शनिवार, सितंबर 18, 2010

अन्तर्मन् से अनेक मन तक

एक और शनिवार, एक और चर्चा, एक और चिट्ठाकार लेकिन सुस्ती थोड़ा ज्यादा है इसलिये सोचा इंडिया तक का सफर कौन करे यहीं किसी को पकड़ उसकी चर्चा कर देते हैं। आसपास नजर दौड़ायी तो वो अन्तर्मन् पर जाकर अटक गयी, आखिर सबसे पास वही तो था। अन्तर्मन् का मैं शाब्दिक अर्थ ढूँढ रहा था तो एक टिप्पणी या फीडबैक या फोरर्वड कुछ भी कह लीजिये, उस पर नजर गयी, जिसमें कुछ इस तरह से लिखा था -
हृदयेन सत्यम (यजुर्वेद १८-८५) परमात्मा ने ह्रदय से सत्य को जन्म दिया है. यह वही अंतर्मन और वही हृदय है जो सतहों को पलटता हुआ सत्य की तह तक ले जाता है.
अब इतनी तह पलटकर अंदर तक ले जाने की गारंटी तो हम नही देते लेकिन ४-५ मिनट तक पढ़ने लायक पोस्ट शायद दे ही दें। अब फिर आ गया प्रवासी कहना छोड़िये और इस दूसरे प्रवासी की सुनिये जो शीशे की छत के बारे में कुछ बात कर रहा है, एक्सक्यूज मी, कर रही है -
अमरीकी स्टोक कम्पनी सम्बंधित पत्रिका 'वोल स्ट्रीट जर्नल ' में , सन 1986 के मार्च 24 तारीख के अंक में क़ेरोल हाय्मोवीट्ज़ [ Carol Himowitz ] और टीमोथी स्तेल्हार्द्ज़ [ Timothee Steilhardz ] ने सबसे पहली बार एक नया तथा पहले कभी जिसे प्रयोग ना किया गया हो ऐसा शब्द ’द ग्लास सीलिंग’ अपने आलेख में प्रस्तुत करते हुए स्त्रियों की प्रगति में अदृश्य व पारदर्शक व्यवधान होने की बात को उजागर करते हुए यह कोर्पोरेशन में होनेवाले वाकये को खुलकर समझाते हुए ये नया नाम दिया था जिसे मीडिया तथा जनता ने तुरंत अपना लिया और आम भाषा में ' ग्लास सीलिंग 'मुहावरा या शब्द , स्त्री सशक्तिकरण के मुद्दों के साथ सदा के लिए जुड़ गया ।
स्त्री सशक्तिकरण की जानकारी देता काफी अच्छा आलेख है और अगर आपने अभी तक नही पढ़ा तो एक बार जरूर पढ़िये। अमर युगल पात्र श्रृंखला की तहत वो बता रही है वशिष्ठ और अरूंधती के बारे में -
वसिष्‍ठ स्‍वायंभुव मन्‍वंतर में उत्‍पन्‍न हुए ब्रह्मा के दस मानसपुत्रों में से एक हैं। कहते हैं कि वसिष्‍ठ का जन्‍म ब्रह्माजी के प्राणवायु (समान) से हुआ था। ‌वसिष्‍ठ ऋषि का ब्राह्मण वंश सदियों तक अयोध्‍या के सूर्यवंशी राजाओं का पुरोहित पद सँभाले रहा। इनकी दो प‌‌त्नियाँ बताई गई हैं। एक तो दक्ष प्रजापति की कन्‍या ‘उर्जा’ और दूसरी ‘अरुंधती’। अरुंधती कर्दम प्रजापति की नौ कन्‍याओं में से आठवीं गिनी जाती हैं। दक्ष प्रजापति की कन्‍या ‘सती’ से शिव ब्‍याहे थे। इस नाते से वसिष्‍ठ शिव के साढ़ू हुए। दक्ष प्रजापति के यज्ञ के ध्‍वंस के समय शिव ने वसिष्‍ठ का वध किया था। अरुंधती के अलावा ‘शतरूपा’ भी वसिष्‍ठ की पत्‍नी मानी गई हैं। (वे अयोनिसंभवा थीं।)
हो सकता है आप में से कुछ लोग इस कथा से वाकिफ हों, कुछ नही, लेकिन इस आलेख में काफी जानकारी है इनमें से कुछ मुझे भी नही मालूम थी।

