अमरीका में दोस्ती करनी बहुत मुश्किल है। यहाँ आदमी पैसे, कर्जे, होड़, और प्रतिस्पर्द्धा के बुखार से बावरा है।
यही कारण है कि :-
अब यहाँ दोस्ती करनी मुश्किल है, उसका नतीजा बच्चे को झेलना पड़ता है। उनकी भी दोस्ती नहीं हो पातीं, और उसका नतीजा यहाँ बच्चों की आपराधिक टोलियाँ बन जाती हैं। और सच तो यह है जिस तरह का यहाँ चाल चलन है अमरीकी बच्चों का, हम लोग अपने बच्चों को दूसरे देसी परिवारों के बच्चों से ही दोस्ती करने देते हैं।
रमन कौल आजकल भारत में हैं। अपने भारत प्रवास के बारे में झलकियाँ देते हुये वे हवा में रंगभेद के बारे में बताते हैं।
आशीष गुप्ता ने मूर्खता के नियमों की जानकारी देते हुये बताया है:-
मूर्ख वह है जो कि किसी वस्तु, व्यक्ति या समूह को नुकसान पहुँचाता है, जबकि उसे खुद कोई फायदा नही होता, बल्कि शायद नुकसान ही होता है।
मूर्ख व्यक्ति की परिभाषा बताने के बाद उन्होंने एक पायलट को काकपिट के बाहर हवा में फंसा दिया।
वंदेमातरम पर अपने विचार रखे इंडिया गेट ने तथा इस पर शुएब ने अपने अंदाज में लिखा है:-
आज ख़ुदा ने अमेरिका से भारत यात्रा की इजाज़त चाही, अमेरिका ने मना करदियाः ख़ुदा का भारत यात्रा करना ख़तरनाक है क्योंकि वहां कोई एक धर्म नही बल्कि ऐसे वैसे लोगों का देश है के आपका एक बाल मिल जाए तो मज़ार बनादें, दूध से नेहला कर आपके सर पर नारियल तोड सकते हैं यहां तक के आपके कपडे फाड कर अक़ीदत से खाजएंगे फिर उसके बाद किसी तालाब मे डूबा कर आपको घुला देंगे।
आगे लिखते हुये वे कहते हैं:-
अगर आप अपने देश को खुश हाल और तरक्की दिलाना चाहते हो तो देश भक्त बनो देश के गीत गाओ और अगर कोई देश की शान मे गीत ना गाए तो समझो वोह इस देश का नही
रवि रतलामी ने बताया था कि जिस दिन आपके ब्लाग पर दस हजार के करीब लोग आने लगेंगे उस दिन से आप डालर गिनने लगेंगे। अपने ब्लाग पर शायद इसीका जुगाड़ करते हुये उन्होंने टाइम्स आफ इंडिया के बहाने कुछ अश्लील चित्रों की चर्चा की है। अभी तक यह नहीं बताया कि हिट्स कितने हुये!
रतलामी जी के रचनाकार पर प्रवीण पंकज की लघुकथा भी देखें।
आनन्द मग्न रहना, कहते हैं इसे जीना,
यह मौत क्या बला है इसका पता न चीन्हा
रस्ता मिला है पक्का, हम दौड़ते चले हैं
हम तो हमारी मस्ती में झूमते चले हैं
यह कहना है आशीष विश्वास का जोऐलान करते हैं:-
ऐलान कर दिया है दुनिया से हम निराले,
शक हो किसी से दिल में, तो चाहे आजमा ले,
यह देह तो मुकद्दर को सौंपते चले हैं
हम तो हमारी मस्ती में झूमते चले हैं
मोहन राणा अपनी कविता में कुछ पाने की चिंता करते हैं।
उधर मुशर्रफ की मुसीबत बयान कर रहे हैं शेखचिल्ली जी।
हिंदी के प्रख्यात ललित निबंधकार शोभाकांत झा का भवभूति के बारे में लिखा ललित निबंध पढ़िये बमार्फत सृजन गाथा
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सृजन शिल्पी ने हिंदी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह का लेख पोस्ट किया है हिन्दी के दुश्मन।नामवर सिंह लिखते हैं:-
मुझे तो लगता है कि सत्ता प्रतिष्ठान पर क़ाबिज़ अँग्रेज़ीदाँ अफ़सरों ने ही राजभाषा को नकली बना दिया। सरकार को चाहिए कि वह राजभाषा को अंग्रेजी के अनुवाद से मुक्ति दिलाए।
