मंगलवार, अगस्त 09, 2011

स्म्रतियो का सामूहिक विस्थापन ओर सुख के मिथ

स्मृतियों का सामूहिक विस्थापन ओर सुख के मिथ

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2 टिप्‍पणियां:

  1. लोकतंत्र के इस तीसरे स्तंभ में वही दिखता है जो बिक सके...और थोड़ा ये खुद भी बका हुआ है...एक ही घटना पे सबके विचार अलग अलग होते हैं..और स्तब्ध ये बात करती है कि आप सुन के ये जान जाते हों कि वो किस राजनीतिक दल कि तरफ से बोल रहे हैं...फिर भी इनकी दुकान चल रही है...
    चर्चा बहुत सुन्दर है...और अंत में मंदी से डरा सी रही है.... :)

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  2. सचिन भारत रत्न के लायक नहीं है. इस विषय पर तार्किक एवं दिमाग खोलने वाला आलेख पढ़े. http://sachin-why-bharat-ratna.blogspot.com

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