बुधवार, नवंबर 23, 2005

एक बेघर आवारा कण

आजकल हिंदी चिट्ठाजगत हजामत का दौर सा चल रहा है। फुरसतिया के गुम्मा हेयर कटिंग सैलून को देखकर अतुल भी रंगीला हेयर ड्रेसर में घुस गये तथा वहां से बेआबरू हो के ही निकले तथा सीधे जुड़ गये प्रिंट मीडिया से। इस बीच प्रत्यक्षा ने होशियारी से फुरसतिया से मौज ले ली। इधर सुनीलजी, जीतू, पंकज ने अपने अनुगूंज के लेख लिखे हम फिल्में क्यों देखते हैं? रवि रतलामी ने विज्ञापन जगत में अंग्रेजी के बोलबाले तथा राजनीति में अतार्किकता के फैलते प्रसार के बारे में बताया। सुनीलजी ने रामायण के पात्रों में बहन की जरूरत के बारे में लिखा अपना अतीत और शहर का इतिहास टटोला।

गणित का हल्ला भी रहा ब्लागजगत में। अनूप भार्गव ने सामान्तर रेखाओं के लगाव के बारे में लिखा तो फुरसतिया ने गणितीय कवि सम्मेलन कराया। लक्ष्मी गुप्त जी ने बताया कि राम-रावण दोनों बहुरुपिये थे। लाल्टूजी तथा कन्हैया रस्तोगी लगातार सार्थक पोस्ट कर रहे हैं। प्राचीन भारत की तौल प्रणाली के बारे में लिखा कन्हैया ने। मानसी फिर से कविता के मैदान में आ गईं तथा आवारा कण कविता लिखी
मैं एक बेघर आवारा कण हूं
सीप की गोद में आ ठहरा हूं
बरसों बाद मोती बन कर
तुम्हारी पलकों में सजूंगा
और किसी शाम को चुपके से
ढुलक पडूंगा तुम्हारे गालों पर
किसी एक भंवर में उलझ कर
तुम्हारी हंसी को छेडूंगा फिर
बज उठती थी बार बार जो
मेरे झांकने पर पलकों से
एक प्रेम की पाति लिख जाऊंगा
सूखा चिह्न एक छोड जाऊंगा
छू के उसको तब हंस लेना
रेत का कण समझ झटक देना
मेरा क्या जो खो भी जाऊं
मैं तो एक आवारा कण हूं

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Posted by अनूप शुक्ला at 11/23/2005 05:30:00 PM

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