गुरुवार, जुलाई 31, 2008

सिर्फ़ टिप्पणियां बचेंगी क्या?

अभिषेक अभिषेक


अभिषेक नियमित रूप से गणित की बातें रुचिकर तरीके से बताते रहते हैं। सह्ज लेखन और सरल अंदाज उनके लेख को उन लोगों के लिये भी पठनीय बनाता है जिनके गणित के नाम से पसीने छूटते हैं। आज उन्होंने महिला गणितज्ञ सोफ़ी जर्मेन के बारे में जानकारी दी। अभिषेक के लेख से ही पता चला कि आर्किमीडीज अपनी स्वाभाविक मौत नहीं मरे थे। उनकी मौत का कारण उनके और एक सिपाही के बीच के गणित के प्रेम का अन्तर था।
आर्कीमिडिज (Archimedes) को एक सिपाही ने उस समय मार दिया जब वो ज्यामिति की कुछ संरचनाओं में लीन थे और उन्होंने सिपाही के सवालों का उत्तर देने की जरुरत नहीं समझी. शहर पर हमला हुआ था और वो गणित में लीन थे.


अरविन्द मिश्र अरविन्द मिश्र

अरविन्द मिश्र ने दो दिन पहले सौन्दर्य यात्रा करते हुये नारी नितम्बों पर चर्चा की। उस लेख के पक्ष और विपक्ष पर रोचक प्रतिक्रियायें आयीं। कुछ से तो अरविन्द जी किंकर्तव्यविमूढ भी हुये। लेकिन उनकी यात्रा जारी रही वे अपनी यात्रा का दूसरा भाग भी लेकर आ गये। जिसका ज्ञानजी इन्तजार कर रहे थे जैसा उन्होंने कहा-
मैं तो आपके ग्रिट (grit - धैर्य) का नमूना देखने आया था।
ब्लॉगिंग में आपको डीरेल करने वाले अनेक हैं!!! पर अपना बैलेंस तो खुद बनाना होता है।


अरविन्दजी ने परसों बताया कि कल नासा की जन्मदिन की अर्धशती थी। उसी दिन संयोग से समीरलालजी का जन्मदिन था। दोनों को बधाई।

अब बाकी समाचार फ़िर कभी। फ़िलहाल चंद एक लाइना:

यह भय कि कहने को कुछ भी न बचेगा?: सिवाय इन टिप्पणियों के।

सिर्फ लाल रंग के शब्‍दों को ही पढे : फिर पोस्ट काली काहे की?

ये सॉलिड तरीका हाथ लगा!!! : तो क्या इसे हाथ में ही लिये रहेंगे?

और उस दिन भारत एक महाशक्ति के रूप में उभरेगा: बस्स एक दिन के लिये ही।

ईदगाह के हामिद पर भारी हैरी पॉटर: हैरी पाटर को अपने वजन का ख्याल रखना चाहिये।

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शनिवार, जुलाई 26, 2008

अमेरिका झुमरी तलैया से कित्ती दूर है?

डील डील


कल मानसी ने नारी स्वतंत्रता पर अपने विचार रखे:

अपने घर में छोटी छोटी बातों को नारी शोषण और नारी के प्रति अन्याय का नाम दे कर नारी कई बार खुद अपनी खुशियों को दूर कर देती है। "मैं सब कर सकती हूँ, मुझमें पूरी काबिलियत है" का अहं कई बार उसे अपने ही सुख से वंचित रखता है।


स्वामीजी लगता है सबको ब्लागिंग सिखा के ही मानेंगे। आज उन्होंने पांच टूल बताये ब्लागरों के काम के।

एक ही लेख अलग पाठकों पर अलग असर डालता है। शायदा का लेख पढ़कर आभा जी का सर चकरा जाता है वहीं संजय पटेल : शिकायत करते हैं
शायदा आपा
आप बहुत ख़राब हैं...
इतना अच्छा लिखतीं हैं...
और वह भी इत्ते बड़े अंतराल के बाद ?शायदा आपा
आप बहुत ख़राब हैं...
इतना अच्छा लिखतीं हैं...
और वह भी इत्ते बड़े अंतराल के बाद ?

आपके लिखे को पढ़ें तो समझ में आता है कि इसकू कहते हैं जी ओरिजनल.हम तो बस कुछ कानसेन बनकर क़लमघिस्सी कर लेते हैं , हमारे (यानी मेरे) पास कुछ नया कहाँ


बालकिशन के यहां लगता है दिहाड़ी पर नौकर है- रोज आती है।

ज्ञानजी पर लगता है प्रकाश कारत की आत्मा डोरे डाल रही है। वे कहते हैं-
सही है सतत मौज लेने के अपराध में फुरसतिया को फुरसतियत्व दल से निकाला जाये! :)

डा. अनुराग जब लिखते हैं दिल से लिखते हैं।
अब
चाय की आधी प्यालियों मे
डूबे हुए ना वो नुकते है
ना बँटी सिगरेटो के साथ
जलते हुए
वो बेलगाम तस्सवुर
ना वो
मासूम उलझने है
ना
कहकहों के वो काफिले
बस
कुछ संजीदा मस्ले है
कुछ गमे -रोजगार के किस्से
ओर
जमा -खर्च के कुछ सफ्हे .....



अब कुछ एक लाइना आलोक पुराणिक की अगड़म-बगड़म जिद पर

हम अमरीका में रहते हैं : भैया, कित्ती दूर है ई अमेरिका झुमरी तलैया से?

अगली पोस्ट का टॉपिक?: पोस्ट लिखिये टापिक तो ट्प्प से चू पड़ेगा।

नेता जब नाम सुनावै :इत्ती विकट बहस मच जावै।

अहम मात्र प्रवंचना है! : लेकिन कोई हर्जा नहीं करते रहने में।

सितार रेस्तरां ने बेचे चार सौ खाने: काश बीस और बेच लेता।

छत का वो कोना याद आता है : छत ने क्या गुनाह किया भाई! कोने को याद किया छत भुला गये।


देश अव्यवस्था के भयानक चक्रवात से गुजर रहा होगा: पुरानी खबर है भाई। ये तो ऐसे ही सदियों से गुजरता जा रहा है।

इब्ने सफ़ी बी.ए. के बहाने जासूसी दुनिया की याद: वो जब याद आये तो बहुत याद आये।

ब्लास्ट पर राजनीति, 'थू' हैं इन पर..: बहुत जोर से थूका लेकिन आग बुझी नहीं जी।

नोट निकले हैं तो दूर तलक जायेंगे…:
कहीं भी जायें लौट के फ़िर बैग में आयेंगे।


मेरी पसन्द


हम अमरीका में रहते हैं
तीस हज़ार की गाड़ी है
और पांच-दस पैसे सस्ती कहीं गैस मिल जाए
इस चक्कर में मारे-मारे फिरते रहते हैं

हम अमरीका में रहते हैं
सात लाख का घर है
लेकिन माली के लिए पैसे नहीं हैं
मरे हुए सूखे पत्ते लॉन में फ़ड़फ़ड़ाते रहते हैं

हम अमरीका में रहते हैं
हज़ारों-लाखों की आय है
लेकिन मुफ़्त में खाना मिले
तो एक घंटे तक प्रवचन सुनते रहते हैं

हम अमरीका में रहते हैं
तीन हज़ार स्क्वेयर फ़ीट का घर है
और कोई अगर आ जाए
तो वे कहाँ रहेंगे यहीं सोचते रहते हैं

हम अमरीका में रहते हैं
एक कार-फ़ैक्स एकाउंट को
दस-दस लोग शेयर करते हैं
एक कॉस्टको कार्ड के लिए
दूसरा साथी ढूंढते रहते हैं

हम अमरीका में रहते हैं
कब किस कॉलिंग कार्ड पर
दस डालर का रिबेट मिलेगा
दु्निया भर से पूछते रहते हैं

हम अमरीका में रहते हैं
घर में ढेर सारी आईस-क्रीम है
लेकिन बास्किन राबिन्स
एक फ़्री स्कूप दे दे तो
नुक्कड़ तक हम लाईन लगाए रहते हैं

हम अमरीका में रहते हैं
हम रुपयों के लिए यहाँ आए थे
और जैसे-जैसे वे हमें मिलते जाए
हम उनके लिए और उतावले बने रहते हैं

हम अमरीका में रहते हैं


सिएटल,
25 जुलाई 2008

राहुल उपाध्याय

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शुक्रवार, जुलाई 25, 2008

भूलेगा नहीं उतरते वक्त कुरते का कील पर अटक कर फट जाना

डील डील

खबर है कि:
१. उड़नतश्तरी ने अपनी एक पोस्ट पर टिप्पणियों का सैकड़ा पूरा किया।

२.आकाशवाणी मुम्बई केन्द्र ने अपनी स्थापना के ८१ वर्ष पूरे किये।

३.ज्ञानदत्त जी का गूगल रीडर भ्रष्ट हो गया है।

४. पल्लवी आंग्लभाषा की जय बोलती पायी गयीं।

५. कनाडा से मानसी ने राग मुल्तानी पेश किया। वे इस बात से खफ़ा भी हैं कि ब्लाग एग्रीगेटर उनके संगीत ब्लाग को दिखाने से परहेज कर रहे हैं।

६. संसद में एक करोड़ के नोट तो दिखे लेकिन करोड़ों की पुर्जिया गायब। अनिल रघुराज का खुलासा।

७.आलोक पुराणिक के हीरो को हैजा हो गया। अस्पताल में
नर्सों की स्माइल की रकम भी मय सर्विस टैक्स के बिल में ठुकी।

८. प्रभाकर पाण्डेय ने भैंसाडाबर के मुस्लिम लड़के की शायरी का खुलासा किया।

९. तीसरे मोर्चे की हवा निकली। पंचर का अंदेशा।

१०. विवाह, नौकरी और धंधे में कपट का खुलासा।

अब समाचार तनिक फ़ैला के मतलब विस्तार से।

अभिषेक ओझा ने बताया कि गणित का एक सवाल है जिसका हल १००० पन्नों में निकला। समय लगा केवल सात साल।

सारी दुनिया को पता है कि ज्ञानदत्त जी रेलवे में अधिकारी हैं। सैलून से ब्लाग लिखते हैं। लेकिन इत्ते से पता नहीं चलता था कि वाकई वे करते क्या हैं। आज उन्होंने अपने काम का विस्तार से हवाला दिया। उन्होंने बताया कि उन्होंने एक दिन में दफ़्तर में दस-पन्द्रह मक्खियां मारी और उपलब्धि के एहसास से लबालब भर गये। उनको इस काम के लिये रेलवे से तन्ख्वाह के अलावा एयरकंडीशनर, डीजल जनरेटर और एक आफ़िस की सुविधा मुहैया करायी गयी है। अपनी उपलब्धि के बारे में विवरण देते हुये ज्ञानजी ने बताया:
मैने अपनी पोजीशन के कागज का प्रयोग बतौर फ्लाई स्वेटर किया। एक दिन में दस-पंद्रह मक्खियां मारी होंगी। और हर मक्खी के मारने पर अपराध बोध नहीं होता था - एक सेंस ऑफ अचीवमेण्ट होता था कि एक न्यूसेंस खत्म कर डाला।


ज्ञानजी की प्रगति को देखते हुये आशा की जाती है कि अगर वे मन से लगे रहे तो दो दिन में तीसमार खां बन जायेंगे।

हर्षवर्धन त्रिपाठी के ब्लाग का जिक्र अमर उजाला में हुआ। खुशी है हमको भी।

इरफ़ान के आर्ट आफ़ रीडिंग ब्लाग के मुरीद बढ़ते जा रहे हैं। आज उन्होंने ज्ञानरंजन के कबाड़खाना के अंश सुनवाये हैं।सुनिये न! सराहिये भी।

