शनिवार, अक्तूबर 20, 2012

अनाथालय, भाषा, तिलस्म और बहादुर मलाला

सुबह जुड़े नेट संसार से तो सबसे पहले संजीत की पोस्ट दिखी। फ़ेसबुक पर  सटाये थे। वे अपने पिताजी की पुण्य तिथि के मौके पर अनाथालय जाते हैं और वहां के बच्चों को नास्ता-भोजन करवाते हैं। पांच साल पहले की पोस्ट आज फ़िर पढ़ी। पोस्ट में अनाथालय के शुरु होने के पीछे के उद्धेश्य और आज की स्थिति के बारे में भी इशारा किया गया है:

 शुरुआत करने वाले तो एक बहुत अच्छी और निस्वार्थ भाव से शुरु करते हैं पर बाद मे उस काम को संभालने वाले अगर उसमे व्यवसायिकता और स्वार्थ का घालमेल कर दें तब???

उस समय के लोगों की टिप्पणियां बांची। दो टिप्पणियां आप भी देखिये:

ALOK PURANIK said...मार्मिक है जी, जो अच्छे काम दिल में आ रहे हैं फौरन कर गुजरिये।
 अच्छा मैने नोट यह किया है कि जब आप नजर का चश्मा लगाकर फोटू पेश करते हैं, तो पोस्ट बहुत सात्विक होती है।
जब धूप का चश्मा लगाकर पोस्ट लिखते हैं, तो खासी आवारगी भरी होती है। अगर चश्मे से इस तरह मनस्थिति में बदलाव आता हो, तो क्या कहने, यार ऐसे चार-चश्मे अपन को भी भिजवाओ ना। 
विनीत कुमार said...
बहुत अच्छा लगा पढ़कर,समझिए कि समाज की जिन गतिविधियों का विस्तार होना चाहिए था,निर्मम बाजार लील कर गया,अब तो डर है कि इस अनाथालय को किसी बहुराष्ट्रीय एनजीओ के हाथ न दे दिया जाए,संजीत भाई आप इस पर नजर बनाए रखेंगे और जरुरत पड़ी तो अपन कुछ लोग दिल्ली से भी चल पड़ेगे।
पांच साल पुरानी पोस्ट का लिंक फ़ेसबुक  लगा था सोचा ताजी है। लेकिन देखा तो पांच साल पुरानी दिखी। अच्छा लगा लेकिन यह भी फ़िर से पुख्ता हुआ कि फ़ेसबुक पर पुराना नया सब नया सा ही दिखता है। आपके लिये भले माल पुराना हो लेकिन वहां दिख तो नया रहा है। मतलब फ़ेसबुक के राज में नये की कोई गारंटी नहीं।

आज ललित कुमार ने अपने यहां समाज में भाषा के बदलते स्वरूप पर चर्चा की। उनका सवाल और  निष्कर्ष है:
 क्या “कमीना” जैसे शब्द के अधिकाधिक प्रचलन में आ जाने को हम हिन्दी भाषा की समृद्धि करार दे सकते हैं? मेरे विचार में ऐसा बिल्कुल नहीं है। शब्द तो पहले भी था और अब भी है। शब्द के मायने भी नहीं बदले हैं –केवल प्रयोग करने का तरीका बदल रहा है। सो इसे भाषाई विकास नहीं कहा जा सकता।
ललित कुमार आगे कहते हैं:
पश्चिमी समाज में “फ़क” शब्द के कम बुरे और बहुत बुरे अनेकों अर्थ हैं और यह बेतहाशा चलन में है। साहित्य और आम-बोलचाल का हिस्सा भी है। इसे दोस्त भी इसे प्रयोग करते हैं और दुश्मन भी। लेकिन अभिभावक और शिक्षक बच्चे द्वारा इस शब्द के प्रयोग किए जाने पर हर बार उसे टोकते हैं। पश्चिमी समाज पचास बुराईयों में गिरने के बाद उनसे निकलने की कोशिश कर रहा है और हम हैं कि आधुनिकता के नाम पर उन्हीं बुराईयों की नकल कर रहे हैं।
इस दो अक्षरी शब्द के प्रचलन के बारे में न जाने क्या सामाजिक-भाषाई कारण होंगे । मुझे एक कारण यह लगता है कि  यह समाज की हड़बड़ मानसिकता का परिचायक है। हर काम फ़टाफ़ट निपटा देने की मन:स्थिति का ।

नश्तर..फ़ेसबुक पर ही आराधना जी का स्टेटस देखा तो पता उन्होंने के कविता लिखी है:

वो भरती है शब्दों के प्यालों में दर्द
फिर उसे छूकर अमृत बना देती है...
वो हँसती है
परियों की शहजादी सी
उड़ जाती है,
फिर आकर बैठती है
आँखों की मुंडेरों पर
बनकर मीठे आँसू,

