं को समझ सकतीं!

२. समय के साथ ब्लॉगजगत में लोगों की शिकायत बढ़ती जा रही है कि यहां अराजकता बढ़ती जा रही है। चिट्ठाचर्चा में भी कुछ मेहनती लोग अनामी/बेनामी/फ़र्जीनामी टिप्पणियां करते हैं। उनकी टिप्पणियां ऐसी होती हैं कि मिटानी पड़ती हैं। पिछले दिनों काफ़ी मिटाईं भी हम लोगों ने। लेकिन आज जब एक पुरानी टिप्पणी देखी :
हिंदी ब्लोगिंग के स्वयम्भू दरोगा बनने की अनधिकृत चेष्टा करते कुछ अनूपों और अतुलों के मुंह पर करारे तमाचे लगाते रहिये। लिखिये, और लिखिये। ब्लोगिंग किसी के बाप की बपौती या खाला का घर नही। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन् करने वाले इन तथाकथित बुजुर्ग ब्लोगरों को गुमान है कि वे जो करें या कहें ब्रह्मवाक्य है, खुद लिखते हैं “हम तो जबरिया लिखिबे, हमार कोई का करिहे”,और आपको रोकते हैं। और ई-स्वामी पहले खुद अश्लील भाषा लिखना बंद करें, फिर “लेंगे” वाली भाषा पर एतराज करें। “पर उपदेश कुशल बहुतेरे”।
इस टिप्पणी को आज फ़िर से देखकर लगा कि हमारा ही हाजमा कुछ खराब हो चला है। तीन साल पहले की तमाचा मारने जैसी बात कहने वालों की टिप्पणियां अपनी पोस्ट में धरते थे और अब मरियल-मरियल टिप्पणियां मिटा देते हैं। हाजमा खराब हो गया है सच्ची।

फ़िलहाल इतना ही। आपका समय शुभ हो। सुबह देखियेगा गुरुकुल घराने की चर्चा।

पोस्टिंग विवरण: शाम साढ़े सात बजे से शुरु करके अभी रात साढ़े ग्यारह बजे पोस्टित। इतनी देर में भी केवल पांच-सात पोस्टों का जिक्र कर पाये। न जाने कित्ती कालजयी पोस्टें रह गयीं होंगी। इस बीच दो बार चाय पिये, एक बार खाना खाये, बच्चे को पढ़ाये (कल उसका टेस्ट है भाई) दो बार पांच-पांच मिनट के लिये लाइट जाने पर जोर से झल्लाये। अब पोस्ट को भेज रहे हैं आपके पास! जाये!

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सोमवार, अप्रैल 26, 2010

अरुंधति.....क्रांति...... नक्सलवाद .....आदिवासी..ओर वेंटिलेटर पे देश .....

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आज़ादी के बाद अगर विस्थापित लोगो का रजिस्टर टटोला जाए तो हिसाब ४० करोड़ का दिखता है जिसमे ४० प्रतिशत हिस्सा आदिवासी आबादी का है ....ये भी सोचने की बात है के वर्ष २००९ -१० के लिए आदिवासी समाज के लिए कुल आवंटित बजट ३२०५ करोड़ होता है पर राज्य सरकारे उसमे से केवल ७०६ करोड़ रुपये व्यय करती है ...अजीब बात है कोई भी राज्य सरकार इसके लिए जवाबदेह नहीं है .पिछले कुछ दिनों से नेहरु -गांधी के साथ नाचने वाले आदिवासियों की तस्वीर बदल चुकी है अब लोग नक्सलवाद ओर मायोवाद को उनके संग जोड़ने लगे है .अरुंधती आयूटलुक मेग्जिन के अपने लेख से पहले ही कमोबेश कई बौद्धिक दिमागों को रिचार्ज कर चुकी है ....आम पाठक उनके लेख को किसी क्रांति की रोमांटिक तलाश में निकली एक लेखक का तमगा भी देता है ओर राइफल के साथ तिरपाल ओर बर्तन की चित्र उन्हें भले ही सरल सौन्दर्य प्रतीत होता है पर एक आम पाठक की तरह मुझे भी स्टेट मशीनरी ओर संविधान प्रक्रिया को नकारने वाले अपनी सत्ता स्थापित करने वाले एक समूह को अति ग्लोरी फाय करता प्रतीत होता है .पढ़कर आपको लगता है के लेखक बायस है.....इंटर व्यू की बुनियादी शर्त न्यूट्रल दृष्टि का उसमे अभाव है ...... सर्जिकल टूल इस्तेमाल करते मायोवादियो को न्यायोचित ठहराना गर खलता है तो सरकारी तंत्र ओर उससे जुड़े कई संगठनों की निर्मम सचाइयो ओर शोषण की परतो को उधेड़ती उनकी ईमानदारी से   इनकार नहीं होता  ...
कौन है ये आदिवासी ?उनके साथ बरसो काम करने वाले लोग कहते है ये ऐसे लोगो का समूह है जो परिवर्तन विरोधी है .....जल जमीन ओर जंगल से जुडाव रखने वाला समूह....जिसकी आस्था को समझने के लिए कही गहरा ओर अधिक संवेदनशील होना पड़ेगा ....क्यों ओर कैसे ये एक सभ्य समाज से अलग हुआ... .इसके पीछे की प्रक्रिया न केवल जटिल है बल्कि वर्षो के शोषण से उत्पन्न हुआ एक ऐसा वेक्यूम है जिस को केश कर रहे नक्सल वादी अब देश की भीतरी सुरक्षा के लिए एक खतरा बन कर सामने आये है ...महुआ ओर तेंदू पत्ता बेचकर अपनी जीविका करने वाला वर्ग .....पटवारियों.......वन विभाग....तहसीलदार .ओर एस एच ओ से होता हुआ भू माफिया ओर मल्टी नेशनल कम्पनी को भी सरकार समझता है ......आज़ादी के बात से राज्य सरकार को तमाम ज़मीन का मिला अधिकार अचानक से किसी आदिवासी को हर चीज़ से महरूम कर देता है पूर्व मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह भी कहते है इसे ला एंड ऑर्डर से अलग दूसरी समस्या की तरह देखे बगैर इसका हल नहीं हो सकता ...तभी तो जिले से  दो  बार  सी . पी आई  के संसद भी मानते है के केवल नक्सिलियो को समूचे क्षेत्र मात्र से निकालने से समस्या का हल नहीं होगा जब तक आप आदिवासी से सीधे वार्तालाप नहीं करेगे हिंसा जारी रहेगी...
उस क्षेत्र में काम करने वाले पत्रकार जोशी अपने अनुभव से बताते है के १९५० में बस्तर में नेहरु जी ने लोहा निकलने के लिए एक बड़े ओधोगिक क्षेत्र की स्थापना की .पर उसकी वजह से एक बड़े जमीनी क्षेत्र बल्कि वहां की नदियों का भी दोहन हुआ जिससे न केवल आदिवासी समाज का सामान्य जन जीवन प्रभावित हुआ .अपितु उनके पुर्नवास ओर विस्थापन की समस्या ने विकराल रूप लिया.....समस्या वहां से शुरू हुई थी......
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सरकार के कर्मचारी तथा वकीलों का एक समूह इनकी अज्ञानता का गलत तरीके से भारी लाभ उठा रहा है तथा उन्हें भड़काने के लिए कई अनैतिक क्रियाकलाओं में लीन है. वर्ष १९६३ के दशहरा पर्व के समय एक युवा वकील मामा वाजपेई ने प्रेस को एक बयान दिया था कि वह चाहता था कि देवी दन्तेश्वरी को रथ पर न बिठाया जाए दशाहर के समय आदिवासी इस रथ में देवी दन्तेश्वरी के छत्र को रथासीन करते हैं. मामा वाजपेई के अनुसार - जो स्वयं को एक ब्राह्मण मानता है- आदिम समुदाय द्वारा इस रथ का खींचा जाना दासता का प्रतीक है. ये लोग बस्तर में अन्य विघ्नप्रिय एवं खुराफ़ाती लोगों जैसे मुरलीधर दुबे, गुरुदयाल सिंह, गंगाधर दास (रथ), राज नायडू, कुंवर बालमुकुन्द सिंह, रमेश दुबे, नरसिंहराव, आदर्शीराव आदि परदे के पीछे से इन आदिवासियों को दबाने तथा प्रताड़ित करने के लिए प्रशासन नामक इस पागल हाथी को प्रभावित करते रहते हैं.

उपरोक्त उद्धरण एक किताब से है जो कई सीरिज में कबाडखाना पर है .....एक नजरिये को दिखाती हुई ....

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यह किताब बस्तर के अतिलोकप्रिय महाराज प्रवीर चन्द्र भंजदेव द्वारा १९६६ में लिखी गई थी. स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जब केन्द्र और राज्य सरकारों ने विकास के नाम पर बस्तर के प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन शुरू किया तो प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने अपने लोगों को राजनैतिक नेतृत्व मुहैया कराया. कांग्रेस को प्रवीर चन्द्र भंजदेव एक बड़ा खतरा लगे. पच्चीस मार्च १९६६ को जगदलपुर में उनके महल की सीढ़ियों पर तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने उनकी नृशंस हत्या कर दी. कुल तेरह गोलियां मारी गईं उन्हें. उनके साथ सरकारी आंकड़ों के हिसाब से दर्ज़न भर लोग और मारे गए.



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राजा नरेशचन्द्र ने इसी समय एक उद्घोषणा की थी. इस उद्घोषणा में बस्तर के आदिवासी समुदाय के प्रति भारत के प्रधानमन्त्री की सहानुभूति व्यक्त की गई थी और उन्हें आश्वस्त किया गया था कि उनकी संस्कृति और परम्पराओं पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जावेगा. किन्तु मैं समझता हूं कि यह मात्र उनका एक राजनैतिक हथकंडा है क्योंकि ठीक दशहरा पर्व के समय ही कलेक्टर राव ने इन पर भारतीय दण्ड विधान की धारा १४४ केवल उन्हें प्रताड़ित करने के लिए थोप दी जबकि मुझे नरसिंहगढ़ जेल से विमुक्त कर छुट्टी दे दी गई थी. यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय दण्डविधान की यह धारा जगदलपुर में लगातार ३३ दिनों तक प्रभावशील रही थी. दशहरा पर्व जब आरम्भ हुआ तो कलेक्टर राव ने मुझे एक पत्र भेजा था जिसमें उसने लिखा था कि यदि इसमें कोई गड़बड़ी हुई तो वह मेरी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी होगी. किन्तु उसके साथ ही दूसरी ओर मुझे गोपनीय तरीके से सलाह दी थी कि मैं दन्तेवाड़ा जाकर वहां आयोजित पूजा अर्चना में भाग लूं तथा विजयचन्द्र को जगदलपुर के रथ पर बैठने की स्वीकृति दे दूं. इसके लिए उसने मुझे पांच हज़ार रुपये देने की पेशकश की थी तथा यह भी कि यह तत्कालीन मुख्यमन्त्री डॉ. काटजू की इच्छा है कि यह सब किया जाए.