अमेरिका के न्यूजर्सी प्रान्त में छोटा भारत यानि एडिसन में बड़ती भारतीयों की संख्या को लेकर टाईम्स पर एक आलेख छपा था, इसी आलेख के संदर्भ में इन्होंने एक पोस्ट लिखी थी - मृण्मय तन, कंचन सा मन, जिसकी शुरूआत कुछ इस तरह थी -
इंसान अपनी जड़ों से जुडा रहता है । दरख्तों की तरह। कभी पुश्तैनी घरौंदे उजाड़ दिए जाते हैं तो कभी ज़िंदगी के कारवाँ में चलते हुए पुरानी बस्ती को छोड़ लोग नये ठिकाने तलाशते हुए, आगे बढ़ लेते हैं नतीज़न , कोई दूसरा ठिकाना आबाद होता है और नई माटी में फिर कोई अंकुर धरती की पनाह में पनपने लगता है ।

यह सृष्टि का क्रम है और ये अबाध गति से चलता आ रहा है। बंजारे आज भी इसी तरह जीते हैं पर सभ्य मनुष्य स्थायी होने की क़शमक़श में अपनी तमाम ज़िंदगी गुज़ार देते हैं । कुछ सफल होते हैं कुछ असफल !

हम अकसर देखते हैं कि इंसानी कौम का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने पुराने ठिकानों को छोड़ कर कहीं दूर बस गया है । शायद आपके पुरखे भी किसी दूर के प्रांत से चलकर कहीं और आबाद हुए होंगें और यह सिलसिला, पीढी दर पीढी कहानी में नये सोपान जोड़ता चला आ रहा है । चला जा रहा है । फिर, हम ये पूछें - अपने आप से कि हर मुल्क, हर कौम, या हर इंसान किस ज़मीन के टुकड़े को अपना कहे ? क्या जहाँ हमने जनम लिया वही हमारा घर, हमारा मुल्क, हमारा प्रांत या हमारा देश, सदा सदा के लिए हमारा स्थायी ठिकाना कहलायेगा ?
अमेरिका का इतिहास गवाह है कि यहाँ रह रहे सभी लोग प्रवासी है वो जो अपने को अमेरिकी समझते और कहते हैं और वो भी जो उसकी तैयारी में हैं। मूल निवासी जिन्हें रेड इंडियन कहा जाता था और है विलुप्त होने की कगार में हैं, ऐसे में किसी सदियों पहले आये एक प्रवासी का कुछ दशक पहले आये प्रवासियों के लिये कुछ कहना उसके भीतर पल रही असुरक्षा ही बयाँ करता है।

इससे पहले मैं आगे कुछ और चर्चा करूँ मैं आप को बता दूँ की आप हमारी आज की चिट्ठाकारा से पीढ़ी दर पीढ़ी दो चार हो सकते हैं और ऐसा लगता है यही शायद इनकी पहली हिंदी पोस्ट भी थी और इनके बारे में इनकी परम मित्र डाक्टर मृदुल कीर्ति जी का कुछ ये कहना है - लावण्य मयी शैली में विषय-वस्तु का दर्पण बन जाना और तथ्य को पाठक की हथेली पर देना, यह उनकी लेखन प्रवणता है. सामाजिक, भौगोलिक, सामयिक समस्याओं के प्रति संवेदन शीलता और समीकरण के प्रति सजग और चिंतित भी है. हर विषय पर गहरी पकड़ है. सचित्र तथ्यों को प्रमाणित करना उनकी शोध वृति का परिचायक है. यात्रा वृतांत तो ऐसे सजीव लिखे है कि हम वहीं की सैर करने लगते हैं.