अशोक पाण्डेय अपना मत बताते हुये कहते हैं कि किसान कर्ज माफी में ही दे दिया गया था बेईमान बनने का संदेश |

एक खास लेख

अभय तिवारी आजकल कम लिखते हैं लेकिन पढ़ते बराबर रहते हैं। अपने पिछले लेख में उन्होंने हिंदू और हिंसा पर विस्तार से विचार किया। उन्होंने इस धारणा कि हिंदू सहनशील और हिंसा विरत रहता है पर सवाल उठाया और कहा:

हमारे भारत देश में साधु और शस्त्र का बड़ा लम्बा नाता रहा है। वैदिक काल में ऋचाएं रचने वाले ऋषिगण सरस्वती के किनारे लेटकर गाय चराते हुए सिर्फ़ ऊषा और पूषा की ही वन्दना नहीं करते थे। बड़ी मात्रा में वैदिक सूक्त इन्द्र के हिंसा-स्तवन में रचे गए हैं। बाद के दौर में हमारे ब्राह्मण-पूर्वज हाथ में परशु लेकर बलिवेदी पर पशुओं का रक्तपात करते रहे हैं। परशु की चर्चा आते ही परशुराम को कौन भूल सकता है जो इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय-शून्य कर गए थे।


लेख आप खुद बांचिये और अपनी प्रतिक्रिया दीजिये। अभय का सवाल भी मौजूं है:

अभी तो बस इतना ही कि गाँधी की अहिंसा किसी भी कोण से 'हिन्दू' नहीं है वो जैन है.. 'हिन्दू' साधु का अहिंसा से दूर-दूर तक रिश्ता नहीं रहा, कभी नहीं। क्या आप किसी ऐसे 'हिन्दू' देवता को पहचानते हैं जो अस्त्र/शस्त्र धारण नहीं करते? सरस्वती जैसी एकाध देवी आप को मिल भी जायँ तो भी वे अपवाद ही रहेंगी।


एक खास कविता
तोषी (विद्या सौम्या) शायद पाकिस्तान गयीं थीं। उनके ब्लाग पर पाकिस्तान से जुड़ी कई यादे हैं। सब रोमन में लिखीं। उनके ब्लाग की ही एक कविता का देवनागरी में प्रस्तुतिकरण बेटियों के ब्लाग पर हुआ। देखिये।
रिक्शेवालों से गुफ़तगू
अपनापन सा लगना
इंडिया की बातें
उनकी आंखों का चमकना
उनकी आवाज़ की उठान
मंजिल पहुँचते-पहुँचते दोस्ती हो जाना
शुक्रिया मेहरबानी का छिडकाव
ये सब तो याद आएगा ही
भूलेगा नहीं उतरते वक्त कुरते का कील पर अटक कर फट जाना


फिलहाल इतना ही। आगे की खबरों के लिये देखते रहिये चिट्ठाचर्चा।

मेरी पसन्द



तुमको बस देखूं, तुम्हारी आँख में तारे पढूं
मुश्किलों के दिन, दियों की जोत के बारे पढूं

बन में परेशां परकटे, बादल उतर आएं जहाँ
बिजलियों के बीच बहकर, धीर के धारे पढूं

धूल उड़ बिछ जाएगी, थोड़ा सफ़र है गर्द का
ग़म समय में याद करके, याद के प्यारे पढूं

राहत मिले फ़ुर्सत करूं, फ़ुर्सत मिले राहत करूं
उलझ के ज्वर जाल टूटें, प्यार के पारे पढूं

क्या करूं क्या ना करूं, किस बात की तौबा करूं
सबसे बड़े गुलफ़ाम, तुमके नाम के नारे पढूं

इस बार से, उस पार से, हर जन्म से, अवतार से
मांग लूँ हर बार, सुख दुःख संग सब सारे पढूं

जोशिम

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गुरुवार, जुलाई 24, 2008

चिट्ठाजगत के इनाम और ब्लाग की पिरिक सफ़लता

डील डील



कल चिट्ठाजगत ने अपने इनाम घोषित किये। एक जनवरी से २६ जनवरी तक के लेखों में निम्न लेखों को पुरस्कार के लिये चुना गया। इनाम और उनके विवरण यहां पर हैं। सभी को बधाईयां।

प्रथम पुरस्कार:
दम बनी रहे , घर चूता है तो चूने दो

द्वितीय पुरस्कार - २
देशभक्तिके लिये मदरसों को कांग्रेस की रिश्वत
ज्ञानजी! दिमाग में भी एक जठराग्नि होती है

तृतीय पुरस्कार - ३
खुदमोलखरीदा जाने वाला एक शैतान ...
दानवीर कर्ण अफ्रीकामें जन्मे थे!

डर पर हावीलालच


पंचों द्वारा इन पाँच लेखों का विशेष उल्लेख भी किया गया है-


वो काले छः दिन

और वो डरी सहमी सी चुपचाप बैठी थी
टाटा की कार औरमेरे कार-टून

पुरस्कार, विवाद और राखी सावंत

यौन शिक्षा और भारत का भविष्य

ज्ञानजी ब्लागमय हो गये हैं। हर चीज को ब्लागिंग के तराजू से तौल के वजन निकालते हैं। कल संसद में सरकारकी जीत पिरिक जीत हुयी तो अपनी ब्लागिंग को भी पिरिक सफ़लता बताया। यह जांच का विषय है कि ब्लागिंग को कभी वे अपना पर्सोना बदलने वाला माध्यम बताते हैं और कभी आत्म रूपान्तरण का औजार और आज वो बेचारा पिरिक हो गया। कोई स्थायित्व नहीं है जी कहीं भी।

विजय शंकर चतुर्वेदी साफ़ दिल वाले हैं। जो हुआ उनके साथ वो ठ्सक के कहते हैं:-
काम ख़ुद उन बुरा किए साले
नाम मेरा बता दिए साले

धुन में रम्मी की बीडियाँ पी के
मेरा बिस्तर जला दिए साले

खेत की देखभाल तो छोडो
बाड़ रहे सो जला दिए साले


शकुन्तलायें आजकल अगूंठियां नहीं मोबाइल धारण करती हैं और वही खोता है। आलोक पुराणिक आज शकुन्तला कथा सुना रहे हैं।

सोमनाथजी को उनकी पाल्टी ने निकाल दिया। अनिल रघुराज ने इस पर संक्षिप्त चिंतन किया-अक्ल मगर लेफ्ट को नहीं आती |

कल पंगेबाज ने एक डाक्टर का प्रेम पत्र लिखा और उसका अनुवाद पेश किया शिवकुमार मिश्र ने। देखिये और मिलाइये कहीं आपकी बातें तो नहीं खोल दीं।

अरुन्धती राय का एक इंटरव्यू जो कि हंस के अप्रैल २००८ के अंक में छपा है पेश कर रहे हैं रियाजुलहक़।
एक सवाल कि आजका साहित्य सामाजिक सरोकार से कटता जा रहा के जबाब में वे कहती हैं:-

...अब स्थितियां बहुत ही जटिल हैं...अभी तक लेखकों और कलाकारों का काम था स्थितियों को सामने लाने का...अब चीजें साफ हो गयी हैं...जिसको जानना था उसने जान लिया है और अपना पक्ष भी चुन लिया है...अब मुझे यह नहीं लगता कि मैं लोगों से यह कह सकती हूं कि वे कैसे लडें...मैं छत्तीसगढ के आदिवासियों को नहीं बोल सकती कि आप उपवास पर बैठो...गांधीवादी बनो या माओवादी...यह निर्णय वे खुद लेंगे...मैं नहीं कह सकती...मैं नहीं बता सकती...यह मेरा काम नहीं है...मैं सिर्फ लिख सकती हूं....कोई सुने या न सुने...मैं वही कर सकती हूं...वही करूंगी....क्योंकि मैं कुछ और नहीं कर सकती.


डा.अमर कुमार दुखी हैं न जाने क्यों। वे कहते हैं:
तीन राजनयिकों की व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा, उनकी नाक की लड़ाई ने, कुछ दिनों के लिये पूरे देश को कई घड़ों में बाँट दिया था ।

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मंगलवार, जुलाई 22, 2008

जो कुछ भी हुआ हो गुरु सरकार बच गई

डील डील


गरिमा जी ने अपनी कहानी का अगला भाग आज पेश किया। सुनावत सुनावत उनका निन्नी आ गईल सो वे सूत गयीं। अगला भाग अब कल पेश होगा। गरिमाजी की पिछली पोस्ट आत्म हत्या क्यों जनाब? पठनीय व उद्धरणीय है। उनके लेख के कुछ निष्कर्ष हैं:

१. यकीन सिर्फ़ खुद पर करें। क्योंकि एक आप ही है जो खुद को सबसे ज्यादा समझते हैं, कोई और भी आपको समझ सकता है, इस तरह की खुशफ़हमी ना पालें।

२. अगर को आप पर भरोसा करता है तो उसके सोच का सम्मान करे।

३.ये हमेशा मान के चलना चाहिये की जिंदगी दो पाटो मे बँटी है, पास या फ़ेल होना लगा रहता है।

४. किसी के लिये खुद को इतना भी न बदल दे कि अपनी पहचान ही खो जाये, क्योंकि जब वो आपको किसी कारणवश छोडेगा तो फ़िर आपके पास अपने लिये कुछ नही रहेगा।

अभिनव अभिनव


अभिनव काफ़ी दिन बाद दिखे/लिखे। सरकार बची उनकी लेखनी चली। कहतेहैं:
जो कुछ भी हुआ हो गुरु सरकार बच गई,
लगता था डूब जायगी मंझधार, बच गई,

मुद्दे को डीप फ्राई कर न पाई भाजपा,
हो तेल बचा या न बचा धार बच गई,


लेकिन जिस मुद्दे पर कल सरकार बची उसके बारे में बहुतों को हवा न होगी। लेकिन अंकुर तो हैं न! वे बता रहे हैं- आइये जाने क्या है न्यूक्लियर डील

काफ़ी विद कुश के पिछ्ले भाग में लावण्याजी सेमुलाकात हुई थी। न देखें हों तो देख लें।

पल्लवी पल्लवी

पल्लवी आज अपनी असफ़लताओं का जिक्र कर रही हैं| अंत में वे लिखती हैं:
हांलाकि ये बहुत छोटी बातें हैं लेकिन फिर भी मैंने कभी किसी से ये बात शेयर नहीं की...आज इन बातों को यहाँ लिखकर बहुत हल्का महसूस कर रही हूँ...शायद इन छोटी बातों के बाद कभी बड़ी असफलताओं का भी साहस और सहजता से सामना कर पाऊँ!


गीतकलश से आज छलक रहा है:


शब्दकोश के जिन शब्दों ने अधर तुम्हारे चूम लिये थे
आज उन्ही शब्दों को मेरी कलम गीत कर के लाई है


दिनेशजी का यात्रा विवरण बांचिये मजा आयेगा यात्रा का।

दुनिया के सबसे मेहनती लोग देखिये राजभाटिया के सौजन्य से।
अभिषेक ओझा अभिषेक ओझा

अभिषेक ओझा का लेख पढ़ने और समझने के लिये आपको गणित जानने की बिल्कुल जरूरत नहीं होती। आप बस पढ़ना शुरु कीजिये। पढ़ते जायेंगे। प्रस्तुति बेहतरीन, लाजबाब। काबिले तारीफ़। :)

आज वे बताते हैं:-
फ़र्मैट ने एक बात कही की ऐसा नहीं हो सकता.
- तानियामा ने कहा की दो बिल्कुल ही अलग गणितीय चीजें जो देखने में तो बिल्कुल अलग हैं लेकिन ध्यान से देखो तो एक ही है.
- फ़्रे और जीन पिएरे ने कहा की भाई अगर तानियामा सही हैं तो फ़र्मैट भी सही है.