अपने ब्लॉग पर प्रत्यक्षा एक ओर तरीके से उन मूक आवाजो की गवाही देती है ......

सामाजिक मानवविज्ञानी वेरियर एल्विन, जो 1940 के दशक में गोंड बस्तर मरिया और मुंडा आदिवासियों के बीच में रहे थे और उनके जीवन और संस्कृतिक मूल्यों के बारे में इतना हृदय स्पर्शी विवरण लिखा था, उनकी अंतर्दृष्टि ने भी राष्ट्रीय चेतना पर कोई प्रभाव नहीं बनाया । एल्विन के श्रमसाध्य काम करने के बाद, कोई भी भारतीय शिक्षाविद ने इस विषय के विस्तार का काम नहीं चुना । यह काम महाश्वेता देवी और गनेश एन देवी जैसे साहित्यिक हस्तियों के लिए छोड़ दिया गया । चाईबासा रिसर्च सैंटर के विस्तृत अनुसंधान कार्य पर भी ध्यान नहीं दिया गया। राष्ट्र राज्य ने आदिवासियों के खिलाफ एक विरोधात्मक रुख अपना लिया जिसकी वजह से पूर्वोत्तर और छोटानगपुर के पठारी इलाकों के आदिवासी क्षेत्रों में सामूहिक असंतोष की लहर फैल गई । राज्य झारखंड और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की 1980 के दशक के आदिवासी संघर्षों को बेअसर करने में सफल हुई और उन्हें 'राष्ट्रीय' विकास के ढांचे में शामिल करने का प्रबंधन भी किया बावज़ूद इसके अभी भी एक वृहत संख्या उन गरीब शोषित प्राणियों की है जो हाशिये पर हैं और जिनके लिये इस दुर्दशा से निकलने का कोई अवलंब नहीं है ।

संवेदना के बगैर बस्तर की थाह दुष्कर- जयप्रकाश मानस

बस्तर की उदासी को मुस्कान में तब्दील करने के लिए यह लाजिमी है कि उसे मात्र दूर से पुचकारा नहीं जाये । उसके साथ रहा जाये, बहा जाये । दंतेवाड़ा की पहाड़ियों की ऊँचाई को नापा जाये । खाईयों की गहराई को खूली आँख से देखा जाये । आदिवासियों की झोपड़ी के कोन-अंतरे में मकड़ी के स्थायी जाले को हटाया जाये । कल-कल छल-छल बहती नदियों के पावन जल का आचमन किया जाये । ननिहालों के साथ स्कूलों में घंटों बैठा जाये । उनके सिलेटों पर उभर रहे चित्रों के रंगों के रहस्यों को परखा जाये। दो रोटी की जुगाड़ के लिए वर्षों से अरण्य में पदस्थ सरकारी महकमे की मजबुरियों के वितान को परखा जाये । किसी शहरी पर्यटक की तरह नहीं । बस्तर के छंद में डूबकर। उनके ताल-छंद-लय में खुद को मिलाकर । विश्वरंजन यह बखूबी कर रहे हैं । वे लोकधुन के साथ आदिवासियों के साथ थिरक रहे हैं । इस थिरकन में बस्तरिहा मन के खोये हुए आत्मविश्वास की वापसी है । माओवादी कब्जे में कसमसाती परंपराओं की पुनर्स्थापना है । बस्तर को आज सबसे बड़ी ज़रूरत उसके खोये हुए आत्मविश्वास को लौटाने की है । बस्तर से मिले बग़ैर बस्तर नहीं मिल सकता ।

image पर अरुंधती के लेख को अभय तिवारी अपनी द्रष्टि देते है .....लगातार श्रंखला बद ...उसमे  शब्दों के कई महत्वपूर्ण अर्थ है ओर विवेचना भी....मसलन

(1)अब यह पूछा जाना चाहिये कि माओवादी कौन है? आज की तारीख़ में दो तरह के माओवादी हैं: एक तो आदिवासी लड़ाके जो बन्दूक ले कर सुरक्षा बलों से लड़ रहे हैं और दूसरे वे माओवादी जिन्होने उन आदिवासियों के हाथ में बन्दूक दी है। यहाँ पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि आदिवासी एक लम्बी लड़ाई लड़ रहे हैं, पहले तीर-कमान से लड़ते थे, अब बन्दूक से लड़ रहे हैं; सम्भव है, ठीक है। लेकिन यह भी मानना होगा कि वो बन्दूक उन्होने अपने जंगल में नहीं उगाई। किसी ने बाहर से ला कर उनके हाथ में दी है। मैं उन लोगों की बात करना चाहता हूँ। ये कौन लोग है? ये मार्क्सवादी है, लेनिनवादी हैं, माओवादी हैं, नक्सलवादी हैं।
(2)
ईमानदारी अड़ियल है, बेलोच है, भ्रष्टाचार बड़ा लचीला है। ईमानदार आदमी सिर्फ़ अपने आदर्शों की सोचता है, भ्रष्ट आदमी समझौते का, बीच का रास्ता तलाशता है। पूँजीवाद भ्रष्ट है क्योंकि पूँजीवाद अपनी प्रकृति में ही समझौतापरस्त है।

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(3)माओवादी आन्दोलन के साथ समस्या ये नहीं है कि वे आदिवासियों के मुद्दे उठा रहे हैं, और पूँजीवाद की मुख़ालफ़त कर रहे हैं। सरकार को सबसे अख़रने वाली बात ये है कि वे राज्य को चुनौती दे रहे हैं। वे एक समान्तर सत्ता बन कर उभर रहे हैं। वे न सिर्फ़ आदिवासियों के राजनीतिक, और सामाजिक जीवन के सभी पहलू सम्हाल रहे हैं बल्कि लोकतांत्रिक/पूँजीवादी राज्य की ही तरह अपने अस्तित्व की राह में आने वाले किसी भी रोड़े को हटाने में उसी क्रूरता का प्रदर्शन कर रहे हैं जिसके लिए परम्परागत राज्य जाना जाता है। चूंकि दोनों एक ही जैसे हैं, एक ही चरित्र के हैं, और एक दूसरे की प्रतिबिम्ब हैं, इसीलिए दोनों एक दूसरे को मिटा देने के लिए इस तरह आमादा हैं
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(4)लेकिन मैं अरुंधति के बोलने से सहमत हूँ। उन्हे बोलना चाहिये और पूरे ज़ोर से बोलना चाहिये, और हम सब को चाहिये कि उनको सुनें। भले न सहमत हों। हमारा लोकतंत्र उनकी नकार की आवाज़ से मज़बूत होता है। और जो वो बोलती हैं वो एक कड़वी सच्चाई है। आदिवासी इस देश और समाज के मुख्यधारा से बाहर हाशिये पर पड़े लोग हैं जिनकी आवाज़ को मुख्यधारा में जगह नहीं है; अरुंधति उनकी आवाज़ हैं।

(5)
यह पूछने पर कि क्या वे अपना आन्दोलन अहिंसा के साथ नहीं चला सकते, कौमरेड गणपति पलट कर पूछते हैं कि ये आप को राज्य से पूछना चाहिये कि वो प्रतिरोध के शांतिपूर्ण तरीक़ो का हिंसक दमन क्यों करते हैं? शांतिपूर्ण जुलूसों पर लाठीचार्ज और फ़ायरिंग क्यों करते हैं? हड़ताल करने वालों को जेलों में ठूंस कर यंत्रणा क्यों देते हैं? वे पूछते हैं कि वे क्यों पुलिस वालों को क्यों अनुमति देते हैं कि वे औरतों से बलात्कार करें? सही सवाल हैं!

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मैं यहाँ जा कर उलझता हूँ कि अगर माओवादी सफल हो भी गए तो क्या नए समाज में हिंसा का कोई स्थान न होगा? हिंसा अपने आप में कोई चीज़ तो नहीं है ना.. वो तो अन्याय करने का एक हथियार है...

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अनिल सौमित्र गुस्से में है पर उनके तर्क  अपने आप बोलते है ......लाल मिर्ची नाम के अपने ब्लॉग पर वे एक लेखिका की क्रांति की रूमानी यात्रा की लगभग धज्जिया उड़ाते है ....

अरुंधती के पास कौन-सा स्वप्न है! क्या उनका स्वप्न आदिवासियों या आम लोगों का दुःस्वप्न है? विकास के नाम पर विनाश और हिंसा को जायज ठहराने वाले ये भी तो बतायें कि आखिर माओवादी किसका विकास कर रहे हैं? भले ही माओवादी-नक्सली विकास की आड़ लेकर विनाश का तांडव कर रहे हैं, लेकिन उनके समर्थक सरकारी कार्यवाई की निंदा यह कह कर कर रहे हैं कि माओवाद-नक्सलवाद पिछड़ेपन, विषमता और गरीबी के पैदा हुआ है। बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ से लेकर मध्यप्रदेश, महाराष्ट और आंध््राप्रदेश तक माओवादियों के मार्फत किसका विकास हुआ है, किसका विकास रुका है? ये विनाश का कॉरीडोर किसके लिए बन रहा है यह भी देखा और पूछा जाना चाहिए। दंतेवाड़ा में इंद्रावती नदी के पार माओवादियों के नियंत्रित इलाके में सन्नाटा पसरा है। जिन बच्चों को स्कूल में किताब-कॉपियों और कलम-पेंसिल के साथ होना चाहिए था, वे माओवादियों के शिविरों में गोली-बारुद और इंसास-एके 47-56 का प्रशिक्षण लेकर विनाशक दस्ते बन रहे हैंं। स्कूलों में भय के कारण पढ़ने और पढ़ाने वाले दोनों ही नदारद हैं।

(2)एक परिवार की देश-समाज की बेहतरी चाहता है दूसरा माओवादियों का जत्था है जो किसकी बेहतरी और सुरक्षा के लिए मार-काट मचा रहा है उसे खुद नहीं मालूम। बस हत्या अभियान में मारे गए शवों और लूटे गए हथियारों की गिनती ही उन्हें करनी है। माक्र्स, लेनिन और माओ को कौन जानता है उन सुदूर वनवासी क्षेत्रों में, जानते हैं तो बस उनके नाम से चलाए जाने वाले भय को। जो वनवासी योद्धा अंग्रेजों से दो-दो हाथ कर रहा था, उसकी तुलना इन माओवादियों से नहीं की जा सकती जिनका स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व में कोई विश्वास नहीं।

(3)रॉय यह भी तो बताएं कि वे भारतीय राजतंत्र का समर्थन करती हैं कि माओवादियों की तरह खुल्लम-खुल्ला तख्ता पलट का इरादा रखती हैं। अपने इस इरादे पर उन्हें राजतंत्र के इरादे की परवाह है भी या नहीं! पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी अब माओवादी क्यों हो गए? आखिर वहां से नक्सलवादी क्यों चले गए थे, क्या नक्सलवादियों का स्वप्न पश्चिम बंगाल में पूरा हो गया था। ये कैसा स्वप्न है जो बार-बार दःस्वप्न में बदल जाता है। बंगाल की माक्र्सवादी-कम्युनिस्ट सरकार तो नक्सलियों के स्वप्न साकार करने के लिए ही बनी थी। फिर 20-30 वर्षों के माक्र्सवादी राज में उनके स्वप्वास्वप्न क्यों हो गए? अभागे नक्सली, माओवादी बनने पर क्यों मजबूर हुए। बंगाल में असफल नक्सली छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार के सफल माओवादी कैसे हो सकते हैं?

