कल की
चर्चा में केवल सच ने बार-बार टिपिया के चित्र का लिंक ठीक ही करवा लिया। अभी भी उनका सच-हठ बना हुआ है
कि नाम के नीचे बेजी का लिंक देते अच्छा रहता शायद!हम यही कहते हैं कि वे देख लेते तो और अच्छा लगता काहे से नीचे जहां डा.बेजी लिखा है वहां उस पोस्ट का लिंक दिया है जिससे कविता ली गयी है।
ब्लागमास्टर की जायज शिकायत दूर कर दी गयी और उनकी पोस्ट का लिंक दे दिया गया है।
काकेश का आरोप है और वह सही भी है कि
पहली बात तो यह कि हमारा और चिट्ठा चर्चा का 36 का आंकड़ा है. जब हम रोज लिखते हैं तो आप चर्चा नहीं करते जिस दिन हम पोस्ट नहीं लिखते या लिख पाते उस दिन चर्चा हो जाती है. तो कोशिश इस 36 के आंकड़े को 63 उलटने की कर लेते हैं पहले।
काकेश आजकल नियमित ब्लागर होने की प्रयास कर रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने ही ब्लागजगत को प्रख्यात व्यंग्य उपन्यास
खोया पानी से परिचित कराया। आजकल
देशी पण्डित पर
हिंदी ब्लाग का परिचय देने का काम कर रहे हैं। जैसा कि हर नियमित ब्लागर के साथ होता है वैसा उनके साथ भी है कि वे जितना अच्छा लिखते हैं ,टिप्पणियां उससे अच्छी करते हैं। संजीत के ब्लाग पर उनकी ये
टिप्पणी पढ़तव्य है-
अनतर्मुखी तो हम भी हैं जी पर हमारी रचनाऎं तो नहीं बोलती...उनको बुलवाने का उपाय बताइये जी.
इसी टिप्पणी-कड़ी का ही एक नायाब छल्ला है उनकी ये
पोस्ट। अब क्या जिक्र करें आप भी तो कुछ पढि़ये- लिंकानुगमन करके।
काकेश के बाद अब बालकिशनजी की शिकायत पर गौर किया जाये। हमें पता ही नहीं चला कि बालकिशन जी
जवानी दीवानी जिन्दाबाद कर चुके हैं और कहते हैं-
सहसा ही रहस्य से परदा उठने लगा वही उर्जा मैं अपने आप मे भी महसूस करने लगा. लगा की सारी दुनिया को मुट्ठी मे बंद कर सकता हूँ. हौसला इस कदर बढ़ा हुआ लगता था की उस घड़ी दुनिया मे मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं है. ये उर्जा, ये हौसला प्रकृति का एक नायब तोहफा है युवाओं को, जवानों को और उनकी जवानी को.
