शनिवार, जुलाई 28, 2012

विमर्श के बदलते मुद्दों का सफ़र हैं ये चिट्ठा चर्चा

विमर्श के बदलते मुद्दों का सफ़र हैं ये चिट्ठा चर्चा 

दो ब्लॉग देखे , उनको पढ़ा और अपनी पसंद की दो पोस्ट ले आयी हूँ , देखिये , पढिये और हो सके तो विमर्श भी कीजिये , बहस भी कर सकते है या बस आत्म  मंथन कीजिये . हम तो बस यही चाहते हैं की जब प्रतीक के रूप में बात हो तो हर "बुराई , छल और कपट" के लिये दिये हुए प्रतीक बिम्बों को "नारी" ना बना दिया जाए .
इतिहास में दर्ज कथाओ के आधार में अगर बुराई और छल  कपट का पर्याय नारी हैं तो उन कथाओं को तिलांजलि देने का वक्त हैं क्युकी यही हैं जेंडर बायस की पहली सीढ़ी जहां पुरुष अच्छाई का और नारी बुराई का प्रतीक बन गयी हैं .

 

हे वधु से वेश्या तक चुनने के अधिकारी


"मेरी एक पहचान थी. प्राचीन काल में हम शिक्षित थे. तुम्हारे बराबर के दज्रे में थे. हमारी योग्यता का लोहा माना तुमने ही. विश्वास न हो तो पंतजलि, कात्यायन के पन्नों को खोल के देखो. साध्वी, गार्गी, मैत्रेयी, मीरा सभी मिलेंगी. ऋग्वेदिक ऋचाएं आज भी गवाह हैं हमारी. आज भी जेहन में सभी बातें दफ़न हैं.तुम्हें विज्ञान पर भरोसा है, तो सुनो. मानव जाति को केवल पुरुष या स्त्री में ही नहीं बांटा जा सकता हैं. हम क्या हैं, कैसे हैं, यह क्रोमोसोम तय करते हैं. यह जोड़े में आते हैं. हम में क्रोमोसोम के 23 जोड़े रहते हैं. हम पुरुष हैं या स्त्री, यह 23 वें जोड़े पर निर्भर करता है. अब बताओ, इसमें मेरी क्या गलती जो तुम मुङो दासी समझते आये हो. 

मैं न कैदी हूँ  न भिखारी मेरा हक है एक समूची साबुत आज़ादी. मेरी सुनो
अन्तत: तुमने हमें विवश किया एक आन्दोलन के लिए. हम कहां चुप बैठने वाले थे. सम्भाली कमान बनाये कई कीर्तिमान. आज प्रतिभा राष्ट्र को संबोधित करती तो किरण की नई ऊर्जा ने नई दुनिया दिखायी. किया क्या एक प्रयास. शस्त्र उठायी, शासक बनी, तुम्हारी प्रिय कुलटा विश्व सुन्दरी बनी. रेल से जेल तक हमारा राज. जम़ी तो क्या आसमान भी हमारा गुलाम. सड़क से संसद तक छायी हूॅ. शांति पुरस्कार मेरे पास, मदर टेरेसा मेरी पहचान. कैसे रोकोगे मुङो. 9 मार्च को मिले आजादी के हिसाब से केवल 60 साल लगे हमारे प्रयास को. अभी आगे बढ़ी थी कि तुमने 33 प्रतिशत आरक्षण में बाधकर दायरे को सीमित करना चाहा. अब सभी तरह की गतिविधियां हमारे सामने छोटी है. शिक्षा, राजनीति, मीडिया, कला और संस्कृति, सेवा क्षेत्र, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी आदी में हम बराबर के हिस्सेदार है "

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"बेटी या बोटी...