1. "सीज़ फायर" - कैसे चलायेंगे जी?!: पहले आग लगायें, फ़िर फ़ायर ब्रिगेड को बुलायें। चलवायें फ़िर नहायें।

2. कंट्रेक्ट के संबंध में 'कपट' क्या है ?: समझिये और फ़टाक से अमल करिये।

3.आवहू बिजली भगावहि भाई : तोहरे बिन कटिया कौन फ़ंसाई?

4.क्रिया की प्रतिक्रिया का नतीजा हैं दादा सोमनाथ : मतलब न्यूटनजी यहां भी जमें पड़े हैं।

5. विश्वास मत: फ़िल्म की कहानी का अंत बता दूँ?: चलने दो स्टोरी का पूरा मजा लेने दो।

6.चैनल अपनी गरिमा को खोते : हर कोई हल्का होना चाहता है जी।

7.आडवाणी ने बड़ा मौका खो दिया :लपक लो जी आप!

8.दुखी कैसे हों के कुछ सरल टिप्‍स.. : शुरुआत सुख से समर्थन वापस लेकर करें।

9. डांस की थकान: शूटिंग करके दूर करें।

10. लाफ्टर शो में क्यों नहीं जाते लालू?: पांच मिनट उनके लिये बहुत कम हैं!

11.तुम ऐसा लिखना जो सबकी समझ में आए : चाहे समझने में सर के बाल उड़ जायें।

12.सुंदरियाँ जल चढ़ा रही है और भोले साइकिल सीख रहे हैं… : सावन का महीना है यही होगा।

13. रेल के डिब्बे में स्नॉबरी: ब्लाग में भी पहुंच गयी।

14.जीत ऐसी जो सिर शर्म से झुका दे : सर झुका लेकिन पगड़ी तो बच गयी।

15. मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती: सबसे खतरनाक होता है अपने सांसद का हाथ से निकल जाना।


16.मैं भारत का भावी प्रधानमंत्री बोल रहा हूँ, मगर… : बोल ही नहीं पा रहा हूं।

17. ये चुनने का हक़ तुम्हें: चुनो या चूना लगवाओ।

मेरी पसंद


आज अपना हो न हो पर ,कल हमारा आएगा
रौशनी ही रौशनी होगी, ये तम छंट जाएगा

आज केवल आज अपने दर्द पी लें
हम घुटन में आज जैसे भी हो ,जी लें

कल स्वयं ही बेबसी की आंधियां रुकने लगेंगी
उलझने ख़ुद पास आकर पांव में झुकने लगेंगी

देखना अपना सितारा जब बुलंदी पायेगा
रौशनी के वास्ते हमको पुकारा जाएगा

आज अपना हो न हो पर कल हमारा आएगा .

जनकवि स्व .विपिन 'मणि '

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सोमवार, जुलाई 21, 2008

स्मार्ट नेता बन, ब्लॉगर्स का भेजा चूस!

वागीशा वागीशा
ब्लागजगत की कोई सच्ची-झूठी खबर सुनायें उसके पहले आपके लिये सूचना। सिद्धार्थ की बिटिया बागीशा का २० जुलाई को आठवां जन्मदिन पड़ता है। आप अपनी शुभकामनायें उसको ई-मेल करिये न। वह आपको शुक्रिया कहेगी। ई-मेल पता है:vagisha.tripathi@gmail.com


आज ब्लाग जगत में क्षमायाचना का बोलबाला रहा। क्षमादिवस टाइप का। आपको लग रहा है हम ठेलुहई कर रहे हैं? अरे न जी। आप खुद देख लीजिये:
१.ज्ञानजी के कथन, "लेकिन समस्या यह है कि अभी लोग कविता ज्यादा ठेल रहे हैं पर नीरज गोस्वामी जी ने घनघोर आपत्ति जताई तो उन्होंने तड़ से क्षमा मांग ली- क्षमा याचना करता हूं नीरज जी। यह वास्तव में हल्के-फुल्के में गलती हो गयी। कृपया मुझे अन्यथा न लें। मैने पंक्ति काट दी है। आप कृपया देख लें

२. दिल्ली में किताब की दुकान बुकवर्म बन्द हुयी तो उन्मुक्तजी की झुंझलाहट देखकर मसिजीवी ने उनसे पूरी दिल्ली की तरफ़ सेक्षमा मांग ली-आपको हुई इस वेदना के लिए मैं अपने शहर दिल्‍ली की ओर से आपसे क्षमा मांगता हूँ।

3. अजित वडनेरकर ने तो बाद का लफ़ड़ा ही नहीं रखा। अपने आज के सफ़र की शुरुआत ही क्षमा याचना से की।

मांगने को क्षमा मांग ली गयी। लेकिन किसी ने दी नहीं। ज्ञानजी से तो नीरज गोस्वामी ने अनुरोध किया- ऐसी बातें किया न करें। मसिजी्वी की क्षमा याचना दिल्ली तरफ़ से बिना लिफ़्ट मिले पड़ी है और अजित जी को तो दो लोगों ने रपटा लिया- आपको क्षमा मांगने की जरूरत क्या थी( हिम्मत कैसे हुयी :) )

ज्ञानजी का आज का सदविचार है -
बेवकूफी का सदुपयोग करना सीखें। बुद्धिमान लोग कभी कभी यह तुरुप का पत्ता खेलते हैं। कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब बुद्धिमत्ता इसमें होती है कि आप यूं दिखायें कि आप कुछ नहीं जानते। आप भोंदू न हों, पर आप में भोंदू का रोल प्ले करने की क्षमता होनी चाहिये।
--- बाल्तसर ग्रेसियों (१६०१-१६५८)
मैं सहज भोंदू की तरह सोच रहा हूं कि क्या सभी बुद्धिमान तुरुप का पत्ता खेल रहे हैं, क्षमा याचना कर रहे हैं। :)

लेकिन आप इन बुद्धिमानों के पचड़े में न पड़िये और पढ़िये डा.गरिमा तिवारी की भोजपुरी कहानी। इसपर प्रतिक्रिया देते हुये कंचन ने लिखा है-

ए बबुनी तू हेरा कहाँ जालू... औ ई भूत परेत के कहानी जऊन सुनावताड़ू, जानेलू ना कि हम घरा में अकेले रहेनी अ अगर राति में डेरऊनी ना त तू समझि लीहा...


कंचन के डर को दूर करते हुये कहानी लेखिका ने कहा-
हे दी दी, हम नु केनियो नईखी हेराईल दिने भर मिली जाईब, तु ही नईखु लौकत, सब ठीक-ठाक बा नु? अरू डेरा मत.. ई कहानी के बुत प्रेत खाली ओ गाँव मे रहल हा एजुगा ना आई, अईबो करी तो हमरा के बोल दिह, भुतवा के भगाई देम।

गरिमाजी जीवन ऊर्जा ब्लाग में मधुमेह से बचने के तरीके बताये।

आप महेन्द्र मिश्रा के ब्लाग पर ये चित्र देखिये। मजा न आये तो टाइम वापस। साथ में ये वीडियो भी देखिये जिसे कहते हैं कि हर भारतीय को देखना चाहिये।

अनिल की यह पोस्ट उनके दिल है हिंदुस्तानी जज्बे का पता देती है।

मंगलेश डबराल की कविता केशव अनुरागी उनकी आवाज में सुनिये। अच्छा लगेगा।

अब बांचिये कुछ एक लाइना:

१.घूस देने में उपजती संभावनाएं : लेने वालों के चेहरे खिले।

२. न्यूकिलाई सौदे का राष्ट्रीय हित: से कांटा भिड़ा है। मुकाबला जोरदारी का है।

३.ब्लॉग अल्मारी में पोस्ट की सजी पोशाकें : जिनको पहनने का मन नहीं करता।

४.जिन्हे कष्ट नहीं है : मंहगाई का।

५.रंग बिरंगे तन वालों का, सच ये है मन खाली है : अब जो है उसी से काम चलाओ।

६. मां और मीडिया:एक हकीकत

७.संसद - बढ़ती गर्मी महसूस हो रही है! : झमाझम नोट बरसने ही वाले हैं।

८. अंतस में खोजो: खोजते रह जाओगे।

९.घोड़े से बातचीत : करवा रहे हैं आलोक पुराणिक

१०.क्यों नहीं जाते डाक्टर गावों में: गांववाले सब गांव छोड़कर शहर आ रहे हैं न इसलिये।

११. "व्यथा-एक कहानी चोर की": सुना रहे हैं वे जिनका सामान चोरी गया।

१२. शब्दों के अक्सर अर्थ बदल जाते हैं : लेकिन कम से कम शब्द तो वही रहते हैं।

१३.निम्न मध्यवर्गीय चौमासे का एक अध्याय :अपनी सुहानी यादें छापकर हमें न जलाएँ!

१४.स्मार्ट नेता बन, ब्लॉगर्स का भेजा चूस!: लेकिन जा पहले बिक के आ, अच्छे दाम लगे हैं।



मेरी पसन्द


ये जहाँ मेरा नहीं है
कोई भी मुझसा नहीं है

उसकी बातें मेरी बातें
कुछ भी तो इक सा नहीं है

मेरे घर के आइने में
अक्स क्यों मेरा नहीं है

आंखों में तो कुछ नहीं फिर
पानी क्यों रुकता नहीं है

दिख रही है आँख में जो
बात वो कहता नहीं है

सीने में इक दिल है मेरा
तेरे पत्थर सा नहीं है

एक ढेला मिट्टी का भी
मेरा या तेरा नहीं है

मानसी

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शनिवार, जुलाई 19, 2008

भले ही फ्लाप आश्रम चलायें लेकिन इन ब्लोग को मत पढ़िये

आज सोचा फुरसतिया को थोड़ी फुरसत क्यों ना दे दी जाय, शनिवार की सुबह जब वो उठें तो थोड़ी चाय की चुश्कियों का आनंद बगैर चिट्ठा चर्चा की चिंता किये उठा सकें। तो अब थोड़ा चिट्ठा बांचे जाय, जो रहे जायें उनके लिये सभी को पता है कहाँ जाना है।

मुद्दतों पहले माधुरी ने किया था लेकिन वक्त बदला और अब हिन्दुस्तानी भी करने और कहने लगे १-२-३, अरे रे रे इससे पहले की आप पंगेबाज की तरह इधर उधर की कशमकश में फंस जायें, हम ये क्लियर कर ही देते हैं कि बात की जा रही है परमाणु करार की, थाली के बैंगनों ने यहाँ वहाँ उलट उलट के देश कहो या थाली का संतुल ही बिगाड़ के रखा है -
काश, हमारे नेताओं का सरोकार वाकई भारत के भविष्य से होता तो कोई समस्या ही नहीं होती।

मेला तो मेला ही है अब चाहे आने वाले दिनों में संसद में लगे या किसी चाय की दुकान पर, अंदर की सोच और दुख वही है -
खूब चढ़ावा उनके
गुरुओं के पास आ रहा है
अपने यहां नहीं आ रहा धेला
आखिर कब तक हम फ्लाप आश्रम चलायेंगे

अपने अपने दुख है, अब यही देख लीजिये हम अब तक समझे थे क्रिकेट का खेल अनोखा है लेकिन इन जनाब का कहना है राजनिति का खेल है बड़ा अनोखा, अब कहते हैं दर्पण झूट ना बोले इसलिये मान लेते हैं कि ऐसा ही होगा।