वैसे जब जवानी का जिक्र आता है तो मुझे परसाई जी का लेख
पहिला सफ़ेद बाल याद आता है जिसमें उन्होंने लिखा है-
यौवन नवीन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने की तत्परता का नाम है; यौवन साहस, उत्साह, निर्भयता और खतरे-भरी जिन्दगी का नाम हैं,; यौवन लीक से बच निकलने की इच्छा का नाम है। और सबसे ऊपर, बेहिचक बेवकूफ़ी करने का नाम यौवन है।
इस यौवन तराजू पर आप भी अपनी जवानी का बैलेंस निकाल लें। :)
आदि चिट्ठाकार आलोक ने कल फोनिया के राय जाहिर की चिट्ठाचर्चा में नये चिट्ठाकारों का परिचय दिया जाये। उनकी बात तो वो भी नहीं टाल सकते फिर हम कौन खेत की मूली हैं। सो जल्द ही चिट्ठाचर्चा में नये चिट्ठाकारों का नियमित परिचय देने का प्रयास किया जायेगा।्कब,कैसे,किस तरह यह आलोक तय करके आदेश जारी करेंगे। वे भी चर्चा-दल में शामिल हो रहे हैं।
तीन दिन पहले ज्ञानदत्तजी ने ब्लागिंग वर्षगांठ मनायी। उनको हमारी भरपूर बधाई! नियमित लेखन से वे तमाम लोगों के लिये जरूरी ब्लागर ब्लागर बन गये। लगता नहीं कि उन्होंने एक साल पहले ही उनका ब्लाग पाटी-पूजन हुआ था। आज अपनी पोस्ट में ब्लागिंग के चलते अपने में आये बदलावों का रेखांकन करते हुये लिखा-
मेरी विभिन्न वर्गों और विचार धाराओं के प्रति असहिष्णुता में कमी आयी है। इसी प्रकार आलोचना को कम से कम हवा दे कर झेलने का गुर भी सीखने का अभ्यास मैने किया है। मैने अपनी सोच में पानी नहीं मिलाया। पर दूसरों की सोच को फ्रॉड और खोखला मानने का दम्भ उत्तरोत्तर कम होता गया है। बहुत नये मित्र बने हैं जो मेरी भाषागत अक्षमताओं के बावजूद मेरे लेखन को प्रोत्साहित करते रहे हैं। उनका स्नेह तो अमूल्य निधि है।
अब कुछ हड़बड़िया एक-लाइना!
भास्कर में आखों की किरकिरी : आंख पानी से धो लो ठीक से भाष्करजी।
दुर्योधन की डायरी -पेज ३३५० : में शिवकुमार महाभारत तक भागते चले गये।
दीन दयाल बिरद सम्भारी :
काम पड़ा अब थोड़ा भारी।
ये उत्तर प्रदेश है हुजूर, यहां फोड़ी जाती हैं आंखें :आइये एक बार सेवा का मौका दीजिये जनाब!
करात कालम् उर्फ राहु कालम् :पर पुराणिक ग्रह की वक्र दृष्टि है।
एक क्रिकेट खिलाड़ी का दर्द...: बड़े काम की चीज है।
ये वो शहर है जो :हर रोज उजड जाता है!
महिमा अवतारों की : बता रहे हैं शब्दवीर अजित वडनेरकर!
भारतीय संसद का अमेरिकी बजट सत्र :का औचित्य क्या है?
चलो अब हमने भी ग़रारे कर लिए, अब हम भी गायक हो ही गए!: तनिक सौंफ़, मुलेठी भी दबा लें मुंह में।
तेरे बिना वो बात नही... : लेकिन मजबूरी में निभाना पड़ रहा है।
डिस्टलरी की बदबू मे डूबता रायपुर शहर:इसका कुछ इलाज करना पड़ेगा, नाक में रुमाल दबा के।
टूटे हुए चाँद को: सादे काग़ज़ में लपेटा मैंने। आपको कौनो तकलीफ़ तो नहीं है न!
कहां से कहां ... तक: बस एक नौकरी से दूसरी तक!
दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं : लगता है रोशनी पर सर्विस टैक्स लग गया है।
मेरी पसंद
पंख अब हम कहाँ फैलायें
आसमां क्यों सिकुड़ सा गया है
सूरज तो रोज ही उगता है
दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।
आँखों में है धूल और पसीना
मंजिल धुँधली नजर आ रही है
अभी तो दिन ढला ही नहीं
साये क्यों लंबे हो गये हैं।
अंधेरों की अब आदत पड़ सी गई है
ऑखें चुंधियाती हैं शीतल चांदनी में
बियाबां की डरावनी शक्लें हैं
चेहरे ही गुम क्यों हो गये हैं।
जमीं पे पाया औ यहीं है खोया
क्यों ढूढते हैं हम अब आसमां में
हम वही हैं कारवां भी वही है
पर आदमी अब कम क्यों हो गये हैं।
मथुरा कालोनी से
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