हमारी एक दोस्त हैं। उनकी उम्र लगभग पच्चीस साल है। इसी मसले पर बात करते हुए उन्होंने बताया कि दिल्ली में नौकरी के बीच जब भी वे हरियाणा के एक कस्बे में अपने घर जाती हैं तो उनके पचपन साल के पिता के हमउम्र, लेकिन किसी बांके जवान की तरह सजे-संवरे, इत्र लगाए, हर वक्त पूरी तरह "मेनटेन" दिखने वाले, बहुत धनी-मानी और कई फैक्ट्रियों के मालिक एक दोस्त उनसे मिलने जरूर आते हैं। जहां उनके पिताजी प्रणाम करने पर सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देते हैं, और फिर बैठ कर या खाते-पीते, हंसते-खेलते बातें होती हैं, वहीं उनके पिता के उस दोस्त के आशीर्वाद देने का तरीका कुछ और ही होता है। वे पांच मिनट में पचास बार "बेटे-बेटे" कहते हैं, छोटी-छोटी बातों पर इतने उत्साहित होकर बेटे-बेटे कहते हुए कंधे या पीठ पर थपकी देते हैं, जैसे उसके आने या आगे बढ़ने से सबसे ज्यादा खुशी उन्हें ही होती हो। गले लगा कर, चूम कर "आशीर्वाद" देना उनका खास तरीका है। पिछली बार तीन दिन में जब दूसरी बार उनके "आशीर्वाद" देते हाथ ने साफ तौर पर वही हरकत की, जिसका इन्हें अंदेशा था, तब इनका धीरज जवाब दे गया और इन्होंने अपनी मां को बताया। मां ने पति के उस दोस्त को ढेर सारी गालियां दीं, और कहा कि इसीलिए अपनी बीवी का गर्भ जांच करा कर चार बार गर्भपात करवाया और एक बेटा पर इतराता फिरता है। पता नहीं अपनी बेटी होती तो क्या करता। शायद इसीलिए बेटी नहीं होने दिया।"


कभी कभी कहीं कुछ ऐसा पढने को मिल जाता हैं जो याद दिला जाता हैं की एक मकसद बनाना होगा हमे स्त्री पुरुष समानता की कोशिश  को .


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शुक्रवार, जुलाई 27, 2012

मीडिया शरीर का बुखार तक मुफ्त में नहीं देता

देश कठिन दौर  से गुजर रहा है। बारिश कम हो रही है। दालों के दाम बढ़ रहे हैं। मारुति का कारखाना अभी खुला नहीं है। बाल ठाकरे बीमार हैं। टीम अन्ना को कवरेज कम मिल रहा है। बैंकों के एटीएम  के ड्रापबॉक्स से लोग चेक उड़ा रहे हैं। उ.प्र. में मायावती की मूर्ति तोड़ दी गयी। असम में हिंसा अभी रुकी है लेकिन हाल बेहाल हैं। कपिल देव ने बीसीसीआई से समझौता करके पैसे हासिल करने का जुगाड़ कर लिया है। देश के बारे में बाकी खबरे पढियेगा आप ब्रेक के बाद तब तक दो-चार पोस्टों का जिक्र कर लिया जाये।
 

टीम अन्ना के कम कवरेज की मीडिया पल्टी को अपनी निगाह से देखते हुये विनीत  लिखा है-अब यही चैनल आंदोलन को शो बता रहे हैं उनका कहना है:
अब कोई अर्णव से जाकर पूछे कि मीडिया इज अन्ना और अन्ना इज मीडिया का नारा कहां गया. वी सपोर्ट अन्ना के सुपर कहां गए और द टाइम्स ऑफ इंडिया का इश्तहार. भाईजी, हम ऐसे ही नहीं कहते हैं कि मीडिया शरीर का बुखार तक मुफ्त में नहीं देता,कवरेज कहां से देगा ? अब देखिएगा केजरीवाल और उनके वृंदों की जुबान उस मीडिया के खिलाफ जल्द ही खुलेगी जिसे अब तक मसीहा मानकर थै-थै कर रहे थे. चैनलों के एक-एक स्लग,सुपर,पीटूसी और एंकर लाइन अन्ना सीजन4 को कमजोर करने में जुटे हैं और इस हालत तक ला छोड़ेगे कि विजयादशमी तक केजरीवाल के पुतले फूंके जाएंगे और क्या पता अबकी बार सोनियाजी लाल किला जाकर रावण के पुतले में नहीं, उनके ही पुतले में बत्ती लगा आए.
दीपक बाबा ने समय के तापमान को कुछ इस तरह देखा:
पिछले दिनों मानेसर में मारुती सुजुकी कंपनी में जो हुआ, उस पर मैं कोई टिपण्णी टिप्पणी नहीं करना चाहता. पर क्यों लग रहा है कि आने वाले दिनों में धार्मिक/भाषाई दंगे इतिहास की बातें हो जायेंगी. औद्योगिक फसाद शुरू होने को हैं... रोटी को तरसते मजदूरों को और उसमे भडकने वाले असंतोष को हवा/समर्थन दिया जा रहा है. 