ब्लोगजगत में ढपली वाले ढपली बजा गाने की जरूरत ही नही है क्योंकि सभी यहाँ अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग बजा रहे हैं लेकिन ये एक ब्लोगर अनुराग मिश्र बकायदा ढपली का टैग अपने नाम कर ढपली बजा रहे हैं और देखिये क्या ढपली बजायी है -
पत्नी धर्म सीता ने अन्तिम सांस तक निभाया
परन्तु अकारण राम ने उसे वन में था पठाया
द्रोपदी के वीर पति थे उसके सिर का ताज
पर भरी सभा में उसकी लगी दांव पर लाज
कलियुग में लगाई जाती सरे-राह उसकी बोली
कोई खींचता है आँचल कोई तार करे चोली
जिस जननी ने जन्म दे इस दुनिया को बसाया
अनेकों बार कोख में गया उसको ही मिटाया
बेटी का जन्म आज भी नज़रों को है झुकाता
है बाँधती वो घर को पर पराई कहा जाता

वो जमाने गये जब किसी को मारने के लिये बंदूक, चाकू का इस्तेमाल होता था आजकल तो मारने के लिये बस मंहगाई काफी है अगर यकीन ना आये तो खुद देख लीजिये

हर जगह और क्षेत्र का मौसम अलग अलग होता है और उसी हिसाब से वहाँ के आसमान पर लगने वाले बादल। यहाँ कल रात जब बादल लगे तो बारिश हुई, झमाझम पानी बरसा यही बादल मध्यपूर्व में भी लगे हैं ऐसा ब्लोगजगत के एक विशेष संवाददाता का कहना है लेकिन इनका मानना है कि वहाँ पानी नही बल्कि कुछ और बरसेगा

फिल्म दीवार का वो डायलॉग तो आप भूले नही होगे जिसमें छोट अमिताभ के हाथ में कुछ लिख दिया गया था, कुछ इसी तरह की हकीकत आज भी असल जिंदगी में सांसे ले रही है और कुछ ऐसी वैसी इबारत इस छात्रा के चेहरे पर भी लिख दी गयी।

ओलंपिक शुरू ही होने वाले हैं और इन खेलों में हमेशा ही हमें सोने के तमगे हासिल करने में परेशानी आती है, चांदी पीतल भी सिर्फ बालीवुड के गीतों में सुनकर खुश हो लेते हैं, ऐसे में अगर इन शब्दों में कुछ सच्चाई है तो इन्हें कुछ ट्रैनिंग दी जाये तो क्या पता कुछ बात बन जाये, किन शब्दों में? इन शब्दों में -
इन का निशाना इतना सटीक होता होता है कि पानी के भीतर तैरती मछलियों को भी अपने तीर से भेद देते है

अखबार में पढ़ी खबर हमेशा सच नही होती अब चाहे वो बालीवुड से संबन्धित हो या ब्लोगवुड से, लेकिन ये बात इतनी जल्दी जो समझ आ जाये तो फिर बात ही क्या। कुछ ऐसे ही दुख से रूबरू हो सतीश का दर्द कुछ यूँ उमड़ आया है -
हर ब्लाग पर अपने अपने ग्रुप बने हुए हैं, जो हमले से बचने और दूसरे से मुकाबला करते हैं , और यह सभी स्वनामधन्य साहित्यकार और मशहूर पत्रकार हैं जिनसे सब कोई डरते हैं, यह वो हैं जो दावा करते हैं कि देश को कभी सोने नहीं देंगे .....हर एक ब्लाग बेहतर प्रदर्शन करने के लिए नए हथकंडे आजमा रहा है, और जो ब्लाग टॉप पर हैं वे एक दूसरे कि टांग खींचने पर लगे हैं

मत पढ़िये इन ब्लोगस को, ये पढ़-सुन कर आप दूसरों के ब्लोग भले ही पढ़ें या ना पढ़े हमारा ब्लोग जरूर पढ़ते रहियेगा क्योंकि हमारा ब्लोग ना अच्छों की श्रेणी में आता है ना ही अखबार में छपा है इसलिये जब आप बिना कोई उम्मीद लिये आयेंगे तो उनके टूटने का भी खतरा नही रहेगा। हमेशा की तरह मुफ्त की सलाह इन्हें भी कई साथियों ने चेप डाली हैं, इन सलाहों का असर तो आने वाले वक्त में ही दिखेगा इसलिये अभी टेंशन काहे को लें।

लेकिन अगली पोस्ट जब देखने गये तो हमें टेंशन हो ही गया, एक लाईन की अमित की इस पोस्ट ने वैसा ही टेंशन दिया है जैसा किसी जमाने में बिहारी के दोहे दिया करते थे - देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर। अगर १ साल पहले ये हमें बताया जाता तो शायद हम भी iPhone नही खरीदते, अब ये सलाह हमारे काम की नही लेकिन आप एक नजर मार सकते हैं।

बस जी अब ये टेंशन हमें कुछ और नही लिखने दे रहा कहीं ऐसा ना हो कि ज्यादा लिखने पर फुरसतिया को ये टेंशन ना होने लगे कि लंबी लंबी पोस्ट लिखने का टाईटिल उन से ना छिन जाय। और आप लोगों को ज्यादा टेंशन ना हो इसलिये हमने अपनी लिखी पोस्टों को भी चर्चा से दूर रखा है। इसके बावजूद भी अगर रत्ती भर टेंशन हो चला है तो खुद उड़ते रहने वाली उड़नतश्तरी को पतंग उड़ाते हुए देखिये, वो भी रंग बिरंगी नही बल्कि काली सफेद।

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शुक्रवार, जुलाई 18, 2008

पालिटिक्स अब हाथ की नहीं, जूता लात की है

कैटरपिलर
कैटरपिलर
हिंदी ब्लागर कम लिखते हैं| लेकिन जब लिखते हैं, पाठक की जानकारी में इजाफ़ा होता है। बालू में से तेल निकालने का मुहावरा तो सुना था लेकिन सच में तेल निकल सकता है बालू से ऐसा पता न था। अपनी पोस्ट में उन्होंने बालू में से तेल निकालने के बारे में बताया। हम तो कैटरपिलर के बारे में पढ़कर चकित च विस्मित रह गये। 6 लाख किलो की मशीन। मतलब हमारे जैसे पचास-साथ हजार के वजन के बराबर!


एक ही समय में एक ही देश समाज में लोग अलग-अलग कालखंड की मन:स्थितियों में जीते हैं। घुघूतीबासुती जी ने लड़कियों की पढ़ाई में उनके मां-बाप की हिस्से दारी के बारे में कई सवाल उठाये हैं।

कुश ने महिला-पुरुष सवाल पर अपने विचार व्यक्त किये। उनका कहना है कि दोनो को समान अधिकार मिलें! तमाम लोगों के उनके इस विचार का स्वागत किया। मीताजी ने लिखा-
.काश की हर लड़का कुश होता और एकता में इतना विश्वास रखता ...पर क्या करे... जहाँ देखो वहाँ .. सिर्फ़ बहस होती है इस बात पर सदियो से...... और वैसे एक और मुद्दा भी है उठाने को... अगर सिर्फ़ लड़के और सिर्फ़ लड़कियो में भी एकता नही बन पाई तो लड़के और लड़कियो में ये बात कहा संभव होगी ....शुरुआत घर से करनी चाहिए ऐसा सुना है ...तो पहले हमे शुरुआत करनी पड़ेगी
और भी लोगों ने कुश की तारीफ़ की। लेकिन एक अनाम ब्लागर ने इसे कुश की नेतागीरी का प्रयास माना:
कुश जी ,पता नही क्यों इस प्रयास में आपकी नेतागिरी के अलावा मुझे कुछ नही दिखाई देता .नाम "५० प्रतिशत " और बातें १०० की , क्या गारंटी है कि यहाँ ५०-५० में मतभेद, नाराजगी नही रहेगा


राकेश खण्डेलवालजी अद्बुत गीतकार हैं। उनकी कविताओं के बिम्ब देखकर कभी-कभी चमत्कृत सा हो जाता है पाठक। आज उन्होंने लिखा:
राह भटका रहा पग उठा राह में
होंठ पर मौन बैठी रही बाँसुरी
फूल अक्षत बिखरते रहे थाल से
भर नहीं पाई संकल्प की आँजुरी
सिन्धु था सामने खिलखिलाता हुआ
बाँह अपनी पसारे हुए था खड़ा
पर अनिश्चय का पल लंगरों के लिए
बोझ, अपनी ज़िदों पे रहा है अड़ा

हाशिये से परे हो खड़े हम रहे
पॄष्ठ पर वाक्य थे झिलमिलाते रहे
यज्ञ में जो हुआ शेष, वह स्वर लिये
इक अधूरी गज़ल गुनगुनाते रहे


अगर किसी लेखक के लेख का एक वाक्य आपको याद रखने लायक लगे तो समझिये लेख सार्थक हो गया। आलोक पुराणिक आज लिखते हैं
पालिटिक्स अब हाथ की नहीं, जूता लात की है। लेफ्ट की लात मजबूत रहेगी, तो हाथ की मजबूती क्या कर लेगी।


निठल्ले तरुण ने आज आमने-सामने खड़ा किया संजय बेंगाणी और अमित गुप्ता को। एक को अपना गुस्सा छोड़ने लायक आदत लगती है दूसरे को आलस्य। :)

समीरलाल ठीक होते ही पतंग उड़ाने लगे। लेकिन लेख दिख नहीं रहा है सिवाय शीर्षक के। यही हाल काकेश की दीवार का है। दीवार गिरी है लेकिन मलवा नहीं दिख रहा।

स्वामीजी आजकल ब्लागशिक्षा दे रहे हैं। आज उन्होंने सिखाया ब्लागिंग के लिये टेम्पेलेट के चुनाव के बारे में।

अजित जी की मेहनत और लगन देखकर ताज्जुब होता है और उनकी तारीफ़ करने का बरबस मन करता है। जिस मेहनत से वे हम लोगों को शब्दों के बारे में बता रहे हैं वह काबिले तारीफ़ है। आज उन्होंने कथा-कहानी पर प्रवचन दिया:
इस संदर्भ में भजन, नाटक और एकांकियों के जरिये किसी ज़माने में देशभर में धूम मचा देने वाले पंडित राधेश्याम कथावाचक का जिक्र किए बिना बात अधूरी रह जाएगी। बरेली में करीब एक सदी से भी ज्यादा पहले जन्में कथावाचक जी ने पारसी और नौटंकी शैली के रंगमंच में खूब अपना हुनर दिखाया । इनके पिता भी कथावाचक थे। बाद में राधेश्यामजी ने अपनी खुद की रामकथा शैली विकसित की। उन्होने राधेश्याम रामायण भी लिखी। उनकी रामकथा के निरालेपन की वजह वह छंद था जिसे लोगों ने राधेश्याम छंद नाम ही दे दिया था।


ज्ञानजी कल चहलकदमी करते रहे। आप देखिये कैसे मसाला जुटाते हैं अपनी पोस्ट के लिये ज्ञानजी।

पंगेबाज पंगाकास्टिंग भी करने लगे। देखिये।

दफ़्तर जाने का समय हो गया। सो अब एक लाइना शाम को या फिर कल। :)

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गुरुवार, जुलाई 17, 2008

निरंतर का नया अंक प्रकाशित

निरंतर
निरंतर


आज की खास खबर यह है कि निरंतर का ११ वां प्रकाशित हुआ। कभी यह महीने में एक बार प्रकाशित होती थी। साथियों की व्यस्तताओं के चलते इसका प्रकाशन बंद हुआ लेकिन अपने 'निरंतर' नाम को सार्थक करते हुये यह फ़िर से प्रकाशित हुयी।

आप इसे देखिये। इसके सारे लेख बहुत मेहनत से लिखे गये हैं। एक ब्लाग पोस्ट लिखने और एक पत्रिका के लिये लेख लिखने में आपको अंतर समझ में आयेगा।

साथियों का योगदान तो है ही लेकिन यह देबाशीष का निरंतर से लगाव और इसे प्रकाशित करने की जिद ही है जो बीमारी के बावजूद वे इसे निकाल पाये।

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बुधवार, जुलाई 16, 2008

भूत-वर्तमान-भविष्य: का फ़ैसला चवन्नी उछाल कर करें

हिंदी ब्लाग
हिंदी ब्लाग


शुरुआत मौसम से। रमानाथ अवस्थीजी अपनी एक कविता में कहते हैं:-

कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं नहीं मन चाहिये।

इसी बात को प्रपन्ना इस कहते हैं:
बाहिर का मौसम कैसा भी हो ,
अंदर का मौसम तै करता है मौसम(कैसा) होगा



शिवकुमारजी भी न्यूक्लियर डील में ठिल गये। शुरुआत अपने अनुभव बांटने से करते हैं:-
अपने देश में दो तरह के नेता होते हैं. एक वे जो डिमांड में रहते हैं और दूसरे वे जो रिमांड में रहते हैं.