वो कविताएँ पिरोती है
मोतियों की माला सी,

जो कभी गिरकर बिखर जाय उसकी कविता
हर एक शब्द से एक नयी कविता बन सकती है।

(प्यारी बाबुषा के लिए)
अब बाबूषा के बारे में खोजने निकले तो आवेश तिवारी की पोस्ट दिखी। देखिये वे क्या लिखते हैं बाबूशा के बारे में:
आप उन्हें तिलिस्म कह सकते हैं, हाँ तिलिस्म ही तो हैं ! जबलपुर के एक स्कूल में पढ़ा रही बाबुशा कोहली को जब कभी मैं देखता हूँ तो मुझे बार-बार लगता है कि जब ये छोटी रही होंगी तो इनके मुंह में अक्सर स्याही लग जाती होगी | खैर कलम और स्याही से इनकी दोस्ती है भी कमाल की | कभी कभी इन्हें पढ़ते वक्त यूँ लगता है जैसे भोर में रुद्राभिषेक सुन रहा होऊं या फिर बिस्मिल्ला खान फिर से जीवित होकर गंगा के किनारे शहनाई बजा रहे हों | बाबुशा अपनी कविताओं में जितनी सहजता से हमसे  आपसे या किसी से बात करती हैं उतनी ही सहजता से प्रकृति और ईश्वर से भी संवाद करती हैं | आप जब कभी उनसे या उनकी कविताओं से बात करेंगे तो मुमकिन है आप कविता पढने के बाद सिर्फ और सिर्फ ख़ामोशी को सुनना पसंद करें | 
  बाबूशा की कवितायें और कई जगह मिलीं। उनक ब्लॉग दिखा नहीं। तिलस्म! शायद सीमित पाठकों के लिये है। उनके कुछ डिब्बाबंद ख्याल देखिये:
  1. ज़्यादातर स्त्रियों की नहीं होतीं ,
    आँखें ,कान या नाक -
    वे होती हैं 
    मात्र  गहरी -अंधी सुरंगें !
  2. गाय पॉलीथीन खा गयी 
    आदमी सूअर खा गया 
    औरत खा गयी 
    अपना ही गुलाबी कलेजा -
    हर कोई  खुद को मारने पर उतारू था !
  3. मैं फ़्रांस हूँ और यह असंभव है कि मैं कभी साइबेरिया हो जाऊं !
    मेरे गुम्बदों पर सोने के तार जड़े हुए हैं और मेरे अस्तित्व पर बर्फ नहीं गिरती .
    मेरा हर श्वास नूतन है
    विश्व के कुछ हिस्सों के लिए प्रेरक
    कुछ के लिए घातक हूं मैं
    मेरे प्रति तटस्थ दृष्टिकोण रखना असंभव है!  
     

 आज की तस्वीर

मलाला ने आंखें खोलीं और मदद लेकर खड़ी भी हुई ।  अफ़लातून के स्टेटस से।
और अंत में 
कल की चर्चा में मेरी पसंद में जो कविता पोस्ट की थी उसने लोगों को उदास कर दिया। इसीलिये आज कविता नहीं । वैसे कल एक फ़न्नी बात यह हुयी थी कि कल चर्चा का शीर्षक था-टीवा न खोलने की हिदायत के बीच चर्चा   शाम को देखा तो टीवा को टीवी किया। टीवी और टीवा दोनों शरीफ़ हैं। कुछ बोले नहीं। इस पर अपना ही एक लेख याद भी आया-छोटी ई, बड़ी ई और वर्णमाला।  न पढ़ा हो तो पढिये हिम्मत करके। बुरा नहीं लगेगा। 
आज के लिये फ़िलहाल इतना ही है। बाकी के लिये फ़िर कभी। ठीक है न!
 

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10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छे! अब चिट्ठाचर्चा का नाम 'फेसबुक एवं चिट्ठाचर्चा' कर दिया जाय क्या :)

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  2. बाबुशा जी को पढता था . एकदम सही लिखा गया है उनके लिए .

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  3. बाबुषा को पढ़ना हमेशा सुकून भरा होता है। उनके बारे में पढ़कर भी अच्छा लगा। 'तिलिस्म!' ...एकदम सही शब्द का प्रयोग किया है।

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  4. .
    .
    .
    सुन्दर 'चिट्ठा चर्चा' जैसी चिट्ठा चर्चा...


    आभार !


    ...

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  5. आभार मेरी पांच साल पुरानी पोस्ट को चर्चा में याद करने के लिए। फ़ेसबुक पर लिखा तो संदर्भ के रुप में लिंक डाल दिए थे मैंने। मेरे ख्याल से आलोक पुराणिकजी जैसे टिप्पणीकार की कमी अब ब्लॉगजगत को खलती होगी क्योंकि वे भी शायद ब्लॉग पर सक्रिय नहीं है।

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