(4)संसद द्वारा अपनाए गए संविधान से जन-जातीय समाज ही नहीं अन्य बहुत लोगों को दुःख हो सकता है तो क्या लाखों-करोड़ों लोग माओवादियों की तरह हथियार उठा लें और लाखों-करोड़ों अपना शत्रु बना लें? निश्चित तौर पद बड़े बांधों से विस्थापन होता है। सबसे अधिक प्रभावित वनवासी-आदिवासी ही होते हैं। लेकिन सिर्फ बांधों की उंचाई का विरोध निषेधात्मक काम है, अरुंधती या मेधा पाटकर विकल्प भी तो बतांए-कुछ करके भी दिखाएं

(5)इन सर्वहारा लड़कों के वे सभी वर्ग-मित्र हैं जो इन्हें अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए असलहा, पूंजी और साधन उपलब्ध कराते हैंं। बाकी सब वर्ग शत्रु। उनके नियम में लिखा है - शत्रु को नष्ट कर ही दिया जाना चाहिए, उसके हथियार छीन लेने चाहिए और उसे अशक्त कर दिया जाना चाहिए...’’ तो इस संघर्ष में सिर्फ वहीं बचेंगे जो वर्ग मित्र बन सकेंगे, बाकी सब मिटा दिए जायेंगे।


(6)अरुंधती को कॉमरेड कमला की बार-बार याद आती है। वे कई बार उसके बारे में सोचती हैं। वह सत्रह की है। कमर में देशी कट्टा बांधे रहती है। उस 17 वर्षीय कॉमरेड की मुस्कान पर वे फिदा हैं। होना भी चाहिए। लेकिन वह अगर पुलिस के हत्थे चढ़ गई तो वे उसे मार देंगे। हो सकता है कि वे पहले उसके साथ बलात्कार करें। अरुंधती को लगता है कि इस पर कोई सवाल नहीं पूछे जायेंगे। क्योंकि वह आंतरिक सुरक्षा को खतरा है। ऐसा तो सब प्रकार की असुरक्षा के प्रति कोई भी करेगा। क्या आंतरिक, क्या बाह्य असुरक्षा। केांई पुलिस की सिपाही सत्रह वर्षीय कमला होगी तो माओवादी क्या करेंगे? क्या वे उसे दुर्गारूपिणी मान उसकी पूजा करेंगे? बाद में वे ससम्मान उसे पुलिस मुख्यालय या उसके मां-बाप के पास पहुचा देंगे? अरुंधती उन माओवादी कॉमरेडों से पूछ लेती तो देश को पता चल जाता। अगर वो पुलिस की सिपाही कमला 17 वर्षीया आदिवासी भी होती तो हत्थे चढ़ने पर माओवादी निश्चित ही पहले बलात्कार करते और उसे उसके परिवार वालों के सामने जिंदा दफन कर देते

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गन' तंत्र के विरुद्ध गणतंत्र
जमीन और प्राकृतिक संसाधनों से आदिवासियों की बेदखली और उनके उत्पीड़न से उपजी रूमानी क्रांति कल्पनाएं जरूर देश के बुद्धिजीवियों को दिखती हैं पर नक्सलियों के आगमन के बाद आम आदमी की जिंदगी में जो तबाही और असुरक्षाबोध पैदा हुआ है उसका क्या जवाब है। राज्य की शक्ति को नियंत्रित करने के लिए तमाम फोरम हैं। राज्यों की पुलिस के तमाम बड़े अफसर सजा भोग रहे हैं, जेलों में हैं। किंतु आतिवादी ताकतों को आप किस तरह रोकेगें। राज्य का आतंक किसी भी आतिवादी आंदोलन के समर्थन करने की वजह नहीं बन सकता। बंदूक, राकेट लांचर और बमों से खून की होली खेलने वाली ऐसे जमातें जो हमारे सालों के संधर्ष से अर्जित लोकतंत्र को नष्ट करने का सपना देख रही हैं, जो वोट डालने वालों को रोकने और उनकी जान लेने की बात करती हैं उनके समर्थन में खड़े लोग यह तय करें कि क्या वे देश के प्रति वफादारी रखते हैं। विश्व की तेजी से बढ़ती अर्थव्यस्था और एक जीवंत लोकतंत्र के सामने जितनी बड़ी चुनौती ये नक्सली हैं उससे बड़ी चुनौती वे बुद्धिवादी हैं जिन्होंने बस्तर के जंगल तो नहीं देखे किंतु वहां के बारे में रूमानी कल्पनाएं कर कथित जनयुद्ध के किस्से लिखते हैं।
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चिंतलनार से महज़ चार किलोमीटर पहले कच्ची सड़क पर हमें उस बारूदी सुरंग निरोधक वाहन के अवशेष मिले जिसे छह अप्रैल को माओवादियों नें विस्फोट कर उड़ा दिया था. घटना के कई दिनों बाद भी इस वाहन के टुकड़े अभी तक इधर उधर बिखरे पड़े थे. विस्फोट के कारण हुए गड्ढे को देख कर और वाहन के बिखरे हुए कलपुर्जों को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि धमाका कितना ज़ोरदार था.
दंतेवाड़ा ज़िला मुख्यालय से लगभग 150 किलोमीटर दूर स्थित चिंतलनार के लोग बताते हैं कि पिछले सात दिनों से वह अपने अपने घरों में सिमटे हुए हैं. इस इलाक़े में हर मंगलवार को बाज़ार भी लगता है जो इस बार नहीं लगा.
तरकश पर दंतेवाड़ा की घटना के तुरंत बाद की रपट है जिसे पूरा आप यहाँ पढ़ सकते है ...


इस तरह की प्रतिक्रिया इस लेख पर देने वाले वे अकेले व्यक्ति नहीं है .....मै मेग्जिन के एडिटर विनोद मेहता की प्रशंसा करता हूँ के वे विरोध   के स्वरों को भी वाजिब जगह देते है ....सवाल  ये उठता है के मैगजीन के पाठको की प्रतिक्रिया यहाँ क्यों दी गयी है ....दरअसल ये विषय  ऐसा जटिल है जिसे एक चर्चा में पूरा करना संभव नहीं है .फिर विचार ....मुझे लगा वे महत्वपूर्ण है .चाहे किसी भी विधा में उन्हें व्यक्त किया गया हो.....


Mini Mathew, on e-mail
Arundhati gives voice to the voiceless, and questions the government. We Indians need to be self-critical. When we shape our country’s institutions, we must ensure they are genuinely inclusive. That said, I think Ms Roy provides no alternatives. We simply cannot have a civil war in India. The Maoists cannot continue with their guns and goonda raj. And it is equally improbable that the tribals continue with their age-old practices in the 21st century, living in the forest and competing with endangered fauna and flora—fragile natural resources. India’s population is exploding and the only way to provide decent health, education and living conditions for everyone is through common agreement and the rule of law. How can the tribals be protected in the middle of all this? How can we prevent outsiders (either Naxals/police/politicians) from taking advantage of their ignorance? That is what we have to think about.

M.J. Mansharamani, Nagpur
At the end of 2008, I was in Gadchiroli for some research. The stories I heard were quite different from those in Arundhati Roy’s essay. I heard about the murder of a local leader trying to organise his community. More than one person told me that a politician, afraid of the man’s rising popularity, paid the Naxalites to kill him. I heard that the Ballarpur Paper Mills pays the Naxals to cut the bamboo from the forest and that the Naxals, in exchange allow the mill owner to develop the road leading to those forests just enough to let him carry the bamboo out. I heard that there are two job opportunities for people in these villages—the State or the Naxalites. That people from the same families are either in the police force or with the Naxal force. All poor. All desperate. All with little other choice. Unless they can feed their families with one rice crop a year. I heard that Naxalites won’t allow development, yet traders from Bengal have been allowed to set up businesses—for a price. Unlike Arundhati, I couldn’t sleep under the stars in the Dandakaranya forest, enjoying the beauty I was surrounded with. I didn’t have a friend or a comrade with a gun to protect me. Could this be true of others like me? Unlike Arundhati, I would not dare to give a ‘name’ or ‘face’ to the people I spoke to and took photos of, can’t post their images or tell their story on my blog or to a magazine that would want to hear their story. I’m no fan of the machinery deployed by various official, corporate and media forces that work overtime to push the poor and dispossessed who are increasingly ‘falling into the hole’ as Arundhati so eloquently puts it. However, I have heard with my own ears in Gadchiroli the voices of ordinary villagers—the poor, dispossessed and unarmed say in no uncertain terms that the Naxalites are the one-stop shop for the violent settling of scores. Any score.


Sanjay Dhingra, Gurgaon
While Arundhati’s writing is persuasive, she doesn’t offer any viable alternatives. It’s true that tribal exploitation has been rampant in India and these regions are some of the most underdeveloped in the country. But by taking up arms against the state, they have ensured that doctors run away from clinics in these areas, government officials are scared to do their jobs and teachers are not prepared to go to schools. Is it Arundhati’s case that tribals do not need health and education and should be left to live happily off the forest? A majority of India’s population, however distressed we might feel by the efforts of our government, is part of the mainstream because we know it benefits us personally and as a society. Sadly, tribals know nothing better and their leaders have vested interests in ensuring developmental efforts do not reach these areas. Instead of romanticising the tribal dream, people like Arundhati should work with them to develop a way of life so that they can become a part of modern India, albeit by keeping close to their land and their way of life.
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.कहते है रांची राज्य में एक प्रोजेक्ट तीस सालो से रुका  पड़ा है ...ओर जल संसाधन के  न्योयोचित उपयोग के बाद उस राज्य में न केवल खुशहाली ओर आर्थिक सम्पान्नता के भी आसार है .पर आदिवासियों के विरोध की वजह से वो अधर में है .....सवाल विस्थापन ओर पुर्नवास की नीतियों का भी है ...जमीन का मोल आम सीमा से हटकर तय किये जाने की आवश्यकता है ओर शिक्षा ओर नौकरी के क्षेत्र में आरक्षण जैसी व्यवस्था की जरुरत....संदेह ओर चोट खाया समाज अपने घाव भूलने में भी बरसो लेगा ..
तो क्या वाकई इस समस्या का कोई निदान नहीं है ....प्लानिंग कमीशन ने बरसो पहले अपनी राय में लिखा था के आदिवासियों को राज्य सरकारे एक प्रोटेक टीव शील्ड इस तरह से प्रदान करे के उनके मौलिक अधिकारों का हनन न हो .साथ साथ कानून की धाराओ में इस तरह का प्रावधान हो जिससे आदवासियो की जमीन पे  ओर जंगल पर उनका मालिकाना हक बना रहे ....इसके अलावा क़ानूनी रूप से जमीन का एक रिकार्ड रहे ताकि कोई भू  माफिया  कब्ज़ा न कर सके .....उसमे शिक्षा ,स्वास्थ्य ओर बेसिक सिविल सर्विस की भी बात की गयी थी ....सबसे जरोरोई बात सलवा जुड़म को भंग करने की राय थी .राज्य सरकारों ने इन्हें क्यों ओर कैसे लागू नहीं किया इसकी जवाबदेही शायद किसी के पास नहीं है