हैदराबादी नये ब्लागर हैं। उनसे बीबियों के बारे में जानिये।

हिंदी मीडिया की उछलकूद भरी तबियत के बारे में जायजा ले रहे हैं विनीत कुमार। वे फ़र्माते हैं:
हिन्दी मीडिया देस की बदहाली, गरीबी, भूखमरी पर स्टोरी कर-करके थक गयी है. बीच में तो उसके कारण हिन्दुस्तान की छवि ऐसी बन गयी थी कि लगता था हिन्दुस्तान में भुखमरी के अलावे कुछ भी नहीं है. पता नहीं बाहर के देशों में लोग सोचते भी हों कि भारत में बदहाली और बेकारी की खेती होती है. अब हिन्दी मीडिया के दिमाग की बत्ती जल गयी है, उसके ऑडिएंस भी दिनभर की दिहाड़ी करने के बजाय एमेंसीज में जाने लगे हैं। हिन्दी मीडिया को एक ऐसा ऑडिएंस ग्रुप मिल गया है जो दिनभर अंग्रेजीयत में जीकर-काम करके घर लौटता है, ऑफिस में हिन्दी बोलने-सुनने के लिए तरस जाता है। कुछ मजे करना चाहता है लेकिन ससुरी ऑफिस में सारी चीजें अंग्रेजी में होती है, कूलीग मजाक भी करते हैं तो अंग्रेजी में। वो मजा नहीं आता जो अपने हिन्दी में है।


डाक्टर लोगों के साथ मुश्किल होती है कि जो दिखता है उसका एक्सरे करने लगते हैं।यही तो किया डाक्टर अमर कुमार ने। मेडिकल रेप्रेजेन्टेटिव की बनियाइन तक दिखा दी लोगों को:
कारपोरेट जगत और कंज़्यूमर के बीच उलझे हुये मकड़जाल में फँसे वेतनभोगी सेल्सकर्मी.. निर्ममता से बोले तो बिचौलिये । इनका डाक्टर से क्या लेना-देना ? तो, यह भी डाकटर को माध्यम बना कर अपनी कंपनी के दवाओं की बिक्री बढ़ाने की ग़ुज़ारिश में भटकते आम मध्यमवर्गीय आदमी हैं । इनकी इल्तेज़ा में कुछ हनक लाने को यह इनका गलैमरस रूप है । गंदी बनियाइन के ऊपर चमकती कमीज़ और दमघोंटू दुनिया में इनका गला कसता हुआ टाई । लकदक विदेशी परिवेश से देसी मानस को प्रभावित कर सकने की सोच को ढोते बिक्रीदूत । बुरा लग रहा होगा ? सहन करिये, तथ्य तो इससे भी बुरे हैं, बढ़ लीजिये ।

सेल्समैन का हिंदी अनुवाद बिक्रीदूत कैसा लगा आपको? बताइये डाक्टर साहब बेचैन होंगे सुनने के लिये।

सुमीतकुमार आवाहन करते हैं:
आ मीत ! चल साथ उडें , आ हाथ मिला बिन पाँख उडें
आ चल ऐसी उडान उडें


आप अगर पुराने समय के कुछ कम्प्यूटर विज्ञापन देखना चाहते हैं तो देखिये रवीन्द्र राठी दिखा रहे हैं।

प्रीति बड्थ्वाल दिल्ली की ब्लागर हैं। कल उनका जन्मदिन था। इस अवसर उन्होंने कविता लिखी:
कब तक तकिये पर सर रखकर,
तुम बचपन में सोती रहोगी।
कब तक आंगन की माटी से,
नंगे पैरो को धोती रहोगी।
अब यौवन के फूल खिले हैं,
फूलों के रंग से खेलो भी।
अब इठलाती मदमस्त हवा है,
उनके आंचल में झूलो भी।

बारिश की इन बौछारों से,
ऊपर बैठा ‘वो’ बोल रहा।
“तारिका” तुम भी खुश रहना
सीख ही लो,
इन बारिश की बूंदों की तरहा।


प्रीति जी की डायरी पढ़ना रोचक अनुभव है। आप भी देखिये अभी जारी है लिखना।

स्वामीजी हिंदी के दहाई जमाने के ब्लागर हैं। जब ब्लाग संख्या चालीस-पचास थी तब वे प्रकट हुये थे। वे नियमित लिखते भले न रहे हों लेकिन पढने में लगे रहे। आज वे असली चिट्ठाकार के बारे में बताते हुयेकहते हैं:-
अच्छे ब्लागर्स वो चाहे किसी भी भाषा में लिखें - वे लिखने से कहीं अधिक पढते हैं, पढने से अधिक करते हैं. पढना हर चीज़ को दिशा देता है - अत: वे अच्छे कंटेंट के पारखी होते हैं और उसकी मदद से अपना ज्ञान और समझ बढानें में लगे होते हैं.

इसी लिये सक्रीय ब्लागर्स अच्छे लेखन, व्यक्तित्व और अभिरुचियों वाले दूसरे लोगों से आन-लाईन जुडना पसंद करते हैं. पुराना नीयम है की ‘एक रंग के पंछी साथ उडते हैं’.


सार्थक टिप्पणियां करें लिखकर उन्होंने लगता है हमारे जैसे लोगों (जो सही है, बहुत सही, सत्यवचन, लिखते रहें कहकर टिपियाते हैं ) से कहा ये अच्छी बात नहीं है।

बकलम खुद में प्रभाकर पाण्डेय अपनी दास्तान बता रहे हैं। वे आई.आई.टी. मुबई कैसे पहुंचे और वहां क्या किया:

एक दिन दीदी के घरवालों के माध्यम से मेरा पदार्पण आई.आई.टी. बाम्बे में हुआ और एक प्राध्यापक की महती कृपा से मैं भाषाओं के क्षेत्र में काम करने लगा। आई.आई.टी. में मुझ जैसे गँवार का टिक पाना बहुत ही मुश्किल था पर मेरी कड़ी मेहनत और लगन तथा उस प्राध्यापक को दिख रही मेरी आंतरिक योग्यता ने मुझे जमाए रखा और मैं U.N.L.(Universal
Networking Language) जो यूएनयू जापान की परियोजना थी पर काम करता रहा। फिर मैंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा।


आज दैनिक हिंदुस्तान में रवीशकुमार ने अशोक चक्रधर के ब्लाग का जिक्र किया। मजेदार है। पढियेगा।
आप अब तक बोरे हो गये होंगे। लीजिये गाना सुनिये- अभी तो मैं जवान हूं।

चलते हैं। चलने के पहले कुछ हड़बडिया एकलाइना:

१. असली चिट्ठाकारों का ध्यान कैसे खींचें?: गाली-गलौज करके या फ़िर सनसनी फ़ैलाकर।

२.सोमनाथ की शुचिता : एक और बबाल! कोड़ में खाज!

३.एक प्रेम पत्र फ़्रिज पर चिपका हुआ : पंगेबाज उखाड़ नहीं पा रहे हैं।

४. 'हम बेशर्मी के स्वर्णकाल में जी रहे हैं.: सोने का कैरेट तो बताओ मालिक।

५. सच या सपना कौन है तू ,: सच,सच बताओ वर्ना बुलवाती हूं अभी पुलिस।

६.मैं असद ज़ैदी का गुनहगार नहीं : तो सफ़ाई काहे दे रहे हौ।

७. एक भी आज तक तुमने गाया नहीं: क्या गला खराब है?

८. भूत-वर्तमान-भविष्य: का फ़ैसला चवन्नी उछाल कर करें।

९. कामरेड की नयी डायरी: लेकिन कामरेड वहीं हैं पुराने, लाल वाले।

मेरी टिप्पणी:



कल पंगेबाज एक प्रेम पत्र फ़्रिज पर चिपका के चले गये। उस पर हमारी प्रतिक्रिया अभी तक चपक नहीं पा रही है।सो यहीं चिपका देते हैं। आप भी बांच लीजिये:

अरे पंगेबाज भाई अरुण अरोरा। साल भर हो गया ब्लागिंग में पोस्ट छीलते-छीलते अभी तक कायदे से प्रेम पत्र भी न लिखना आया। लाहौल बिला कूवत। :)

जो जरा सा भी शादी-शुदा है वो जानता है कि इत्ती बातें डिटेल में लिखने का चलन नहीं है। ऐसी डांट-डपट चिट्ठियों में नहीं आमने-सामने चलती है। ये तो ऐसा लग रहा है कि कोई दफ़्तर में 'एडवाइजरी नोट' दिया जा रहा है। अगर
किसी भी तरीके से कोई भी इस पत्र को सही मानता है तो उसके अपने घर की स्थिति होगी। वह प्रत्यक्षम किम प्रमाणम कहने का बूता होगा।


हमारी पत्नी हमारे मित्रों के बारे में इसी तरह की बातें कहती हैं। इस पत्र को देखेंगी तो कहेंगी कि कैसे बांगडू दोस्त हैं तुम्हारे जिनको एक जरा सा प्रेमपत्र लिखने का भी शऊर नहीं है। लगता है कि वो खाली हाकिन्स से इन्कार न करके बीबी से प्यार का इजहार करते हैं। लेकिन लिखा-पढ़ी में इस तरह की बातें करने में न उनके पास समय है न यकीन। घर में वे अपने
दस्तखत करने के अलावा लिखा-पढ़ी का कोई काम नहीं करतीं।इसीलिये पढ़े-लिखे पति का इन्तजाम किया है अपने लिये। :)


इत्ती सुना-सुनाई का मौका छोड़कर चिट्ठी लिखने का धैर्य किसी पत्नी के पास न होगा।रोजमर्रा की बात दफ़्तर में जाने से पहले अगर पत्नी लिखती है तो यह तय है :

१.वह पत्नी नहीं है। वह आपकी काल्पनिक प्रेमिका है (जो कभी सच के कुछ करीब रही हो शायद) जिसके पुराने सारे पत्र आप अपने मित्रों के नाम बताकर के नाम बदलकर खपा रहे हो।

२. अगर वह किसी की पत्नी है भी तो निश्चित तौर परगूंगी होगी या फ़िर उसके मियांजी बहरे होंगे। इसीलिये दिन-प्रतिदिन की सहज डांट-डपट भी बेचारों को लिखकर करनी पड़ती होगी। ऐसे विकलांग लोगों का पत्र छापकर आप उनके साथ
अन्याय कर रहे हैं।

बकिया प्रयास बहुत अच्छा है। ट्राई मारते रहो। कभी सच्ची में लिखने लगोगे रियल प्रेमपत्र। इस वाले में उत्साह अधिक विश्वास कम है।

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मंगलवार, जुलाई 15, 2008

डाकू पर्यटन से पंगेबाज पर्यट्न तक

हिंदी ब्लाग
हिंदी ब्लाग

चिट्ठाचर्चा मुझे लगता है कि रोज होनी चाहिये। रोज क्या बल्कि दिन में कई बार होनी चाहिये। बीच में होती भी थी। दायीं ओर के जित्ते लोग हैं सब कभी न कभी इसमें शिरकत कर चुके हैं। हमें हर चर्चा के बाद नियमित लिखते रहिये उकसाने वाले समीरलालजी भी इसके चर्चाकार थे। समय के साथ व्यस्तता बढ़ी तो लोगों का लिखना कम होता गया। बहरहाल!