आजादी के बाद हमारे देश में एक बड़ा मध्यवर्ग पैदा हुआ है। वह ताकतवर है। उसकी ताकत और यहाँ तक कि आजीविका भी मुख्यत: अंग्रेजी पर ही टिकी हुई है। शासन और इस ताकतवर तबक़े का एक गठजोड़ बन गया है जो निरंतर हिन्दी के लगभग नहीं के बराबर प्रयोग होने वाले एक-दो शब्दों को पकड़कर पूरी हिन्दी भाषा का मजाक उड़ाता है। राजभाषा होने के कारण भी हिन्दी को विरोध का सामना करना पड़ता है। आम तौर पर राजसत्ता का विरोध करने की एक प्रवृत्ति होती है। चूँकि राजसत्ता भ्रष्ट हो गई है, इसलिए कई लोग हिन्दी को भी इस भ्रष्टाचार में शामिल कर लेते हैं। कहा जाता है कि राजभाषा खाने-कमाने का धंधा बन गई है यानी समाज और राजनीति में आई हर तरह की गिरावट को हिन्दी के साथ जोड़कर देखने की हवा सी चल पड़ी है। यह हवा हमारे देश में सत्ता प्रतिष्ठान पर क़ाबिज़ वही अँग्रेज़ीदाँ तबक़ा बना रहा है, जिसका हिन्दी विरोध में खुद का स्वार्थ छिपा है।
...ये लोग अंग्रेजी में सोचते हैं और अंग्रेजी का ही खाते हैं। पश्चिम की नकल करते हैं और अपने समाज से कटकर वहीं के समाज में अपनी जड़ें तलाशते हैं। इस तबक़े ने जो नया दर्शन गढ़ा है उसे मैं ‘खंड-खंड पाखंड’ कहता हूँ। यह दर्शन न सिर्फ अंग्रेजी के वर्चस्व और पश्चिमी विचारधारा की रक्षा करता है बल्कि परोक्ष रूप से नवउपनिवेशवाद का हिमायती भी है।
यह पूरा लेख पठनीय है।
लक्ष्मी नारायणजी ने कवि गोविंदजी के कुछ छंद अपने ब्लाग में पोस्ट किये हैं।
हिंदी प्रेमी जयप्रकाश मानस जी अपने विस्तृत लेख में इंटरनेट पर हिंदी के बढ़ते प्रसार की विस्तार से चर्चा की है। तमाम तकनीकी चिट्ठाकारों के योगदान का उल्लेख किया है। यह लेख अनुनाद सिंह द्वारा दिये गये ब्योरे में नया पृष्ठ जोड़ता है।
कल बिहार से भेजे गये रमेश परिहार के तमाचे हमें अभी तक मिले नहीं है। वैसे जानने वाले लोगों ने बताया है कि बिहार से तमाचे भेजने वाले रमेश परिहार तथा अमेरिका से छद्मनाम से ब्लागिंग करने वाले एक चिट्ठाकार का आई.पी. पता एक ही है। वैसे बिहारी इतने डरपोक नहीं होते कि छिपकर वारे करें। वहाँ तो जो होता है खुला खेल फर्रखाबादी होता है।
मुझसे कल जीतेंद्र और स्वामीजी ने बहुत कहा कि मैं रमेश परिहार वाली टिप्पणी चिट्ठाचर्चा से हटा दूँ। अमूमन मैं इन लोगों की कोई बात नहीं टालता लेकिन कल बावजूद इनके तमाम अनुरोध के मैंने टिप्पणी हटाना ठीक नहीं समझा ताकि सनद रहे। अनाम या छद्मनाम से लेखन करना किसी के लिये मजबूरी होगी। जरूरत होगी। उसके तमाम फायदे भी होंगे । इसी का एक पहलू इस तरह के उपहार भी हैं।
नारदजी के सूचनार्थ लेख(इतनी जल्दबाजी अच्छी नहीं का)लिंक ठीक नहीं है।
आज की टिप्पणी
:-माननीय खबरिया जी
चिट्ठाचर्चा के सौजन्य से पता चला कि किन्ही परिहार ने हमें तमाचे भेजे दे कोरियर से जो आपने हम तक पहुँचने के पहले ही जब्त कर लिये ।
खैर मैं कुछ स्पष्टीकरण देना आवश्यक समझूँगा।
१. अनाम रहकर लिखना मैं गलत नही समझता। अगर ऐसा होता तो ईस्वामी, सृजनशिल्पी, सुर, रीडर्स कैफे और कई अन्य श्रेष्ठ लेखकों के ब्लाग पर विरोध दर्ज कर दिया होता। ब्लागिंग निजी विचारों को सार्वजनिक करने का माध्यम है, इसे अनाम रहकर करें या नाम से, कोई फर्क नही पड़ता।
२. “सबसे पहले हम मीडिया की लेंगे” एक टाइपोग्राफिक गलती थी, मान लिया बात खत्म, पर इसे किया १७ अगस्त को और माना ३० अगस्त को। पूरे १३ दिन बाद!
