पिछले रविवार की चर्चा करते वक्त भूलवश रविवार की शेड्यूल्ड पोस्ट शनिवार को छप गई. सामूहिक प्रकल्पों में इस तरह की त्रुटियाँ कभी कभार हाइड्रोजन बम की तरह धमाका कर जाती हैं. तो, भाइयों ने इसे इंटेंशनल समझ लिया. किसी के काम की आलोचना-प्रत्यालोचना तो ठीक है, पर जब उसके इंटेशन को गलत और उलटा समझ लिया जाए, उस पर प्रश्नचिह्न दाग दिया जाए तो उसे सफाई देनी ही चाहिए, भले ही पूर्वग्रहों के चलते किसी भी किस्म की सफाई को सिरे से ही क्यों न नकार दिया जाए. जिन्हें ब्लॉग और इंटरनेट की तासीर और कम्प्यूटिंग में एक क्लिक या कुंजीपट के एक कुंजी के खटकने से हुई समस्याओं के बारे में बखूबी पता है (तरूण भाई के लिए यह सफाई नहीं है, क्योंकि मैं समझता हूँ कि इस तरह की समस्याएँ उनके लिए नई नहीं होंगी और न ही इसको लेकर उनके मन में किसी तरह के कोई ईश्यूज़ होंगे,) वे इस मामले में किसी सूरत भृकुटि टेढ़ी नहीं कर सकते थे. मगर फिर भी, जिन्हें ये इंटेशनल लगा हो और लगता हो, तो एक बार फिर क्षमा याचना. (उम्मीद करें कि दावानल नहीं उठेगा और लोग मंच छोड़कर नहीं जाएंगे? :))
भूल सुधार के रूप में प्रस्तुत है पिछले शनिवार को प्रकाशित, हिंदी चिट्ठाजगत के बेहतरीन शख्सियतों में शुमार डॉ. अमर कुमार के चिट्ठा-व्यक्तित्व को समर्पित वेटरन तरूण की चिट्ठाचर्चा अविकल रूप में :
ये शम्मह का सीना रखते हैं, रहते हैं मगर परवानों में
चर्चाकारः Tarun
मेरा मानना है नये नये प्रयोग करते रहने चाहिये इससे जिज्ञासा और कुछ नया पाने की उम्मीद बंधी रहती है और कहने वाले कह गये हैं, उम्मीद में दुनिया कायम है या यूँ कह लीजिये उम्मीद में भारत टिका है और अनुराग के शब्द उधार लेकर कहूँ तो उम्मीद के सहारे ही पैसे वाले भारतीय एसी में मस्त तान के बिना चिंता के सो जाते हैं।
आज जिस प्रयोग की बात कर रहा हूँ उसके तहत चिट्ठा चर्चा करने की सोच रहा हूँ, अब आप कहेंगे ये तो सभी करते हैं और रोज करते हैं लेकिन मैं "चिट्ठा चर्चा" की बात कर रहा ,हूँ यू नो, चिट्ठा चिट्ठा ना कि चिट्ठे चिट्ठे। सीधे सरल शब्दों में अब से शनिवार के दिन सिर्फ और सिर्फ किसी एक चिट्ठे या चिट्ठेकार की चर्चा की जायेगी। जाहिर हैं चर्चा अब हम करेंगे तो चिट्ठे का चुनाव भी हम करेंगे और उसे अपने नजरिये से ही बाँचेंगे। समझ लीजिये जब तक आप का नंबर नही आता आप कतार में हैं। इसी क्रम में आज का चिट्ठा या चिट्ठेकार हैं, खैर जाने दीजिये आप पढ़कर खुद समझ जाईये।
इन जनाब की टिप्पणियों का अंदाज सबसे जुदा है, इसलिये शुरूआत इनके द्वारा (चि.च. में) की गयी टिप्पणियों के नमूनों से ही करते हैं -