रचनाजी ऐसी ब्लागर हैं जो महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर अपने विचार रखती हैं। उनके लेखन की सबसे अच्छी बात मुझे यह लगती है कि उनको जो सही समझ में आता है वे उसे पूरी ताकत से सामने रखती हैं। वे मुंहदेखी बात नहीं करती। यह अपने आप में बड़ी बात है। उन्होंने इसलिये मुझे फक्र है कि मै दूसरी औरत हूँ शीर्षक कविता लिखी जिस पर सहमतियां असहमतियां हैं । इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुये मनविन्दरजी ने भी अपनी बात रखी और रचनाजी के बोल्ड लेखन का समर्थन किया।


प्रमोदजी जितने सम्वेदनशील हैं उतने माने नहीं जाते। सम्वेदनशील माने जाने के लिये वे कोई मेहनत भी नहीं करते।उल्टे सारी ताकत अपने को पतनशील कहलाने में लगा देते हैं। आज प्रमोदजी के ब्लाग पर पिछली कई पोस्टें एक साथ बांची। आप भी बांचिये ये वाली । मन खुश हुआ अपना तो:
कंचन उत्‍साह से उनको आंगन लिवाकर गयी, दीवार पर बांस से चढ़ायी लता में सेम की ताज़ा-ताज़ा निकली फलियां दिखायीं तो पत्‍नी के साथ-साथ रुपेश प्रसाद भी एकदम से मुस्‍कराकर खुशियाने लगे थे, बबुनी भी उनकी गोद में हाथ बजा-बजाकर चहकती रही थी! ओह, ऐसा नहीं कि जीवन में सुख के अवसर नहीं आते, रोज़-रोज़ आते हैं..


अजित वड्नेरकरजी के अगले मेहमान हैं प्रभाकर पाण्डेय। उनका बकलमखुद आप खुदै पढौ!

आलोक पुराणिक ने आज डाकू पर्यटन की थीम सजाई है।
वैसे अपना सजेशन यह है कि डाकू टूरिज्म के अंतिम चरण में टूरिस्टों को चुनिंदा नेताओँ से मिलवाना चाहिए। इसलिए कि छोटे मोटे डाकू तो आत्मसमर्पण करके प्रापर्टी डीलिंग करने लगते हैं या सिक्योरिटी सर्विसेज चलाने लगते हैं। विकट और सुपर डाकू आत्मसमर्पण नहीं करते। वो राष्ट्र सेवा करते हुए पालिटिक्स में जाकर महान नेता बन जाते हैं। नेताओँ के बगैर डाकू पैकेज अधूरा है।


इस थीम का शायद पंगेबाज को पहले से ही अंदाज था। वे देश को खड्डे में डालकर कुश के यहां काफ़ी पीने चले गये। यह पंगेबाज पर्यटन के दिन हैं।

ई-स्वामी फ़िर से सक्रिय हुये हैं। हिंदीब्लाग जगत के बारे में उनके विचार देखिये:
जब इन सभी कडे पैमानों पर एक साथ तौले जाएं तो हिंदी के ब्लाग्स अधिकतम रूप से अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के ब्लाग्स के आगे कमजोर और बौने पड जाएंगे - चूंकी आधारभूत योजना और तैयारी के बगैर एकाधिक पक्ष चूके रह जाते हैं और अधिकतर ब्लाग्स कहीं ना कहीं मार खा जा रहे हैं. मात्र ट्राई मारने या प्रयोग करने से अधिक मेहनत की जरूरत होगी और ब्लागिंग बहुत समय खाऊ शौक है - मात्र लेखन से अधिक काम करना पडता है. उदाहरण के लिये हमारे पास कोई बोईंग-बोईंग.नेट या जीनॉम, ऑटो-ब्लाग नहीं है. हां, कवि जरूर हैं ढेरों सारे, यूट्यूब पर डाले गए सुरीले गानों की कडियाँ जरूर हैं - देसीकरण इन देसी स्टाईल.. सेलिब्रेटिंग दी गोल्डन एरा स्लोली-स्लोली!


ई-स्वामी की जिस औघड़ भाषा की सबसे पहले मुलाकात हुई थी उसका नमूना भी देखिये:

जब सारी दुनिया हिन्दी पेल रही थी इन्टर्नेट पे मैं कहां था? मैं नाराज़ था - फोनेटिक तरीके से लिखने के लिये हर एक अपनी अपनी फोन्ट लिए चला आ रहा है. भला उस्की फ़ोन्ट मेरी फ़ोन्ट से सजीली कैसे? फ़िर युनीकोड आया पर दुनिया के जिस हिस्से में मै‍ रहता हूं वहां ब्लोगिन्ग को हस्तमैथून के बराबर रखते हैं और चेट फ़ोरम हरम क पर्याय है. हरम मैं सब नंगे होते है हमने भी करी फोनेटिक नंगई!


पल्लवीजी ने लेख के बाद संवेदनशील कवितायें /गजल लिखने की शुरुआत की है। आप नमूना देखिये:

उन छोटे से बच्चे की गैरत को है सलाम
अभी अभी जो भीख को ठुकरा के आया है

धरती का बिछौना ,अम्बर की है चादर
थक हार कर कुदरत की गोद में समाया है


जितने ब्लाग का जिक्र कर पाया उससे ज्यादा छूट गये। लेकिन उनके बारे में फ़िर कभी। चलें। आखिर हम भी कोल्हू के बैल हैं।

मेरी पसन्द


आज फिर जम के बारिश हुई
बगीचे के धूल चढ़े पेड़ पत्तियाँ
कैसे निखर गए हैं नहाकर
काली सड़कें भी चमक उठी हैं!
बह गए है टायरों के
धूल,मिटटी भरे निशान

और पता है...
इस बारिश के साथ
तुम्हारी यादें भी बरसी हैं रातभर
तुम्हारी तस्वीर पर जमी वक़्त की गर्द
धुल गयी है और
मेरे जेहन में तुम मुस्कुरा रहे हो
एकदम उजले होकर....

पल्लवी त्रिवेदी

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शनिवार, जुलाई 12, 2008

आज एक बहुत बढ़िया पोस्ट पढ़ी

आजकल व्यवसायिक कारणों से चिट्ठे पढ़ने का समय नहीं मिल पाता, परन्तु मैने जीमेल/क्लिप्स में भी अपनी पसंसीदा चिट्ठों और एग्रीग्रेटर का लिंक जोड़ रखा है सो सूचनायें कभी कभार मिल जाती है। आज सुबह मेल चैक करते ही जीमेल हैडर पर एक पोस्ट का लिखा दिखाई दिया मिलिए ९६ साल के जवान से… शीर्षक पढ़ कर मुझे भी 96 साल के जवान से मिलने की उत्सुकता हुई .. मिला तो बहुत ही बढ़िया लगा।
यह चिट्ठा है सिद्दार्थजी का और इनके चिट्ठे का नाम है सत्यार्थ मित्र..
इस पोस्ट में सिद्दार्थ एक "वयो"वृद्ध ( मनोवृद्ध नहीं) श्री आदित्य प्रकाश जी के बारे में बताते हुए लिखते हैं...

मेरे ऑफिस में स्वयं चल कर आने वाले पेन्शनभोगियों में सबसे अधिक उम्र का होते हुए भी इनके हाथ में न तो छड़ी थी, न नाक पर चश्मा था, और न ही सहारा देने के लिए कोई परिजन। …बुज़ुर्गियत पर सहानुभूति पाने के लिए कोई आग्रह भी नहीं था। इसीलिए मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी और दो-चार बातें आपसे बाँटने के लिए नोट कर लाया….

सिद्दार्थजी की यह पोस्ट बढ़िया लगी तो झट से older post पर क्लिक कर दिया.. और यह क्या यहाँ तो एक और लाजवाब पोस्ट मेरा इन्तजार कर रही थी.. इस पोस्ट में लेखक अपने डेढ़ साला सुपुत्र सत्यार्थ की और अपनी परेशानी का जिक्र करते हुए लिखते हैं

..सत्यार्थ मेरी ऊपर की जेब से एक-एक कर कलम, चश्मा, मोबाइल और कागज वगैरह निकालने की कोशिश करता है…मैं उसे रोकने की असफल कोशिश करता हूँ। कैसे रुला दूँ उसे? उसे दुनिया के किसी भी खिलौने से बेहतर मेरी ये चीजें लगती हैं। …चश्मा दो बार टूट चुका है, मोबाइल रोज ही पटका जाता है…इसपर चोट के स्थाई निशान पड़ गये हैं। …फिर भी कोई विकल्प नहीं है…उसका गोद में बैठकर मस्ती में मेरा चश्मा लगाना, मोबाइल पर बूआ, दादी, बाबाजी, चाचा, दीदी, डैडी आदि से बात करने का अभिनय देखकर सारी थकान मिटती सी लगती है।

इस पोस्ट का अन्तिम पैरा सोचने पर मजबूर कर देता है; विचलित कर देता है
…वह चुपचाप सुनती हैं। बीच में कोई प्रतिक्रिया नहीं देती। मेरी उलझन कुछ बढ़ सी जाती है…। मैं कुरेदता हूँ। उन्होंने चेहरा छिपा लिया है…। मैं चेहरे को दोनो हाथोंसे पकड़कर अपनी ओर करता हूँ… दो बड़ी-बड़ी बूँदें टप्प से मेरे आगे गिरती हैं… क्या आपकी इस उलझन भरी दिनचर्या में मेरे हिस्से का कुछ भी नहीं है? …मैं सन्न रह जाता हूँ
…मेरे पास कोई जवाब नहीं है। …है तो बस एक अपराध-बोध… …

और इस पोस्ट का लिंक है
समय कम पड़ने लगा है ..