उस इलाके से परिचित  बुद्धिजीवियों ओर सांसदों का कहना है ...  ..ऐसे नौकरशाहों का चुनाव जो प्रतिबद्ध ओर संवेदनशील हो .....ओर ऐसी व्यवस्था की किसी योजना की उम तक उनका ट्रांसफर न हो ....राजनैतिक दृढ  इच्छा शक्ति .....केन्द्र ओर राज्य का सही तालमेल ....आदिवासियों को मुख्या धारा में लाने के लिए उनकी भागीदारी ..जिसमे आर्थिक ओर उनके मूल अधिकार सुरक्षित रहे .....ध्यान रहे  ये केवल सरकार की जिम्मेदारी  नहीं है   इसमें  देश के  हर नागरिक की भागीदारी   है ....आखिर उन खनिजो ओर लौह तत्वों का लाभ भी तो देश का नागरिक परोक्ष रूप से उठा रहा है
  कुछ . चित्र आउटलुक ओर फ्रंट लाइन मैगजीन से लिए गए है .कुछ सन्दर्भ भी ..... फ्रंटलाइन के कुछ आर्टिकल पढने योग्य है .....आज का टाइम ऑफ़ इंडिया दो अलग  अलग खबरे दिखाता है ......एक में दंतेवाडा हमले में शहीद हुए जवानो के परिवारों में पोस्ट डेट नियुक्ति पत्रों की खबर है ताकि १८ साल का होने पर अगली पीड़ी की नौकरी सुरक्षित रहे ....दूसरे पन्ने पर  बुरे हालातो में जंगल में लगातार  पढ़े रहने पर  सी आर पी ऍफ़ के जवानो की मनोदशा पर  पढ़ते प्रभाव की खबर है ......जिससे उनमे मानसिक अवसाद  ओर   असंतोष फ़ैल रहा है ..

मुद्दा ऐसा है जिसे एक पोस्ट में समेटा  नहीं जा सकता....चिट्ठो से अलग नेट पर मिली जानकारी शायद इस समस्या को समझने में मदद करती है .इसलिए यहाँ दी गयी है ...उद्देश्य सिर्फ  तथ्यों को  सामने  रखना है .....जिससे  एक खुली बहस... खुले दिमाग से हो सके ....आखिर...गोली तो एक भरतीय को ही लगनी है चाहे चले कही से



पुनश्च..आदरणीय अफलातून जी कुछ लिंक दिए है जो क्रमश .....

एनजियोकरण और विदेशी हाथ / सुनील


हिंसक रणनीति की सीमा


दन्तेवाड़ा की जड़ें / सुनील


दन्तेवाड़ा की जड़ें / सुनील

 

 है .इनसे विषय को  समझने में ओर अधिक विस्तार मिलेगा


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रविवार, अप्रैल 25, 2010

ब्लॉग में समाचार या समाचार में ब्लॉग?

वैसे तो कई हैं, पर उदाहरणार्थ कुछ प्रस्तुत हैं -

 

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ऐसा नहीं लगता कि आपके शहर / मुहल्ले का भी ऐसा कोई समाचार स्थल होना चाहिए? आपके विचार में, ब्लॉग के चंद बेहतर प्रयोगों के बेहतरीन नमूनों में से एक, नहीं लगते हैं ये?

(साइट पर जाने के लिए चित्र पर क्लिक करें.)

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शनिवार, अप्रैल 24, 2010

मिले बस चैन दिन का और गहरी नीद रातों की

बहुत दिनों बाद आज चर्चा करने की सोची. एक बार के लिए मन में विचार आया कि बहुत दिन बीत गए हैं, चर्चा कैसे की जाती है पता नहीं वो याद है या नहीं? फिर कहीं से सूचना मिली कि आदमी अगर एकबार साइकिल चला ले या फिर एक बार चर्चा कर ले तो फिर उसे भूल नहीं सकता. इस सूचना पर विश्वास करके हम चर्चा करने बैठ गए.

सेंसिटिव और जिम्मेदार ब्लॉगर आजकल ब्लॉग जगत में होने वाली धार्मिक हलचलों से बहुत दुखी हैं. धार्मिक हलचलों का मतलब यह मत समझिएगा कि लोग क्रिकेट पर बात कर रहे हैं क्योंकि क्रिकेट को हमारे देश में धर्म की तरह लिया जाता है. इसका सीधा-सीधा मतलब है कि लोग धर्म-धर्म खेल रहे हैं. ठीक वैसे ही जैसे बड़े लोग आईपीएल-आईपीएल खेल रहे हैं. अब चूंकि ऐसे लेखों पर ढेर सारी टिप्पणियां आती हैं तो सब ऐसे लेखों के बारे में जानते ही हैं. अब ऐसे में इन लेखों की क्या चर्चा करें? लोग कहेंगे अरे वही सब तो बता रहे हो जो हम पहले से जानते हैं.

ऐसे में चलिए आज केवल ग़ज़ल और ग़ज़ल के एक ब्लॉग की चर्चा करते हैं. जी हाँ, चन्द्रभान भारद्वाज जी के ब्लॉग की बात.

भरद्वाज जी अपने प्रोफाइल में लिखते हैं;

"अभी तक मेरे चार ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। (१) पगडंडियाँ (२)शीशे की किरचें (३)चिनगारियाँ (४)हवा आवाज़ देती है. पाँच ग़ज़ल संग्रहों में गज़लें सम्मिलित हैं। "


उनकी आज की ग़ज़ल, जो उनके ब्लॉग पर प्रकाशित की गई है, उसके कुछ अशआर पढ़िए;

रहा खुद पर भरोसा या रहा है सिर्फ ईश्वर पर
सिवा इसके हमारे पास ताकत भी नहीं कोई

मिले बस चैन दिन का और गहरी नीद रातों की
हमें अतिरिक्त इसके और चाहत भी नहीं कोई


कहते हैं हिंदी में ग़ज़ल लिखना आसान नहीं लेकिन भारद्वाज जी के लिए यह बिलकुल आसान सा लगता है. ये शेर पढ़िए;

करे जो दूध का तो दूध पानी का करे पानी
बिके सब हंस अब उनमें दयानत भी नहीं कोई

उनकी एक और ग़ज़ल के अशार पढ़िए. वे लिखते हैं;

तमन्ना थी कि हम उनकी नज़र में खास बन जाते
कभी उनके लिए धरती कभी आकाश बन जाते

अगर वे प्यास होते तो ह्रदय की तृप्ति बनते हम
अगर वे तृप्ति होते तो अधर की प्यास बन जाते


भारद्वाज जी साल २००७ से ब्लागिंग कर रहे हैं. शुरू-शुरू में वे देवनागरी में नहीं लिखते थे. उनकी लिखी हुई ये पोस्ट पढ़िए;

Jindagi men bas vijaya ki lalsayen khojiye,
Har men bhi jeet ki sambhavnayen khojiye;
Bhavanaon ke diye men tel shuchita ka bharo,
Chetna ki lo lagan ki vartikayen khojiye

देवनागरी में लिखी हुई उनकी पहली पोस्ट ३ अक्टूबर २००८ की है. वे लिखते हैं;
सजा किसको है किया किसका है;
लकीरों में जो लिखा किसका है

जड़ें थीं मेरी तना था उसका ,
फलों पर फिर हक़ बता किसका है

जरा ये पढ़िए;

चेतनाएं दांव पर हैं;
भावनाएं दांव पर हैं

पंगु है साहित्य जग का,
सर्जनाएं दांव पर हैं

मौन मन्दिर और मस्जिद,
प्रार्थनाएं दांव पर हैं

और ये;

समय का सितारा जिधर बोलता है;
उसी ओर सारा शहर बोलता है

समझाने लगा जो समय की नजाकत,
शहर की हवा देख कर बोलता है

गवाही वहां कत्ल की कौन देगा,
जहाँ चाकुओं का असर बोलता है


और उनकी ये ग़ज़ल पढ़िए. ज़िन्दगी जीने का तरीका;

है ज़हर पर मानकर अमृत उसे पीना यहाँ;
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी की ही तरह जीना यहाँ।

उन हवाओं को वसीयत सौंप दी है वक्त ने,
जिनने खुलकर साँस लेने का भी हक छीना यहाँ।

आँख में रखना नमी कुछ और होठों पर हँसी,
क्या पता पत्थर बने कब फूल सा सीना यहाँ।

एक बार उनके ब्लॉग पर जाकर पढ़िए तो सही. एक से बढ़कर एक बढ़िया ग़ज़ल पढने को मिलेगी. कहाँ धर्म-धर्म खेल रहे हैं? और सेंसिटिव लोग इनलोगों को झेल रहे हैं. बहुत कुछ अच्छा पड़ा है ब्लॉग पर पढने के लिए. हाँ, टिप्पणी मिलेगी अगर इस आशा में पढने जायेंगे तो न जाना ही ठीक होगा. अगर बढ़िया कुछ पढने का मन है तो ज़रूर जाइए. हिंदी ब्लॉग जगत के चंद अच्छे ब्लॉग में भारद्वाज जी का ब्लॉग है.