आध्यात्मिक पक्ष, संवेदनात्मक पक्ष के सामायिक समीकरण के समय अंतर्मन से इनके वैचारिक परमाणु अपने पिता पंडित नरेन्द्र शर्मा से जा मिलते हैं, जो स्वयं काव्य जगत के हस्ताक्षर है. पत्थर के कोहिनूर ने केवल अहंता, द्वेष और विकार दिए हैं, लावण्या के अंतर्मन ने हमें सत्विचारों का नूर दिया है.
अब हम इससे अच्छा आज की चिट्ठाकारा लावण्या शाह जी के लिये कुछ नही लिख सकते इसलिये इसे ही हमारा कहा समझ के संतोष कर लीजिये। अब चूँकि उपर दी गयी टिप्पणी आध्यात्मिकता की बातों की ओर ज्यादा झुकी है इसलिये थोड़ा ॐ नमो भगवते महादुर्गायेय नम: की बात भी कर लेते हैं -
सजा आरती सात सुहागिन ,
तेरे दर्शन को आतीं ,
माता , तेरी पूजा , अर्चना कर ,
भक्ति निर्मल पातीं !
दीपक , कुम कुम - अक्षत ले कर ,
तेरी महिमा गातीं ,
माँ दुर्गा तेरे दरसन कर के ,
वर , सुहाग का पातीं !
वैलेंटाईन डे पर लावण्याजी ने एक पोस्ट लिखी थी - आखिर ये मुहब्बत है क्या बला, इसमें १ नही २ नहि बल्कि १४ शेर भी दिये हैं, एक लाईन नमूने की -
"इश्क नाज़ुक है बेहद , अक्ल का बोझ , उठा नहीं सकता ."

और अब अंत में, लावण्या जी के पिताश्री पंडित नरेन्द्र शर्मा जी की लिखी कुछ पक्तियाँ -
विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्ल्लज्ज भाव से, बहती हो क्यूँ ?
इस गीत को भूपेन्द्र हजारिका की आवाज में पूरा सुनने या देखने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये और मन्ना दा की आवाज में पंडित नरेन्द्र शर्मा जी का लिखा नाच रे मयूरा आप यहाँ सुन सकते हैं

बात कलेवर कीः लावण्या जी के ब्लोग में भी बेकार का तामझाम तो नही है लेकिन मुझे लगता है कि उन्हें एक अच्छे टेंपलेट का उपयोग करना चाहिये और कभी कभी जो वो पोस्ट के लिये अलग अलग रंग लाल-नीले का प्रयोग करती हैं बजाये उसके अगर एक ही काले रंग का प्रयोग करें तो शायद पढ़ने के लिये ज्यादा आसान हो जायेगा। और ना जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि वो सारी पोस्ट बोल्ड करके लिखती हैं और अगर ऐसा है तो उन्हें पोस्ट नार्मल फोंट में लिखकर जरूरी वाक्यों को ही बोल्ड करना चाहिये। ये मरे व्यक्तिगत विचार हैं और वो अपने ब्लोग को अपने ढंग से चलाने और लिखने के लिये उतनी स्वतंत्र हैं जितना कि मैं अपने ब्लोग के लिये।

अपनी बातः आज अपनी बात के लिये ज्यादा कुछ है नही लेकिन इतना जरूर पूछना चाहूँगा कि अगर आप को बात कलेवर की तहत चिट्ठाकारों के ब्लोग के लिये मेरे कमेंट पसंद नही तो जरूर बताईये जिससे मुझे इस पर बात करने और ना करने के लिये डिसाईड करने में मदद मिलेगी।

अगले शनिवार फिर मुलाकात होगी, एक नये चिट्ठाकार के साथ, एक नयी चर्चा के साथ, तब तक के लिये -

पूरी बोतल ना सही, एक जाम तो हो जाय
मिलना ना सही, दुआ सलाम तो हो जाय
जिनकी याद में हम बीमार बैठे हैं
उन्हें बुखार ना सही, जुकाम तो हो जाय

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16 टिप्‍पणियां:

  1. आज की चर्चा में लावण्‍या दी के बारे में पढ़कर अच्‍छा लगा। उनके बारे में जितना कहा जाए कम है। उनके चिट्ठे में भारतीय संस्‍कृति के विविध रंग तो देखने को मिलते ही हैं, घर बैठे हमारे जैसे लोग अमेरिका की सैर भी कर लेते हैं।

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  2. लावण्या जी की तारीफ़ में जितना भी kahaa जाए कम है, धन्यवाद!

