सोमवार, अगस्त 02, 2010

छिनाल माने ??


इस देश का सबसे तेज  चैनल ब्रेकिंग न्यूज़ बार बार फ्लेश कर रहा  है .के राहुल  महाज़न    ओर डिम्पी फलां मंदिर में देखे गए....सुबह हिन्दुतान टाइम्स  में देखा हुआ चित्र याद करता हूँ जिसमे कश्मीर में एक औरत को अलगावादियों को पत्थर पकडाते दिखाया गया है .......सुना है पांच से दस सेकण्ड के एड के लाखो रुपये लगते है टी.वी में ....इन खबर वालो को वैसी तस्वीर क्यों नहीं दिखती......खैर इस देश के एक मेट्रो शहर की एक यूनीवर्सिटी ने अपनी एक लेक्चरार को अपने यहाँ आने से मना  कर दिया है .कारण बे बुरका नहीं पहनती थी .....सिरिन एक पढ़ी लिखी युवती है  ....वे   कोई मशाल लेकर निकली लड़की नहीं है ......आम लड़की है बस उन्हें   किसी ड्रेस कोड को थोपने के खिलाफ  एतराज है .ये सब कुछ किसी गाँव या देहात  में नहीं बल्कि कोलकत्ता में हो रहा है ....
नुक्कड़ पर गीता श्री दूसरे  मसले को उठाती है .....
 
भारतीय ज्ञानपीठ की साहित्यिक पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’को दिए साक्षात्कार में वीएन राय ने कहा है,‘नारीवाद का विमर्श अब बेवफाई के बड़े महोत्सव में बदल गया है।’भारतीय पुलिस सेवा 1975बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी वीएन राय को 2008 में हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया था। इस केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना केंद्र सरकार ने हिंदी भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए की थी।
नया ज्ञानोदय’ को दिए साक्षात्कार में वीएन राय ने कहा है,‘लेखिकाओं में यह साबित करने की होड़ लगी है कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है...यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है।’ एक लेखिका की आत्मकथा,जिसे कई पुरस्कार मिल चुके हैं,का अपमानजनक संदर्भ देते हुए राय कहते हैं,‘मुझे लगता है इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक हो सकता था ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’।’
वीएन राय से जब यह पूछा गया कि उनका इशारा किस लेखिका की ओर है तो उन्होंने हंसते हुए अपनी पूरी बात दोहराई और कहा,‘यहां किसी का नाम लेना उचित नहीं है लेकिन आप सबसे बड़ी छिनाल साबित करने की प्रवृत्ति को देख सकते हैं। यह प्रवृत्ति लेखिकाओं में तेजी से बढ़ रही है। ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’का संदर्भ आप उनके काम में देख सकते हैं।’


गोया दुनिया चाँद तारो पर पहुँच रही है ....मंगल गृह तक पहुँचने के  कयास लगाए जा रहे है ....पर आदमी की सोच का दायरा अभी भी जिस्म ही है.......क्या सोचते  है  आप ?

 

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41 टिप्‍पणियां:

  1. http://mohallalive.com/2010/08/02/indian-express-editorial-on-vibhuti/

    and

    http://mohallalive.com/2010/08/02/punished-this-criminal-of-verbal-rape/

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  2. अब आप ने पूछा हैं क्या सोचते हैं हम श्री विभूति नारायण के "छिनालपने" पर { कल बहस के दौरान उन्होने यही कहा हैं कि छिनाल परवर्ती हैं जो पुरुषो मे ख़ास कर पूरब के पाई जाती हैं ।

    जल्दी ही ब्लॉग लिखती महिला पर वक्तव्य आ जायेगा क्युकी अगली ब्लॉग प्रयोग शाला इनके सौजन्य से ही करवायी जायेगी । ब्लॉग लिखती कोई ना कोई महिला तो उस दयास पर खड़ी होगी ही जहाँ ये प्रयोग शाला होगी अब वो वहाँ तक कैसे पहुची ये शायद वो नहीं बता पायेगी हां कोई ना कोई आयोजक जरुर बता सकेगा ।

    शुक्रिया राय पूछने के लिये ।

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  3. क्या करे ये जमात ... देह से परे सोच नहीं पाती है .. दायरा सिमित है नारी देह के चारो और जैसे पृथ्वी की परिक्रमा चंद्रमा किया करता है.
    बढती उम्र में ..शायद इस तरह के शब्दों का प्रयोग उनकी कुंठा को शांत करता होगा ... इतने बड़े मंच पर ऐसी बात का सीधा अर्थ सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं ..

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  4. जब साहित्य की एक इमेजिनरी दुनिया के प्रति एक आकर्षण पनपना शुरु ही होता है, ऎसे लोग उसकी असल चमडी से परिचय करवा देते है...

    इस समाज को तहस-नहस किये जाने की एक सख्त जरूरत है। ज्ञान जी के शब्दो मे कहू तो वी नीड अ क्राईसिस...

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  5. सही है ये पुरुषों की उस मानसिकता का साक्षात उदाहरण है, जिसमें औरतों को एक शरीर से अधिक कुछ नहीं समझा जाता है. अधिकतर पुरुषों के लिए ये बेहद आम बात है कि तेजी से आगे बढती औरत को नीचा दिखाना हो तो या तो उसकी सुंदरता में कमी निकाल दो, या उसके बारे में ऐसी अश्लील बातें फैला दो कि लोग उसे बस सर्वसुलभ समझ लें. और इन सब से भी कुछ न बने तो उसके व्यक्तिगत जीवन को सरेराह खींच लाओ... और सबको बता दो कि ये औरत या फिर बहुतों के साथ सम्बन्ध बना चुकी है या इस काबिल ही नहीं कि कोई इसके साथ सम्बन्ध बनाए.
    ये सोचने की बात है कि यह सब औरतों के लिए ही क्यों? रचनाजी ने सही कहा कि यह सब ब्लॉगजगत में भी हो सकता है. क्योंकि यहाँ भी तो वही मानसिकता है.
    ये हमारे समाज का दोगलापन नहीं तो और क्या है? जहाँ गिल जैसे लोगों पर एक महिला आई.ए.एस.अधिकारी द्वारा छेडछाड का आरोप लगाने के बाद भी उसका कुछ नहीं बिगड़ता, चौदह साल की बच्ची के साथ यौन दुर्व्यवहार करने वाला पुलिस अधिकारी हँसते-हँसते कोर्ट से बाहर निकलता है. वहीं यदि एक महिला अपने जीवन के कुछ अनुभव साहित्य में लिख रही है, तो उसके लिए ऐसा शब्द इस्तेमाल किया जा रहा है.
    पंकज की बात से सहमत हूँ इस समाज को तहस-नहस किये जाने की ही ज़रूरत है. भले इसके लिए एक पीढ़ी बर्बाद हो जाए, आने वाली पीढियाँ तो इस सड़ान्ध से दूर रहेंगी.