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शुक्रवार, अप्रैल 23, 2010

अज्ञान के आनंद में डुबकी लगाती चर्चा अनइग्‍नोरेबुल की

 

अज्ञान में अपूर्व आनंद है। अरसे से ब्‍लॉगक्रीड़ा से परे हैं, सप्‍ताह दर सप्‍ताह अनूपजी हमें बताते रहे कि चर्चा करनी है हम इस मेल के साथ वैसा ही बरताव करते रहे जैसा मितव्‍ययता के सरकुलरों के साथ सरकारी दफ्तर में होता है। अपनी आखिरी पोस्‍ट हमने विनीत के जुकाम पर लिखी थी इस बीच विनीत का जुकाम न जाने कब का ठीक हो गया बल्कि अब तो वे दोबारा बीमार हो चुके हैं। लिवाइस के शोरूम रूपी अस्‍पताल में भरती होने को उद्धत हैं-

मैं उन लाखों लोगों को निराश नहीं कर सकता जो इसकी बाट जोहते-जोहत गंभीर से गंभीर और नाजुक से नाजुक बीमारियों को भी ढोते चले जाते हैं। मेरे लिए बीमारी का इलाज कराने के लिए हॉस्टपीटल जाने और लिवाइस की शोरुम जाने में रत्तीभर भी फर्क नहीं है।

तो इतना पानी नाला बनी यमुना से बह चुका हमें ब्‍लॉजगत में झांके हुए। आज चर्चा के लिए ब्‍लॉगवाणी खोला तो लगा सब 'नार्मल' है। कुछ लोग एग्रीगेटरों को गलिया रहे हैं, सांप्रदायिकता, बैन करो बैन करो, तूत मैंमैं बदस्‍तूर जारी है यानि सब ठीकठाक है अब ये भी न हो तो क्‍या ब्‍लॉग में सत्‍यनारायण की आरती होगी। :)  कीचड़पैजार उसी शाश्वत सौंदर्य के साथ जारी है अत: सब जाना पहचाना सा लगता है। ऊपर से आनंद ये कि इतने दिन बाहर रहने के चलते अज्ञान का सुख है... पता नहीं कौन गलत कौन ठीक है इसलिए पक्ष लेने की जहमत से बचे हुए हैं। चूंकि हम अनुपस्थित हैं इसलिए तय है कि हम न गाली देने वालों में न लेने वालों में... अज्ञान का सुख वाह वाह।

अकेली दिक्‍कत बस यही कि अब पढें तो क्‍या- समीर बाबू बता चुके हैं कि क्‍या नहीं पढ़ना है-

मुझे तो लगता है कि उनका लिखना जितना गलत है, हमारा उन्हें पढ़ना, उससे भड़क जाना और भड़क कर उन्हें प्रचारित करना और भी ज्यादा गलत है. अगर भूलवश आपने पढ़ भी लिया तो भड़क कर जब आप उनके बारे में एक आलेख लिख डालते हैं तो उन्हें इससे प्रचार ही मिलता है. जिसने नहीं पढ़ा, वो भी पढ़ने पहुँच जाता है. उनका उद्देश्य हल हो जाता है और मात खाते हैं आप. फिर क्यूँ नहीं नजर अंदाज करते उन्हें?? इसमें क्या परेशानी हैं

तो हम भी तय कर चुके हैं कि अमुक खान ने अमुक अहमद के खिलाफ तथा अमुक सिद्दिकी के पक्ष में जो अमुक चौधरी के थोड़ा पक्ष तथा थोड़ा विरोध में है लेकिन अमुक शर्मा तथा अमुक बिजलानी के पूरा पक्ष थोड़ा विरोध में है, को हम पूरा इग्‍नोर मारेंगे। कल की चर्चा में अनूप गिना गए हैं कि कैसे संकलकों पर आए आरोप पहले नही हैं आखिरी भी नहीं। नारद के मामले में हम  अनूपजी से असहमत थे आज भी हैं, अंतत: बैन की वीरता में ही नारद वीरगति को प्राप्‍त हुआ... उम्‍मीद है आज के संकलक वीरता के स्‍थान पर समझदारी को तरजीह देंगे।

तो चूंकि हमें केवल अनइग्‍नोरेबुल पोस्‍टों पर ही नजर डालनी है इसलिए प्रमोद की गरमी से तपी पोस्ट तापें-

मगर ई एतना गरमी में अमदी का करे? केतना तरबूज का फांकी खाये और फ्रिज का बोतल-बोतल पानी पिये? तरबूज का पइसा मगर आपका बापजी देंगे? नहीं ऊ काहे ला देंगे, देना होगा त आपको देंगे, हमको ई गरमी में मां-बहिन का गारी देंगे, तरबूज अऊर खरबूज का मीठा काहे ला देंगे? हमरा तS सच्‍च पूछिये इच्‍छा हो रहा है कि अपना गरम कपार हियें छोर के, आत्‍मा का नरम मुलायमी पे सवार पहाड़ोन्‍मुखी हो जायें, हुआं बरफ़ का सोहाना वादी में अपना जाकिट हवा में ओछाल, महेंदर कपूर का मानबता का सलामी गावे लगें, ‘हे नील गगन के तले, धरती का पियार पले, हे हे!..’

एक और ब्‍लॉगराना बात दिनेशजी (जी पर तवज्‍जोह दें.... एकदम खालिस गैर-संघी किस्म का 'जी' है) ने उठाई है आखिर वे अपने से छोटे को सम्‍मान क्‍योंकर न दें-

यदि मैं उन्हें खुशदीप जी कहता रहूँ तो क्या वे कम निकटता, कम स्नेह महसूस करेंगे? मुझे लगता है कि उन्हें इस से बहुत अंतर नहीं पड़ेगा। मेरी कोशिश यही रहेगी कि मैं सभी से ऐसा ही व्यवहार कर सकूँ। मैं तो कहता हूँ कि मेरे सभी पाठक यदि अपने से उम्र में छोटे-बड़े सभी लोगों से ऐसा व्यवहार कर के देखें।  वे अपने बच्चों और पत्नी या पति को जिस भी नाम से पुकारते हैं उस के अंत में जी लगा कर संबोधित कर के देखें, और लगातार कुछ दिन तक करें। फिर बताएँ कि वे कैसा महसूस करते हैं।

ये मामला प्रेम का है 'जी' में भी प्रेम है और 'अबे ओए कमीने' में भी है बात महसूस करने की है मंशा और मूड की है। पूजा इस प्रेम की एक और शेड अपनी फिल्‍म समीक्षा में पेश करती हैं-

सबसे आश्चर्यजनक है कि ये फिल्म बिना स्क्रिप्ट के बनी थी, पूरी फिल्म हर रोज नयी होती थी, और उस सारी क्लिप्पिंग में से ये फाइनल फिल्म बनायीं गयी है। निर्देशक के बारे में जीनियस के अलावा कोई शब्द नहीं आता। कुछ लोगों के धरती पर आने का एक मकसद होता है, कुछ कवि होते हैं, कुछ लेखक...पर कई फिल्मों को देखने के बाद लगता है कि कोई तो है जो वाकई सिर्फ फिल्म निर्देशन के उद्देश्य से धरती पर आया है। या फिर कोई बड़ा मकसद, जैसे प्यार के अनछुए रंग दिखाने की खातिर।

एक अनइग्‍नोरेबुल समस्‍या अनिल की भी है पूरा हिसाब लगाकर वे बता रहे हैं कि कैसे पच्‍चीस साल तक की घिसाई बावजूद उनकी शादी होने पर संकट बना हुआ है, 25 साल का हिसाब इस तरह है-

कच्छा बदलने के दिन = 5 साल
नर्सरी + के.जी.           = 2 साल
1 से 12 वीं तक           = 12 साल
स्नातक                      = 4 साल
स्नातकोत्तर                 = 2 साल
--------------------
कुल                           = 25 बरस

शादी हो ही जाने से कौन धरती पर स्‍वर्ग आ जाएगा काश अनिल अभी से  रश्मि रविजा को पढ़ लें और वक्‍त रहते चेत जाएं पतिपद प्रतिपद परवश है जान लीजिए-

पुरुषों के लिए, नौकरी मिलने से पति बनने तक के बीच के दिन बड़े  सुनहरे होते हैं और फिर कभी लौट कर नहीं आते. सैकड़ों फोटो देखी जाती हैं,दावतें उडाई जाती हैं और चुन कर सुन्दर,स्मार्ट, पढ़ी लिखी लड़की शादी कर घर लाई जाती है .और बस उसके बाद , आँखों पर पड़ा रंगीन पर्दा हट जाता है और खुरदरी  यथार्थ की जमीन  नज़र आने लगती है.

नलिनी ने अपनी पोस्‍ट में मीडिया को दर्पण दिखाने की प्रक्रिया जारी रखते हुए पत्रकार बिरादरी के पतन की मिसाल पेश की हैं (वैसे ज्‍यादती है, बेचारे अधिकतर पत्रकार बनना चाहते थे आईपीएस परचे पास न हुए तो लगे बाइट-ब्राइब लेने देने ऐसे में अफसर देखकर घिघियाने लगते हैं तो क्‍या गलत है)

मीडिया में ऐसे पत्रकारों की भी जमात है जो पुलिस अधिकारियों के पैर छूते है...जब तक प्रेस-कॉन्फ्रेंस के लिए पुलिस अधिकारी अपनी कुर्सी पर बैठ ना जाए तब तक बैठते तक नहीं है, स्टैंडिग पोजीशन में ऐसे खड़े रहते हैं जैसे कि पुलिस अधिकारी के मातहत हों। कई पत्रकार (इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबार) तो पुलिसवालों को ‘भैया’ या ‘दीदी’ शब्दों से भी नवाजने से नहीं चूकते। कुछ रिपोर्टर तो अपराधियों और पुलिसवालों के बीच मिडिएटर तक बनने से नहीं हिचकते।

 

चलते चलते पृथ्‍वी दिवस के अवसर पर अनिलजी की पोस्‍ट विचारणीय है-

 

अधिकांश लोग मुझे लगता है ऐसा ही कुछ करते है वरना धरती माता का इतना बुरा हाल नही होता।उसके वस्त्र जंगल रोज़ काट रहे है हम।उसे नंगा करने मे क्या कोई कसर छोड़ी है इंसानी लालच ने।पहाड़ो को फ़ोड़ कर खनिज़ लूट रहे है और नदियों की भी हत्या करने मे चूक नही रहे हैं हम।हमारे शहर की जलप्रदायनी खारुन नदी की दुर्दशा तो यही कह रही है।कहने को बहुत कुछ है मगर पूरी राजधानी को पानी पीलाने वाली खारून नदी का हाल आपको दिखा देता हूं।आज शायद फ़ीता काटते समय हाथ कांपे,फ़ोटू खिंचवाते समय चेहरे पर थोड़ी शर्म नज़र आये और फ़िल्मी डायलाग मारते समय ज़ुबान थोड़ा लड़खड़ाये

 

अभी के लिए इतना ही, शेष फिर कभी।

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गुरुवार, अप्रैल 22, 2010

...संकलकों के बहाने एक चर्चा

पिछले दिनों अदाजी ने एक के बाद एक ब्लागजगत के कुछ लोगों की नकारात्मक प्रवृत्तियों पर चोट करने की मंशा से ताबड़तोड़ लेख लिखे। शुरुआत इस पोस्ट से करके फ़िर या तो ब्लॉग वाणी इनपर कार्यवाही करे नहीं तो ब्लॉग वाणी का ही बहिष्कार होना चाहिए.... ब्लॉगवाणी से कल ब्लॉग वाणी से लगभग एक घंटे बात-चीत करने के बाद बाद मामला लगता है कुछ सुलट गया है।

एक भाई ने तो कहा है ब्‍लागवाणी चिटठाजगत से अनुरोघ नहीं अब उन्‍हें हुक्‍म देने का समय आ गया है इससे लगा कि अब बेचारे संकलकों की नौकरी गयी मंदी के जमाने में।

संकलक संचालक बेचारे की हालत जिमि दशनन्हि महुं जीभ बेचारी की होती है। वह अपनी रुचि और सेवाभाव के अनुसार ब्लॉग संकलक का काम करता है। नितान्त यांत्रिक तरीके से। पोस्टों को पाठक भाई लोग प्रचारित करते हैं। अच्छी पोस्टें प्रचारित होने पर उनको (ब्लॉग संकलक को) कोई क्रेडिट नहीं मिलता। नकारात्मक पोस्टों जब ऊपर आती हैं तब कहा जाता है कि ये तो बड़ा खराब काम कर रहा है संकलक। पोस्टें पाठक ऊपर नीचे लाता है , हड़काया बेचारा संकलक जाता है। खेत खायें गदहा, बांधे जायें कूकुर!