१. आज की चर्चा को पूरे तौर पर पढ़ते समय यदि पूर्वाग्रह की जगह पर आग्रह पढ़ा जाये, तो तस्वीर और भी साफ़ होती है॥ पूर्वाग्रह से एक हठवादी कठोरता का भान होता है । चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो, स्त्रीलिंग को हम परँपरागत वर्ज़नाओं से अलग नहीं कर पाये हैं । उसने अपनी ऊर्ज़ा और मेघा से एक ऊँचा मुकाम भले हासिल कर लिया हो, पर वह अपने पर सदियों से थोपी हुई अस्पृश्यता से आज़ाद नहीं कर पायी है।
२. " झिलमिली भाषा का वाग्जाल " फैला कर पाठकों को आकर्षित करने में बतौर लेखिका वह सफल रही हैं, किन्तु विमर्शात्मक लेखन के स्तर पर उनके इस एकतरफ़ा नज़रिये को सिरे से ख़ारिज़ किये जाने की तमाम गुँज़ाइशें हैं।
३. तू स्पैम ठहराये या माडरेट करे / हम तो हैं तेरे दीवानों में / हम शम्मह का सीना रखते हैं / रहते हैं मगर परवानों में
आप नोट करेंगे कि टिप्पणियों की गंभीरता भी चर्चा की गंभीरता के हिसाब से कम ज्यादा होती रहती है। हमारे व्यक्तिगत चिट्ठे में ये शख्स कभी सँपेरा शेखीबाज के नाम से टिपियाता है तो कभी कम-पिटऊ-कर के नाम से लेकिन टिप्पणी का मजमून छद्म नाम की पोल खोल कर रख देता है।
अपने पिछले आलेख "झूठ पकड़ने वाला रोबट" में हिंदी ब्लोगिंग के एक सच को दारू से नहला धुला कर पेश करने की कोशिश कुछ इस तरह से करते हैं -
सच है यारों, ब्लॉगिंग में शायद दँगाईयों की ही ज़्यादा सुनी जाती है । हम भी अभी दँगा करने का मूड बनाय के आय थे, पर इन सूनी गलियों में दँगा करने का भी भला कोई मज़ा है ? फिर यह भी सुना है कि, दँगा करने वास्ते माइकल को दारू पीना पड़ता है..
और झूठ बोलने वाले रोबोट की टेस्टिंग के लिये क्या कमाल की कोड़ी ढूँढ कर लाते हैं - तुम्हारा नेता लोग इतने वैराइटी का झूठ उगलता है कि अपने नेता पर टेस्ट करोगे तो जो मशीन बनेगा, वह परफ़ेक्ट होगा, और नेता के साथ साथ इसमें पुलिस को भी नही बख्शते - इँडियन पुलिस वर्ज़न है सो तुमको मार खाने से हमहूँ नहीं रोक पायेंगे।
हम बहुविकल्प सवाल अभी तक सिर्फ परीक्षा में ही सुनते आये थे या किसी पोल में लेकिन इन जनाब ने बगैर शिर्षक की पोस्ट लिख पढ़ने वालों के सामने विकल्प छोड़ दिये, चुन लो जो भी पसंद आये। अपनी इस बिना सिर वाली पोस्ट में इनकी मेनका की भी एंट्री कुछ इस तरह से होती है - अच्छा सुनों, जब 140 आतँकी देश में घुस आये हैं.. तो ब्लॉगिंग में भी 20-30 घुसे होंगे?
आज जब देश और पड़ोस दोनों ही हाय इतना पानी कितना पानी कहते हुए इसकी मार से तड़प रहें हैं, ये अपने एक दूसरे चिट्ठे में आँखों में भरे पानी का कौतुक का हवाला कुछ यूँ देते हैं -
हम्मैं क्या, ऊपर वाले ( दिल्ली वालों ) की दया से आज पूरा देश घायल पड़ा कराह रहा है! एक दिन के लिये इस रोती आत्मा को स्वतँत्रता दिवस का बिस्कुट थमा कर कब तक फुसलाओगे?
इसी पोस्ट से -
किस्स-ए-अज़मते माज़ी को ना मुहमिल समझो,
क़ौमें जाग उठती हैं अकसर इन्हीं अफ़सानों से।
किस्स-ए-अज़मते — महानता की कहानियाँ, माज़ी — अतीत! मुहमिल — व्यर्थ का !