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  3. charchakar ko sadhuwad .....

    jinki charcha ki unneh pranam....


    sadar.

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  4. पूरी बोतल ना सही, एक जाम तो हो जाय
    मिलना ना सही, दुआ सलाम तो हो जाय
    जिनकी याद में हम बीमार बैठे हैं
    उन्हें बुखार ना सही, जुकाम तो हो जाय

    Dua karti hun,aapki dua unhen lag jaye!

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  5. `विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
    निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?'

    इस गीन के सृजनकर्ता की पुत्री और एक सफ़ल ब्लागर पर अच्छी चर्चा के लिए आभार॥

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  6. आज आपका ब्लॉग चर्चा मंच की शोभा बढ़ा रहा है.. आप भी देखना चाहेंगे ना? आइये यहाँ- http://charchamanch.blogspot.com/2010/09/blog-post_6216.html

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  7. पूरी बोतल ना सही, एक जाम तो हो जाय
    मिलना ना सही, दुआ सलाम तो हो जाय
    जिनकी याद में हम बीमार बैठे हैं
    उन्हें बुखार ना सही, जुकाम तो हो जाय

    बहुत ही अच्छी पंक्तिया लिखी है .......
    http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_16.html

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  8. ओहो हो हो..
    तो शनीवासरीय चर्चा में तरूण भाई मुस्तैद हैं,
    बेहतरीन और सधे तरीके से आज जिक्र लावण्या दी का, साथ में उनकी स्वयँ की चार तुरुप लाइनें
    पूरी बोतल ना सही, एक जाम तो हो जाय
    मिलना ना सही, दुआ सलाम तो हो जाय
    जिनकी याद में हम बीमार बैठे हैं
    उन्हें बुखार ना सही, जुकाम तो हो जाय
    इसे आगे बढ़ाते हुये अर्ज़ है..
    कहाँ ख़ुदा की ऎसी है रहमत कि, हम यूँ बीमार हो जायें
    मौका तकती अपनी रूह, जो बहाने मैय्यत दीदार हो जायें

    लावण्या दी के किसी भी पोस्ट को पढ़ो, वह पाठकों की श्रद्धा लूट ले जाती हैं ।
    अमेरीकी समाज में भारतीय मूल्यों को समाहित कर जीने की उनकी कला एक आदर्श है, अकेले उनकी सौम्यता ही अच्छों अच्छों को पराजित करने का दम रखती है ।
    यदि कोई समीक्षक पुस्तक के कलेवर और चित्राँकन तक पर टिप्पणी कर सकता है, तो आकलन-परक ऎसी चर्चा में टेम्प्लेट की बात करने में आपको सफाई क्यों देनी पड़ रही है ? In perpetual proccess of self improvisation, We need to be guided by Veterans एकदम सही जा रहे हो, तरूण दाज़्यू ।

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  9. मुझे याद है कि मार्च 2009 में उनके ब्लॉग पर किसी कि कुछ गड़बड़ शड़बड़ टिप्पणी को लेकर पालिमिक्स माने बहसबाजी या विवाद की एक कला शीर्षक से एक पोस्ट आयी थी । ज़ाहिर है.. लावण्या दी उन दिनों बहुत आहत थीं ।
    इसी पोस्ट पर मैंनें अपनी टिप्पणी दी थी, कि..
    मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी !
    मैं कुछ दिनों के लिये हटा नहीं, कि झाँय झाँय शुरु ?
    इस बहस में आज मुझे अन्य चिट्ठाकारों की भी टिप्पणी पढ़नी पड़ी..
    पढ़नी पड़ी.. बोले तो, हवा का रूख देख कर टीपना मुझे नहीं सुहाता !
    खैर... इस पूरे प्रकरण को क्या एक मानव की संघर्षगाथा मात्र के रूप में नहीं लिया जा सकता था ?