३. इस टाइपोग्राफिक गलती से पहले आपने लिखा कि “जब हमने आजतक की ख़बर ली थी तो दर्द किन्ही औरों को उठा था। हम जब नेताओं को गालियां देते हैं तो सभी तारीफ़ करते हैं। लेकिन जब लोकतंत्र के डगमगाते चौथे स्तंभ पर उंगलियां उठाते हैं तो आलोचना क्यों की जाती है?” यह वाक्य दुबारा , तिबारा पढ़ लीजीये। नेता, अभिनेता और वे सभी हस्तियाँ जिनकी सार्वजनिक छवि है, उनके एक एक कदम पर मीडीया और जनता की नजर होती है। इन्हें जनता अपना नायक बनाती है, सर आँखो पर बिठाती है तो इनसे भी मर्यादापूर्ण आचरण की अपेक्षा होती है। वैसा न करने पर इनकी थुक्काफजीहत लाजिमी है। हाँ वह आलोचना भी मर्यादा के अँदर हो तो ठीक वरना पीतपत्रकारिता बन जाती है।
४. आपके ब्लाग का दावा है कि आप लोग पत्रकार है, मीडिया में रहकर, मीडिया के भ्रष्टाचार की पोल खोलना चाहते हैं। कुछ उदाहरण देता हूँ काल्पनिक हैं, गौर करियेः
मान लीजिये, आजकल ओंकारा और कभी अलविदा न .. के विरोध का स्टंट मीडिया दिखा रहा है, जनता पक गई है, जानती है यह सब दिखावा है, आप जिस संस्थान में काम करते हैं वह अपनी व्यवसायिक प्रतिबद्धताओं के चलते एकपक्षीय सामचार देता है, आप लोग ब्लाग के जरिये वह खुलासा नही कर सकते क्या?
मान लीजिये, आरक्षण पर धुँआधार बहस छिड़ी है पर जिस तरह का सच , जैसी उत्कृष्ट समीक्षा सृजनशिल्पी ने लिखी वैसा लिखने के लिये शायद समाजशास्त्र , राजनीतिशास्त्र का अध्ययन जरूरी होता है। यह विषय बीए , एमए में होते हैं और समाज , राजनीति की खबर लेने रखने वाले पत्रकार यह सब पढ़े होते हैं ऐसा मेरा भ्रम है। तो क्या आप की टीम में किसी ने यह सब नही पढ़ रखा ?
जब देश का पूरा का पूरा भ्रष्ट मीडिया जैसा कि आप दावा करते हैं, राकी साँवत के चुबँन शास्त्र, बाला साहेब की कुर्सी और राहुल महाजन के हनीमून के ठिकाने का पता करने में जुटा है तो आप ऐसा क्यों किया जा रहा हैं और क्या दिखाना चाहिये उस पर रोशनी नही डाल सकते?
दरअसल पूरे विवाद कि जड़ में मेरा भ्रम, मेरी अपेक्षा शामिल थी, जब मैने आपका यह दावा देखा कि आप लोग पत्रकार हैं तो मुझे लगा कि अब हमें वह पढ़ने को मिलेगा जो आम मीडिया राजनैतिक, व्यवसायिक प्रतिबद्धताओं के चलते दिखाना नही चाहता। पर आप लोगो का उद्देश्य था “to bring the dirty laundry of various publicly known journalist, out in public”. आपको लगता है कि इससे मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार मिटेगा तो आपको शतः शतः शुभकामनाऐं। मैनें खामखाँ कुछ ज्यादा की उम्मीद लगाकर आप लोगो की आलोचना की और अनजानें में अनूप शुक्ला और ईस्वामी की फजीहत करवायी।
मैं इस प्रकरण के लिये अनूप शुक्ला और ईस्वामी से क्षमायाचक हूँ ।
अतुल
आज का फोटो
नीचे दिया गया फोटो केरल के कोवलम तट पर जाल को खींचते मछुवारों का है। इसे जीतेंद्र के फोटो ब्लाग दर्पणसे लिया गया है।
मछुवारे
धन्यवाद. इसको दैनिक की जगह साप्ताहिक भी किया जा सकता है, अगर ज्यादा कार्य लगे, जो कि है ही.
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