आजकल टेलिविजन वालों को अपना प्राइम टाइम और बहस टाइम का विषय खोजने के लिये पसीना नहीं बहाना पड़ता। उनका यह काम या तो खाप पंचायतें कर देती हैं या माननीय केजरीवालजी। प्राइम टाइम से जैसे जनता का मनोरंजन होता रहता है। केजरीवाल के खुलासों पर अपनी फ़ेसबुकिया राय रखते हुये जगदीश्वर चतुर्वेदी ने लिखा है- केजरीवाल तो समाचार चैनलों के रीयलिटी शो हो गए हैं।
आगे अपने एक और स्टेटस में वे फ़रमाते हैं-
बाकी के सपने आप रेखा जी ब्लॉग पर देखिये। हमसे भी वे अपने सपने के बारे में लिखने में अनुरोध, आग्रह,
फ़िर से आग्रह और अब धमकी तक दे चुकी हैं ( न लिखना हो तो बता दें) लेकिन हम अभी तक अपने सपने के बारे में लिख नहीं पाये। लिखेंगे तो न जाने कब लेकिन सपने के नाम पर याद आई रमानाथ अवस्थी की कविता की पंक्तियां:
मेरी पसंद
सुबह--एक हल्की-सी चीख की तरह
बहुत पीली और उदास धरती की करवट में
पूरब की तरफ एक जमुहाई की तरह
मनहूस दिन की शुरुआत में खिल पड़ी ।
मैं गरीब, मेरी जेब गरीब पर इरादे गरम
लू के थपेड़ों से झुलसती हुई आंखों में
दावानल की तरह सुलगती उम्मीद ।
गुमशुदा होकर इस शहर की भीड़ को
ठेंगा दिखाते हुए न जाने कितने नौजवान
क्ब कहां चढ़े बसों में ओर कहां उतरे
जाकर : यह कोई नहीं जानता ।
कल मेरे पास कुछ पैसे होंगे
बसों में भीड़ कम होगी
संसद की छुट्टी रहेगी
सप्ताह भर के हादसों का निपटारा
हो चुकेगा सुबह-सुबह
अखबारों की भगोड़ी पीठ पर लिखा हुआ ।
सड़कें खाली होने की हद तक बहुत कम
भरी होंगी : पूरी तरह भरी होगी दोपहर
जलाती हुई इस शहर का कलेजा ।
और किस-किस का कलेजा नहीं जलाती हुई ।
यह दोपहर आदमी को नाकामयाब करने की
हद तक डराती हुई उसके शरीर के चारों तरफ ।
मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
मैं गरीब, तुम गरीब
पर हमारे इरादे गरम ।
अवधेश कुमार
और अंत में
कल किन्ही सतीश यादव जी ने सतीश पंचम जी का ये वाला फ़ेसबुकिया स्टेटस उनके स्टेटस से उठाकर यहां टिप्पणी पर सटा दिया:
फ़िर बाद में मिटा भी दिया।शायद शर्मा गये होंगे यह सोचकर सतीश पंचम माइंड करेंगे। देखिये आजकल के जमाने में भी ब्लॉगर कित्ता तो शरीफ़ आदमी होता है। :)
कल ही ज्ञानदत्त जी ने सवाल किया था:
हमको ये त पता नहीं कि विष्णु खरे जी किसके आदमी हैं लेकिन लोग बताते हैं कि वे बहुत बड़े कवि और आलोचक हैं। एक ब्लॉगर ने तो अपना नाम खुल्ला करने की शर्त के साथ यह भी बताया कि वे बहुत बदतमीज हैं। बहस में बहुत खराब भाषा का इस्तेमाल करते हैं।
बहुत हुआ आज के इत्ता। अब चलें दफ़्तर वर्ना देर होने पर बहस की गुंजाइश बनेगी। क्या पता बदतमीजी भी हो जाये। इसलिये चलते क्या अब तो भागते हैं। लेकिन आप आराम से रहिये। चिन्ता जिन करा। मस्त रहा।
आगे अपने एक और स्टेटस में वे फ़रमाते हैं-
कल से केजरीवाल एंड कंपनी के लोग फिर से टीवी चैनलों पर बैठे मिलेंगे और कहेंगे एक सप्ताह बाद हम फिर से फलां-फलां की पोल खोलने जा रहे हैं। गडकरी की पूर्व सूचना वे विज्ञापन की तरह वैसे ही दे रहे थे जैसे कौन बनेगा करोडपति का विज्ञापन दिखाया जाता है। कहने का अर्थ यह है कि केजरीवाल एंड कंपनी अपने प्रचार के लिए राजनीति कम और विज्ञापनकला के फार्मूलों का ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। वे किसी एक मुद्दे पर टिककर जनांदोलन नहीं कर रहे वे तो सिर्फ रीयलिटी शो कर रहे हैं और हरबार नए भ्रष्टाचार पर एक एपीसोड बनाकर पेश कर रहे हैं। रियलिटी शो से करप्शन वैध बनता है।जिस तेजी से केजरीवाल जी लोगों के काम उजागर कर रहे हैं उससे जो मुझे लगा वह मैंने कल अपने स्टेटस में लिखा:
केजरीवाल जी के काम करने के तरीके से पता चलता है कि वे पुराने नौकरशाह हैं। जैसे नौकरशाह रोज फ़ाइलें निपटाते हैं वैसे ही वे रोज एक नया घपला निपटा देते हैं।लगता तो मुझे यह भी है:
केजरीवाल जी और राजनीतिक पार्टियों में भाषाई मतभेद दिखते हैं। जिसको केजरीवालजी ’ राजनीतिक पार्टियों की मिलीभगत ’ मानते हैं उसे राजनीतिक पार्टियां शायद ’शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व’ मानती हैं।ये जो शांतिपूर्ण सह अस्तित्व वाली बात है वह अपने एक कार्टून में राजेश दुबे जी ने भी बयान की है देखिये। मजाक की बात से अलग से हटकर देखा तो समाजवादी चिंतक किशन पटनायक जी भ्रष्टाचार की समस्या पर विचार करते हुये लिखा है:
- सिर्फ भ्रष्टाचार की विशेष घटनाओं के प्रति जन आक्रोश को संगठित किया जा सकता है , किसी एक घटना को मुद्दा बनाकर एक राजनैतिक कार्यक्रम चलाया जा सकता है , जैसे बोफोर्स , बैंक घोटाला इत्यादि । भ्रष्टाचार्करनेवाले व्यक्ति के विरुद्ध प्रचार अभियान चलाकर उसे थोडे समय के लिए बदनाम भी किया जा सकता है ।लेकिन इन कार्यक्रमों से भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं होता । समाज , राजनीति ,और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार इस तरह के आन्दोलनों के द्वारा प्रभावित नहीं होता है , ज्यों का त्यों बना रहता है ।
- ’भ्रष्टाचार – भ्रष्टाचार ’ चिल्लाने से उसमें कोई कमी नहीं आती । इसका मतलब है कि भ्रष्टाचार को नियंत्रण में रखनेवाली स्थितियाँ बिगड़ चुकी हैं और नियंत्रण करनेवाली व्यवस्था में बहुत खोट आ गई है । कभी – कभी भ्रष्टाचार की कुछ सनसनीखेज घटनाओं को लेकर जो भ्रष्टाचार विरोधी वातावरण बनता है या ’ लहर’ देश में पैदा होती है । उसका खोखलापन यह है कि उसमें सामाजिक स्थिति और नियंत्रण व्यवस्था की बुनियादी खामियों पर ध्यान नहीं जाता है । यहाँ तक कि मुख्य अपराधी को दंडित करने के बारे में गंभीरता नहीं रहती । वह सिर्फ एक व्यक्ति-विरोधी या घटना-विरोधी प्रचार होकर रह जाता है । कभी-कभी तो लगता है कि इस प्रकार के विरोधी प्रचार को चलाने के पीछे कुछ निहित स्वार्थ सक्रिय हैं ।
- भ्रष्टाचार को जड़ से समझने के लिए निम्नलिखित आधारभूत विकृतियों की ओर ध्यान देना होगा – (१) प्रशासन के ढाँचे की गलतियाँ । जवाबदेही की स्पष्ट और समयबद्ध प्रक्रिया का न होना , भारतीय शासन प्रणाली का मुख्य दोष है । (२) समाज में आय-व्यय तथा जीवन-स्तरों की गैर-बराबरियाँ अत्यधिक हैं । जहाँ ज्यादा गैर-बराबरियाँ रहेंगी , वहाँ भ्रष्टाचार अवश्य व्याप्त होगा । (३) राष्ट्रीय चरित्र का पतनशील होना ।
- भ्रष्टाचार की उत्पत्ति के अन्य बिन्दुओं पर सचमुच मूलभूत परिवर्तन यानी क्रान्तिकारी परिवर्तन की जरूरत होगी । आधुनिक समाज में आर्थिक गैर-बराबरी भ्रष्टाचार की जननी है । जैसे – जैसे गैर-बराबरियों के स्तर अधिक होने लगते हैं , उनके दबाव से निचले स्तरों के लोग वैध तरीकों से ही उच्च स्तर के जीवन तक पहुँचने की कोशिश कर पाते हैं । नई आर्थिक नीतियों के बाद आमदनियों की गैर-बरबरी बहुत बढ़ने लगी है । मध्य वर्ग में से एक ऐसा तबका तैयार हो रहा है,जिसका मासिक वेतन २० हजार रुपये से एक लाख रुपया होगा । इसका जो प्रभाव नीचे के स्तरों पर होगा , उससे जहाँ भ्रष्टाचार की गुंजाइश नहीं है , वहाँ अपराध की तीव्रता बढ़ेगी ।
सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कोई चुनौतियों को देखता ही नहीं. सबसे बड़ी चिंता यही है कि कोई चिंतित ही नहीं है. छोटे-छोटे स्वार्थों के फेरे में ईर्ष्या और व्यक्तिवादी प्रवृत्ति हावी होती जा रही है.ऐसे कठिन समय में जब आम आदमी का जीना मुहाल होता जा कोई सपने कैसे देख सकता है। लेकिन रेखा श्रीवास्तव जी हैं जो लोगों को उनके सपने के बारे में बात करने के लिये उत्साहित कर रही हैं। उनके ब्लॉग पर कई साथी ब्लॉगर अपने सपने के बारे में बता चुके हैं। आज बारी है अंजू चौधरी की। वे अपने अधूरे सपने के बारे में बताती हैं:
पापा के गुज़र जाने के बाद एक अधूरी इच्छा मन में कहीं छिपी रही और वक्त के साथ मैं तो बड़ी हो गई और उसके साथ साथ मेरा सपना भी साल दर साल बड़ा होने लगा ...कि शायदा कोई होगा जो कभी ना कभी उनकी जगह लेगा .....वो भाई हो ....पति हो या फिर कोई ऐसा दोस्त जो मुझे किसी भी रूप में अपना सके |
बाकी के सपने आप रेखा जी ब्लॉग पर देखिये। हमसे भी वे अपने सपने के बारे में लिखने में अनुरोध, आग्रह,
फ़िर से आग्रह और अब धमकी तक दे चुकी हैं ( न लिखना हो तो बता दें) लेकिन हम अभी तक अपने सपने के बारे में लिख नहीं पाये। लिखेंगे तो न जाने कब लेकिन सपने के नाम पर याद आई रमानाथ अवस्थी की कविता की पंक्तियां:
रात लगी कहने सो जाओ, देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का, रोना और तड़पना
यहाँ तुम्हारा क्या, कोई भी नहीं किसी का अपना
समझ अकेला मौत तुझे ललचाई सारी रात।
मेरी पसंद
सुबह--एक हल्की-सी चीख की तरह
बहुत पीली और उदास धरती की करवट में
पूरब की तरफ एक जमुहाई की तरह
मनहूस दिन की शुरुआत में खिल पड़ी ।
मैं गरीब, मेरी जेब गरीब पर इरादे गरम
लू के थपेड़ों से झुलसती हुई आंखों में
दावानल की तरह सुलगती उम्मीद ।
गुमशुदा होकर इस शहर की भीड़ को
ठेंगा दिखाते हुए न जाने कितने नौजवान
क्ब कहां चढ़े बसों में ओर कहां उतरे
जाकर : यह कोई नहीं जानता ।
कल मेरे पास कुछ पैसे होंगे
बसों में भीड़ कम होगी
संसद की छुट्टी रहेगी
सप्ताह भर के हादसों का निपटारा
हो चुकेगा सुबह-सुबह
अखबारों की भगोड़ी पीठ पर लिखा हुआ ।
सड़कें खाली होने की हद तक बहुत कम
भरी होंगी : पूरी तरह भरी होगी दोपहर
जलाती हुई इस शहर का कलेजा ।
और किस-किस का कलेजा नहीं जलाती हुई ।
यह दोपहर आदमी को नाकामयाब करने की
हद तक डराती हुई उसके शरीर के चारों तरफ ।
मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
मैं गरीब, तुम गरीब
पर हमारे इरादे गरम ।
अवधेश कुमार
और अंत में
कल किन्ही सतीश यादव जी ने सतीश पंचम जी का ये वाला फ़ेसबुकिया स्टेटस उनके स्टेटस से उठाकर यहां टिप्पणी पर सटा दिया:
इतिहासकार मानते हैं कि तीन हजार वर्ष पूर्व भारतवर्ष विद्वानों से गंजा हुआ था, उनमें हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार बड़ी संख्या में होते थे। अभिलेखों के उत्खनन के दौरान कई ऐसे साहित्यकारों के बीच "हत्त तेरे की धत्त तेरे की" भावनाओं का उदात्त प्रकटीकरण भी हुआ है. ऐसे ही एक लेख में एक साहित्यकार दूसरे को बुढ़भस कह उसकी साहित्यिक रचनाधर्मिता पर प्रश्नचिन्ह अंकित करता है तो दूसरा उसे आँख सेंकू साहित्यकार कह अपनी नव रचनाधर्मिता का परिचय देता है। इन अभिलेखों के अध्ययन से पता चलता है कि दस हजार वर्ष पूर्व भारत में आँख सेकनें और फिर साहित्य रचने में लोग कितने पारंगत थे. विद्वानों का मानना है कि वात्स्यायन ने भी कामसूत्र इसी भांति रची थी. कालांतर में कई अनेक मूर्धन्य साहित्यकार भी इस कोटि में पाये गये हैं.