    मानव निर्मित जाति व्यवस्था पर इतनी चिल्ल-पों कहीं अपने अपने सामंतवादी सोच को सहलाने के लिये ही तो नहीं किया जा रहा ?
    किसी पोथी पत्रा का संदर्भ न उड़ेलते हुये, मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ..
    यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है !
    ज़रूरत समानता लाने की है.. न कि असमानता को जीवित रखने की है ?
    इस बहस से, यह फिर से जी उठा है !
    नतीज़ा ?
    चलिये, सुविधा के लिये मैं भी चमार को चमार ही कहता हूँ,
    क्योंकि मुझे यही सिखाया गया है.. दुःख तब होता है.. जब बुद्धिजीवियों के मंच से इसे पोसा जाता है !
    समाज के केचुँये ही सही.. पर हैं तो मानव ?
    यहाँ पर तो, मैं लिंगभेद भी नहीं मानता..
    यदि हर महान व्यक्ति के पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ होता है..
    तो स्त्री पीछे रहे ही क्यों.. और हम उसके आगे आने को अनुकरणीय मान तालियाँ क्यों पीटने लग पड़ें
    या कि लिंग स्थापन प्रकृति प्रदत्त एक संयोग ही क्यों न माना जाये ?
    चर्मकार कालांतर में चमार हो गये.. मरे हुये ढोर ढँगर को आबादी से बाहर तक ढोने और उसके बहुमूल्य चमड़े ( तब पिलासटीक रैक्शीन कहाँ होते थें भाई साहब ? ) को निकालने के चलते अस्पृश्य हो गये ! पर क्या इतने.. कि अतिशयोक्ति और अतिरंजना के उछाह में हमारे वेदरचयिता यह कह गये..कि " यदि किसी शूद्र के कानों में इसकी ॠचायें पड़ जायें.. तो उन अभिशप्त कानों में पिघला सीसा उड़ेलने का विधान है ", क्यों भई ?
    क्या यह भारतवर्ष यानि " जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी " ' के उपज नही थे ?
    या हम स्वंय ही इतने जनेऊ-संवेदी क्यों हैं, भई ?
    नेतृत्व चुनते समय विकल्पहीनता का रोना रो..
    उपनाम और गोत्र को आधार बना लेते हैं, क्या करें मज़बूरी कहना एक कुटिलता से अधिक कुछ नहीं ।
    इसका ज़िक्र करना विषयांतर नहीं, क्योंकि मेरी निगाह में..यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है !
    मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी !

    अब कुछ चुप्पै से.. सुनो
    इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर चल रही बहस में माडरेशन भी एक है ।
    होली पर मेरा मौन ( मोमबत्ती कैसे देख पाओगे.. ? ) विरोध इसको लेकर भी था,
    खु़द तो जोगीरा सर्र र्र र्र को गोहराओगे, अपने ब्लागर भाई को साड़ी भी पहना दोगे..
    टिप्पणी करो.. तो " ब्लागस्वामी की स्वीकृति के बाद दिखेगा ! "
    एक प्रतिष्ठित ब्लाग पर ऎसी टिप्पणी मोडरेशन को ज़ायज़ ठहराने के बहसे को उठा्ने की गरज़ से ही की गयी है !
    यहाँ से एक टिप्पणी को सप्रयास हटाना भी यह संकेत दे रहा है.. कि ब्लाग की गरिमा और पाठकों को आहत होने से बचाने का यही एक अस्त्र है,
    सेंत मेंत में ऎसी बहसें अस्वस्थ होने से बच जाती है..वह हमरी तरफ़ से एक के साथ एक फ़्री समझो !
    मसीजीवी के पोस्ट से चीन वालों को कान पकड़ कर क्यों नहीं बाहर किया गया था ?
    मन्नैं ते लाग्यै, इब कोई घणा कड़क मोडरेटर आ ग्या सै !
    इब राम राम