इन जनाब को फिल्म का भी थोड़ा बहुत शौक मालूम होता है तभी तो बात करते हैं उसकी जो ताउम्र अज़ीब आदमी ही रहे, अरे वही आदमी जो बिछड़े सभी बारी बारी कहते हुए खुद भी बिछड़ गया। वो याद कर रहे हैं उनके पसंदीदा गुरूदत्त की, गुरूदत्त को पसंद करने के लिये उनके दौर का होना बहुत जरूरी है। लेकिन याद करते और कुछ लिखने का सोचते सोचते उन्हें याद आता है कि उनके पास इतना वक्त ही नही -
ज़ल्दबाज़ी में गुरुदत्त पर कुछ लिखना सँभव ही नहीं, नृत्य-निर्देशक से कहानीकार, डायरेक्टर, निर्माता अभिनेता तक का उनका सफ़र बहुत सारी पेंचीदगियों से भरा पड़ा है । किसी फ़िल्म को देख कर यदि मैं पहली बार और आख़िरी बार रोया हूँ तो मुझे याद है वह थी काग़ज़ के फूल.. मन को समझाने को यह ख़्याल अच्छा है कि, ” पगले, वह तो तुम इसलिये रो पड़े थे कि हॉस्टल से कोई भी तुम्हारे साथ यह फ़िल्म देखने को तैयार भी न हुआ था।
और फिर ये कह के सच में ज़माने के हिसाब से गुरुदत्त दुनिया के लिये अज़ीब आदमी ही रहे!, एक पुरानी पोस्ट की रीठेल कर आफिस को सटक लिये गोया डाक्टर का नुस्खा हो सप्ताह में एक पोस्ट ब्लोग की हलक में डालते रहना वरना ब्लोग का ब्लडप्रेशर बढ़ सकता है।
अगर आप इनकी लिखी पोस्ट और टिप्पणी पढ़ेंगे तो पायेंगे कि इनके लिखने का एक अलग ही अंदाज है और हो सकता है पहली नजर में यानि कि पहले पहल आप सोचें ये बुढ़बक क्या लिखे जा रहा है, पल में तोला पल में गोला टाईप, कोई कोई पोस्ट पढ़ते पढ़ते हो सकता है आपको ये भी आभास हो कि आप इंडियन क्रिकेट टीम की पारी देख रहे हैं जो कई बार शुरू में लुढ़कते फुढ़कते रहने के बावजूद मैच जीत जाती है तो कभी कभी अच्छी खासी स्ट्रोंग खेलते खेलते अंत में लुढ़क जाती है। लेकिन एक बार आदत लग जाये तो हो सकता है कुछ यूँ कहें, छूटती नही काफिर, मुँह से लगी हुई।
बात कलेवर की: अब अंत में एक बार इनके ब्लोग की सुंदरता की बात भी हो जाय, ब्लोग को आकर्षक बनाने में इन्होंने कोई कसर नही छोड़ी और ये अपनी कोशिश में कामयाब भी रहे हैं। ब्लोग में फालतू का मैकअप नही जिनसे रोम छिद्र बंद होने की संभावना के तहत मुहांसे बने रहने का खतरा रहे यानि कि फालतू का तामझाम नही। ब्लोग में अलग अलग कैटगरी और सेक्शन कायदे से तो लगे ही हैं, चित्रों का भी तरीके से उपयोग किया गया है।
तो ये थी आज की चर्चा क्या आप इस शख्श को पहचान पाये, अगर नही तो बताना ही पढ़ेगा ये हैं इसी हिंदी ब्लोग जगत के दूसरे निठल्ले, डा अमर कुमार। आप क्या सोचने लगे, ये दूसरे हैं तो पहला कौन है? अब वो हम अपने मुँह से क्या कहें आप खुद ही समझ लीजिये। अगली बार फिर किसी और के साथ मुक्कालात करवायेंगे तब तक आप अपनी टिप्पणियों का थोबड़ा थोड़ा दुरस्त करके रखिये वरना कहीं ऐसा ना हो जब आपकी खुबसूरती का जिक्र हो तो टिप्पणियों के जूड़े में सिर्फ सार्थकता के फूल गूँथे नजर आये। :D ;)
नोटः आपको हिंट देते चलें कि ब्लोगरस का शिकार चिट्टा चर्चा या हमारे व्यक्तिगत चिट्ठों में छोड़े कदमों के निशान का पीछा करते हुए किया जायेगा। अपने जंगल में भुखमरी की नौबत आने पर ही दूसरे जंगलों की ओर रूख किया जायेगा।
चिप्पियाँ: Tarun
18 comments:
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…
डॉक्टर साहब लिखते हैं तो पहेली छोड़ते जाते हैं। बहुत मस्त और राप्चिक।
आपका प्रयोग बहुत बढ़िया है। अपुन को अब कोई टेंशनइच नहीं है।
सतीश सक्सेना ने कहा…
यह पोस्टलेखक के द्वारा निकाल दी गई है.
सतीश सक्सेना ने कहा…
मैं एक नासमझ ब्लागर के नाते, इनको आज तक समझ नहीं पाया ,
कभी उलझे अमर ,
कभी दादा अमर,
कभी जल्दवाज अमर,
कभी गुस्सैल अमर,
कभी महीनों गायब रहने वाले लडाका अमर,
और कभी रख्शंदा जैसी प्यारी लड़की को दुलारते हुए अमर कुमार, पूरे ब्लाग जगत में अलग खड़े नज़र आते हैं !