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  6. वी एन राय उस दोगले और कुंठित समाज के प्रतिनिधि हैं जिनके सोचने का दायरा संकुचित ही रहेगा,जिस्म से आगे ये अपने किसी विचार को बढ़ने ही नहीं देते .एक महिला अगर समाज का घिनौना सच सामने लाती है तो उसे छिनाल कहा जाता है.जो उसे ऐसा करने पर बाध्य करते हैं /जबरदस्ती करते हैं ,उन पुरुषों को क्या नाम देंगे?
    थोडा भी बोल्ड लिखने वाली महिला या खुद पर हो रहे जुल्मों के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली महिला पर इसी समाज की उँगलियाँ भी बहुत जल्दी उठने लगती हैं.
    इनकी सोच में बदलाव न जाने कब आएगा.

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  7. आदमी की सोच का दायरा अभी भी जिस्म ही है...दुखद सच्चाई है
    रचना जी की चिंता भी कुछ हद तक सही है ...यह आंच उड़ते उड़ते ब्लॉग तक भी आएगी ही ...!

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  8. ise bhi dekhen :

    http://1.bp.blogspot.com/_fC3hr7XjVYI/TFaUrz35iHI/AAAAAAAABWA/lyvsLjBwlx8/s1600/panna.jpg

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  9. उन्होंने जो कुछ भी कहा या जिस शब्द का प्रयोग किया वह सही नहीं है, परन्तु ये उनकी वक्तिगत राय भी हो सकती है

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  10. रचना जी और मुक्ति ने काफी कुछ कह दिया है.यही हमारे समाज का सच है, शर्मनाक परन्तु सच..

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  11. किसी की सोच का दायरा जितना है उससे आगे कैसे सोच सकता है ....शर्म आती है ऐसी पुरुष मानसिकता पर .....

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  12. जी, मैं बताऊँ कि मैं क्या सोचता हूँ ?
    तात्कालिक प्रतिक्रिया
    पलट कर वीएन राय साहब से पूछूँ, " मनोनीत होकर आया है, क्या बे ? "
    प्रतिक्रियात्मक प्रतिक्रिया
    कुलपति महोदय की सोच सँकुचित है, ऎसे पद हथियाना आसान नहीं है, इसलिये वह बेशक वह पूर्णरूपेण विद्वान होंगे.. ही ही ही ! आख़िर वह इसे लेखक या लेखिका के बाज़ारीय समझौते के रूप में क्यों नहीं देख पाते हैं । महोदय, यदि आप स्टे-फ्री से समुद्र का सोखना हज़म कर सकते हैं, तो इसे भी हज़म करिये ।
    इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रिपोर्टर की हैसियत से प्रतिक्रिया दूँ, तो ..
    कुलपति को ख़्यातिप्राप्त लेखिका में दिखा कुलवधू , भर्त्सना की कह कर छिनाल, कुलकन्याओं को कलँकित न कर पाने का है मलाल
    साहित्यिक बेवफ़ाई भरी प्रतिक्रिया
    इस पर वैसे मेरी व्यक्तिगत राय तो अभी नहीं बन पायी है.... ( उच्छ्वास ) पर इसमें कुछ अनोखा भी नहीं है । यदि आपने बच्चन की "क्या भूलूँ-क्या याद करूँ" पढ़ा है, तो उसमें उन्होंनें अपनी माँ के सँदर्भ से कहा है, " जो पाँड़े के पाँचों वेदन में, वो पँड़ाइन की छिगुनियाँ में" ( इस बार दीर्घ उच्छ्वास के साथ दूसरा पॉज़ ).. इसका कोई न कोई मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण अवश्य होना चाहिये, जिस पर आगे शोध की आवश्यकता है ।
    __________________________
    एक व्यक्ति / पाठक / ब्लॉगर के नज़रिये से अमर कुमार की प्रतिक्रिया आप तसलीमा आपा का सच – नेंई किछू नेंई पर पढ़ने और बवाल खड़ा करने को स्वतँत्र हैं
    तसलीमा अब दूसरे रूप में कुछ अन्वेषी मस्तिष्कों में फुदकने लगीं । इन प्रसंगों उल्लेख का सबब , भांडाफोड़ या और भी कुछ ? यदि यही बताना था कि यह तथाकथित बुद्धिजीवी कितने लुच्चे और लंगोट के कच्चे थे ,तो क्या यह ज्ञान उन्हें बिस्तर का सारा काम निपट जाने के बाद ही प्राप्त हुआ ! इस बयान के पीछे ’ बुद्धिजीवी संसर्ग से मिली निराशा की ख़लिश’ है या फिर ’मैं भी कुछ हूं’ का दंभ ! इच्छा के विरुद्ध हमबिस्तरी पर मज़बूर की गयीं थीं तो एक एफ.आई.आर. तो दर्ज़ करायी जा सकती थी, तब भी पब्लिसिटी उनके पीछे पीछे चलती । क्या यह पूरा अनुभव ( प्रकरण नहीं था, तो ! ) बाद में लिपिबद्ध कर भुनाने के लिये संजो कर रख छोड़ा था ? ऎसी मंशा थी तो वह सवासौ प्रतिशत सफल रहीं । मानते हैं न, कि व्यवसायिक नज़रिये से तसलीमा सफल लेखिका हैं । तो फिर , केवल इस आधार पर लोकप्रियता अर्जित करने वाली लेखिका को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह भड़काने वाला छिनरा-चलित्तर दिखा कर भारतीय मानस को या अपने पाठक के मन को नचाये
    _______________________