    मेरी यह सोच और भावनायें आज तक जस की तस हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  10. मुझे याद है कि मार्च 2009 में उनके ब्लॉग पर किसी कि कुछ गड़बड़ शड़बड़ टिप्पणी को लेकर पालिमिक्स माने बहसबाजी या विवाद की एक कला शीर्षक से एक पोस्ट आयी थी । ज़ाहिर है.. लावण्या दी उन दिनों बहुत आहत थीं ।
    इसी पोस्ट पर मैंनें अपनी टिप्पणी दी थी,कि..
    मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी !
    मैं कुछ दिनों के लिये हटा नहीं, कि झाँय झाँय शुरु ?
    इस बहस में आज मुझे अन्य चिट्ठाकारों की भी टिप्पणी पढ़नी पड़ी..
    पढ़नी पड़ी.. बोले तो, हवा का रूख देख कर टीपना मुझे नहीं सुहाता !
    खैर... इस पूरे प्रकरण को क्या एक मानव की संघर्षगाथा मात्र के रूप में नहीं लिया जा सकता था ?

    मानव निर्मित जाति व्यवस्था पर इतनी चिल्ल-पों कहीं अपने अपने सामंतवादी सोच को सहलाने के लिये ही तो नहीं किया जा रहा ?
    किसी पोथी पत्रा का संदर्भ न उड़ेलते हुये, मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ..
    यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है !
    ज़रूरत समानता लाने की है.. न कि असमानता को जीवित रखने की है ?
    इस बहस से, यह फिर से जी उठा है !
    नतीज़ा ?
    चलिये, सुविधा के लिये मैं भी चमार को चमार ही कहता हूँ,
    क्योंकि मुझे यही सिखाया गया है.. दुःख तब होता है.. जब बुद्धिजीवियों के मंच से इसे पोसा जाता है !
    समाज के केचुँये ही सही.. पर हैं तो मानव ?
    यहाँ पर तो, मैं लिंगभेद भी नहीं मानता..
    यदि हर महान व्यक्ति के पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ होता है..
    तो स्त्री पीछे रहे ही क्यों.. और हम उसके आगे आने को अनुकरणीय मान तालियाँ क्यों पीटने लग पड़ें
    या कि लिंग स्थापन प्रकृति प्रदत्त एक संयोग ही क्यों न माना जाये ?
    चर्मकार कालांतर में चमार हो गये.. मरे हुये ढोर ढँगर को आबादी से बाहर तक ढोने और उसके बहुमूल्य चमड़े ( तब पिलासटीक रैक्शीन कहाँ होते थें भाई साहब ? ) को निकालने के चलते अस्पृश्य हो गये ! पर क्या इतने.. कि अतिशयोक्ति और अतिरंजना के उछाह में हमारे वेदरचयिता यह कह गये..कि " यदि किसी शूद्र के कानों में इसकी ॠचायें पड़ जायें.. तो उन अभिशप्त कानों में पिघला सीसा उड़ेलने का विधान है ", क्यों भई ?
    क्या यह भारतवर्ष यानि " जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी " ' के उपज नही थे ?
    या हम स्वंय ही इतने जनेऊ-संवेदी क्यों हैं, भई ?
    नेतृत्व चुनते समय विकल्पहीनता का रोना रो..
    उपनाम और गोत्र को आधार बना लेते हैं, क्या करें मज़बूरी कहना एक कुटिलता से अधिक कुछ नहीं ।
    इसका ज़िक्र करना विषयांतर नहीं, क्योंकि मेरी निगाह में..यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है !
    मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी !

    अब कुछ चुप्पै से.. सुनो
    इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर चल रही बहस में माडरेशन भी एक है ।
    होली पर मेरा मौन ( मोमबत्ती कैसे देख पाओगे.. ? ) विरोध इसको लेकर भी था,
    खु़द तो जोगीरा सर्र र्र र्र को गोहराओगे, अपने ब्लागर भाई को साड़ी भी पहना दोगे..
    टिप्पणी करो.. तो " ब्लागस्वामी की स्वीकृति के बाद दिखेगा ! "
    एक प्रतिष्ठित ब्लाग पर ऎसी टिप्पणी मोडरेशन को ज़ायज़ ठहराने के बहसे को उठा्ने की गरज़ से ही की गयी है !
    यहाँ से एक टिप्पणी को सप्रयास हटाना भी यह संकेत दे रहा है.. कि ब्लाग की गरिमा और पाठकों को आहत होने से बचाने का यही एक अस्त्र है,
    सेंत मेंत में ऎसी बहसें अस्वस्थ होने से बच जाती है..वह हमरी तरफ़ से एक के साथ एक फ़्री समझो !
    मसीजीवी के पोस्ट से चीन वालों को कान पकड़ कर क्यों नहीं बाहर किया गया था ?
    मन्नैं ते लाग्यै, इब कोई घणा कड़क मोडरेटर आ ग्या सै !
    इब राम राम
    _________________________________________
    मेरी यह सोच और भावनायें आज तक जस की तस हैं ।