संकलक संचालन के लिये यह हमेशा दुविधा का काम होता है कि वे पोस्टों के आधार पर किसी का ब्लॉग बन्द कर दें। पता चला कुछ लोगों के कहने पर उसने कोई ब्लॉग बन्द किया तो दूसरे लोग कहने लगें ये तो अपनी मनमानी कर रहे हैं। मैंने ऐसा क्या गलत कहा/ ये तो उसका जबाब है/ संकलक तानाशाह है। संकलक संचालक हाय हाय।

इस मुद्दे पर मुझे स्मार्ट इंडियन और प्रवीण शाह की टिप्पणियां उचित लगी। उचित मतलब मेरी अपनी सोच के करीब! इसका मतलब यह नहीं कि बाकी लोगों की बातें अनुचित हैं।

एक अकेला संकलक संचालक कुछ नहीं कर सकता कि वे सबके ब्लॉग देखे और उसमें फ़िर अच्छे/खराब का निर्णय करके खराब को छांट दे। हरेक का नजरिया अलग-अलग होगा।

यह तो आम लोगों को देखना होगा कि कौन लोग ऐसे लोगों को महिमा मण्डित कर रहे हैं। बहिष्कार उनका करिये जो नकारात्मक प्रवृत्ति के लोगों को बढ़ावा दे रहे हैं। अपने आप ऐसे लोगों की ताकत कम होगी।

इसी संदर्भ में हिन्दी ब्लॉगिंग के सबसे ज्यादा समय तक चले विवादों में से एक के बारे में बताते चलें। ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत के पहले सबसे लोकप्रिय संकलक नारद होता था। ब्लॉग जगत पर एक-दो पोस्टों में एक ब्लॉगर ने संजय बेंगाणी के खिलाफ़ भद्दी टिप्पणी की। हम लोगों ने उस ब्लॉग को नारद से हटा दिया।

इसके बाद इत्ती-लानत मलानत हुई नारद की कि क्या कहने। तमाम लोगों ने नारद को तानाशाह कहा। अभिव्यक्ति का गला घोटने वाला कहा। यह भी कहा कि नारद की यह हरकत आपातकाल जैसी है। उस समय की सारी पोस्टें और कमेंट इकट्ठा करके फ़िर से देखने का मन है। अभी तो आप फ़िलहाल ये लेख देखिये। इससे आपको उस घटना का लब्बोलुआब मिल जायेगा- नारद पर ब्लाग का प्रतिबंध – अप्रिय हुआ लेकिन गलत नहीं हुआ

यह मेरी उस समय की सोच के अनुरूप है। आज भी मैं जब सोचता हूं कि अगर आज की स्थिति में होता तो क्या करता?

यह जानते और मानते हुये भी कि संकलक पर ब्लॉग बैन करने से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता। जब तक लोग ऐसे लोगों को पढ़ना नहीं बन्द करते तब तक इनकी चांदी ही रहेगी। उनका विरोध भी/ही उनको चमक प्रदान करता है। लेकिन अगर मुझे अकेले निर्णय लेना होता तो शायद मैं फ़िरदौस के खिलाफ़ सस्ती बातें लिखने वाले ब्लॉग को अपने संकलक से हटाकर तब अगला काम करता।

आखिर इतिहास अपने को दोहराता है भी तो कोई डायलाग है। उसको भी तो तवज्जो देनी होगी न!

यह निर्णय लेने में यह बात शायद कहीं नहीं आती कि फ़िरदौस अच्छा लिखती हैं या खराब।

लेकिन मुझे यह भी पता है कि इससे कुछ होना-हवाना नहीं है। जिसको इस तरह की बातें करनी है वो दूसरा ब्लॉग बनाकर करेगा। ब्लॉग संकलक के मत्थे एक और आफ़त आयेगी कि वो तानाशाह है। लोग शिकायत करके उसकी जिन्दगी हराम कर देंगे।

संकलक को हड़काने के साथ-साथ देखिये कि आपके आसपास आपके चहेते ब्लॉगर क्या-क्या कर रहे हैं? कैसी-कैसी अनामी/बेनामी टिप्पणियां अपने ब्लागों पर इकट्ठा रहे हैं। उनका तारतम्य देखिये। गुटबाजी/नीचता और तमाम नकारात्मक चीजें हैं ब्लॉग जगत में। लेकिन इनको जगह कौन दे रहा है। यह कौन देखेगा? क्या यह भी कोई संकलक देखेगा?

संकलक और चर्चाओं का महत्व तब है जब ब्लॉग हैं। ब्लॉग के कारण संकलक हैं और उन्हीं के चलते चर्चायें होती हैं चर्चाओं और संकलकों से ब्लॉग नहीं लिखे जाते। ब्लॉग पर जैसा लिखा जायेगा वैसा ही तो दिखेगा संकलक में और कुछ हद तक चर्चाओं में।

ब्लॉग जगत को आम पाठक गति और दिशा देते हैं। सबसे ज्यादा ताकतवर आम पाठक होता है यहां। अगर पाठक नहीं चाहेगा तो कोई भी नकारात्मक पृवत्ति वाला ब्लॉग बहुत दिन तक चल नहीं सकता।

अदाजी की बात के बहाने इत्ती बातें कहीं। लेकिन यहां उनको किसी तरह से जबाब देने की मंशा से यह सब नहीं लिखा। उन्होंने जो हिम्मत दिखायी और पहल की वह काबिले तारीफ़ है।

मैं उसकी पहल और हिम्मत की तारीफ़ करता हूं- हां नहीं तो।

एक लाईना

  1. पूरी मधुशाला पी लो तुम. : सुबह से कुछ लिये नहीं हो लाला तुम

  2. कल ब्लॉग वाणी से लगभग एक घंटे मेरी बात-चीत हुई है... :हां नहीं तो

  3. या तो ब्लॉग वाणी इनपर कार्यवाही करे नहीं तो ब्लॉग वाणी का ही बहिष्कार होना चाहिए.... : कुछ न कुछ होकर रहेगा अब तो

  4. द जजमेंट डे, ...... एक फ़ैसला , ....एक आग्रह , .संकंलकों से ..और चंद बातें .... : करने के बाद आईये... दो कदम चलिए नयी वाली चिट्ठाचर्चा के साथ

  5. जंहा दिल खुशी से मिला मेरा वंही सर भी मैने झुका दिया! :बेचारे वो का करेंगे जिनकी गरदन दर्द के मारे झुकती नहीं

  6. सरकारी नौकरी में सफलता के सात नियम. :किसी भी एक नियम का पालन करने पर सातो नियमों का पुण्य लाभ की शर्तिया गारन्टी

  7. मेरा जूता ! :बदलने के दिन आ ही गये अब समझो

  8. उन बीते हुए दिनों में :वो पास आकर सिगरेट छीनकर फैंक देती है ।

  9. इक चूहे नें बिल्ली पाली : उस पर एक कविता लिख डाली

  10. मजहबी विवाद, साम्प्रदायिकता और ब्लॉग जगत!! : से बच कर निकलिये न!!

  11. जरा धीरे चलो मेरे भाई :धरती मैया पेट से है


और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। आज चर्चा करने का दिन शिवकुमार मिश्रजी का है। वे शायद शाम तक चर्चा करेंगे। इसलिये मन किया तो यहां इत्ती बातें कर गया।

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मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

ब्लॉगजगत की कुछ पोस्टें इधर-उधर से

हिन्दी ब्लॉगिंग पर लिखे जितने भी लेख मैंने देखे उनकी जब मैं याद करना शुरू करता हूं तो मुझे सबसे पहले याद आता है अनूप सेठी जी के लेख का यह अंश:
यहां गद्य गतिमान है। गैर लेखकों का गद्य। यह हिन्दी के लिए कम गर्व की बात नहीं है। जहां साहित्य के पाठक काफूर की तरह हो गए हैं, लेखक ही लेखक को और संपादक ही संपादक की फिरकी लेने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर गद्य। देशज और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिन्दी का नया चैप्टर है।

पांच साल से ऊपर हो गये इस लेख को पढ़े हुये लेकिन यह गतिमान गद्य वाली बात अक्सर याद आती है। मस्तमौला, निर्बंध। इतने दिनों में अनूप सेठी की बात कभी गलत नहीं लगी। यह जरूर हुआ कि ब्लॉगर आये, लिखा और लिखना कम करते रहे। जितने लोगों ने लिखना कम किया उससे अधिक नये लोग आ गये मैदान में। लोगों का लिखना बन्द हुआ लेकिन गद्य गतिमान बना रहा। बात अनूप सेठीजी ने गद्य की कही थी लेकिन यह बात ब्लॉग जगत की समग्र अभिव्यक्ति पर लागू होती है।

यह बात कल अजित गुप्ता जी के लेख क्या ब्लॉग जगत चुक गया है के संदर्भ में याद आई। मेरी समझ में ब्लॉग जगत में लोगों ने एक से एक बेहतरीन लेख और अन्य चीजें लिखीं हैं। लेकिन हमारा बांचने का संकलक निर्भर अंदाज ऐसा होता जाता है कि कई बार हम लोगों के बेहतरीन लिखा पढ़ नहीं पाते। उन तक पहुंच नहीं पाते।

अभी ज्यादातर लोग फ़ीड रीडर या संकलक से देखकर पढ़ते हैं। मैं भी चर्चा के लिये संकलक से ही सामग्री का चयन करता हूं लेकिन पढ़ने के लिये अपने जो पसंदीदा लिखने वाले हैं उनका लिखा हुआ सारा कुछ पढ़ने का प्रयास करता हूं। आलम यह है कि पसंदीदा लिखने वाले बढ़ते जा रहे हैं और बांचने के लिये समय की कमी होती जा रही है।

इसी क्रम में मैंने इस इतवार को डॉ.मनोज मिश्र के ब्लॉग की शुरुआत से लेकर आजतक की सारी सामग्री पढ़ डाली। बीच में कहीं छोड़ने का मन नहीं हुआ। मनोज का ब्लॉग पढ़ना मेरे मन में तब से उधार था जब से मैंने उनके ब्लॉग पर जौनपुर के किस्से देखे थे। उनके ब्लॉग पर जौनपुर की यह फोटो मेरे मन में बसी हुई है।

सोचकर मुझे खुद ताज्जुब होता है कि ब्लॉगजगत में जहां पोस्टों की उम्र एक-दो दिन, हफ़्ते-दो हफ़्ते मानी जाती है वहां कोई पोस्ट ऐसी बस जाये मन में कि साल भर बाद उसके लेखक की सारी पोस्टें पढते हुये उसको खोजा और मिलने पर टिपियाया जाये:
ये वाला फोटो ही मेरे मन में बसा है। नदी बीच पुल और शीर्षक’ए पार जौनपुर ओ पार जौनपुर’!