    वैसे मेरी भी राय पकँज उपाध्याय की राय से इत्तेफ़ाक़ रखती है, और इसका तहे दिल से इस्तेक़बाल किया जाना चाहिये ।
    नया ज्ञानोदय पिछले 10 दिनों से आकर टिराई मार रहे हैं, निट्ठल्ला अन्य रूटों पर व्यस्त है, वह कतार में हैं ।

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  13. न जाने किस रौ में टिप्पणी लम्बी हो गयी,
    इसे मॉडरेट तो नहीं करोगे, बँधु ?
    :(

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  14. mitraa ,mitr aur maitreyee ?priyaa ,supriyaa ...
    yahi hai dohre maandand kathni karnee aur rahnee ke .aurat kab mitr ,mitraa yaa maitreyee hai sab purush ki sahooliyat par .?ab aisaa nahin chalegaa ,zanaab kulaadhipati .
    purush sattaatmak samaaj me "chhinaal "shbd prayog koi anhoni nahin .
    yoon chithhthhaa jagat ki svaayatt-taa ko ,sare aam likhne ki aazaadi ko aisi hi behoodaa .tippanee paleetaa lgaayengee .

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  15. छिनाल शब्द उनकी पुलिसिया सोच की निशानदेही करता है .एक पुलिस अधिकारी से ऐसे ही अभिव्यक्ति की उम्मीद की जा सकती है .नैतिकता के पहरुओं की आमद साहित्य में भी हो गए है .

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  16. इस पूरे प्रकरण को जबसे सुना देखा और पढा है तभी से एक बहुत ही पुरानी बात याद आ रही है ........किसी ने बहुत पहले एक बहस का हिस्सा बनते हुए कहा था कि ....अक्सर कुछ मर्दों के कमर के नीचे का हरामीपन(मैं इतने तल्ख शब्दों का उपयोग नहीं करना चाहता था ,मगर जो कहा गया वो यही था ) ....उनके दिमाग तक भी पहुंच कर उसको लकवाग्रस्त कर देता है ..फ़िर वो ऐसी ही बातें करता है....

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  17. इस दुनिया में सबसे मुश्किल काम है... करियर बनाना....


    और


    इस दुनिया में सबसे आसान काम है किसी औरत ज़ात की बेईज़ती कर देना... यह दुनिया का सबसे आसान काम है...

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  18. इतनी कुंठा भरी पड़ी है? इन ऊंचे लोगों में कि छलक-छलक पड़ती है।

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  19. विभूति नारायण राय जी को ’शहर मे कर्फ़्यू’ मे पहली बार पढ़ कर सुखद आश्चर्य हुआ था कि पुलिस जैसे कठिन महकमे मे कार्यरत हो कर भी किस तरह वो अपनी संवेदनाएं बचाये हुए थे, फिर ’किस्सा लोकतंत्र’ पढ़ कर भी कोई खास निराशा नही हुई थी। मगर इन्ही व्यक्तित्वों की लेखनी और जुबाँ का विरोधाभास सामने आता है, तो इन्ही की कलम की तमाम नैतिक निष्पत्तियाँ ध्वस्त हो जाती हैं। विभूति नारायण राय जी का यह सोचा-समझा बयान उनकी संकीर्ण और कुत्सित मानसिकता का पता ही नही देता है, वरन्‌ हिंदी साहित्य के पतन के एक नये अध्याय की प्रस्तावना भी लिखता है।

    कल देर रात स्टार न्यूज नामक चैनल के मार्फ़त इस विवाद का पता चला था। जहाँ हिंदी-साहित्य की वरिष्ठतम महामूर्तियाँ चैनलप्रतिष्ठित हो अपने देवत्व का विस्तार कर रही थीं। राजेंद्र यादव, भारत भारद्वाज, विभूति नरायण राय, मैत्रेयी पुष्पा इन सबको कुछ कम कुछ ज्यादा पढ़ा था। मगर बहस के जिस निकृष्टतम स्तर पर यह महान लोग अपनी प्रतिभाप्रदर्शन कर रहे थे, मेरे जैसे न जाने कितने आम साहित्यप्रेमियों का सर शर्म से झुक गया होगा। राय जी का यह अपमानजनक बयान देना और उसका छपना एक बात थी, मगर जितनी बेशर्मी से यह सज्जन उसको डिफ़ेंड करने के असफ़ल प्रयास मे अनर्गल तर्क दे रहे थे उसे देख कर अपने दिल मे उनके व्यक्तित्व के प्रति सम्मान बचाये रखना कठिन है। और बहस के दौरान इन महानुभावों का समवेत रूप से व्यक्तिगत और घटिया आरोप प्रत्यारोप के छिछले स्तर पर उतरते देखना अब उतना अप्रत्याशित तो नही मगर शर्मनाक और बेहद दुखद था। साहित्यकारों से असाधारण होने की आशा तो नही रख सकते, मगर उनसे कम से कम सार्वजनिक मंचों पर न्यूनतम आवश्यक लेखकीय मर्यादाओं के निर्वहन की अपेक्षा तो की जानी चाहिये। क्योंकि साहित्यकार का काम क्षरित और तर्कहीन होते समाज मे मानवीयता की मशाल जलाये रखने का होता है।
    बात सिर्फ़ राय साब के मानसिक दुराग्रहों की नही है। कतिपय उदाहरणों के बहाने चालाकी से पूरे समुदाय को छिनाल की कैटेगरी मे रख कर जनरलाइज कर देना उस आदिम पुरुषवर्चस्ववादी मानसिकता का प्रमाण है, जो हमारी आडम्बरवादी समाज की हकीकत का आइना है। महिलाओं को चारित्रिक सर्टिफ़िकेट बाँटने का काम पुरुष दो स्थितियों मे ही कर पाता है। या तो अपने पुरुषत्व के स्टैम्प को सार्वजनिक करने के बहाने यह दिखाने की कोशिश कि कितनी महिलाएं उसकी अंकशायी बन चुकी हैं; या फिर किसी महिला-विशेष को ’फ़ँसा’ न पाने की खीज के फलस्वरूप उसके चरित्र को चौराहाचिंतन का विषय बना देने की बेशर्मी का परिणाम। पता नही यह बयान इसमे से किस परिस्थिति की पैदाइश है, मगर यह स्त्री-विमर्शरत बौद्धिक दिमागों के अँधेरे बहुरूपिये हिस्सों पर टार्च जरूर मारता है। और भी पता चलता है कि सामंतवादी पूर्वाग्रह इस समाज के दिमाग मे कितने गहरे जड़ जमाये हैं, कि बौद्धिकता और साहित्य का डिटर्जेंट भी उसकी धुलाई नही कर पाता। यहाँ महिलाओं का कैरेक्टर-मार्जिनलाइजेशन उन्हे सिर्फ़ दो कैटेगरीज मे रख कर किया जाता है। एक सती या पतिवृता की श्रेणी जो समाज परंपरानुसार सलज्ज स्वयं को पुरुष के अंकपाश मे अर्पित कर दे, और बाकी की वे स्त्रियाँ कुल्टा और बदचलन की कटेगरी मे स्वतः आ जाती हैं जो अपने देह का अधिकार अपने हाथ मे लेना चाहती हैं।