( ईसवी सन् 5012 की इतिहास की उत्तर पुस्तिका के अंश )
फ़िर बाद में मिटा भी दिया।शायद शर्मा गये होंगे यह सोचकर सतीश पंचम माइंड करेंगे। देखिये आजकल के जमाने में भी ब्लॉगर कित्ता तो शरीफ़ आदमी होता है। :)
कल ही ज्ञानदत्त जी ने सवाल किया था:
कौन हैं ये विष्णु खरे? सलमान खुर्शीद खेमे के हैं या केजरीवाल के?
हमको ये त पता नहीं कि विष्णु खरे जी किसके आदमी हैं लेकिन लोग बताते हैं कि वे बहुत बड़े कवि और आलोचक हैं। एक ब्लॉगर ने तो अपना नाम खुल्ला करने की शर्त के साथ यह भी बताया कि वे बहुत बदतमीज हैं। बहस में बहुत खराब भाषा का इस्तेमाल करते हैं।
बहुत हुआ आज के इत्ता। अब चलें दफ़्तर वर्ना देर होने पर बहस की गुंजाइश बनेगी। क्या पता बदतमीजी भी हो जाये। इसलिये चलते क्या अब तो भागते हैं। लेकिन आप आराम से रहिये। चिन्ता जिन करा। मस्त रहा।
अरे भई कल मैंने ही ये कमेंट किया था । मेरा एक पुराना जीमेल अकाउंट था, उसी में कुछ मेल चेक कर रहा था तो आपकी पोस्ट दिखी और मैंने कमेंट कर दिया तो सीधे उस अकाउंट के नाम से हो गया। अब वहां तो सफेद घर आदि का कुछ प्रोफाईल है ही नहीं सो लगा कि इसे हटाकर अपने सफेद घर प्रोफाईल से कमेंट करता हूँ। लेकिन तभी बाहर किसी काम से जाना पड़ा और फिर से कमेंट नहीं कर पाया।
जवाब देंहटाएंवैसे कल खूब फेसबुकीया स्टेटस मस्त मस्त आ रहे थे। लोग खुर्शीद की जमकर खिंचाई कर रहे थे कि तभी केजरीवाल गडकरी नाम की छुरछुरी ले आये और सब उसे देखने लगे वरना तो जबरजंग स्टेटस ठेले हैं लोगों ने कल।
(:(:(:
हटाएं......
कई दिनों बाद अपने घर आई हूं, तसल्ली से सारी पोस्ट पढूंगी।
जवाब देंहटाएंवैसे कल कई लोग केजरीवाल पर खीझ निकाल रहे थे कि बंदे ने खुर्शीद की खिंचाई फेसबुक पर जम के नहीं करने दी, जब देखो तब भ्रष्टाचारियों से संबंधित बातें उजागर करने लगते हैं। वहीं कुछ का मानना था कि केजरीवाल भी क्या करें क्योंकि भ्रष्टाचार की रफ्तार फेसबुक स्टेटस अपडेटों से भी तेज है.....अब भ्रष्टाचार फेसबुकियों के स्टेटस से पूछ कर तो खुद को अपडेट करने से रहा.....अपडेटियायेगा जब उसका मन करेगा :)
जवाब देंहटाएंआजकल टीवी पर The Great Indian Political Drama चल रहा है. स्माइली नहीं लगाएंगे. आजकल हम सीरियस होने की कोशिश कर रहे हैं, सुनीता सनाढ्य पाण्डेय जी की तरह.
जवाब देंहटाएंअच्छा-अच्छा पढ़कर अच्छे से लिखे हैं। सतीश जी का गु्स्सा तो खतम ही कर दिया आपने!:)
जवाब देंहटाएंभ्रष्टाचार के इतने सारे मामलों से आम आदमी दिग्भ्रमित हो रहा है कि एक मसले को समझें तो दूसरा नजर आ गया इससे केजरीवाल खुद अपने लिए सही रास्ता नहीं बना पा रहे हैं . अन्ना के साथ रहकर कुछ तो संयम से काम लेना सीखा होता .
जवाब देंहटाएंमैंने अनुरोध , पुनः अनुरोध और उसके बाद धमकी तक दे डाली लेकिन वह तो आपके ऊपर से ऐसे गुजर गयी जैसे ............! ठीक कह रही हूँ न।