मगर मैं इन्हें डरते हुए पसंद करता हूँ जो मस्त जवानों की ऐसी तैसी करने की सम्पूर्ण क्षमता रखते हैं और खुद मस्त रहते हैं !
लिंक्डइन प्रोफाइल में अनके प्रति मेरे कमेंट्स आपके लिए नज़र करता हूँ....
"Dr Amar Kumar, a Graduate in Medicine, is not only one of the most honest,empathetic in nature and a fearless writer of hindi language, but also having dynamic command over vast social subjects and heritage of Indian society and culture, he has the caliber to fight against injustice. Besides managing and practicing own nursing home successfully he is also able to devote time to serve his own national language with great zeal"
कहीं इन्हें हमारी नज़र न लग जाए ....
खुदा महफूज़ रखे हर बला से हर बला से
मगर मैं इनकी तारीफ़ क्यों कर रहा हूँ इससे तो ब्लागर इन्हें मेरा गुरु मान लेंगे :-( .....इनकी तारीफ़ करने में मेरी ही ऐसी तैसी होगी यहाँ तरुण भाई !
ऐसा करते हैं यह कमेंट्स किसी अनाम के मान लें तो अच्छा होगा ! अपने नाम से तारीफ़ करना ठीक नहीं कहीं अमर कुमार से कल को लड़ाई हो गयी तो इन्हें गरिया भी न पाऊंगा !
डा० अमर कुमार ने कहा…
मैं तो यही जानूँ, ब्लॉगर की दौड़ चिट्ठाचर्चा तक
होती रही होगी..., मुल्ला की दौड़ मस्ज़िद तक
आज देखता हूँ कि खुद बँदे की ही हिमायत हो रही है, लाहौल बिला-कूव्वत तरूण दाज़्यू
अच्छा दाँव मारा है, चोर को ही कोतवाल बना कर खड़ा कर दिया, विपक्ष से प्रतिपक्ष !
आपने गुमानी पँत को कभी पढ़ा है.. पढ़ियेगा । भारतेन्दु से बहुत पहले से वह खड़ी बोली के प्रयोग करते रहे हैं..
सँस्कृत हिन्दी के मिश्रित उनके छँद, दोहे अनोखे हैं । अपने को चर्चा में देख अभी यही याद आ रहा है कि,
मन्त्रिभिरिमिलितैः कृतो हृतराज्यः सुख्योहि
चौरही कुतिया मिल गई पहरा किसका होय
मॉडरेशन के इस दौर में तो आपको धन्यवाद देते भी डर लगता है, कहीं वक्रोक्ति न समझ लिया जाय
जरा सक्सेना साहब की बात पर गौर करिये, मेरे मेस में रसोईया पान सिंह कहा करता था, " जैको बाप रिछैलै खायो.. ऊ काल क्वैल देख डरा "
आज मौका भी है, दस्तूर भी.. गरियाओ यारों.. इस निट्ठल्ले को जरा खुल कर गरियाओ
मैं भी लौट कर आपका साथ देता हूँ, आज मैं भी ललकारता हूँ इन्हें कि, जरा अपने असली रूप में तो सामने आओ, महाधूर्त अमर कुमार !
shailendra ने कहा…
naya kalewar pasand. jinki charcha ki o bahut hi pasand. aap ne jitna likha ootna mujhe nahi pata.
lekin mere kishi priye blogger ne oonhe 'all time
champion' kaha tha. jis se me iktphakh rakhta hoon.
mureed hoon oonka...mutmueen hoon oonpar.
many many thanx to tarun bhai for good start.
keep it up and carry on.
with regards
sk jha, chd.
डॉ .अनुराग ने कहा…
उनके भीतर सेन्स ऑफ़ ह्यूमर का एक नैसर्गिक गुण है ...जो ढेरो किताबे पढ़कर तराशा गया है ....जो कभी कभी तल्ख़ जरूर होता है पर उनकी असहमतिया आसानी से खारिज नहीं की जा सकती .....वे टिप्पणियों की रस्म अदायगी परम्परा का निर्वाह नहीं करते .... ... हिंदी ओर उर्दू भाषा पर उनका नियंत्रण उनकी टिप्पणियों में दिखता है ..