    (...जारी)

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  20. गौरतलब है कि जब डी एच लारेंस, गुस्ताव फ़्लॉबर्ट, ओ हारा, नोबोकोव, चतुरसेन, भगवती चरण वर्मा, खुशवंत सिंह या अशोक बाजपेई साब जैसे पुरुष साहि्त्यकार फ़ीमेल सेक्सुअलिटी पर लिखते हैं तो इसे साहित्य के प्रगतिगामी होने और ’बियांड-जेंडर’ जाने का प्रतीक माना जाता है। मगर वहीं जब कोई एन बेनन, शोभा डे, प्रभा खेतान या मैत्रेई पुष्पा जैसी स्त्री खुद से जुड़े इस विषय पर कलम चलाती है तो उनका चरित्र पान की दुकान पर रसमय चर्चा का विषय हो जाता है। तभी जब डॉ अनुराग दुनिया के मंगल पे पहुँचने की बात रखते हैं तो शायद भूलते हैं कि हमारा समाज अभी भी मध्यकालीन मानसिकता का समाज है जहाँ प्रगति साबित करने के लिये किसी ग्रह पर जाने की जरूरत नही है। समस्त नवग्रह हमारी पूजा के ताख मे अक्षतार्पित हो कर रखे रहते हैं। यह खापों का, तालिबानी मानसिक जड़ता का, यौनशुचिता के मानक तय करने वाले मठों का समाज है, जो स्त्रियों के कर्तव्यों की संहिता के शब्दशः पालन के लिये किसी भी हद तक जा सकता है। यह ’यस्य नार्यस्तु पूजंते रमन्ते तत्र देवता’ का गान करने वाला समाज है जहाँ स्त्रियों के प्रति अपराधों के दर विश्व मे सर्वाधिक है। जहाँ स्त्रियों से संबंधित सारे नियम उनकी देह को ध्यान रख बनाये गये हों ,वहाँ विमर्श मे देह तो आयेगी ही, मगर कल्चरल-पॉलिटिक्स के बहाने इस विमर्श के देह पर ही अटक जाना विमर्श के कच्चेपन का परिचायक भी है। ऐसे मे विभूति नारायण साब जैसों की सोच बस स्त्रियों की ’सेक्सुअल-डिजायर’ तय करने की चाबी हाथ से निकलते देख कर बिफ़रते समाज की मानसिकता का हिस्सा लगती है। बस शर्म इस बात की है कि ऐसे बयान और उनके पक्ष मे अनर्गल बहस करने वाले साहित्यकार लोग हैं। वे भूल जाते हैं कि रूसो, नेरुदा, गोर्की, लोर्का, प्रेमचंद, पाश जैसे लोग भी साहित्यकार ही थे, जिन्होने अपनी कलम का इस्तेमाल और अपने जीवन का इस्तेमाल समाज की जड़ताएं तोड़ने मे, एक बड़े परिवर्तन की भूमिका लिखने मे किया। देश मे, और विशेषकर हिंदी क्षेत्र मे मूल्यों के घोर क्षरण के इस दौर मे जहाँ लिखना-पढ़ना हाशिये पर आता जा रहा हो, बाजार सुरसा की तरह पूरी व्यवस्था को निगलती जा रही हो, विकास के नाम पर लोगों के हाथ काटे जा रहे हों, और भयावह सामाजिक समस्याएं अपने सबसे गंभीर रूप मे हमे अपना शिकार बनाने को तैयार हों, वहाँ ऐसे दुखद और शर्मनाक प्रकरण साहित्य के गटरगामी होते जाने के गवाह भर हैं। बकौल चचा ग़ालिब

    कोई उम्मीद बर नहीं आती
    कोई सूरत नज़र नहीं आती

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  21. .
    चलते चलते..
    अपनी अँतिम सभा समाप्त करने से पहले
    एक मुखशुद्धक चुटकी.. " तेरा क्या होगा कालिया !"