मैं अगर आपके ब्लॉग का पता भूल जाऊं तो याद करने के लिये गूगल से यही लिंक खोजूंगा-
एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर ......


इसी तरह पिछले पांच सालों में ब्लॉग जगत के पढ़े न जाने कितने लेख/कवितायें अक्सर याद आते हैं। हर किसी में को याद करने का कोई न कोई सूत्र वाक्य है जिससे मैं उनको खोजकर दुबारा/तिबारा और फ़िर दुबारा/तिबारा पढ़ता हूं।

ऐसे ही कुछ लेख/कवितायें/चर्चायें और अन्य भी बहुत कुछ जो मुझे याद आते हैं वो उन सूत्र वाक्यों के साथ आपको बताता हूं देखियेगा?


  1. कुछ लोग मौसम की तरह चिपचिपे होते हैं: निधि

  2. ज़ेब में साप्ताहिक हिन्दुस्तान का एक बड़ा पन्ना मोड़कर रखता, जिसे बिछा कर कोनों को पैर के अंगूठे से दबाकर मुर्गा बन जाता, और झुका हुआ पढ़ता रहता ।: डा.अमर कुमार

  3. अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो... :समीरलाल

  4. गुरुजी का चेहरा तेज युक्त मानो अपने सबसे घटिया लेख़ पर सौ टिप्पणिया लेके बैठे हो...:कुश

  5. दीवाली के दिन मां मेरे लिए दीयाबरनी खरीदती। मिट्टी की बनी बहुत ही सुंदर लड़की जिसके सिर पर तीन दीए होते। रात में तेल भरकर उन दीयों को जलाते। मां उसे अपनी बहू की तरह ट्रीट करती,ऐसे में कोई उसे छू भी देता तो मार हो जाती। लड़कियों से प्यार करने की आदत वहीं से पड़ी। :विनीत कुमार

  6. शुक्ला जी हॉस्टल के तमाम नाकाम प्रेमियों के लिए उम्मीद की एक साडे पॉँच फूटी लौ बन के उभरे ओर एक घटना ने इस लौ को ओर जगमगा दिया ..... :डा.अनुराग आर्य

  7. हमारे वीर बालक ने अभी तक हमको बाई-बाई करना नहीं छोड़ा था सो हम भी फिर से बाई कर ही रहे थे कि अवतरण एक धड़ाम की आवाज के साथ हो गया. हमें पीछे से आदर्श तरीके से शास्त्र- सम्मत विधि से ठोंक दिया गया था. :इंद्र अवस्थी

  8. बचपन का अधकटा पेंसिल सबसे कीमती था । :प्रेम पीयूष

  9. कुछ गीत बन रहे हैं, मेरे मन की उलझनों में।
    कुछ साज़ बज रहे हैं, मेरे मन की सरगमों मे॥
    :सारिका सक्सेना

  10. सबसे बुरा दिन वह होगा
    जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
    सूरज भेज देगा
    ‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
    यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
    : प्रियंकर

  11. लड़कियाँ
    आँसूओं की तरह होती हैं
    बसी रहती हैं पलकों में
    जरा सा कुछ हुआ नही की छलक पड़ती हैं
    सड़कों पर दौड़ती जिन्दगी होती हैं
    वो शायद घर से बाहर नही निकले तो
    बेरंगी हो जाये हैं दुनियाँ
    या रंग ही गुम हो जाये
    लड़कियाँ,
    अपने आप में
    एक मुक्कमिल जहाँ होती हैं
    :मुकेश कुमार तिवारी


ओह बड़ा मुश्किल है सारी पसंदीदा पोस्टों को एक ही पोस्ट में बताना। न जाने कितने लेख/कवितायें और न जाने क्या-क्या हैं। सुबह से इनको ही पढ़ते दिन हो गया। चर्चा तो रह ही गयी। खैर वह फ़िर कभी सही।

मेरी पसंद


तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास
और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में
वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा
और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार किसी
देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था -
समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में

और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त
और बिना ईश्वर का.
येहूदा आमीखाई

और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। और बहुत सारी सामग्री है हिन्दी ब्लॉग जगत में जिसको मैं बार-बार पढ़ना चाहता हूं। उसके बारे में चर्चा करना चाहता हूं। यहां जो मैंने बताई वह तो हिमखंड की नोक भी नहीं है। बहुत कूड़ा है यहां लेकिन बहुत सारा कंचन भी तो है यहां जो बांचना है। अभी तो शुरुआत है जी।

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सोमवार, अप्रैल 19, 2010

...कभी वो मुस्कुराते हैं ,कभी वो रूठ जाते हैं

विकट गर्मी का मौसम चल रहा है। हर तरफ़ पारा उचकता जा रहा है। बकौल संजीत:
दिन में बाहर भटको तो हवाएं जैसे जला डालना चाह रही हो, धूप जैसे पिघला देना चाहता हो और सूरज तो मानों अपनी तपिश की प्रचंडता दिखाने पर उतर आया हो।
यह फोटो भी संजीत के ब्लॉग से ली गयी है।

लेकिन कुछ लोग हैं जो यह भीषण गर्मी भी एंज्वाय करते हैं। देखिये गिरीश बिल्लौरे कह रहे हैं उफ़्फ़ शरद कोकास भीषण गर्मी को भी एन्जोय करते है ? और दूसरी तरफ़ बवाल जी गर्मी के पीछे पर्यावरण असंतुलन का हाथ बता रहे हैं। बातचीत सुनिये और देखिये क्या कहते हैं संस्कारधानी के महारथी पर्यावरण और दूसरे मुद्दों पर।

सतीश पंचम ने परसों मुंबईया जीवन का शब्द कोलाज पेश किया। शीर्षक ही देखिये
सड़क....बैनर....देखो गधा मू........टन्न्....कच्चा आम...औरत का मन....शर्तिया....खट्टा......एक 'मन्नाद'....
वहां सवाल यही है कि
धार मारने वाले का फोर्स उतने उपर क्यों नहीं जाता..
अगली पोस्ट में मंत्री महोदय के इस्तीफ़े के बाद ड्राईवर से बातचीत देखिये। शीर्षक देखिये इस्तिफित मंत्री करूर और उनके ड्राईवर के बीच की एक्सक्लूसिव बातचीत - सर, चिंता नको... महान कवि और समाज सुधारक श्री गोविंदा जी का कहना था कि खाओ, खुजाओ और बत्ती बुझाओ। चिंता नको सर। इस्तीफ़े के बाद ड्राइवर और मंत्रीजी से हुई वार्ता के अश:-
अरे मैं उसके लिये नहीं रोकवा रहा हूँ, दरअसल सामने कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। जानना चाहता हूँ कि कहीं कुछ अवैध तो नहीं हो रहा।
- सर जाने दिजिए, अवैध-फवैध के चक्कर में पड़ेंगे तो बेबात के जूते पड़ेंगे और आजकल तो जूते भी क्लासिक वाले होते हैं, बेभाव के पड़ते हैं और स्वभाव से मिलते-जुलते हैं।
- अच्छा, यानि अगर मैं उनके खेल में कुछ पूछताछ करने जाउंगा तो वह लोग मुझे चलता-फिरता कर देंगे।
- सर, ये बच्चे आईपीएल वाले नहीं हैं जो कि आपसे सीधे सीधे भिड़ जांय, वह तो गल्ली क्रिकेटर हैं जो कि सीधे न भिड़कर इनडायरेक्टली भिड़ते हैं । कार के शीशे तोड़ने में और टायर से हवा निकलवाने में ये उस्ताद होते हैं।
- अच्छा, तो यहीं कैटल क्लास हैं शायद.....


और इस बातचीत का अंत होता है इस ट्विटरिया संवाद से-
Cattle Class is the ‘Class of the people’, who hate the ‘class’ people.
यहां ऊपर का फोटो सतीश पंचम जी के ब्लॉग से है। इसका परिचय देते हुये वे लिखते हैं-पिछले साल मैंने यह तस्वीरें खींची थी। मेरे ही गाँव के कुछ बच्चे हैं जो गन्ने के खेत में रखवाली करने के साथ उन गन्नों पर हाथ भी साफ कर रहे थे, वह तो ठहरे बच्चे...पर उनका क्या जो हमारे कर्णधार हैं!

दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ़ के जवान नक्सली हमले में मारे गये। सारे देश में इस हिंसा के खिलाफ़ आक्रोश है। कुछ लोग इस मसले पर अलग राय रखते हैं और नक्सली हमले और हत्याओं को बोया पेड़ बबूल का आम कहां से होय जैसी घटना बताते हैं। अभय तिवारी ने इस मौके पर पूंजीवाद-माओवाद पर अपने नोट्स लिखे और अपनी सोच बताई। तीन भागों में लिखे इन नोट्स के बहाने अपनी बात कही:
मैं यह ब्लौग इसलिए लिखता हूँ कि मैं इस लिखाई के ज़रिये अपने बारे में, लोगों और दुनिया के बारे में अपनी समझ को साफ़ कर सकूँ। किन्ही बनी-बनाई समझदारियों और सूत्रों का समर्थन और मंज़ूरी देने के लिए नहीं लिखता।

अपने आप से हुई इस बातचीत में जो उन्होंने लिखा उसके कुछ अंश देखिये:
  • योरोप और अमरीका में पूँजीवाद के विकास में जिस तरह से पृथ्वी के संसाधनो का दोहन हुआ है अगर उसी दर से संसाधनो का दोहन भारत और चीन और उसके बाद अफ़्रीका के देशों के भी विकास के लिए हो तो पृथ्वी की वर्तमान सूरत को बचाए रख पाना लगभग असम्भव माना जा रहा है।

  • यह बाज़ार सर्वव्यापी है। आदिवासी इलाक़ो को भी ये अपने घेरे में लेकर उनकी सम्पदा को रिसोर्स और उन आदिवासियों को उपभोक्ता बना देना चाहता है। यह एक दोहरे शोषण की नीति है। और आदिवासी अपने आदिकालिक जीवन की रक्षा करने के लिए पूरे जी-जान से लड़ रहे हैं।

  • ये लोग उग्र हैं क्योंकि इनका विश्वास समझौते में नहीं, संघर्ष में है। इसी बात को खींचकर ये भी कहा जा सकता है कि ये लोग रोमांच की तलाश में वो नौजवान हैं जो अपनी लड़ाई नहीं खोज सके, इसलिए दूसरों की लड़ाई में भाग लेने आ गए।