 जवाहरलाल का चोट-बु्लेटिन जारी करते हुये ज्ञानजी ने लिखा:
जवाहिर लाल जितना कष्ट में था, उतना ही दयनीय भी दिख रहा था। सामान्यत: वह अपने हालात में प्रसन्नमन दिखता है। कुत्तों, बकरियों, सूअरों से बोलता बतियाता। मुखारी करता और बीच बीच में बीड़ी सुलगाता। आज उसके पास एक कुत्ता – नेपुरा बैठा था, पर जवाहिर लाल वह जवाहिर नहीं था, जो सामान्यत: होता था।
अनु सिंह चौधरी ने अपनी अंतिम इच्छा जारी करते हुये लिखा:
 मुझे मालूम नहीं कि मोहभंग हो जाना किसको कहते हैं। ये भी नहीं मालूम कि मैस्लो के आवश्यकता सिद्धांत के पिरामिड पर पांचवें और अंतिम स्तर की आवश्यकता की सिद्धि कभी हो भी पाती है या नहीं। लेकिन इतना जानती हूं कि प्रेम, सुरक्षा, आत्मसम्मान और आत्मसिद्धि का मूल केन्द्र अहं होता है - ये मेरा है, मेरी दुनिया, मेरी बात, मेरी गुरूर, मेरे ख्वाब, मेरी इच्छाएं, मेरा स्वार्थ - इन सबसे जुड़ा हुआ अहं का बोध। उस अहं को तोड़ने के लिए मेरे आस-पास की चीज़ों से मोह तोड़ना होता होगा शायद। और उस मोह को तोड़ देने का सबसे सुन्दर ज़रिया होता होगा दान - कंबल दान, या 101 रुपए का चढ़ावा नहीं, बल्कि सही मायने में दान।
आगे  देखिये उन्होंने अपने शरीर के बारे में क्या वसीयत की:
आंखें, लीवर, लिगामेंट और बाकी जो भी अंग काम में आ सकते हैं, उनका दान कर दिया जाए। इसके लिए किसी भी नज़दीकी सरकारी अस्पताल से संपर्क साधा जा सकता है। बाकी, अंगदान का शपथपत्र, जितनी जल्दी हो सके, मैं भर दूंगी। मेरे शरीर को ना जलाया जाए, ना दफ़न किया जाए बल्कि शव को छात्रों के रिसर्च और एनैटॉमी की बेहतर समझ के लिए मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया जाए। इसे वाकई मेरी हार्दिक इच्छा माना जाए।
उधर सतीश सक्सेना जी के हवाले से खबर मिली कि संवेदनशील शायर सर्वज जमाल जी का कुछ दिन से पता नहीं चल रहा है।  साथी ब्लॉगरों ने उनकी सलामती की दुआ की है।

आज से लंदन ओलम्पिक शुरु हो रहा है। देखिये उसकी सुर्खियां टीवी पर आती ही होंगी।


फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी।

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गुरुवार, जुलाई 26, 2012

पेड़ों के पत्ते सूखे धोबी के लत्ते सूखे

आज सुबह जब ब्लॉग देखने शुरु किये तो ललित कुमार की पोस्ट का शीर्षक देखा- कृपया मझे नाराज न हो!   
उत्सुकता हुई कि कौन नाराज हो गया भाई! गये उनके कने तो पता चला कि किसी ब्लॉगर को उन्होंने किसी ब्लॉगर को उसके ब्लॉग की कुछ कमियां बताईं इसलिये वो उनसे नाराज हो गये। 

ललित कुमार ने अच्छे  ब्लॉग की जरूरतें सीरीज में कुल सत्रह पोस्टें लिखीं हैं।  इनको पढ़कर पता चलता है कि किस तरह अपने ब्लॉग को बेहतर बनाया जा सकता है।