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  22. "महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति वीएन राय लेखिकाओं को ‘छिनाल’कहकर अपनी कुंठा मिटा रहे हैं और उन्हें लगता है कि लेखन से न मिली प्रसिद्धि की भरपाई वह इसी से कर लेंगे। मैं इस बारे में कुछ आगे कहूं उससे पहले ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया और कुलपति वीएन राय को याद दिलाना चाहुंगी कि दोनों की बीबियां ममता कालिया और पदमा राय लेखिकाएं है,आखिर उनके ‘छिनाल’होने के बारे में महानुभावों का क्या ख्याल है।

    लेखन के क्षेत्र में आने के बाद से ही लंपट छवि के धनी रहे वीएन राय ने ‘छिनाल’ शब्द का प्रयोग हिंदी लेखिकाओं के आत्मकथा लेखन के संदर्भ में की है। हिंदी में मन्नु भंडारी,प्रभा खेतान और मेरी आत्मकथा आयी है। जाहिरा तौर यह टिप्पणी हममें से ही किसी एक के बारे में की गयी, ऐसा कौन है वह तो विभूति ही जानें। प्रेमचंद जयंती के अवसर पर कल ऐवाने गालिब सभागार (ऐवाने गालिब) में उनसे मुलाकात के दौरान मैंने पूछा कि ‘नाम लिखने की हिम्मत क्यों न दिखा सके, तो वह करीब इस सवाल पर उसी तरह भागते नजर आये जैसे श्रोताओं के सवाल पर ऐवाने गालिब में।

    मेरी आत्मकथा ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’कोई पढ़े और बताये कि विभूति ने यह बदतमीजी किस आधार पर की है। हमने एक जिंदगी जी है उसमें से एक जिंदा औरत निकलती है और लेखन में दखल देती है। यह एहसास विभूति नारायण जैसे लेखक को कभी नहीं हो सकता क्योंकि वह बुनियादी तौर पर लफंगे हैं।"

    http://hamaranukkad.blogspot.com/2010/08/blog-post_01.html

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  23. अपूर्व ने जैसा कहा वैसा ही कुछ मैं भी कहना चाहता था, पर उसके जितना ना सोच पाता हूँ और ना लिख पाता...

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  24. भाग --- [ १ / २ ] ..
    शुरुआत करता हूँ सफल/उपयोगी/लोकप्रिय मंचीय-कवि गोपाल सिंह नेपाली की इन पंक्तियों से ---
    '' साफ़ है जल , क्योंकि तट के पास काई है
    यूं न इतराओ सफेदी देखकर अपनी
    हर धुली चादर गुनाहों की कमाई है | ''
    .............................................................
    पहले तो बंगीय लाल-गढ़ में सिरिन के खिलाफ जो हो रहा है उसकी भर्त्सना करता हूँ ! तुष्टीकरण के फ़िक्र में पड़ी सरकार कुछ नहीं करेगी ऐसे मुद्दों पर ! कुछ सिरिनें घुटती रहेंगी और कुछ पैदा होने के साथ ही मार दी जायेंगी ! और हम विकासशील हैं !/?
    .............................................................
    अब आते हैं वीएन राय पर .. उन्होंने जो कुछ किया/कहा वह निश्चत रूप से स्त्री ही नहीं सम्पूर्ण मानव जाति की संप्रभुता के विरुद्ध है .. यह निंदनीय है .. पर ज़रा इसी घटना के बहाने थोड़ी बात हिन्दी समाज और हिन्दी-पट्टी पर भी कर ली जाय ---
    १ -- यह तो एक वीएन राय हैं जिन्होंने बोल के आफत मोल ले ली है , पर यह प्रवृत्ति ? .. जाने कितने इस मानसिकता के हैं और 'सेफ' हैं और काबिले-अंजाम भी दे रहे हैं , इनकी सिनाख्त के लिए क्या किया जाएगा .. ऐसी स्थिति में वीएन राय को एक जातिवाचक संज्ञा मानिए .. फिर ठहर के सोचिये कि क्या करना चाहिए !
    २ -- हमारे हिन्दी पट्टी के रस्मी विरोध की आयु/त्वरा/बौद्धिकता/सफलता आश्चर्यजनक रूप से अति क्षीण होती है .. कुछ समय बाद सब कुछ आयी-गयी हो जाता है .. ग़जनी के 'शोर्ट-टर्म-मेमोरी-लोस' जैसा पूरा असर है घटनाओं से उद्भूत संवेदना पर .. विरोध भी उत्सव जैसा मनाया जाता है .. आज किसी को राजेन्द्र यादव - मन्नू भंडारी विवाद का ध्यान नहीं आ रहा है .. ऐसा ही हो-हल्ला हुआ था .. इस विवाद की भी नियति कमोबेश यही होगी ! .. राजनीतिक-सरकारी कोई निर्णय हो तो उसकी बात अलग है , और यह भी आश्चर्यजनक सा ही होगा .. पर हिन्दी-पट्टी को कुछ ही समय बाद फिर सांप सूंघ लेगा !

    ( जारी ........ )