ब्लोगिंग की बुनियादी शर्त कोई है तो वो है मौलिक होना .....वे इस पर खरे उतरते है ....मेरा मानना है वे ओर इ स्वामी कई सारे पाठको तक पहुंचने चाहिए ...वैसे ब्लोगिंग से इतर अपने जीवन में वे एक बेहतरीन इन्सान भी है ....जो मेरी समझ से ज्यादा बड़ी बात है
@तरुण जी ....अनूप जी पिछली कई चर्चायो से इस प्रयोग को कर रहे है ...शायद अनुपस्थित रहने के कारण आप नहीं जान पाये ......पर ये प्रयोग एक अच्छा प्रयास है....शुक्रिया इस चुनाव के लिए
कुश ने कहा…
उनके लिए जब गुरुवर का संबोधन मेरे द्वारा होता है तो वो मात्र संबोधन ही नहीं होता.. उनका ब्लैक ह्यूमर.. उनकी साफगोई और वो जो नहीं होना था में शामिल रहने का गुण.. उन्हें दुसरो से अलग ही करते है.. अच्छे ब्लोगर तो कई मिल जायेंगे पर सच्चे ब्लोगर कम ही होंगे.. आदरनीय डा. अमर कुमार उनमे से एक है और लीक से हटकर भी.. देखिये ना कोई और होता तो शायद शाम तक आने वाली टिप्पणियों को पढता और वीर धन्यवाद् रुपी कोई टिपण्णी करता.. पर डा. साहब अलग कैटेगरी में शुमार है..
ब्लोगिंग से इतर उन्हें जितना भी जाना है.. एक इंसान के रूप में हमेशा अव्वल ही पाया है.. अक्सर कई मुद्दों पर उनकी राय मेरे लिए बहुत जरुरी हो जाती है.. जो मैं हक़ से लेता हूँ और वे सहजता से देते भी है.. अधिकारपूर्वक नाराज़ भी होते है.. और झट से मान भी जाते है.. उनकी सबसे बड़ी खूबी उनके अन्दर के मासूम का अभी तक वैसे ही रहना है.. शायद यही वजह है कि अच्पन बचपन ब्लॉग में वे उसी मासूमियत को जिन्दा रखते है..
इस मंच पर उनके बारे में पहले ही लिखा जाना चाहिए था.. दरअसल वे चिठ्ठा चर्चा के खालिस पाठक है.. और उनके पढ़े बिना हर चर्चा अधूरी है.. ये मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ..
श्री चंद्रमौलेश्वर जी और डा. अमर कुमार जी चर्चा के खालिस पाठको में से एक है.. इनके बिना कई बार चर्चा अधूरी भी लगती है..
ज्यादा और लिखा तो इमोशनल हो जाऊँगा.. विराम लेता हूँ..
cmpershad ने कहा…
हम तो डॊक्टर साहब की इटेलिक कमेंट खोजते रहते हैं। चोट भी करते हैं तो मरहम भी देते हैं ... जैसे कह रहे हों - हमी ने दर्द दिया हमी दवा देंगे.. डॉक्टर जो ठहरे :)
रचना ने कहा…
Dr amar sae milnae kaa man hotaa haen unkae kmaent padh kar
प्रवीण शाह ने कहा…
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मैं तो अपेक्षाकृत नया हूँ ब्लॉगिंग में...महज एक साल पूरा किया १६ अगस्त को...इसलिये आदरणीय डॉक्टर अमर कुमार जी के बारे में ज्यादा कुछ कहने की योग्यता नहीं रखता... फिर भी जितना उनकी पोस्ट और टिप्पणियों से जाना...
एक ईमानदार ब्लॉगर हैं वे...यद्मपि जो कुछ वे लिखते हैं उसे समझना थोड़ा दुरूह होता है...सबसे बड़ा गुण जो मुझे बार-बार उनके लिखे की ओर खींचता है वह यह है कि अपने आप को ज्यादा सीरियसली नहीं लेते वोह... अगर हर कोई ऐसा करने लगे...तो काफी खूबसूरत हो जायेगी यह दुनिया !
(अपने लिखे को तिरछा कर दिया है... ब्लॉगवुड के इस आधारस्तंभ की शान में)
...
मनोज कुमार ने कहा…
बहुत अच्छा लगा, चर्चा और चिट्ठा चर्चा पढकर।
ओशो रजनीश ने कहा…
चिट्ठा चर्चा पढकर अच्छा लगा .... शानदार प्रस्तुति .....
एक बार इसे भी पढ़े , शायद पसंद आये --
(क्या इंसान सिर्फ भविष्य के लिए जी रहा है ?????)
http://oshotheone.blogspot.com
सतीश सक्सेना ने कहा…
तरुण जी ,
बेहतर नहीं होता कि यह पोस्ट आप अपने ब्लाग पर लगाते ? निस्संदेह आपकी मेहनत और आपके सम्मान से जुडी इस पोस्ट को बहुत लोग पढ़ते और डॉ अमर कुमार को वह सम्मान मिलता जिसके लिए यह पोस्ट लिखी गयी और जिसके वह हकदार थे !
