कल निधि ने लेखन वापसी करते हुये संकल्प संस्था के बारे में जानकारी दी। यह संस्था पीतल नगरी के नाम से जाने जाने वाले शहर मुरादाबाद के कामगार बच्चों को उनका बचपना सुरक्षित रखने का प्रयास करती है। पीतल उद्योग में लगे लोग खासकर बच्चे ऐसी कठिन परिस्थितियों में काम करते हैं कि उनकी औसत आयु ४०-४५ साल ही रह जाती है। संकल्प संस्था का उद्देश्य पीतल नगरी के कामगार लोगों के बच्चों को शिक्षित करने के अवसर प्रदान करना है ताकि उनके बेहतर भविष्य की आशायें बनें। फिलहाल लगभग ५०० बच्चे संकल्प संस्था के सौजन्य से शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं उनमें से कुछ ११ वीं, १२ वीं की पढाई करने के बाद ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे हैं।
संकल्प के माध्यम से आप भी इन बच्चों के भविष्य संवारने में सहयोग दे सकते हैं। आप निधि की यह पोस्ट पढ़ें और अपने मित्रों को पढ़वायें। शायद आपका और आपके मित्रों का मन कुछ बच्चों के भविष्य संवारने का कारक बने।
निधि के माध्यम से ही हम प्रशान्त तक पहुंचे। मुरादाबाद के तमाम चित्रों के अलावा उनके ब्लाग पर संकल्प संस्था से जुड़े बच्चों के बनाये चित्र भी हैं। इनमें से कई चित्र लोगों ने बच्चों को सहयोग देने के उद्देश्य से खरीद लिये हैं। कुछ और बचे हैं। देखिये शायद आपका भी मन कुछ सहयोग करने का बने। यह बगल का चित्र कक्षा आठ में पढ़ने वाली सबीना ने बनाया है।
ललित कुमार बहुत दिनों से कविता कोश को में कविताओं के संकलन में लगे हैं। आज कविता कोश में दस हजार का आंकड़ा पूरा हुआ। यह एक उपलब्धि है। आप उनको बधाई दीजिये और कविता कोश को समृद्ध करने में ललितजी को सहयोग भी।
प्रख्यात कथाकार सूरज प्रकाश जयपुर में कहानी पाठ के संस्मरण बताते हुये कहते हैं:
रचनाकार के लिए कोई भी शहर पराया नहीं होता अगर वहां उसका एक भी रचनाकार दोस्त या पाठक रहता हो. तब सारा शहर उसका अपना हो जाता है.
जीतेंद्र को न जाने क्या हुआ वे चिंतन करने लगे। रामचन्द्र मिसिर बोले -नहीं चाहिये ऐसा चिंतन। समीरलाल बोले -बालक धरती पर वापस आओ/हमारी अगली पोस्ट पर टिपियाओ।
आपको शायद पता न चले इसलिये सौम्या ने बताया है- आज साल का सबसे बड़ा दिन है। वो तो जावा भी सिखा रही है।
डा.अमरकुमार का मन न जाने क्यों ऐं-वैं टाइप हो रहा है। उन्होंने सवाल-जबाब कर डाले। देखिये आप भी।
कहीं कोई चिरकुटई का काम हो और उसमें पंगेबाज न सहयोग करें ऐसा हो नहीं सकता। कविताई के दंगल में वे कूद पड़े झम्म से। अनूप कानपुरी का शेर पेश करते हुये बोले-
"जिसे प्यार करते थे, वो समझदार निकली
हम दिल दे रहे थे, वो गुर्दे की खरीदार निकली"
इसी कड़ी में प्रमेन्द्र ने अपने ब्लागिंग के निजी अनुभवों के आधार पर दस लाइन का निबन्ध लिख मारा। आप देखिये और नम्बर दीजिये।
शायद आपको पता हो लेकिन बमार्फ़त नीरज वुधकर बजरिये अजित वडनेरकर एक बार फ़िर से बता दें कि तमाम पत्रिकायें आनलाइन उपलब्ध हैं। उसी रूप में जिस रूप में बाजार में मिलती हैं।
१. हम ...आपको समझना चाहते हैं !: लेकिन आप हमको कुछ समझते ही नहीं।
२.पुस्तकचोर बच्चे यानी तरह-तरह के चोर : सबसे ज्यादा किताबें चुरा के ही पढ़ी जाती हैं जी।
३.मिलिये स्वघोषित भावी प्रधानमन्त्री से! :अभी मिल लीजिये जब बन गये तब तो न मिल पायेंगे।
४. सीवर कंसल्टेंसी उर्फ इनवेस्टीगेशन: किस्सा वही जो पुराणिक बतलायें। टेस्ट वही जो सीबीआई करवाये।
५.कैसे कैसे अड्डे और अड्डेबाज ! :आखिर सब गर्त में जाना ही है!
६. छुट्टिया और ऋषिकेश में आत्म चिंतन:बालक, धरती पर वापस आ जाओ।
७.शहद के छत्ते को न छेड़ें श्रीमन्… : शहद तो मिलेगा नहीं, डंक लग जायेगा।
८.सिक्किम - छोटा मगर सुन्दर : सुन्दर नहीं अति सुन्दर!
९. क्या गृहिणी को गृहकार्य का वेतन मिलना चाहिए?: आप ही बतायें।
१०.उच्च वर्ग का औजार है मीडिया : बड़ा तेज औजार है।
११.हम मिलेंगे एक अच्छे दोस्त की तरह! सच्ची!!
१२.वाह क्रीमी लेयर से आह क्रीमी लेयर तक :हर जगह रपटन ही रपटन है।
१३.केरल और पीने का पानी : पानी रे पानी तेरा रंग कैसा ? : जैसा मनीष बतायें वैसा।
तमाम दोस्तों को शिकायत होती है कि उनके ब्लाग की चर्चा हमने नहीं की। छोड़ दिया,छूट गया। असल में एकाध घंटे में जो दिख जाते हैं उन ब्लाग को देख कर उनमें से जितना समझ आता है उतने का जिक्र कर देता हूं। तमाम साथी इस चर्चा मंच से जुड़े लेकिन समय और अपनी मजबूरियों के चलते कम होते गये। यह चर्चा भी बहुत कुछ आलोक पुराणिक के उकसावे पर होती रहती है। एकलाइना के लिये वे अक्सर कहते रहते हैं। एकलाइना के चलते और भी बहुत कुछ ठेल दिया जाता है। आदतें मुश्किल से जाती हैं। वो आदत ही क्या जो आसानी से छूट जाये। :)
आप लोगों में जो साथी चिट्ठाचर्चा से जुड़ना चाहें वे बतायें। हम उनको यहां लिखने के लिये निमंत्रण भेजेंगे।
मेरी पसन्द
हालांकि ज्ञानजी ने मौज लेते हुये ही कहा था -"मेरी पसन्द" में यदा-कदा गद्य भी ठेला करें! कविता तो अब अझेल जी करने लगे हैं। :) लेकिन पाठक को चिट्ठाजगत का भगवान मानते हुये हम उनकी इच्छा का आदर करने के लिये अपना पसंदीदा गद्य लेखन पेश कर रहे हैं-
"उच्च वर्ग की साज़िशों में साथ देने वाले मध्य वर्ग में दो तरह के लोग हैं। एक बेहद महात्वाकांक्षी लोग जो हर कीमत पर उच्च वर्ग में शामिल होना चाहता हैं। ऐसे लोग आगे बढ़ने के लिए भौतिक सुखों को इकट्ठा करने के लिए हर साजिश में शामिल हो सकते हैं। वो खुद को उच्च वर्ग के सबसे बड़े हितैषी के रूप में पेश करते हैं और अपने मकसद के लिए उससे भी कहीं अधिक क्रूर हो सकते हैं।
मध्य वर्ग में दूसरा तबका है ऐसे लोगों का है जो मजबूर हैं। ये लोग अपने घरवालों से बहुत प्यार करते हैं। उन्हें मझधार में छोड़ कर समाज को बदलने की जद्दोजेहद में शामिल होने का साहस नहीं जुटा पाते। इनकी स्थिति पेड़ से कटे उस साख की तरह है जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है। अपनी मिट्टी और देस से उखड़े हुए उस पौधे की तरह है जो परायी जमीन में जड़े जमाने की कोशिश में है। आज की बाज़ारवादी व्यवस्था में नौकरी करना इस तबके की मजबूरी है। उसकी इसी मजबूरी का फायदा उच्च वर्ग उठाता है। मध्य वर्ग के इस तबके में मैं भी शामिल हूं।"
समरेन्द्र
मेरी पसंद में मेरी पसंद ले आये आप. :)
जवाब देंहटाएंजीतू को लाना आपकी भी बराबर जिम्मेवारी है.
बहुत तुरत फुरत रिपोर्टिंग है...रोज ऐसे ही करें..हा हा!
उम्दा!!
बढि़याँ,
जवाब देंहटाएंस्वागत है निधि दीदी का
जमाये रहियेजी।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया..
जवाब देंहटाएंaap achchhe chithhon ki jankari dhoondh kar laate hain, bahut-bahut aabhar...
जवाब देंहटाएंaage bhi ummid hai aise achchhe-achchhe chithhon se aap mulakat karwate rahenge...
सरजी , ये बुधकर जी के चिरंजीव नीरज बुधकर नहीं पल्लव बुधकर हैं। कृपया सही कर लीजिए ।
जवाब देंहटाएंबाकी झक्कास है... जमाए रहिये अखाड़ा :)
हां जी जीतेन्द्र काफी मनीषीयों वाली बात कर रहे थे। हमें लगा कि जोश बढ़ाऊ टिप्पणी दे दी तो कहीं दीक्षा न ले लें सन्यासत्व में!
जवाब देंहटाएंइतने रोचक अंदाज में चिट्ठों की चर्चा पढ़ने में बहुत मजा आता है। 'मेरी पसंद' में गद्यलेखन को भी शामिल किया जाना स्वागत योग्य है।
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