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  25. भाग --- [ २ / २ ] ..
    ३ -- यहाँ पर आयी हुई टिप्पणियों को पढ़ा , शब्दों से ढुलवाई जाने वाली भावुकता के ही दर्शन अधिक हुए , विरोधानुकूल या विरोध-सम्मत बौद्धिक तटस्थता के नहीं ! किसी को पूरे 'पुरुषों' में ही समस्या दिख रही है तो किसी को यही एकमात्र समाज का 'सच' ! .. किसी को साहित्यकारों की जमात ही लुंठित लग रही है तो किसी को कालिया दमन की मसखरी सुझा रही है ! .. किसी को समस्या को तहस-नहस करने से ज्यादा सटीक समाज को ही तहस नहस करना लग रहा है .. ! .. यहाँ टीपों में भावुक-टरकाऊ-दिखाऊ सरलीकरण दिखा है , बौद्धिक निराकरण का प्रयास या सदिच्छा नहीं ! ..यह भी एक उदाहरण है हिन्दी पट्टी के रस्मी विरोध की आयु/त्वरा/बौद्धिकता/सफलता .... आदि-आदि के क्षीणत्व का !!
    ४ -- अब तक वीएन राय के साथ साहित्यिक बिरादरी खुश सी थी , इधर मौक़ा बना तो अतीत के गड़े मुर्दे निकलना शुरू .. अब तक सब बर्दाश्त होता रहा .. वीएन राय के बनने की प्रक्रिया का गहरा संबंद्ध इस तरह की मौकापरस्त चुप्पियों से भी है !
    ५ -- स्त्रीवादी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का कहना है ( पंकज भाई के द्वारा दिए लिंक से गया हूँ ) --- '' उनके समकालिनों और लड़कियों से सुनती आयी हूं कि वह लफंगई में सारी नैतिकताएं ताक पर रख देता है। यहां तक कि कई दफा वर्धा भी मुझे बुलाया,लेकिन सिर्फ एक बार गयी। वह भी दो शर्तों के साथ। एक तो मैं बहुत समय नहीं लगा सकती इसलिए हवाई जहाज से आउंगी और दूसरा मैं विकास नारायण राय के साथ आउंगी जो कि विभूति का भाई और चरित्र में उससे बिल्कुल उलट है। विकास के साथ ही दिल्ली लौट आने पर विभूति ने कहा कि ‘वह आपको कबतक बचायेगा।’ ...''
    --- सवाल है कि १, अगर मैत्रेयी जी ऐसा सुनती आयी थीं तो उनके कुलपतित्व काल में वर्धा जाना क्यों स्वीकारा ... २, एक स्वतंत्र स्त्रीवादी लेखिका के व्यक्तित्व को किसी विकास नारायण राय की ढाल लेना कहाँ तक उचित है ... यह तो इनकी विचारधारा के प्रति भी इनकी इमानदारी नहीं हुई ! ... ३ , यह सब इतना आपत्तिजनक था और पता था तो अब तक प्रकाशित क्यों नहीं किया गया ..... क्या इसे वीएन राय द्वारा कहे गए आपात्तिजनक छिनाल-वक्तव्य की प्रतीक्षा में सायास रोका हुआ लेखन माना जाय ! ........... इसतरह से ढेरों सवाल भी पैदा होते हैं ........ !!

    आभार !

    ( ......... समाप्त )

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  26. इस पोस्ट में दो घटनाओं का जिक्र है। एक तरफ़ सिरिन की लड़ाई और जीत से मन खुश होता है। दूसरी तरफ़ विभूति नारायण राय का बयान सुनकर शर्म आती है।

    राय साहब अपने बयान में तमाम उदाहरण देकर अपने को बचायेंगे कि छिनाल का मतलब वेश्या नहीं होता, आप जो समझ रहे हैं वह नहीं है, हमारे गांव में इसका मतलब यह होता है, हमारे यहां यह आम बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त होता है-आदि,इत्यादि। वे ऊंचे दर्जे के पुलिस अधिकारी भी रहे हैं, तगड़ी नेटवर्किंग होगी और इस मसले में शायद ही उनके खिलाफ़ कुछ कार्यवाही हो।

    जब एक बड़ा पुलिस अधिकारी जो साहित्य की दुनिया का मठाधीश और मसीहा बनने के लिये छटपटा रहा है उसकी ऐसी जबान है वह भी एक साहित्यिक पत्रिका को इंटरव्यू देते समय तो कल्पना की जा सकती है कि आम पुलिस वाला आम जनता से कैसी भाषा बोलता होगा।

    महिला लेखकों के प्रति की गयी राय साहब की यह टिप्पणी बेहद घटिया और शर्मनाक है। निन्दनीय!

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  28. भाई अमरेन्द्र, हो सकता है यहा भावुकता ज्यादा दिखने के पीछे लोगो का इन्सटेन्ट और इनिशियल रियेक्शन रहा हो।

    वैसे मैत्रेयी पुष्पा जी का यह लेख/इन्टरव्यू मुझे भी इस आग मे रोटी सेकने जैसा ही लगा और इसीलिये मैने वो लिन्क यहा चेपा कि मल्टीडिमेन्स्नल द्रष्टिकोण मिल सके। अपनी पुस्तक का नाम बार बार लेकर वो इस स्कैन्डल के थ्रु अपनी रोटिया सेकती ही लग रही है।

    वैसे ऎसे स्कैन्डल्स हमे सच मे सोचने पर मजबूर करते है कि जिन लोगो को हम पढ रहे है, जिनसे हमने बकौल अपूर्व मानवीयता की मशाल जलाये रखने की उम्मीद रखी होती है। उनसे ऎसे शब्द सुनकर एक ठेस ही लगती है। वो भी उस समय जब राहुल महाजन को ’छिनाल’ न कहकर, हमारे तेज चैनल्स पर उसे कृष्ण जैसे भूमिका मे रासलीला करते हुये दिखा रहे हो।

    एक और पहलू चेप कर जा रहा हू...

    "धोधे खां की याद इसलिए कि वे हर बात में अपने कान पकड़ते हुए अल्लाह तौबा का उच्चारण करने की आदत रखते हैं दूसरा ये कि उनकी बकरियां अभी तक मौका मिलते ही अलगोजा को चबाने को आतुर रहती है. इसलिए भी कि वे सब एक सुर में मिमियाती हैं और इसलिए भी कि उन्होंने बिना साक्षात्कार पढ़े, मैं - मैं की जुगलबंदी की है. बकरियों, विभूति जी ने भले ही इशारे में कहा किन्तु उनका इशारा साफ़ है. वे किसी एक महिला लेखिका की बात कर रहे है. जिनकी आत्म कथा को पढ़ने से लगता है कि शीर्षक 'कितने बिस्तरों पर कितनी बार' होना चाहिए था ? और वे एक ख़ास रस्ते पर चलने वाली होड़ को बेहतर नहीं मानते, बस इतनी सी बात है. आपको लगता है कि वे पूरी बिरादरी की बात कर रहे हैं तो खुद को टटोल कर देखिये कहीं आप भी उसी पंक्ति में नहीं हैं. असल हल्ला तो कान में बिना बाली डाले हुए अमर - बकरे कर रहे हैं.