बेहद अफ़सोस है कि इतनी अच्छी पोस्ट का यह हाल हुआ है !
अनूप शुक्ल ने कहा…
तरुण भाई,
बहुत सुन्दर चर्चा की है। इसके पहले भी कई बार नये-नये अंदाज में चर्चा करके इसकी नवीनता बनाये रखने के लिये हमेशा प्रयोग करते रहे हो। यह एक और नया अंदाज। हां बहुत दिन से गीतमाला वाला कार्यक्रम नहीं हुआ। किसी दिन वह भी हो जाये।
डा.अमर कुमार के बारे में विस्तार से कभी चर्चा की थी कुश, डा.अनुराग और शिवकुमार मिश्र तथा अन्य साथी ब्लॉगरों के सहयोग से। काफ़ी विद कुश में। इसमें उनसे हुई बातचीत में उनके तेवर का अंदाज होता है। मैंने उनके बारे में टिप्पणी करते हुये लिखा था: डा.अमर कुमार ने एक ही लेख नारी – नितम्बों तक की अंतर्यात्रा उनके लेखन को यादगार बताने के लिये काफ़ी है। लेकिन लफ़ड़ा यह है कि उन्होंने ऐसे लेख कम लिखे। ब्लागरों से लफ़ड़ों की जसदेव सिंह टाइप शानदार कमेंट्री काफ़ी की। रात को दो-तीन बजे के बीच पोस्ट लिखने वाले डा.अमर कुमार गजब के टिप्पणीकार हैं। कभी मुंह देखी टिप्पणी नहीं करते। सच को सच कहने का हमेशा प्रयास करते हैं । अब यह अलग बात है कि अक्सर यह पता लगाना मुश्किल हो जाता कि डा.अमर कुमार कह क्या रहे हैं। ऐसे में सच अबूझा रह जाता है। खासकर चिट्ठाचर्चा के मामले में उनके रहते यह खतरा कम रह जाता है कि इसका नोटिस नहीं लिया जा रहा। वे हमेशा चर्चाकारों की क्लास लिया करते हैं।
लिखना उनका नियमित रूप से अनियमित है। एच.टी.एम.एल. सीखकर अपने ब्लाग को जिस तरह इतना खूबसूरत बनाये हैं उससे तो लगता है कि उनके अन्दर एक खूबसूरत स्त्री की सौन्दर्य चेतना विद्यमान है जो उनसे उनके ब्लाग निरंतर श्रंगार करवाती रहती है।
डा.अमर कुमार की उपस्थिति ब्लाग जगत के लिये जरूरी उपस्थिति है!
ब्लॉगर डा.अमर कुमार के बारे में कभी-कभी लगता है कि उनको थोड़ा और सरल होना चाहिये टिप्पणियों के मामले में। अभिव्यक्त बात अगर अगला समझ ही न पाये तो ऐसी अभिव्यक्ति का क्या मायने? ब्लॉगर डा.अमर कुमार चिट्ठाचर्चा में माडरेशन के सख्त खिलाफ़ हैं। बाद में इतनी रियायत देने के लिये राजी हो गये हैं कि कम से कम चिट्ठाचर्चा में इस बात की घोषणा तो कर दी जाये कि हमारी माडरेशन नीति क्या है।
ब्लाग जगत की यह जरूरी उपस्थिति कभी-कभी इतना उत्साहित होकर माडरेशन के खिलाफ़ हो जाती है जिससे लगता है कि शायद उनको अन्दाजा नहीं हो पाता कि जिसके बारे में ऊल-जलूल टिप्पणियां करता है कोई उसके घर-परिवार वाले, दोस्त, ग्राहक भी पढ़ते हैं चर्चायें। चर्चाकारों के बारे में जिस तरह इन्दौर शहर से (सूरी नाम से) छद्म टिप्पणियां की गयीं उनको बिना माडरेशन के सीधे-सीधे प्रकाशित करके अभिव्यक्ति के कौन से आयाम हासिल होंगे यह मैं समझ नहीं पाता। विरोध भी अगर कोई अपने नाम से न कर सके तो क्या विरोध?