ब्लॉग के बारे में कुछ बातें नये सिरे  से लिखना शुरु करने वाले सतीश चन्द्र सत्यार्थी भी हैं, जिनका मूड कल की चर्चा  पढ़कर फ़िलासिफ़ियाना हो गया! सतीश ने अपना ब्लॉग बनाने के पांच कारण बताये हैं। अपनी सबसे नयी पोस्ट में सतीश ने विदेशी महिलाओं के प्रति भारतीय पुरुषों का नजरिया की जानकारी दी है। सतीश बताते हैं कि विदशी महिलाओं से बदतमीजी करने वाले शायद यह सोचते होंगे:
विदेशी महिलाएं हाफ-पैंट और स्कर्ट में रहती हैं. उनके देश में लड़का-लड़की सब कुछ खुलेआम करते हैं. कोई खुलेआम उनको धर पकड़ ले. उनको जबरदस्ती इधर-उधर हाथ लगाएं तो उनको अच्छा लगता है यह सब. हमारे भारत की लड़कियों जैसी नहीं होती हैं ये. इनके कल्चर में यह सब बुरा नहीं होता. वैसे यह सब हमने देखा नहीं है. पढ़ा तो जिंदगी में नहीं. कुछ लौंडे-लपाड़े टाइप दोस्तों को इन देशों के कल्चर के बारे में बहुत पता है. वही बताते हैं. इसलिए हम विदेशी टूरिस्ट औरतों से बहुत ‘खुल’ कर बीहेव करते हैं.
 सतीश लिखते हैं कि वे महिलायें क्या सोचती हैं ऐसे मसलों पर:
जब खुली-संस्कृति वाले देशों की महिलाएं भारत जैसे देशों में जाती हैं और उनके साथ ऐसा व्यवहार और ऐसी घटनाएं होती हैं वो बुरी तरह डर जाती हैं. क्योंकि उन्होंने जीवन में ऐसी घटनाओं का सामना कम ही किया होता है, इसलिए उन्हें यह भी पता नहीं होता कि ऐसी सिचुएशन में कैसे प्रतिक्रिया की जाए. फिर दूसरे देश में होने के कारण भाषा की समस्या और पुलिस का रूखा रवैया, ये सब उन्हें बस सब कुछ सह लेने को मजबूर करता है . और अंततः वे हमारे देश और संस्कृति के बारे में एक गंदी इमेज लेकर वापस लौटती हैं. यह सब मैं कोई थ्योरी या अपने विचार नहीं बतला रहा बल्कि मैं ऐसी कई महिलाओं से मिला हूँ जो भारत से घूम कर आयी हैं और उन्होंने अपने अनुभव मेरे साथ शेयर किया.
 निशांत के ब्लॉग पर जायें तो आपको जानकारी मिलेगी एक बहुत बड़ी संख्या और कुछ प्रसिद्ध संख्या के बारे में। उधर देखिये कुछ परिभाषायें बताते हुये अभिषेक ओझा ने बताया कि समानता क्या होती है:
समानता: ये कोई पौराणिक कथा नहीं। बचपन में खेत में खाद डाला जा रहा था। खेत के एक हिस्से के लिए खाद कम पड़ गया। एक बुजुर्ग ने कहा - वक़्त रहते बाजार से खाद लेते आओ, नहीं तो बचा हुए खेत गाली देता है ! गौर करें - यहाँ निर्जीव की बात है।

परिभाषाओं की ही बात करें तो किस्से-कहानियां क्यों छोड़े जायें। देख लीजिये शिवकुमार मिश्र के ब्लॉग पर रामायण महाभारत जमाने की कथाओं के नये रूप! युधिष्ठर बेचारे अपने भाइयों की जमानत का जुगाड़ कर रहे हैं।

इस बीच   लखनऊ में अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन की खबर भी आ गयी है। पहुंचिये।
 
उधर लंदन में  ओलम्पिक शुरु होने वाला है।   किस खिलाड़ी से क्या उम्मीदें हैं देखिये यह भी। मान लीजिये पदक  न भी मिले तो घूमने का हिसाब तो है ही। कुछ झलकियां   देखिये शिखा के ब्लॉग पर।

पुरानी स्लेट, बाल कविता और चवन्नी भर चकबक में गिरिजेश एक पुरानी कविता साझा करते हैं:
पेड़ों के पत्ते सूखे 
धोबी के लत्ते सूखे 
घबराई मछली रानी 
देख नदी में कम पानी। 