    मैं जिन लेखिकाओं को जानता हूँ. वे भद्र और सुसंस्कृत महिलाएं हैं. भले ही उनके नाम बड़े नहीं है मगर मेरी नज़र में उनकी लेखनी बहुत बड़ी है और उनके लिए मेरा सम्मान भी इसलिए है कि वे धोधे खां की अलगोजा चबाने को आतुर बकरियां नहीं हैं. मेरी दुआ है कि वे साहित्यिक आकाश की सब ऊंचाइयां पार कर लें."

    http://hathkadh.blogspot.com/2010/08/blog-post.html

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  29. अब विरोध भी मौका देखकर ओर लाभ हानि तौल के किया जाता है ....कौन कहता है लेखको को दुनियादारी नहीं आती ?...सुना है कुछ बुद्धिमान लोग" छिनाल" का नया अर्थ समझा रहे है .....असहमति जताने के सभ्य ओर शालीन तरीके होते है ...पर कहने वाले कहते है ...गंभीर बात के बीच एक छिछोरा शब्द कम्पलीमेंटी अलाऊ है ..... .वैसे कल स्टार न्यूज पर जिस तरह का जूतम पैजार हुआ ....उससे लगा महज़ कागजो में अच्छा लिखना अलग बात है ओर असल जिंदगी में उसे व्योवहार में उतारना अलग ....ये किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध असहमति नहीं है ......ये एक सोच के विरुद्ध असहमति है ..

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  30. शायद इन तमाम बातों के पीछे एक ही बात है कि लोग लेखक को 'देवता' जैसे मानने की भूल कर बैठते हैं?

    …………..
    अद्भुत रहस्य: स्टोनहेंज।
    चेल्सी की शादी में गिरिजेश भाई के न पहुँच पाने का दु:ख..।

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  31. doosri tippani...

    pahli tippani kuch der dikhne ke bad gayab

    karan modretor jante honge.

    agar takniki galti hai to ...... no comments

    agar bhasa se sambandhit hai to ......
    "ji charcha ki suruat chi..l se ho uspar comment bha..on jisa hi hoga.

    bakiya adarniya dr. anuragji se jo sun na tha
    o bhaut kum hai.

    sadar.....

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  34. हर नामवाला अच्छा आदमी नहीं होता...बल्कि आज जो चलन है ऐसे ऐसे लोग ही मंचों पर जगह पाते हैं,सराहे जाते हैं और जो दुत्कार मिलती भी है तो उसमे प्रचार पा जाते हैं...

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  35. प्रो. अजहर हाशमी के अनुसार नारी मुक्ति को लेकर जिस तरह के लेखन की शुरुआत हुई वह इस्मत चुगताई ने की थी। इसके बाद लेखन और ज्यादा बोल्ड हुआ। ज्यां पाल सात्र्र, कृष्णा सोबती, राही मसूम रजा, मैत्रेयी पुष्पा, राजेंद्र यादव आदि के लेखन में यथार्थ के नाम पर गालियों तक का प्रयोग किया गया है। श्री रजा का तो कहना भी था कि यदि उनका पात्र भगवद् गीता का श्लोक बोलेगा तो वे श्लोक लिखेंगे और गाली देगा तो गाली। उनका उपन्यास 'आधा गांव ' तो जोधपुर में एमए के कोर्स में पढ़ाया जाता था। कृष्णा सोबती के उपन्यास सूरजमुखी अंधेरे के, जिंदगीनामा और हम हशमत में तो गालियों का ऐसे उपयोग हुआ है जैसे पुलिस थाने में सुनाई देती हैं। अब श्री राय हों या कोई और, किसी को भी साहित्य में यथार्थ के नाम पर फूहड़ता नहीं परोसना चाहिए। भाषा जब अपनी शालीनता खो देती है तो उसकी उपयोगिता खत्म हो जाती है। एक थानेदार की बोली और साहित्यकार की भाषा में फर्क होना ही चाहिए। थानेदार की भाषा भी संयत हो तो और बेहतर। वैसे हमाम में तो सभी नंगे होते हैं लेकिन ड्रॉइंग रूम में तो कपड़ों में ही आते हैं।

    दोनों लिंक्स पढ़ के लगता है WE MALE ARE NOBODY TO DECIDE WHAT IS RIGHT AND WHAT IS WRONG FOR AND BY THE WOMEN.
    अगर हम महिला अधिकारों की बात करते हैं तो हम महिलाओं से बड़े बनने की कोशिश करते हैं (और कोंसीक्वेंटली छोटे हो जाते हैं. खैर वो अलहदा सब्जेक्ट है.) . झंडा तो उन्हें ही पकड़ना होगा. महिला बिल (३३%) तब तक पास नहीं हो सकता जब तक संसद में ५१ % महिलाएं न आ जायें. तो उस आधी दुनियाँ के विषय में कोई राय देने से अच्छा उसके बारे में जानना होगा .हंस में एक सिरीज़ छपती है. परदे के पीछे का जिहाद(या ऐसा कुछ).
    वहीँ पर एक चिट्ठी बॉक्स में प्रकाशित हुई थी, "पहले उन्हें वेश्या कहते थे फिर गर्लफ्रेंड कहने लगे अब हंस की लेखिकाएं कहते हैं." ये दोनों ही बातें बहुत हार्श ढंग से कही गयी है लेकिन अगर ये वर्बल-डिसेंट्री है तो जो साहित्य में (या साहित्य के नाम पर) हो रहा है वो भी कम रिटन-वोमिट नहीं है. हाँ पर ये 'सरस-सलिलता' जेंडर स्पेसिफिक नहीं है. न ही भाषा (हिंदी) स्पेसिफिक. तस्लीमा नसरीन का उद्धरण मैं भी देना चाहता था. आश्चर्यजनक रूप से "" जी ने अक्षरशः वही बात कही है.