  • आज देश में इतना बड़ा सर्वहारा वर्ग पैदा हो चुका है, लेकिन उनको कोई ख़बर नहीं। डॉक्टर, पत्रकार, लेखक, अभिनेता, और गीतकार, संगीतकार, गायक सभी वेज लेबर में तब्दील हो चुके हैं। न तो उनके पास उत्पादन के औज़ार है और न ही उत्पाद के साथ कोई रिश्ता। वे वास्तविक और सच्चे तौर पर अपनी रचना और उत्पाद से विलगित हैं। लेकिन माओवादी ही नहीं, भारत की कोई कम्यूनिस्ट पार्टी उन्हे सर्वहारा नहीं मानती।

  • पूँजीवाद किसी से लड़ना नहीं चाहता। वो बाज़ार को, वस्तुओं को, सुविधाओं को दूर-दूर तक फैलाना चाहता है। और इस के लिए वह सबसे सरल रास्ता पकड़ता है। भ्रष्टाचार आसान राह है, ईमानदारी बड़ी कठिन है। ईमानदारी अड़ियल है, बेलोच है, भ्रष्टाचार बड़ा लचीला है।

  • माओवादी आन्दोलन के साथ समस्या ये नहीं है कि वे आदिवासियों के मुद्दे उठा रहे हैं, और पूँजीवाद की मुख़ालफ़त कर रहे हैं। सरकार को सबसे अख़रने वाली बात ये है कि वे राज्य को चुनौती दे रहे हैं। वे एक समान्तर सत्ता बन कर उभर रहे हैं।

  • इस दुनिया का जितना नुक़्सान सच्चे और आदर्शवादी लोगों ने किया है उतना किसी ने नहीं किया।

  • अरुंधति कितनी सुन्दर है और कितना अच्छा बोलती हैं! भाषा और भावों पर उनका कैसा एकाधिकार है! उनके चेहरे पर उच्च नैतिक बोध की एक आध्यात्मिक चमक है। अपने मधुर स्वर में वे जो बोलती हैं, लगता है कोई देवी बोल रही है। उन के जैसी कोई दूसरी स्त्री सामाजिक जीवन में नहीं है। मैं लगभग उनसे प्रेम करता हूँ और उनकी हर बात से सहमत होना चाहता हूँ। लेकिन मेरे भीतर प्रेम की, रूमान की नदी सूख चुकी है। काश मैं उन पर आँख मूँद कर भरोसा कर सकता; मेरा शुष्क विवेक, मेरे रुक्ष तर्क मुझे उस देवी से उलझा रहे हैं, मेरा ईश्वर मुझे क्षमा करे!

  • सर्वहारा वर्ग के पक्ष से विकास करने वाली व्यवस्थाओं का रेकार्ड बहुत रक्तरंजित रहा है। और मज़े की बात ये है कि सत्तर साल तक सोवियत संघ में समाजवाद रहने के बाद जब वहां लोकतंत्र आया तो ऐसा नहीं था कि वहाँ वर्ग विभेद बिला चुके थे? वे समाज में मौजूद बने रहे, भले ही सुप्तावस्था में? ये विचित्र बात कैसे सम्भव हुई? इसका क्या अर्थ है? तो इतना सब प्रपंच किसलिए, जब मनुष्य के मिज़ाज में जब कोई परिवर्तन आना ही नहीं है?

  • माइन का विरोध करने वालों ने पूरे जंगल को लैंडमाइनो से भर दिया है। ये जंगल की, पर्यावरण की रक्षा हो रही है या उसे युद्ध के उन्माद में एक दूसरे अफ़्ग़ानिस्तान में बदला जा रहा है?


  • इसी क्रम में पढिये चंदू भाई की बकलमखुद। कल उन्होंने लोहियाजी के बारे में अपने संस्मरण लिखे:
    लोहिया की सबसे बड़ी सीमा मुझे यह जान पड़ती है कि उनमें अपनी सीमाओं के बारे में जानने की इच्छा, या क्षमता, या शायद दोनों नगण्य थी। वे बराबर मानते रहे कि पिछड़ी जातियों के किसान और उनके बीच से आए नौजवान देश की तकदीर बदल देंगे। लेकिन उनके सामने राजनीतिक लोकाचार का कोई मानक, कोई कसौटी रखने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया। उनके लगभग सारे लेफ्टिनेंट घनघोर अवसरवादी निकले। सालोंसाल गैरकांग्रेसवाद के नारे लगाने के बाद चुपचाप कांग्रेस में चले जाने से उन्होंने कोई गुरेज नहीं किया। संयोगवश विपक्षी राजनीति में बने भी रहे तो सत्ता मिलते ही वंशवाद से लेकर भ्रष्टाचार तक किसी भी मामले में कांग्रेसियों से जरा भी पीछे साबित नहीं हुए।


    शून्य की महत्ता किसी से छिपी नहीं है। लेकिन एक अध्यापक उसे किस नजरिये से देखता है देखिये शेफ़ाली पाण्डेय के शून्य के साथ प्रयोग :
    शून्य की खोज करने के लिए हम भारतीय अपनी पीठ भले ही ठोक लें, लेकिन शून्य में से अंक निकालने की कला सरकारी स्कूल के मास्टरों ने ही ईजाद की है, जिसके लिए दुनिया को हमारा एहसानमंद होना चाहिए | शून्य से बिना कोई सबूत छोड़े हुए आसानी से हम रिज़ल्ट की आवश्यकतानुसार 6 , 8 , 9 बना ले जाते हैं शून्य का सदैव जोड़े के रूप में होना यही दर्शाता है कि अंकों को जोड़े के रूप में लिखने की इस प्रणाली प्रणाली का आविष्कार भी गणितज्ञों ने हम मास्टरों की सुविधा के लिए किया होगा ताकि हम बिना सबूत छोड़े शून्य से 88 से लेकर 99 तक बना लें जाएं |


    “ए बाबा, ( हमारे यहाँ ब्राह्मणों को बाबा कहते हैं) काहे भभकत हउआ फुटही ललटेन मतिन. इ कुल तोहरे साथ न जाई चलत की बेरिया” (फूटी हुई लालटेन की तरह भभक क्यों रहे हो? ये सब संसार छोड़ते समय तुम्हारे साथ नहीं जायेगा). भैय्या एक क्षण के लिये अवाक रह गये, फिर बड़बड़ाते हुये घर के भीतर चले गये…कौन बोल सकता है भला इसके आगे ???


    इसका पूरा किस्सा यहां बांचिये।
    मुकेश तिवारी लिखते हैं:
    मुझे,
    यह भ्रम अक्सर होता है कि
    कोई मेरे दरवाजे पर
    दे रहा है दस्तक
    या कभी रात यह भी महसूस होता है कि
    पुकारा है किसी ने मेरा नाम लेकर
    या
    कोई मेरा पीछा कर रहा है
    बड़ी देर से
    मुझे सुनायी देती हैं
    अन्जानी आहटें रह रहकर
    या
    किसी मोड़ पर
    ठिठक जाते हैं कदम मुड़ने से पहले
    लगता है कोई मेरी ताक में बैठा है छिपकर


  • एक मानचित्र में कितने रंग: देखिये अभिषेक ओझा के संग

  • ....गांव की कुछ यादें : समेटी हैं वंदना अवस्थीजी ने

  • वैल्यू ऑफ न्यूसेन्स वैल्यू: का मजा लीजिये स्कॉच के साथ


  • पृथ्वी पर जीवन कैसे आया - एक लेख और एक नज़्म बजरिये शरद कोकास


  • शैतान बेमौत ही मर गया....: जलवे हैं इन्सान की हैवानियत के।

  • जंगल के राजाओं की गुहार :ही सुनाई पड़ेगी अब वे गुर्राने लायक तो बचे नहीं।

  • काम पड़ेगा तो जाना ही पड़ेगा, गर्मी हो या सर्दी : काम में न कोई छूट न कोई नर्मी


  • अलविदा तो नहीं कह रहा लेकिन...खुशदीप
    : अब जिम्मेदार हो गये

  • मेरी पसन्द


    कभी वो मुस्कुराते हैं ,कभी वो रूठ जाते हैं
    बड़े ज़ालिम महबूब हैं तसव्वुर लूट जाते हैं


    नज़र जो मुन्तजिर होती हम भी लौट आते घर
    परिंदों के घरौंदों से , घर क्यूँ टूट जाते हैं.... ?


    लगाये जो शजर हमने बाग़ ही सूख जाते हैं
    जहाँ हमने मुहब्बत की शहर वो छूट जाते हैं


    जफ़ा देखी वफ़ा देखी जहाँ की हर अदा देखी
    छुपा चहरे नकाबों में , हया वो लूट जाते हैं


    वो कश्ती हूँ बिखरती जो रही बेबस हवाओं से
    बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं


    अक्सर मुस्कुरा कर जो सदायें मुझको देते हैं
    इशारों ही इशारों में , दिलों को लूट जाते हैं


    बड़े नाज़ुक से लम्हे थे जब वो सामने आये
    जुबां खामोश रहती है तअश्शुक़ फूट जाते हैं


    गुमां न कर इतना अपने इन नादान ख्यालों पे
    लहरें जो साथ न दें तो सागर भी टूट जाते हैं


    कभी मत्ले पे होती वाह कभी मक्ता लुभाता है
    अस'आर तेरे यूँ 'हीर' दिलों को लूट जाते हैं ।!!

    हरकीरत’हीर’

    और अंत में


    फ़िलहाल इतना ही। आपका सप्ताह मजेदार शुरू हो। चलते-चलते स्व.रमानाथ अवस्थी के गीत की पंक्तियां पढ़वा रहा हूं:
    आज इस वक्त आप हैं,हम हैं
    कल कहां होंगे कह नहीं सकते।
    जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
    देर तक साथ बह नहीं सकते।

    वक्त मुश्किल है कुछ सरल बनिये
    प्यास पथरा गई तरल बनिये।
    जिसको पीने से कृष्ण मिलता हो,
    आप मीरा का वह गरल बनिये।

    जिसको जो होना है वही होगा,
    जो भी होगा वही सही होगा।
    किसलिये होते हो उदास यहाँ,
    जो नहीं होना है नहीं होगा।।

    आपने चाहा हम चले आये,
    आप कह देंगे हम लौट जायेंगे।
    एक दिन होगा हम नहीं होंगे,
    आप चाहेंगे हम न आयेंगे॥


    इस गीत को सुनने का मन हो स्व.रमानाथ अवस्थीजी की आवाज में तो इधर सुनिये।

    पोस्टिंग विवरण: सुबह साढ़े छह बजे से शुरू होकर आठ बजकर पच्चीस मिनट पर पोस्टित। रमानाथ अवस्थीजी की कवितायें और गिरीश बिल्लौरे-बवाल संवाद सुनते हुये- दो कप चाय के साथ।

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