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  11. डा.अमर कुमार की यह टिप्पणी मेल में मिली पोस्ट पर नहीं है इसलिये डाल रहा हूं:

    डा० अमर कुमार ने आपकी पोस्ट " अन्तर्मन् से अनेक मन तक " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    मुझे याद है कि मार्च 2009 में उनके ब्लॉग पर किसी कि कुछ गड़बड़ शड़बड़ टिप्पणी को लेकर पालिमिक्स माने बहसबाजी या विवाद की एक कला शीर्षक से एक पोस्ट आयी थी । ज़ाहिर है.. लावण्या दी उन दिनों बहुत आहत थीं ।
    इसी पोस्ट पर मैंनें अपनी टिप्पणी दी थी,कि..
    मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी !
    मैं कुछ दिनों के लिये हटा नहीं, कि झाँय झाँय शुरु ?
    इस बहस में आज मुझे अन्य चिट्ठाकारों की भी टिप्पणी पढ़नी पड़ी..
    पढ़नी पड़ी.. बोले तो, हवा का रूख देख कर टीपना मुझे नहीं सुहाता !
    खैर... इस पूरे प्रकरण को क्या एक मानव की संघर्षगाथा मात्र के रूप में नहीं लिया जा सकता था ?

    मानव निर्मित जाति व्यवस्था पर इतनी चिल्ल-पों कहीं अपने अपने सामंतवादी सोच को सहलाने के लिये ही तो नहीं किया जा रहा ?
    किसी पोथी पत्रा का संदर्भ न उड़ेलते हुये, मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ..
    यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है !
    ज़रूरत समानता लाने की है.. न कि असमानता को जीवित रखने की है ?
    इस बहस से, यह फिर से जी उठा है !
    नतीज़ा ?
    चलिये, सुविधा के लिये मैं भी चमार को चमार ही कहता हूँ,
    क्योंकि मुझे यही सिखाया गया है.. दुःख तब होता है.. जब बुद्धिजीवियों के मंच से इसे पोसा जाता है !
    समाज के केचुँये ही सही.. पर हैं तो मानव ?
    यहाँ पर तो, मैं लिंगभेद भी नहीं मानता..
    यदि हर महान व्यक्ति के पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ होता है..
    तो स्त्री पीछे रहे ही क्यों.. और हम उसके आगे आने को अनुकरणीय मान तालियाँ क्यों पीटने लग पड़ें
    या कि लिंग स्थापन प्रकृति प्रदत्त एक संयोग ही क्यों न माना जाये ?
    चर्मकार कालांतर में चमार हो गये.. मरे हुये ढोर ढँगर को आबादी से बाहर तक ढोने और उसके बहुमूल्य चमड़े ( तब पिलासटीक रैक्शीन कहाँ होते थें भाई साहब ? ) को निकालने के चलते अस्पृश्य हो गये ! पर क्या इतने.. कि अतिशयोक्ति और अतिरंजना के उछाह में हमारे वेदरचयिता यह कह गये..कि " यदि किसी शूद्र के कानों में इसकी ॠचायें पड़ जायें.. तो उन अभिशप्त कानों में पिघला सीसा उड़ेलने का विधान है ", क्यों भई ?
    क्या यह भारतवर्ष यानि " जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी " ' के उपज नही थे ?
    या हम स्वंय ही इतने जनेऊ-संवेदी क्यों हैं, भई ?
    नेतृत्व चुनते समय विकल्पहीनता का रोना रो..
    उपनाम और गोत्र को आधार बना लेते हैं, क्या करें मज़बूरी कहना एक कुटिलता से अधिक कुछ नहीं ।
    इसका ज़िक्र करना विषयांतर नहीं, क्योंकि मेरी निगाह में..यह एक बेमानी बहस है.. क्योंकि ज़रूरत कुछ और ही है !
    मैं उपस्थित हो गया, लावण्या दी !