    इस टिप्पणी (वी. एन. राय की ) के कारण एक दूसरे ही आयाम में अपने विचार व्यक्त करने का मौका मिला.
    ये बड़ा ही कंट्रोवर्शियल विषय (अन्य सभी विषयों की तरह) है. 'चड्डी पहन के फूल खिला' के ऊपर भी कंट्रोवरसी हो सकती है और 'लव इज़ नॉट द हारडेस्ट ग्लु बट द सेक्स इज़. (द एल्केमी ऑव डिज़ायर)' किसी नोवेल का प्रथम शब्द संयोजन भी हो सकता है.
    मुझे वी. एन. राय की बात में दो चीज़ों से दिक्कत है, पहला कमेन्ट का जेंडर स्पेसिफिक होना और दूसरा साहित्य के गिरते स्तर को खुद भी एक उद्धरण दे देना.

    दिल तो पुलिसिया है जी.
    'कल फिर आना' (पुरुष लेखक) हंस में छपी एक कहानी है. यदि इसको पढ़ते हुए आपको किसी बेडरूम साहित्य की याद आये तो आश्चर्य नहीं.
    हिंदुस्तान के बेस्ट सेलर लेखक 'चेतन भगत' जिनका हिंदी क्या अंग्रेजी साहित्य से कोई वास्ता नहीं उनको पढ़ा है आपने?
    सीधे सीधे तो मस्तराम भी चीज़ें कह देता है . मस्तराम कौन? वो यू. पी. और काऊ बेल्ट का बेस्ट सेलर है.
    साहित्य में एक फिनोमिना होता है बिम्ब , अनुप्रास , उपमा.
    एक नोवेल है 'मैला आँचल' फिर एक और 'दीवार में एक खिड़की रहती थी'. दोनों बड़े प्रभावित करते हैं.
    रमेशचंद्र शाह अपनी डायरी में लिखते हैं...
    दियर इज़ वैरी फाइन लाइन बिटवीन एब्सर्डनेस एंड आर्ट.
    आपने गर्म हवा देखी है? बेंडिट क्विन ? मुझे याद आता है पुराने ज़माने की मूवी जहाँ पे दो फूलों को मिलते हुए या किसी गमले को गिरते हुए दिखाते थे. ;)
    और हाँ वैसे तो सेंसर आज़ादी की दुश्मन है पर हाई स्कूल में पढ़ा एक कोट याद आता है "आपकी आज़ादी से मुझे कोई परेशानी नहीं है पर ये वहां समाप्त हो जानी चाहिए जहाँ से मेरी नाक शुरू होती है. "
    यानी वी. एन. राय की बात से असहमत होते हुए भी कहना चाहूँगा
    धुआं उठा है कहीं आग तो जली होगी....

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  36. ham kisi se kam nahi

    http://hamaranukkad.blogspot.com/2010/08/blog-post_03.html

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  37. ....जिन शब्दों व भाषा का इस्तेमाल महिला लेखक को लेकर किया गया है वह भारतीय संस्कृति के विपरीत होकर महिलाओं के साथ अन्याय की मानसिकता का परिचायक है। नारी को भले बराबरी का दर्जा न दो लेकिन उसे सम्मान तो मिलना ही चाहिए। महिला को स्वतंत्रता मिलना चाहिए लेकिन स्वच्छंदता नहीं। - इंदू सिन्हा

    श्री राय की टिप्पणी गलत है। यह महिला और साहित्य विरोधी है। वे साहित्यकार नहीं बल्कि अफसर हैं। यदि साहित्यकार होते तो वे कदापि ऐसा न करते। ऐसी टिप्पणियां की जाती रहीं तो बयानबाजी भी जारी रहेगी। - आशीष दशोत्तर

    कुछ दिनों से नारी विमर्श को लेकर काफी शोर मच रहा है। लेखन को लिंगभेद के आधार पर बांटना अनुचित है। श्री राय की पत्नी स्वयं लेखन से जुड़ी हैं अत: वे उन्हें किस श्रेणी में रखेंगे। श्री राय को लेखक समुदाय से बिना शर्त क्षमायाचना करना चाहिए। विश्वविद्यालय को चाहिए कि वे उन्हें बाहर करें। -अंसार अनंत

    साहित्यकार राजेंद्र यादव की सरपरस्ती में महत्वाकांक्षी लेखिकाओं के एक समूह स्रीदेह की भाषा का अंधाधुंध इस्तेमाल कर देश की सारी समस्याओं को ओवरलुक कर रहा है। अनुचित शब्दों के प्रयोग को ही साहित्य मानकर प्रसन्न हो रहा है। इसमें श्री राय की उतनी गलती नहीं है जितनी श्री यादव की, मैत्रेयी पुष्पा, कृष्णा अग्निहोत्री आदि लेखिकाओं की है। इन बातों का बतंगड़ बनाकर चटखारे लेना साहित्यकार की संज्ञा को बदनाम करना है। - देवव्रत जोशी



    पहली ख़बर को जाके लिंक में पढ़ा...
    ...मज़े की बात कि मुस्लिम समाज में कट्टरता जेनरेशन के साथ बढ़ी जा रही है. और इसका स्वभाव उग्र होता जा रहा है . कोई आश्चर्य नहीं (भगवान न करे ) कि मोहतरमा की कोई ख़बर कुछ दिनों बाद मुखपृष्ठ में हो जिसके ज़्यादातर वाक्य भूत काल में. आखिर क्रांति (इसे क्रांति कह सकते हैं न?) का लाभ क्रांतिकारियों को कब मिला है.
    एक नोवेल लिखें....
    कितने अफ़गानिस्तान या कितने तालिबान. या युवा - मुस्लिम समाज.

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  38. जब से चर्चा के टेम्प्लेट में फ़ेसबुक चैट आदि वाला टूलबार जोड़ा गया है, तब से चर्चापृष्ठ पर कुछ भी पढ़ना लिखना दूभर हो गया है। कितने मिनट ले लेता है ब्लॉग खुलने में; वह भी यहाँ के तीव्रतम ब्रॉडबैंड में। सो, अलग से लिखूँगी।

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  39. मस्तराम का लेखन किस चर्चा योग्य है ... अभी तय नहीं कर पा रहा हूं

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  40. गालियाँ, चरित्रहनन, आत्मस्वीकृतियाँ : कलंकित होती स्त्रियाँ ....

    http://streevimarsh.blogspot.com/2010/08/blog-post.html

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