डा.अमर कुमार की टिप्पणियां और लेख देखकर कभी-कभी लगता है कि यह उन्होंने हम लोगों के अलावा अपने लिये भी लिखा था:चिट्ठाकारी के प्रतिमान स्थापित करने वाले बड़े भाई लोग अभी भी बचपन इन्ज़्वाय कर रहे हैं
व्यक्ति अमर कुमार के रूप में और लोगों ने कहा। मैं उससे इत्तफ़ाक रखता हूं। मुझे इस बात की खुशी है कि वे मेरे शुरू से बड़े प्रशंसक रहे हैं ऐसे प्रशंसक जो चीजें मनमाफ़िक न होने पर होने पर राशन-पानी लेकर चढ़ भी बैठते हैं। उनका रोल चिट्ठाचर्चा में और मेरी ब्लॉगिंग में जायरोस्कोप का रहा है और यह मानने में कोई दुविधा नहीं है मुझे कि आगे भी बना रहेगा।
डा.अमर कुमार की उपस्थिति ब्लाग जगत के लिये जरूरी उपस्थिति है!
अनूप शुक्ल ने कहा…
@डा.अनुराग, यह संयोग है कि मैंने कुछ चर्चायें की खालिश ब्लॉगरों के बारे में लेकिन उसके बारे में विचार कभी तरुण की पुरानी पोस्ट चर्चाओं और बातचीत के बाद ही बना। इसलिये शायद इस फ़ार्मेट का श्रेय तरुण को ही जाना चाहिये। :)
@ सतीश सक्सेनाजी, आपकी बात का क्या जबाब दें? यही कह सकते हैं कि पढ़ी जाने वाली चीजें होंगी तो खोज-खोज के पढ़ी जायेंगे। चर्चा पर एक पोस्ट और लग जाने से न डा.अमर कुमार की कदर हो गयी न तरुण की। आप खुद देखिये डा.अमर कुमार की पोस्ट आप तीन बार बांच चुके हैं और मैं उससे भी अधिक बार। काफ़ी विद कुश वाला लेख भी अभी तक प्रासंगिक है कि नहीं ?
अनूप शुक्ल ने कहा…
चर्चा पर एक पोस्ट और लग जाने से न डा.अमर कुमार की कदर हो गयी न तरुण की में कदर की जगह बेकदरी बांचा जाये।
नीरज गोस्वामी ने कहा…
अमर जी की चर्चा से चिठ्ठा चर्चा यादगार बन गयी है...
नीरज
Kishore Choudhary ने कहा…
मुझे डॉ अमर कुमार के शब्द बहुत पसंद हैं. उनके वाक्यों से सीधे अर्थ निकलते हैं.
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अब समय है नियमित चर्चा का. तो, प्रस्तुत है (तथाकथित, अन्यभू) महागुरू चर्चाकार की ऐतिहासिक आखिरी ब्लॉग चर्चा. महज़ 2 छोटे-2 स्क्रीनशॉट और 50सेक शब्दों में ऐतिहासिक चर्चा:-
हिंदी ब्लॉगिंग के सदा-सर्वदा सार्थक उदाहरणों में से एक प्रस्तुत है नारायण प्रसाद का ब्लॉग - मगही-हिन्दी शब्दकोश. इस शब्दकोश को वे पत्र पत्रिकाओं व इतर उपलब्ध मगही सामग्री से संकलित कर ब्लॉग पर चढ़ा रहे हैं. जैसा कि स्क्रीनशॉट में दर्शित है, अब तक वे ग्यारह हजार से ऊपर शब्दों को उनके हिंदी अर्थों सहित, अपने ब्लॉग में दर्ज कर चुके हैं.
नारायण प्रसाद हिंदी कम्प्यूटिंग के अन्य फोरमों में भी अत्यंत सक्रिय हैं. उनके इन भागीरथी प्रयासों को सादर नमन्.
...
पुछल्ला – आपने अभी तक टैक्स्टफ़ाइल्स.कॉम देखा या नहीं? वैसे तो यह कोई ब्लॉग साइट नहीं है, और चर्चा में किसी सूरत शामिल नहीं किया जाना चाहिए (??) मगर नेट के समुद्र में जबरदस्त टाइमपास या बहुतों के बेहद काम की साइट है यह. वैसे भी जब ब्लॉग नहीं थे, तब बहुत से बुलेटिन बोर्ड फ़ोरमों में ऐसे संकलन धूम मचाते रहते थे. अपने जमाने के ट्विटर या ब्लॉग के संकलन कह सकते हैं इसे. इसके परिचय में लिखा है –
On the face of things, we seem to be merely talking about text-based files, containing only the letters of the English Alphabet (and the occasional punctuation mark). On deeper inspection, of course, this isn't quite the case. What this site offers is a glimpse into the history of writers and artists bound by the 128 characters that the American Standard Code for Information Interchange (ASCII) allowed them. The focus is on mid-1980's textfiles and the world as it was then, but even these files are sometime retooled 1960s and 1970s works, and offshoots of this culture exist to this day. |
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इसी बहाने तरुण जी की वो पोस्ट पढ़ ली हमने जो पिछली बार नहीं पढ़ पाये थे। डा० अमर साब की तारीफ़ में तारीफ़ भी कम पड़ जाये, सच कहूँ तो।
जवाब देंहटाएंतमाम लिंकों पर जाकर देखा तो अफसोस हुआ। ब्लौग की पुरानी रीत...तिल का ताड़ बनाने की। रविरतलामी जी की ब्लौगिंग-सिंसियेरिटि और डिवोशन-डेडिकेशन पर ऊँगली उठाना कम-से-कम मुझे तो हजम नहीं होता...