    अब कुछ चुप्पै से.. सुनो
    इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर चल रही बहस में माडरेशन भी एक है ।
    होली पर मेरा मौन ( मोमबत्ती कैसे देख पाओगे.. ? ) विरोध इसको लेकर भी था,
    खु़द तो जोगीरा सर्र र्र र्र को गोहराओगे, अपने ब्लागर भाई को साड़ी भी पहना दोगे..
    टिप्पणी करो.. तो " ब्लागस्वामी की स्वीकृति के बाद दिखेगा ! "
    एक प्रतिष्ठित ब्लाग पर ऎसी टिप्पणी मोडरेशन को ज़ायज़ ठहराने के बहसे को उठा्ने की गरज़ से ही की गयी है !
    यहाँ से एक टिप्पणी को सप्रयास हटाना भी यह संकेत दे रहा है.. कि ब्लाग की गरिमा और पाठकों को आहत होने से बचाने का यही एक अस्त्र है,
    सेंत मेंत में ऎसी बहसें अस्वस्थ होने से बच जाती है..वह हमरी तरफ़ से एक के साथ एक फ़्री समझो !
    मसीजीवी के पोस्ट से चीन वालों को कान पकड़ कर क्यों नहीं बाहर किया गया था ?
    मन्नैं ते लाग्यै, इब कोई घणा कड़क मोडरेटर आ ग्या सै !
    इब राम राम

    मेरी यह सोच और भावनायें आज तक जस की तस हैं ।



    डा० अमर कुमार द्वारा चिट्ठा चर्चा के लिए September 18, 2010 10:15 PM को पोस्ट किया गया

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  12. सुन्दर है। लावण्याजी की पोस्टों के संस्मरण वाले अंश और फोटो तो अद्भुत हैं।

    जिस चिट्ठाकार का परिचय दे रहे हैं उसके बारे में अपनी राय रखना , चाहे कलेवर के बारे में हो या सामग्री के बारे में, सहज है। अच्छा है। जारी रखना चाहिये।

    अब अगले शनिवार का इंतजार है।

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  13. लावण्या जी एक सह्रदय इंसान है जिनके भीतर भारतीय मूल्य ओर संस्कार देश में रहने वाले कई लोगो से कही ज्यादा है ...वे एक सरल ह्रदय की मालिक है जिनके लिए ब्लोगिंग का उद्देश्य शायद भारत ओर अपने अतीत से जुड़ना भी है ...उनके पास यादो का एक बड़ा खज़ाना है ..जिसके परिपेक्ष्य में आप वक़्त के कई दौर देख सकते है ...ओर कई चीजों की पुर्नव्याख्या भी कर सकते है ..... निर्मला कपिला जी तरह वे एक स्नेहमयी महिला है ....

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  14. बेहतरीन लिंक्स......बेहतरीन वार्ता ............

    इसे भी पढ़कर कुछ कहे :-
    आपने भी कभी तो जीवन में बनाये होंगे नियम ??

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  15. नमस्ते तरुण दाज्यू :)
    तथा सारे टिप्पणीकार हिन्दी ब्लॉग जगत के मित्र , बंधु, साथी गण
    आज ही इस लिंक पर - चर्चा पर नज़र पडीं हैं यहां पधारे सभी महानुभावों का तथा उनके महान संवेदनाशील भावनाओं का
    विनम्रता से , स्वीकार करती हूँ
    - देर से आने पर क्षमाप्रार्थना -
    आपने मेरे " लावण्यम - अंतर्मन " ब्लॉग को
    चर्चा का केंद्र बनाया उसके लिए आपका कोटिश आभार -
    आपके सुझावों को ध्यान में रखते हुए
    आगामी प्रविष्टियों को तैयार करूंगी -
    मार्ग दर्शन करते रहियेगा,
    स्नेह बनाए रखियेगा
    स स्नेह,
    - लावण्या

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