सागर चन्द नाहर
॥दस्तक॥ , गीतों की महफिल , तकनीकी दस्तक

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गुरुवार, जुलाई 10, 2008

साथी की तारीफ़ करें

आभा
आभा
हम भारतीय अपना हर काम आराम से करते हैं। आभाजी ने अपने ब्लाग की पहली वर्षगांठ की केक-पोस्ट पूरे एक पन्द्रहिया बाद काटी।

आभाजी छोटी-छोटी लेकिन संवेदनशील पोस्टें लिखती हैं। आलोक पुराणिक के अगड़म-बगड़म प्रचार (शादी के बाद प्यार का अंत हो जाता है ) के धुरउलट कहती हैं कि अपने साथी की तारीफ़ करनी चाहिये। वे लिखती हैं:
मैंने माना यही है जीवन यही है जीवन की सच्चाई...यही है सुख दुख का संघर्ष...जिसमें एक कैसी भी तारीफ एक उत्साह का शब्द भी आपको मैदान में लड़ने के लिए शक्ति दे सकता है और एक दुत्कार भरा संबोधन आपको हताशा और कुंठा से भर सकता है...।

इसके पहले की एक पोस्ट में बोधिसत्व के बारे में लिखते हुये लिखती हैं:
अपने हर जनम दिन पर यह बंदा लगभग बच्चों सा हो जाता हैं...भोला, जिद्दी और भावुक।


अजित वडनेरकर
अजित वडनेरकर



रवीशजी ने कल शब्दों का सफ़र का जिक्र किया हिंदी दैनिक हिन्दुस्तान में। ब्लागपुरोहित साल भर के हो गये हमें पता ही नहीं चला।
अजित जी ने लोगों की शब्द संपदा बढ़ाने में योगदान देने के साथ-साथ बकलमखुद में तमाम लोगों के बारे में ब्लागजगत में लिखा-लिखवाया। बकलमखुद की जबरदस्त लोकप्रियता के बावजूद हमारे कनपुरिया राजीव टंडन इससे बहुत खुश नहीं हैं। वे कहते हैं इस काम के लिये कोई दूसरा ब्लाग बनाना चाहिये अजितजी को।

हम बधाई देते हैं शब्दों के सफ़र के पुरोहित को।

देवकी नन्दन बाजपेयी की आवाज इत्ती टनाटन थी इसका राज हमे कल्प पता चला। वे कनपुरिया थे। कनपुरिया आदमी झनाटन होता है जी। देवकी नन्दन पाण्डेयजी पर लिखा संजय पटेल का लेख पठनीय च उड़ानीय है। हम इसे अपने कानपुरनामा में डाल देंगे। जबरिया। देवकीनन्दन पाण्डेय के बारे में वे लिखते हैं:

देवकीनंदन पाण्डे समाचार प्रसारण के समय घटनाक्रम से अपने आपको एकाकार कर लेते थे और यही वजह थी उनके पढ़ने का अंदाज़ करोड़ों श्रोताओं के दिल को छू जाता था। उनकी आवाज़ में एक जादुई स्पर्श था। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि पाण्डेजी के स्वर से रेडियो सेट थर्राने लगा है। आज जब टीवी चैनल्स की बाढ़ है और एफ़एम रेडियो स्टेशंस अपने अपने वाचाल प्रसारणों से जीवन को अतिक्रमित कर रहे हैं ऐसे में देवकीनंदन पाण्डे का स्मरण एक रूहानी एहसास से गुज़रना है। तकनीक के अभाव में सिर्फ़ आवाज़ के बूते पर अपने आपको पूरे देश में एक घरेलू नाम बन जाने का करिश्मा पाण्डेजी ने किया। सरदार पटेल, लियाक़त अली ख़ान, मौलाना आज़ाद, गोविन्द वल्लभ पंत, पं. जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण के निधन का समाचार पाण्डेजी के स्वर में ही पूरे देश में पहुँचा। संजय गॉंधी के आकस्मिक निधन का समाचार वाचन करने के लिये सेवानिवृत्त हो चुके पाण्डेजी को विशेष रूप से आकाशवाणी के दिल्ली स्टेशन पर आमंत्रित किया गया।




फिलहाल इत्ता ही। बकिया शाम को या फ़िर कभी। तब तक आपके पास टाइम हो तो कल वाली चर्चा दुबारा पढ़ लें- आसान हो रहा है कैंसर के साथ जीना

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बुधवार, जुलाई 09, 2008

आसान हो रहा है कैंसर के साथ जीना

अनुराधा
अनुराधा

अनुराधा कैंसर विजेता के नाम से जानी जाती हैं। वे कैंसर से लड़ीं और जीती भी। अपने अनुभवों पर किताब भी लिखी। शीर्षक है- "इंद्रधनुष के पीछे-पीछे"। किताब मैंने दो तीन बार पढ़ी है। इसमें कैंसर से जूझने के किस्से हैं, उस समय की मन:स्थिति का वर्णन है और उससे बचने के तरीके बताने का प्रयास है।

अनुराधा के ब्लाग का ध्येय है:

यह ब्लॉग उन सबका है जिनकी ज़िंदगियों या दिलों के किसी न किसी कोने को कैंसर ने छुआ है।


कैंसर के लड़कर जीतने के बाद अनुराधा ने अपना ब्लाग शुरु किया। इसमें कैंसर को पहचानने के सरल उपाय हैं। कैंसर से जुड़ी शायरी हैं और चुटकुले भी।

कल अनुराधा का लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ। अनुराधा आशान्वित होते हुये लिखती हैं:

लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब कैंसर को जड़ से मिटाने का इलाज मिल जाएगा। लेकिन इलाज की नज़र से बचकर शरीर में फैलने के इसके विलक्षण गुण को काबू करना आसान नहीं लगता। इसलिए विशेषज्ञ अब असाध्य कैंसर के मामलों में शरीर में मौजूद हर कैंसर कोशिका को खोजकर मारने के मुकाबले सुरक्षित और बर्दाश्त करने लायक तरीके से ट्यूमर की बढ़त को काबू में रखने को ज़्यादा अहम मानते हैं। इस तरह के इलाज में मरीज़ को दवाएं लगातार (कई बार जीवन भर) खानी होती हैं। इसमें मरीज़ के ठीक होने की अनिवार्यता की जगह उसका जीवन बेहतर बनाने की कोशिश को अहमियत दी जाती है। चिकित्सा समाज में यह बदलाव क्रांतिकारी है।


आप अनुराधा का ब्लाग देखें और उससे जुड़कर उनको नियमित लेखक बनाने की दिशा में प्रोत्साहित करें।

बालेंदु ब्लागजगत का जाना पहचाना नाम है। उनके कादम्बिनी में छपे लेख ने हिंदी छापे की दुनिया कों हिंदी ब्लाग की विस्तार से जानकारी दी। अपना नया ब्लाग शुरू किया है बालेंदु ने। उनको देखें और लाभान्वित हों/करें।

ब्लागजगत के बारे में बकिया फ़िर। अभी चंद एक लाइना:

इस जुल्फ के क्या कहने .........!: कह तो दिया जो कहना था।


चूहे और कौए का संघर्ष : रोमांचक दौर में।


मैं वही, वही बात, नया दिन, नयी रात..: वही ब्लाग, वही बात, वही लात लेकिन एक नयी शुरुआत।

अच्छा लिखने से कही बेहतर है अच्छा इन्सान होना: खबर पढ़कर अच्छे लिख्खाड़ों के चेहरे लटके। उनका काम बढ़ा!


कार्बन टेक्स और कार्बन क्रेडिट : में क वर्ण की आवृत्ति होने से अनुप्रास की छटा दर्शनीय है।

यादों की वादियों में… संस्मरण: बरामद!


तुम्हें छोड़कर : यादें समेट लीं। हल्की होती हैं न!


यो, झींगा लाला: गड़बड़ झाला, लाओ ताला।

थप्पड़ जड़ने की जटिलता : को अजित वडनेरकर ने आसान बनाया।


जीवन अपने आप में अमूल्य है: भाव तो बताओ यार!

मेरी पसन्द

बंद है तो और भी खोजेंगे हम

रास्ते हैं कम नही तादाद में-२

आग हो दिल में अगर मिल जायेगा
हस्तरेखाओं में खोया रास्ता
बंद है तो और भी खोजेंगे हम
रास्ते हैं कम नही तादाद में-२

मुठ्ठियों की शक्ल में उठने लगे
हाथ जो उठते थे कल फरीयाद में
पहले तो चिनगारियां दिखती थी अब
हर तरफ़ है आग का इक सिलसिला


बंद है तो और भी खोजेंगे हम
रास्ते हैं कम नही तादाद में-२


टूटती टकराहटों के बीच से
इक अकेली गूंज है ये ज़िन्दगी
ज़िन्दगी है आग फूलों में छिपी
ज़िन्दगी है सांस मिट्टी में दबी

बन्द हैं तो और भी खोजेंगे हम
रास्ते हैं कम नहीं तादाद में

बनके खुशबू फूल की महकेंगे वे
जो किरण बन मिल गये हैं खाक में
बंद है तो और भी खोजेंगे हम
रास्ते हैं कम नही तादाद में|

रचयिता: देवेन्द्र कुमार आर्य

ठुमरी से साभार

इसे सुनने के लिये यहां जायें।

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शुक्रवार, जुलाई 04, 2008

चिरकुटई और टाईम-पास का बोलबाला है

अमेरिका
अमेरिका

आजकल कश्मीर में बड़ा बबाल मचा है। लेकिन वहीं कुछ खुशनुमा दृश्य भी दिखते हैं। अफ़लातूनजी पीटीआई की खबर का हिंदी अनुवाद पेश करते हैं:
गत दस दिनों से कश्मीर घाटी से गुजरने वाले अमरनाथ यात्री ‘जमीन स्थानान्तरण विवाद’ के हिन्सक प्रतिरोध को शायद याद नहीं रखें , याद रखेंगे घाटी के मुसलमानों की गर्मजोशी भरी मेज़बानी को ।

हिंसा के कारण होटल और भोजनालय बन्द हैं फिर भी उन्हें भोजन और आसरे की तलाश में भटकना नहीं पड़ रहा । मुसलमानों ने उनके लिए सामूहिक रसोई और रात्रि विश्राम का प्रबन्ध कर रखा है ।

पवित्र गुफ़ा से लौट रहे जिन यात्रियों को पुलिस ने नुनवान और बालताल में रोका था उन्हें भी डलगेट और बूलेवार्ड के ‘लंगर’ देखने के बाद जाने दिया गया है ।


इस पठनीय,फ़ार्वडनीय पोस्ट पर नीरज दीवान ने अपना मौन तोड़ा और टिपियाया ।

नितिन बागला का कहना है:
मुझे लगता है कि हिन्दी चिट्ठाकारों से में कई लोगों में इस तरह का लिख पाने की संभवनाएं हैं। जिनकी भाषा और मुद्दे बहुत भारी नही होते, पढने-समझने में आसान होते हैं , आसपास की ज़िन्दगी से जुडे होते हैं। कई चिट्ठाकारों की कई पोस्ट्स इतनी बेहतरीन हैं कि उन्ही का संकलन कर के एक किताब छपवाई जा सकती है। तो बताइये, कैसा आइडिया है, और आप कब किताब लिखना शुरू कर रहे हैं।


महिलाओं से कुछ सवाल पूछे गये थे। सुजाता का जबाब महिलाओं के जबाब का प्रतिनिधित्व कर रहा है। सुजाता अपनी टिप्पणी में कहती हैं-
मेरी ओर से इतना कहना चाहूंगी कि आपकी पहली दो बातें अब तक की सारी जेंडर ट्रेनिंग का नतीजा है ।लड़के और लड़की को जैसे बड़ा किया जाता रहा है यह उसका आत्मसातीकरण है ।


इसके बाद सवाल पूछने वाले की प्रतिक्रिया बांचना भी जरूरी है:
और अगर लोगों को कुछ सवाल असुविधाजनक लग रहे हैं, तो यह कोई कारण नही हुआ की ये पूछे ही न जायें. कोई मजबूर थोड़े ही कर रहा है की बायोलोजी को ही अन्तिम सत्य मानो, नहीं मानना तो कोई मजबूर नहीं करेगा. गुनिया, झाड़-फूंक ,तावीज़ पर भरोसा रखने वाले अगर कहें की उन्हें मेडिकल साइंस पर विश्वास नहीं है, तो वो उसकी मर्ज़ी. कम से कम मैं रिवोल्वर की नोक पर किसी को आधुनिक शोधों को सच मनवाने पर भरोसा नहीं रखता. निश्चिंत रहिये.


समीरलालजी ने ऊड़नतश्तरी स्टाईल में आमलेट बनाया तो डा.अमर कुमार ने अपनी स्टाईल में कुछ मासूम सवाल पूंछे-
जान की अमान पाऊँ, तो मैं मूढ़मति भी कुछ पूछ लूँ ? कुछ बुनियादी सवाल है, मुर्ग़ी, बत्तख या शुतुरमुर्ग़ के अंडे से मेरा कोई बहस नहीं । अंडा तो अंडा, क्या हिंदू ..क्या मुसलमान ?