शब्दाविष्कारकों के लिये एक प्रोजेक्ट इसी बहाने- दावानल,जठरानल आदि की तरह ब्लौग में लगी आग के लिये कोई उपयुक्त शब्द ढ़ूंढ़ा जाये..... :-)
आज फ़िर से इस अद्भुत पोस्ट को पढ़कर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंहाह्हः
गुज़र चुके कारवाँ का ग़ुबार अब तक दिख रहा है ।
अफ़सोस हुआ, और रहेगा.. अभी कल की चर्चा में मैंनें यही निवेदित किया है " अब तक कुल-ज़मा यह लग रहा था कि चिट्ठाचर्चा ने निष्पक्षता के विरोध में अपना आधा शटर गिरा रखा है । खैर.. रात गयी.. बात गयी.. बात को पकड़ कर बैठोगे तो यह दूर तलक भागती है ।"”
’नमाज़ बख़्वाने में अक्सर रोज़े गले पड़ने’ की बात सुनता आया था, पर आज की इस तरह की ’ अलविदा चर्चा ’ में एक नये तरह की इबादत की इबारतें देख कर ढेर सारी प्रतिक्रियायें मन में घुमड़ रही हैं, क्लिनिक का समय ( 1.30 से 6.00 ) सन्निकट है, मेरा वाहन-सारथी प्रतीक्षा में बैठा है, सो इस दबाव में अपने शब्दों को सँयत तरीके से समेट पाना कठिन है ।
आभासी चीजों को वास्तविकता के स्तर पर रखने से स्थितियाँ कितनी सुधर सकती हैं, कह नहीं सकता... यह अथाह समुन्दर की विशेषताओं को एक गागर में भरने का प्रयास होगा ।
न जाने क्यों.. पर यह निर्विवादित है कि इस चिट्ठाचर्चा को मैंनें देवाशीष जी, अनूप शुक्ल, रवि भाई, तरूण जी, कुश डॉ. अनुराग, नीलिमा और हाल में दाख़िल हुये मनोज जी से जुड़ाव के चलते अपनी कमजोरी बना लिया है, समीर भाई आते थे, अच्छा लगता था, विवेक सिंह की अनुपस्थिति महसूस होती है । यह सब हिन्दी ब्लॉगिंग के इतिहास में यहाँ दर्ज़ हैं, और रहेंगे ।
इस जुड़ाव को मैं डॉक्टर ए.पी.जे. कलाम की कविता के चँद पँक्तियों में समेटने का प्रयास करता हुआ, रवि भाई के इससे जुड़े रहने के विश्वास का, और शाम को अपने पुनः आने का भरोसा रखता हूँ ।
तेरी बाँहों में पला मैं,
मेरी क़ायनात रही तू ।
जब छिड़ा होगा विश्वयुद्ध,
जीवन बनी थी चुनौती,
ज़िन्दगी अमानत,
मीलों चलते थे हम,
पहुँचते किरणों से पहले ।
कभी जाते मँदिर
लेने स्वामी से ज्ञान,
कभी मौलाना के पास,
लेने अरबी का सबक,
स्टेशन को जाती,
रेत भरी सड़क,
बाँटे हैं अख़बार मैंनें
चलते पलते साये में तेरे
( अपने विश्वास को कायम रखे जाने की आशा में ) जारी...
बहुत दिनों से अम्माँ जी का जिक्र नहीं हुआ है। यहाँ होता तो आनंद कुछ और ही होता।
जवाब देंहटाएंजाने भी दो यारो
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएं@ विवेक सिंह
ठीक है.. जाने ही देते हैं !
मैं अनावश्यक टिप्पणी देने से बच गया ।
यह तो एक बिल्कुल यूनीक चर्चा हो गई। अपने चिट्ठे से तो सब जाने जाते हैं किन्तु अपनी टिप्पणियों के लिए जाने जानए के लिए तो कुछ और ही विशेषता होनी पअती है जो कम में ही होती है।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती