बाबू देवांशु की बहुत दिन से अगड़म बगडम मांग है कि चिट्ठाचर्चा होती रहनी चाहिये। उनका पक्का मानना है कि यह पवित्तर काम न करके हम देश और समाज के साथ जो नाइंसाफ़ी कर रहे हैं उसको पूरा देश भले माफ़ कर दे लेकिन वे न माफ़ कर पायेंगे क्योंकि इधर वे आजकल जरा बिजी टाइप चल रहे हैं सो अपना ब्लॉग तक लिखने के लिये समय नहीं ’नोच-निकाल’ पा रहे हैं तो माफ़ करने के लिये निकालने की तो बातै छोड़िये।
हां तो जी बात ब्लॉग की हो रही थी। ब्लॉगिंग के कम होने की बात दनादन होती रहती है और लोग लौट-लौट के इस घाट आते जा रहे हैं। नये -नये प्रयोग कर रहे हैं। देखिये कल ही जे एन यू से पढे और अब कोरिया में आगे पढ रहे सतीश चन्द्र सत्यार्थी ने एक फ़ोटू का बेफ़ोर एंड आफ़टर कर डाला। वैज्ञानिक चेतना संपन्न डॉ अरविन्द मिसिर को कविताई का शौक चर्राया तो झेला दिहिन अपने विगत की जीवन्तता । अच्छा किया कि कविता के मोहर में मोहर प्रौढ़ता की ही लगी है। कवीता बांचकर कोई सोच सकता है कि जब प्रौढ़ के यहां इत्ती "अनगिन स्वर्णरेखी इच्छाएं" मचल रही हैं तो जवानी के काउंटर पर एकदम मामला एम्मी एम्मी होगा।
बात कबीता की चली तो सुनिये आप प्रमोद सिंह जी के यहां जाकर कबीता। ऐसा कबीता बनाये हैं कि आप बार बार मने कि अगेन अन्ड अगेन सुनना चाहेंगे। दू टाइप का कबीता है इसमें एक ठो तो मार्मिक टाइप का है जिसमें कभी-कभी टाइप वाला बात है और कवि कहता है:
कभी-कभी लगता है जीवनदूसरका कविता जरा अधुनिक है। अज्ञेय वाला। उसमें घोड़ा है , उसके कान का फ़ुंसी है गदहा है और बहुत कुछ मने कि अधुनिकता का कम्प्लीट पैकेज है। आप सुनियेगा तो खुदइये समझ जाइयेगा। ई दू ठो कविता तो आपको सुनाई देगा - एक ठो चिरकुट और दूसरका अधुनिक। लेकिन तीसरा जो आपको सुनाई नहीं देगा ऊ वाला सबसे मार्मिक है। अब आप कहेंगे कि जो सुनाई नहीं देता वो मार्मिक कैसे हो सकता है। लेकिन है जी। वहिऐ तो सुनना है। ऊ उत्तरआधुनिक है। सुनिये जाइये इस लिंक को खोलिये जिसका टाइटिल जिसे रीजनल लैंगुयेज में शीर्षक कहते हैं है-सिडनी बेशे का ट्रंपेट और जीवन की रेल.. ।बस 6.42 मिनट का कविता है। सुनिये जिसकी शुरुआत होता है खैनी के खतम होने के मार्मिक भाव से। ताली-वाली बजाने को बोलता है कवी लेकिन जरूरी नहीं आप ऊ सब पचड़े में पड़ें। निकल लीजिये आपको दूसरका सुनायेंगे। उसमें लव इस्टोरी है।
लेटलतीफ़ी का लमका पसींजर गाड़ी है।
कभी कभी लगता है जीवन
विकट घाम में
टेरीलीन का बहुतै गड़ रहा साड़ी है।
कभी कभी लगता है जीवन
चार दिन का मेहराइल, मुर्झाइल
बासी सिंघाड़ा है
कभी कभी लगता है जीवन
भोरे उठके नहाये वाला
काठ मार जाये वाला जाड़ा है।
अब जब कवि कविता लिखेगा त प्रेम भी करेगा। लेकिन प्रेम आजकल करना बहुत डिफ़िकल्ट काम हो गया है। जमाना ऐसा आ गया है कि आदमी को रोटी, प्याज मिल जाता है लेकिन प्यार नहीं मिलता।आदमी मेहनत करता है लेकिन नायिका माइंड कर जाती है। देखिये इहां रूपाली जी माइंड कर जाती हैं और नायक रूपाली जी को अपनी बात कैसे कहता है पहिले पढ लीजिये जरा :
रूपाली आपने ऐसे सोच कैसे लिया?
मने आप मुझसे एक बार पू ऊ छ तो स क ती थीं न! आई वास आई वास देयर देयर ओनली। दिलीप या सुभाष की तरह मैं ऐसा कुछ विहेव करूंगा आपके साथ ! कल्पना दीदी मुझे जानती हैं। फ़िर आपके पड़ोस में और कौन वो शर्मा आन्टी भी मुझे जानती हैं।मैं क्लास सेवेन में था तब मैंने उनके यहां ट्यूशन किया है। तब आप लोग तब यहां नहीं थे। बोकारो में थे। सब सब मेरी एक स्टैंडिंग है इतना आप एक्सेप्ट करती हैं न! स्टैंडिंग है मेरी। मेरी कुछ रेपुटेशन है। थोड़ा मैं नहीं कह रहा हूं कि मैंने सारे बेस्ट ब्वाय वाले ही सारे काम किये हैं बट फ़िर भी किसी लड़की ने आपकी क्लास में मेरे बारे में कोई शिकायत की है? अनवारन्टेड शिकायत की है आप आप बताइये! ....
आगे आप खुद सुन लीजिये। सुनने का मजा पढ़ने में कभी नई आयेगा। अद्भुत प्रस्तुति है प्रमोद सिंह जी की। सुनने के लिये इस पोस्ट पर जाइये- तुमि केमन करे गान करो हे गुनी..
ये अद्भुत पॉडकास्ट ब्लॉगिंग के जरिये ही सुन पाये। कल सुने न होते तो आज देवांशु की मांग पूरी न करते। मटिया दिये होते। कल इनको दुबारा सुना तो मन किया आपको भी सुनायें। सुनिये और बताइये कैसे लगे।
अच्छा आप चाहते हैं हम भी कुछ सुनायें। तो सुनिये कट्टा कानपुरी की आज की प्रस्तुति:
निकल लिया 15 अगस्त कल,
अब 16, 17 की आई बारी है।
कल देश प्रेम के खूब दगे पटाखे,
सब धुंआ आसमान में तारी है।
कल तक प्याज के हल्ले थे जी,
देखें आज कौन नयी तरकारी है।
देश का इंजन भड़भड़ चालू है,
देखो आज किधर की तैयारी है।
चाय चकाचक चुस्त चुस्कियां ,
एक कप के बाद दूजे की बारी है।
-कट्टा कानपुरी
आज के लिये बस इतना ही। कल का कोई भरोसा नहीं। मस्त रहिये। व्यस्त रहिये। दुनिया में प्याज के अलावा भी बहुत कुछ बिकता है। :)
ऊपर वाला स्केच प्रमोद सिंह द्वारा । उनके और स्केच देखिये चिट्ठाचर्चा में। बकिया और देखने हैं तो चलिये देखिये , खंगालिये - सुखी कैसे हों की तकलीफ़देह पड़ताल में जुटे प्रमोद सिंह की नोटबुक.. ।
दोनों पोडकास्ट सुन डाले !!! मजा आ गया !!!
जवाब देंहटाएंइसैई लिए तो कहते हैं चिट्ठा चर्चा चालू रहे तो मजा आता रहे :) :)
ट्रेफिक बहुतै दूर खड़ी है
जवाब देंहटाएंप्याज़ से किल्लत यहां बड़ी है।
बकिया फिर, जय हो.. हिम्मत की बिन-पालोंवाली नाव का फेसबुकिया फुदकन समर में विलय हो?
बड़े दिनों बाद आयी नई चर्चा..
जवाब देंहटाएंअज़दक जी का ब्लॉग तो गज़ब ही है.. जाने के बाद निकलना मुश्किल हो जाता है..
गलत कह रहे हैं. मैं तो घुसने के पहले ही निकल आता हूं, रोज़. मुश्किल नहीं है, बहुतै आसान है.
हटाएंचिट्ठाचर्चा चलती रहे चकाचक!
जवाब देंहटाएंमस्त पॉडकास्ट।
जवाब देंहटाएंप्रमोद जी की आधुनिक कविता में ज़िन्दगी का दर्द बखूबी बयां हुआ है.
जवाब देंहटाएंचिट्ठा चर्चा की रोचक प्रस्तुति.
चिट्ठाचर्चा चालू होता है तो जैसे टेलिपैथी से हमको पता चल जाता है :) इधर वाला सब पढ़ डाले. सोच ही रहे थे कि फुरसतिया टाईप चर्चा कहियो कोई नै कर पाया.
जवाब देंहटाएंवापस आने का धन्यवाद.