बस एक लघु सी शंका है, पहले वह निवृत करें !
यह तो बताया नहीं कि अंडे कच्चे रहेंगे या उबाल कर लिये जायें ।यदि उबाल कर प्रयुक्त करें, तो पहले उबाल कर छीलें या छील कर उबालें ?

मैंने पैन वगैरह तैयार कर रखा है,बस आपकी प्रतीक्षा है । क्या करें, बेसिक से शुरु करने की ट्रेनिंग मिली हुई है, सो पूछने का साहस कर रहा हूँ !


प्रमोदजी कल टोकियो जाते-जाते तो रुक गये लेकिन विरहाकुल हैं। उनका विरहाकास्ट सुनियेगा तो आप भी मनोरमे-मनोरमे पुकारने लगियेगा।

ज्ञानजी ने आज लिंक कथा कही। अगर देखा जाये तो चिट्ठाचर्चा करने के चलते सबसे बड़े लिंकर तो हम हैं। लेकिन ज्ञानजी को ऊ सब नहीं दिखता। काहे से कि ..... अब छोड़िये क्या कहें? लेकिन ईस्वामी की टिप्पणी जरूर देखिये। वे कहते हैं:-
हमारे ज्यादातर हिंदी वाले सामूहिक ब्लाग इस मामले में पिछडे हुए हैं और कई बार आपस में लड पडते हैं फ़िर सब की हिट काऊंट प्रभावित होती है।

अगर कोई रोज़ लिखे और बेकार लिखे तो किस काम का? ठीक वैसे ही कोई थोक के भाव टिप्पणियां बांटता हो तो वो टिप्पणी कम नेटवर्किंग कर्म अधिक लगता है।


भला हो अभय का उनकी टिप्पणी ने स्वामीजी को फ़िर से लिखने के लिये उकसाया। वे कहते हैं:-
चिरकुटाई और टाईम-पास का बोल बाला है. स्थितियों पर नियंत्रण का अभाव और दिशाहीनता का भाव ही उसकी मूल वजह है. इस तरह के लेख पेरेलल सिनेमा की तरह होते हैं! फ़िर खयाल आता है की इस पलायनवाद को छोडे बिना गंभीर विमर्श संभव नहीं है.



अमेरिका में जो लावण्याजी ने देखा वो आपको भी दिखा रही हैं। देखिये दिलकश नजारे

गौरव सोलंकी की कहानी सुनिये जिसके बारे में प्रत्यक्षाजी का कहना है-सबसे अच्छी कहानी ..बताना मत ..लिखते रहना

अगर न पढ़ें तो इसको जरूर पढिये:
ठोंकि लऽ कपार ए बाबू, बीबी हो गैलि बेकाबू।
मेहरी हो गैलि बेकाबू, ठोंकि लऽ कपार ए बाबू॥

चाहे लऽ घर के ई लछिमी हऽ जइसे
घर के भी मन्दिर बना देई वइसे
सांझो सबेरे के दीया आ बाती
संस्कार सुन्दर बढ़ाई दिन राती

बाकिर ई बोलेले- बाय - बाय डार्लिंग…
“दीज़ सिली कस्टम्स आइ कान्ट डू”
(These silly customs I can’t do)
ठोंकि लऽ कपार…



नये ब्लागर साथी:



कल कुल आठ नये लोगों के चिट्ठे जुड़े। अम्बाला के डा.नफ़स कहते हैं:
सारा आलम बुझा सा लगता है,
वक़्त कितना थका सा लगता है।

हो गया जब से वो जुदा मुझसे,
हर कोई बेवफा सा लगता है।


उन्नीस साल के दीपक पुर्बिया अपनी उमर के सालों से केवल चौदह कम बोले तो पांच ब्लाग के स्वामी हैं। वे अपने उत्साह बढ़ाने वाले ब्लाग में सूक्तियां लिखते हैं। हमारे काम की है:

यदि आप आलसी हो , तो अकेले मत रहो ,
यदि आप अकेले हो , तो आलसी मत रहो


समीत झा अफ़ीम और अफ़गानिस्तान के चक्कर में पड़ गये तो राजेश भैंस कथा सुनाने लगे। बलविन्दर ने जब बताया कि पेट्रोल के अमेरिका में क्या हुआ तो प्रजापति जी गुलाबी हो गये। :)

अब चंद एक लाइना

:

1.लड़कियाँ सिर्फ़ सामान हैं तुम्हारा :उनके लिये प्रेम और काम अकरणीय हैं।

2.अपने हिस्से की छोटी सी खुशी.... :पल में गुस्सा पल में हँसी!

3. कम्प्यूटर कविता लिखेंगेलैपटाप तालियां बजायेंगे।

4. कृष्ण चन्दर, अमृता प्रीतम, आलू और प्याज: सबको एक तराजू में तौलवा के निकल लिये प्रेत विनाशक महाराज!

5.कौन से अनुबंध कंट्रेक्ट हैं? :आपै बताओ महाराज!

6.अरे, मुझे तो लगा था की लौ नहीं है यहां! : लेकिन यहां तो चार ठो मोमबत्ती जल रही हैं।

7.पोरस का राजोचित आत्मविश्वास : ई-स्वामी की टिप्पणी में तो जान है खास!

8. प्रीपेड श्रद्धांजलि …:रिचार्ज कूपन यहां मिलते हैं।

9.शहंशाह से बब्बन, अब अय्यार : क्या के रे हो यार!

10.कै घर , कै परदेस ! : जै घर तै परदेश।


11.आखिर कब तक होती रहेगी भारतीय सम्पदा की चोरी इस तरह? : जब तक भारतीय सम्पदा रहेगी।

12.भारत में हलचल, अमेरिका में डूब रही नाव : नदी बड़ी गहरी है।

13.होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा :या फ़िर सारा टाइम ब्लागिंग में गंवाया होगा।

14. एक गधे की दुःख भरी दास्ताँ:सुनिये रामपुरिया ताऊ से।


15.इमरान खान से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत :रियलिस्टिक और नैचुरल है जाने तू ..

मेरी पसन्द

रस्सी पर लटके कपड़ों को सुखा रही थी धूप.
चाची पिछले आँगन में जा फटक रही थी सूप।

गइया पीपल की छैयाँ में चबा रही थी घास,
झबरू कुत्ता मूँदे आँखें लेटा उसके पास.

राज मिस्त्री जी हौदी पर पोत रहे थे गारा,
उसके बाद उन्हें करना था छज्जा ठीक हमारा.

अम्मा दीदी को संग लेकर गईं थीं राशन लेने,
आते में खुतरू मोची से जूते भी थे लेने।

तभी अचानक आसमान पर काले बादल आए,
भीगी हवा के झोंके अपने पीछे-पीछे लाए.

सब से पहले शुरू हुई कुछ टिप-टिप बूँदा-बाँदी,
फिर आई घनघोर गरजती बारिश के संग आँधी.

मंगलू धोबी बाहर लपका चाची भागी अंदर,
गाय उठकर खड़ी हो गई झबरू दौड़ा भीतर.

राज मिस्त्री ने गारे पर ढँक दी फ़ौरन टाट.
और हौदी पर औंधी कर दी टूटी फूटी खाट.

हो गए चौड़म चौड़ा सारे धूप में सूखे कपड़े,
इधर उधर उड़ते फिरते थे मंगलू कैसे पकड़े.

चाची ने खिड़की दरवाज़े बंद कर दिए सारे,
पलंग के नीचे जा लेटीं बिजली के डर के मारे.

झबरू ऊँचे सुर में भौंका गाय लगी रंभाने,
हौदी बेचारी कीचड़ में हो गई दाने-दाने.

अम्मा दीदी आईं दौड़ती सर पर रखे झोले,
जल्दी-जल्दी राशन के फिर सभी लिफ़ाफ़े खोले.

सबने बारिश को कोसा आँखें भी खूब दिखाईं,
पर हम नाचे बारिश में और मौजें ढेर मनाईं.

मैदानों में भागे दौड़े मारी बहुत छलांगें,
तब ही वापस घर आए जब थक गईं दोनों टाँगें।

सफ़दर हाशमी की कविता कर्मनाशा ब्लाग से साभार

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गुरुवार, जुलाई 03, 2008

हमारी इनडिस्पेंसिबिलिटी तो जीरो बटा सन्नाटा है।

रवीश कुमार हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में नियमित ब्लागचर्चा करते हैं। इस बार उन्होंने साई ब्लाग और तस्लीम ब्लाग की चर्चा की।

रवीश कुमार की चर्चा की खासियत यह है कि वे चर्चा करने के लिये ब्लाग का चयन यारी-दोस्ती के आधार पर नहीं वरन उपयोगिता के आधार पर करते हैं। अरविंद मिश्र के बारे में पता करने के लिये मुझसे भी फोन नं पूछा था। मेरे पास था नहीं लेकिन किसी और से जरूर मिला होगा और उनसे बतियाने के बाद उन्होंन यह लेख लिखा।

केवल महिला ब्लागर्स से कुछ सवाल पूछे गये हैं इस पोस्ट में। देखना है कितने जबाब आते हैं। इंतजार है।

पल्लवी जी ने अपने साथ काम कर चुके दद्दू को याद करते हुये लिखा है- दद्दू तुम अक्सर याद आते हो। वे लिखती हैं-
जिस दिन दद्दू अपने बाल और मूंछे डाई करके आते...उस दिन शर्ट भी इन करके पहनते और अपनी उम्र से सीधे १० साल पीछे चले जाते और मुझे उन्हें छेड़ने का एक और मौका मिल जाता! और दद्दू शरमा के रह जाते! बारिश के दिनों में मेरे लॉन में काफी पानी भर जाता था ,एक दिन ऐसी ही तेज़ बारिश में मैं ढेर सारी कागज़ की नाव बनाकर पानी में पहुंची और सारी नाव एक साथ तैरा दीं.. साथ में अपनी हवाई चप्पलें भी पानी में तैरा दीं! दद्दू देख देख कर मुस्कुरा रहे थे...थोडी देर बाद मैं अन्दर आ गयी और १० मिनिट बाद बाहर झाँककर देखा तो दद्दू एक अखबार की नाव बनाकर पानी में छोड़ रहे थे..एकदम तल्लीन! मैं बाहर नहीं गयी...कहीं उनके भीतर का बच्चा शरमा कर भाग न जाए!


अनीताजी ने विश्वनाथजी के बच्चे ,नकुल कृष्णा ,की सफ़लता के बारे में बताते हुये लिखा है। आप इसे पढियेगा तो शायद आपको अपने आसपास के किसी बच्चे को भी सफ़ल होने के गुर सिखाने का मन बने।

प्रत्यक्षा जी की नयी कविता की कुछ लाइनें देखिये-
पर इन सबके बीच मन कहाँ मानता
जाने क्या अटकता है
जाने क्या ?
और मैं अंत में कहती हूँ सब माया है
इस विस्तार से उस छोर का खेला है, चौपड़ की बिसात है, कोई छे वाली लकी गोटी है
ओह ! जाने क्या है क्या क्या है ? पर इतना तो है कि ज़्यादा प्यार नहीं है ?

आइये अब कुछ एकलाइना देखिये:

ऑमलेट उड़न तश्तरी स्टाईल में.. : साधुवाद, साधुवाद!

जीवन में प्यार ज़्यादा ? नहीं ही है : जो है , जित्ता है उत्ते में काम चलाया जाये।

आपकी इनडिस्पेंसिबिलिटी क्या है मित्र? : हमारी इनडिस्पेंसिबिलिटी तो जीरो बटा सन्नाटा है।


टापमटाप वाया नाली : ये भी बढिया है खामख्याली ।

चांद पर सबसे पहले पहुंचे थे भारतीय! कोई शक? किसकी हिम्मत जो सक करे?






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