और रहे काकेश मौन हो व्यस्त स्वयं की मधुशाला में
कोई शिकवा नहीं किसी का चर्चा से क्यों दूर हुए हम
उलझे रहे च्यस्तताओं की पल पल पर ढलती हाला में
घुघुत्र्र बासूतीजी अपना खोया बचपन ढूँढ़ रही हैं
जो न कह सके वो थी शायद सिले हुए होठों की ही स्मित
यह निश्चित ही व्यंग्य नहीं है कहते हैं आलोक पुराणिक
एक सोच का दॄष्टिकोण है, हम भी हुए सोच कर ही चित
ई पंडित जी ने खोले हैं नये ज्ञान के नूतन पोथे
गर्दिश में भी रहा दीप्तिमय, वो बस एक चरागे दिल है
दिल का दर्पण सिखलाता है नये पाठ कुछ नई विधा में
गीतकलश में जो भी कुछ है, एक तुझी पर आधारित है
नारद पर कुछ पूरा दिखता नहीं न जाने क्या कारण है
न समीर का चिट्ठा दिखता नहीं दिखे हैं रवि रतलामी
ये है निश्चित सभी लिख रहे, सोषी संभव मेरी नजर है
चलो हो चुकी चर्चा अब स्वीकारो मेरी एक सलामी
मौन रहे हम सोचकर,व्यस्त ही होंगे आप
जवाब देंहटाएंआ जायेंगे लौट फिर,कैसा,क्यों संताप?
कैसा,क्यों संताप?,करें क्यों इस पर खर्चा
यह दिमाग थोड़ा है,जमेगी फिर से चर्चा
बहुत आभार, कम से कम आप चिट्ठा चर्चा की परंपरा जिन्दा रखे हैं वरना तो सबने मिलकर डुबो ही दिया था..न जाने कैसे लोग हैं. :)
जवाब देंहटाएंकाव्यात्मक तरीके से
जवाब देंहटाएंरखी जो आपने बात,
तो लगा कि जिन्दा है
अभी भी,
हमारा प्यार चिट्ठा-चर्चा.
लिखा करें कुछ और नियमित,
जिससे नब्ज न टटोलनी पडे
बार बार -- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
शिकायत नही हे पर सुझाव हे , चिट्ठा चर्चा मे नये चिट्ठओ को खोजे और लाये जो नारद , ब्लोग्वानि और चिट्ठाजगत पेर नहिन हए .
जवाब देंहटाएंहम क्या कहें , शायद हम में ही अपनी बात ठीक से समझा पाने का गुण नही है । हम अपने बचपन के खोने पर नहीं दुखी थे बल्कि जिसका बचपन हम देख नहीं पाए उसके बचपन की बात कर रहे थे ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
भेज रहे थे बस नेह निमंत्रण,
जवाब देंहटाएंहे गुरुवर तुम्हे बुलाने को
रूठ गये क्यों कुछ भाई हमसे,
तुम्ही आओ अब उन्हे मनाने को...
सुनीता(शानू)