सब मिल कर के चिल्लाये 
उमड़ घुमड़ मेघा आये 
ओले गिरे लप लप लप 
हमने खाये गप गप गप!
 और फ़िर बयान करते हैं आज के समय का सच:
ज़िन्दगी इस कविता सरीखी आसान होती तो क्या बात होती! बरेली, कोकराझार, मानेसर और दंडकारण्य जैसे मामले कितनी आसानी से सुलझ जाते! छेड़खानी के बाद चलती ट्रेन से फेंक दी गई लड़की को कोई हवाई राजकुमार बाहों में सँभाल लेता और उन सबकी आँखों में सुराख कर देता जिन्हों ने चुप तमाशा देखा। 
लेकिन ऐसा कहाँ होता है? 
 समय बदल रहा है! लड़कियां आगे आ रही हैं। वे कुछ अच्छा करें तो कहा जाता है कि वे पुरुषों की नकल कर रही हैं। इस सोच के बारे में विस्तार से लिखते हुये रश्मि रविजा कहती हैं:
अब जब पुरुष समाज नए रास्ते पर चल रहा है....और स्त्रियों से काफी आगे चल रहा है (प्रतिशत में ) ...धीरे-धीरे स्त्रियाँ भी उसी रास्ते पर चलने लगी हैं...शिक्षा..नौकरी..अपने घर -परिवार का ध्यान रखती हैं....तो इसे पुरुषों की नक़ल..या बराबरी कैसे कहा जा सकता है?? 
अब उनके लिए अलग रास्ता क्या हो सकता है..जिस से ये नक़ल ना लगे?? यही हो सकता है कि वे बस पीछे रहकर सिर्फ घर और बच्चे संभालें...जो अब प्रगति के पथ पर कदम रख देने वाली स्त्रियों के लिए संभव नहीं. वे  सफलता भी पाएंगी..असफल भी होंगी.....अपनी मर्जी से अपनी जिंदगी जियेंगी....गलतियाँ भी करेंगी...उसका खामियाजा भी भुगतेंगी और उन्हीं गलतियों से  सीखेंगी भी...क्यूंकि दासी वे रही नहीं...देवी उन्हें बनना नहीं..बस एक इंसान ही बने रहना चाहती हैं.

आइये अब मिलवाते हैं आपको एक ऐसे लड़के से जो एक अजीब से डर के किस्से सुनाता  है। अपने ब्लॉग  की दो सौ पोस्टों की जानकारी देते हुये एक नहीं, दो नहीं तीन-तीन पोस्टें लिखता है। फ़ेरारी की सवारी को ताजगी भरी फ़िल्म बताता है। प्रेम कहानियां और  कारों के किस्से    लिखता रहता है। फ़िल्मों के लिहाज से अस्सी के दशक सबसे अच्छा दशक बताते हुये लिखता है:
मुझे नहीं पता की अस्सी का दशक मुझे हमेशा से इतना फैसनेट क्यों करता है..शायद इसलिए की अस्सी के दशक में आई कुछ फ़िल्में मेरी पसंदीदा फिल्मों की सूचि में सबसे आगे रही हैं..कुछ फ़िल्में जैसे गृह प्रवेश, बातों बातों में, क़र्ज़, याराना, सिलसिला, बाजार,मासूम, जाने भी दो यारों, स्पर्श, चश्मे बद्दूर, वो सात दिन, इजाजत...ये सभी अस्सी के दशक में ही रिलीज हुई थी और मैं हमेशा इन फिल्मों के किरदारों को, उनके बातचीत करने के, रहने सहने के ढंग को बड़े गौर से देखता हूँ..ये फ़िल्में देखते हुए मुझे लगता है की मैं उस ज़माने में खड़ा हूँ कहीं.मुझे लगता है की मैं उन दिनों के सुकून भरी जिंदगी को महसूस कर सकता हूँ.मुझे लगता है की मैं यारों की वैसी महफ़िल का एक हिस्सा हूँ जो फिल्म में मुझे देखने को मिलती है.ये सब फ़िल्में मैंने जाने कितनी ही बार देखी है, और हर बार मैं फिल्मों में, उनके किरदारों में खो जाता हूँ.
 
हां भाई हम बात कर रहे हैं अभिषेक कुमार की जो अपने बारे में लिखते हैं- बस कुछ सपने के पीछे भाग रहा हूँ, देखता हूँ कब पुरे होते हैं वो...होते भी हैं या नहीं!

अभिेषेक का आज जन्मदिन है। उनको मुबारकबाद देते हुये दुआ करते हैं कि उनके सारे सपने पूरे हों। भाग-दौड़ के बीच सुकून का जीवन  भी मिले। उनका जन्मदिन मंगलमय हो शुभ हो! चलते-चलते  ब्लॉग-खिचड़ी चखते चलियेगा।

आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी।  यहां का चित्र सुनील दीपक जी के ब्लॉग से साभार!




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