रात मे जब माता जागरण के पोस्टर के ऊपर मै दुनिया को बदल देने वाली पोस्टर लगता तो मिरांडा हौस के आगे बहुत सारे काले कुत्ते भौकने लगते, बहुत दूर तक मुझे दौडाते । कभी छिल जाता, कभी गिर जाता और सारे पोस्टर बिखर जाते। मै रोते हुये कहता, क्यो भौकते हो, विचारधारा छुड़वा दोगे क्या, एम्.फिल मे हो जाने दो। एक बार तो हॉस्टल से आटे की लाई बनाकर ले गया था और कुत्ते के चक्कर मे सब गिर गयी। दुबारा बनाकर पोस्टर लगाने मे चार बज गये थे।
पंकज अवधिया के लेख हम ज्ञानजी की वुधवारी पोस्ट में बांचते रहते हैं। इस बार की पोस्ट का उनका शीर्षक था विकास में भी वृक्षों को जीने का मौका मिलना चाहिये |हेडिंग संजय तिवारी को तकलीफ़ देने वाली लगी। कुछ लोगों के एतराज पर उन्होंने अपनी बार फिर से रखी कि पंकज अवधिया जी के लेख भाषण ही होते हैं। इस लेख पर नीरज रोहिल्ला ने टिपियाया भी-
मुझे तो इस टाईटल में कोई दम्भ या भाषण नहीं दिख रहा । हो सकता है मुझे भाषा की समझ न हो, लेकिन आज दो बातों से निराशा हुयी है ।
१) पहला तो बिना बाता का मुद्दा बनाकर एक पोस्ट डालना ।
२) फ़िर उसके बाद भी मुद्दे का पीट पीट कर दम निकालने का दूसरी पोस्ट में प्रयास करना ।
आपकी लेखनी सशक्त है, यदि आप इसे विवादों के स्थान पर कुछ मौलिक लिखने में लगायेंगे तो मेरे जैसे पाठकों को बडी खुशी मिलेगी
पंकज अवधिया जी कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हैं शायद और उन्होंने हिंदी ब्लाग जगत से इस्तीफ़ा अपनी पोस्ट पर पटक दिया। इस पर संजय तिवारी की टिप्पणी है -
मैं जानता हूं जमीन से जुड़ा आदमी यह शायद ही लिखे कि विकास में वृक्षों को भी मौका मिलना चाहिए. मुझे दुख हुआ कि आप जैसा जमीनी आदमी ऐसा कैसे लिख सकता है. यही सवाल हमने ब्लाग पर भी किया है.
दूसरी बात कि आपके लेखों में मुझे तथ्यों का अभाव हमेशा खटकता है. यह इसलिए भी हो सकता है कि एक पाठक के तौर पर मैं तार्किक मजबूती के लिए तथ्यों की अपेक्षा करता हूं.
ये दो सवाल अगर आपको अपमानजनक लगते हैं और आपको ठेस पहुंची है तो मैं आपसे पहले ब्लाग जगत को विदा बोलता हूं.
यह सब देखकर अहसास होता है कि मानव उम्र दराज होने के साथ साथ अपना बचपना कितने यत्न से बचा के रख सकता है। पंकज अवधिया जी और संजीव तिवारी जी आप लोग ऐसे विदाई मांगेगे तो क्या मिल जायेगी। टाइम खोटी करते हैं जी आप लोग। कविता करिये विस्फोट करिये लेकिन ई विदा की बात मत करिये। ई लो एक ठो कविता याद आ गयी। बहुत दिन बाद। शुक्रिया दोनों साथियों का कि उनके चलते याद आई। लिख रहा हूं ताकि बाद में भी काम आये-
मेरी पसन्द
विदा की बात मत करना
अभी मदहोश आंखों में कनक कंगन नहीं फ़ूले
अम्बर की अटारी में नखत नूपुर नहीं झुले।
न काजर आंज पायी है, न जूड़ा बांध पायी है
यहां भिनसार की बेला उनीदे आंख आयी है।
कह दो मौत से जाकर न जब तक जी भर जिंदगी जीं लें
विदा की बात मत करना।
रचनाकार -पता नहीं है जी। रचना भी अधूरी है लेकिन पूरी करेंगे खोज के। :)
विदा की बात ठीक नहीं है।
जवाब देंहटाएंलगे रहिये जी।
सत्य वचन महाराज,
जवाब देंहटाएंविदा की बात चाहे अवधिया जी कहें या तिवारी जी, बुरी ही लगेगी |
आशा है दोनों टंकी से उतर कर लिखना जारी रखेंगे |
सत्त बचन महराज।
जवाब देंहटाएंन काजर आंज पायी है, न जूड़ा बांध पायी है
जवाब देंहटाएंयहां भिनसार की बेला उनीदे आंख आयी है।
waah