बुधवार, अगस्त 04, 2010

स्कॉलरशिप भारत रत्न से कम नहीं होती!



डा.अनुराग की पोस्ट छिनाल माने ?? में विभूति नारायण राय जी के बयान पर पाठकों की प्रतिक्रियाओं के बाद ब्लॉग जगत में कई पोस्टें आयीं। लोगों ने इस सस्ती सोच के खिलाफ़ बातें कहीं। कल विभूति नारायण राय ने अपने कहे के लिये माफ़ी मांग ली। इस मुद्दे पर अपनी बात कहते हुये रंगनाथ सिंह लिखते हैं:
तो,वर्दीवाले और सादीवर्दी वाले दोनों सुन लें। कोई ड्रामा नहीं चाहिए। बेहतर है कि इस्तीफा दो,बर्खास्तगी से बचो। जाली माफीनामा नहीं चाहिए।

इस सारे घटनाक्रम पर हिन्दी के ब्रांड एम्बेसडर का कोई नामवर सिंह जी का कोई बयान नहीं आया। इस बात को विनीत कुमार अपनी नजर से देखते हुये लिखते हैं:
चैनलों में बाइट लेने के जो बंधे-बंधाये चालू फार्मूले हैं, उस हिसाब से भी नामवर सिंह का बोलना जरूरी है लेकिन कहीं कुछ भी नहीं। यहां मौके के बीच ब्रांड पिट गया या फिर उसे मैदान में उतरने ही नहीं दिया गया। ऐसा करके (मीडिया, मंच और खुद नामवर सिंह भी) बेवजह झंझटों से मुक्त होने के मुगालते में भले ही हों, लेकिन हिंदी मतलब नामवर सिंह जो पंचलाइन बनी रही है, वो ध्वस्त होती है। इस पूरे प्रकरण से आप ये भी समझ सकते हैं कि कई बार बाजार खुद भी अपने ही बनाये फार्मूले से मुकर जाता है और नये फार्मूले की खोज में भटकने लग जाता है। विभूति नारायण के मामले में नामवर सिंह की चुप्पी कुछ इसी तरह से है। हिंदी का पढ़ा-लिखा समाज फिर भी समझता है कि हिंदी का मतलब सिर्फ नामवर सिंह नहीं होता लेकिन समाज का एक बड़ा तबका जिसके लिए नामवर एक हिंदी ब्रांड है, वो उन्हें यहां न देखकर हैरान है।


आगे इस मसले पर लिखते हुये विनीत का कहना है:
नामवर एक ऐसे ब्रांड हैं, जो अपभ्रंश के विकास से लेकर उत्तर-उपनिवेशवाद, इतिहासवाद तक बात कर सकते हैं। उनके यहां विचारों का उत्पाद इन्हीं मल्टीनेशनल कंपनियों के फार्मूले पर होता है। यह अकारण नहीं है कि हर कविता संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास, संस्मरण, आलोचना तो उनकी मदर ब्रांड ही है पर बोलने-लिखने के लिए रचना उत्पादकों का तांता लगा रहता है। नामवर सिंह ने इसके लिए कट्टरता की हद तक (रचनाकर्म के साथ-साथ मार्केटिंग मैनेजमेंट तक) मेहनत की है।



लेकिन इस मसले पर नामवरजी शायद इस लिये चुप रहे क्योंकि विभूति नारायण जिस विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, नामवर सिंह इसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं। अब ऐसे में वो कैसे बोल सकते हैं।

विनीत के इस लेख पर अवनीश मिश्र का कहना है:
जिस ब्रांड के ध्वस्त होने की बात तुम कर रहे हो उसका ध्वस्त ना होना...नामवर की चतुराई से ज्यादा हिन्दी पट्टी के लेखकों और आलोचकों की मूढ़ता और अकर्मण्यता ज्यादा है...नामवर ने जब चोरी भी की तो उसे अपनी भाषा और दृष्टी से नया बनाया..या 'नया जैसा' बनाया ... आज सारी सुविधा होने के बावजूद जब लोग चोरी कर रहे हैं तो पकडे जा रहे है..कि देखो ये अनुवाद तो फलां किताब का है..और ये अंश तो फलां पाराग्राफ से है....नामवर ना बोलें या बोलें उसे इतना महत्व दिया जाना ही बताता है कि नामवर का आतंक पुराणी पीढी पर ही नहीं नयी विद्रोही पीढी पर भी है...


और अरविन्द मिश्र का विनीत के लेख के बारे में कहना है-अनावश्यक विस्तार आपकी आदत है लगता है !

प्रमोद जी जब पाडकास्टिंग करते हैं तो गजबै करते हैं। आज वे प्रत्यक्षा से सवाल करने लगे कि वे लिखती क्यों हैं। सुनिये।

इसको सुनकर अपूर्व ने राय जाहिर की:
सुना गया..और समझने की, उसे गहने की कोशिश की गयी..आगे और की जायेगी..बस कुछ है..जो भले पूरी तरह समझ न आये..मगर अपने होने की, अपने वैभव की उपस्थिति जरूर देता है..कुछ वही ’इल्यूसिव’ सा..यही कोई जीवन है जो हमारे सपनों मे हो कर भी यथार्थ से ज्यादा यथार्थ लगता है..

अब जब बात चली अपूर्व की तो उनकी कविता भी सुन लीजिये। कविता में कविता के नायक की बेबसी और अपराधबोध से बड़ी घबराहट हो गयी मुझे तो। आप सुनिये आपका विचार शायद अलग हो।

अमरेन्द्र ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये लिखा:
अपूर्व भाई कविता से पहले से ही परिचित हूँ .. इसकी श्रेष्ठता असंदिग्ध है ..
पर ... ...
यहाँ कविता का जो वाचन हुआ है , इसे सफल नहीं कहूंगा ..
कविता का यह अतिनाटकीय वाचन है , जो कविता के साथ न्याय करता नहीं लगा , पढ़ते हुए 'वीर-जारा' फिलिम के 'कैदी नं. ७८६ ' के कविता-वाचन की याद बरबस आ बैठी , क्योंकि यहाँ शाहरुख खान जैसा ही अतिनाटकीय प्रयास/वाचन दिखा .. इससे कविता के व्यंग्यार्थ/व्यंजनार्थ-ग्रहण में बाधा आयी है ! .. मेरे हिसाब से एक सफल कवि की कविता का असफल निर्देशन हुआ है .. क्षमा चाहूँगा !! .. आभार !!


सरकारी सेवाओं का निगमीकरण हो रहा है लेकिन उसके हश्र क्या हैं यह विजय गौड़ से सुन लीजिये:
टेलीफोन डिपार्टमेंट के निगमी करण के बावजूद बी एस एन एल एक सार्वजनिक सेवा ही है। निजीकरण की प्रक्रिया को एकतरफा बढ़ावा देती सरकारी नीतियों के चलते वह कब तक सरकार बनी रहेगी यह प्रश्न न सिर्फ बी एस एन एल के लिए है बल्कि उन बहुत से क्षेत्रों के सामने भी खड़ा है जो अभी सार्वजनिक सेवा के रुप में सरकारी मशीनरी द्वारा ही संचालित है। बी एस एन एल का सबक दूसरे विभागों को भी निजी हाथों में सौंपने का एक पाठ हो सकता है।


महेन्द्र मिश्र जी शायरी बड़े ऊंचे दर्जे की पोस्ट करते हैं। देखिये आज क्या लिखते हैं वे:

दूरियों की ना परवाह कीजिये जब दिल पुकारे बुला लीजिये
बहुत दूर नहीं हूँ आपसे पलकों को बंद कर याद कर लीजिये.


शिखा जी देखिये आज चांद के बारे में क्या-क्या लिखती हैं:
चाँद हमेशा से कल्पनाशील लोगों की मानो धरोहर रहा है खूबसूरत महबूबा से लेकर पति की लम्बी उम्र तक की सारी तुलनाये जैसे चाँद से ही शुरू होकर चाँद पर ही ख़तम हो जाती हैं.और फिर कवि मन की तो कोई सीमा ही नहीं है


घुघुती बासूती जी की समस्या सुनिये:
फूल, पेड़ पहाड़ ही नहीं
मैंने तो अपनी भाषा के
तार तक खो दिए
खोए या अंग्रेजी के तारों में
कुछ यूँ उलझे
कि सुलझाने को अब
रोडडेन्ड्रन शब्द चाहिए।


अब मानस भारद्वाज की समस्या भी सुनिये:
तेरे साथ का एक एहसास जो होता है
मैं सोचता हूँ कि वो लिखूँ
तेरे एहसास को मैं कैसे लिखूँ
जो मैं लिखता हूँ वो तेरी यादें हैं
वो यादें जो याद नहीं होती


अक्सर देश में भारत रत्न की बात होती है। इसको दे दो उसको न दो। ये काबिल हैं वे नाकाबिल हैं। हमारे कानपुर के प्रोफ़ेसर अनिल दीक्षित ने एक बातचीत में कहा:
मध्यवर्गीय परिवार के लिये स्कॉलरशिप भारत रत्न से कम नहीं होती!

इस अर्थ में देखा जाये तो न जाने कितने भारत रत्न आज ब्लॉगर भी हैं जो अपने समय में स्कॉलरशिप पाये हैं और बहुत हैं जो आज भी पा रहे हैं।

फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी! जल्दी ही।

पुनश्च:

विनीत कुमार के बारे में दैनिक हिन्दुस्तान में देखिये रवीश कुमार का लेख-मीडिया की मास्टरी वाया ब्लॉगरी

Post Comment

Post Comment

15 टिप्‍पणियां:

  1. amad darz ho.....

    ye mudda shayad abhi jawan ho raha
    hai....

    other links....gave good test.

    जवाब देंहटाएं
  2. ओह मैं सोच रहा था कि अभी पिछली पोस्ट पर और चर्चा होगी... मैं उससे जुड़ा तो रहा पर अपनी राय नहीं दे पाया.. आज देने वाला था... साहित्य कि दुनिया चूँकि बहुत जटिल होती है.. बीबीसी पर पढ़ा कि विभूति जी "तथाकथित संबोधन" का मतलब समझा रहे थे ... ऐसे में मैंने बस अपने आप से सवाल किया 'क्या किसी औरत को सार्वजानिक जीवन में (वो भी साहित्यिक क्षेत्र वो कहा जा सकता है ? और जवाब आया - नहीं... कहानी या कला कर्म के लेवल पर यह हो सकता है, जहाँ वास्तविकता का पुट देने के लिए यह कहा जाये.

    कई जगह मैंने पढ़ा है कि मैत्रेयी पुष्पा कि यह किताब बेवजह लोकप्रिय हुई है... (तहलका, विशेषांक, अन्य लेखक वक्तव्य सहित) लेकिन यह दूसरा मामला है.

    विभूति जी ने यह कमेन्ट शालीनता के हद को पार करते हुए कहा और उनके लिए सबसे आसान भी यही था.. यह निंदनीय है, दंडनीय है.

    रवीश जी कि रिपोर्ट पढ़ ली गयी है.. यह उन्होंने सही लिखा है कि न्यूज़ रूम में संपादक और पत्रकार एक बार आनंद प्रधान, विनीत कुमार कि पोस्ट छुप कर देख लेते हैं... वैसे खुद रवीश जी के नज़र भी कम तेज़ नहीं यह क़यामत कि नज़र रखते हैं... "दिल्ली का धारावी" रिपोर्ट देख कर मैं उनका मुरीद हो गया था... उनके वाक्य विन्यास, व्यंगात्मक लाइन क़माल के होते हैं... उनका प्रोफाइल भी मुझे बहुत भाता है... "इसके प्रखंड विकास पदाधिकारी भी हमीं हैं "... शुक्रिया.

    जवाब देंहटाएं
  3. अभी तक जित्ता पढा हूं उसके आधार पर इसका शीर्षक होना चहिए था -- अलोचक की आलोचना, चिट्ठा चर्चा की समालोचना।

    जवाब देंहटाएं
  4. पूरा पढा, अच्छी चर्चा, अच्छे लिंक्स।

    जवाब देंहटाएं
  5. कही पढ़ा था ......स्वर्ग की सड़क है पर कोई उस पर चलना नहीं चाहता ....नरक का कोई दरवाजा नहीं पर लोग उसमे छेद करके घुसना चाहते है ....
    कभी कभी सोचता था उर्दू में जितना खुला लेखन इस्मत चुगताई ओर दूसरी मोहतरमायो ने किया है ...हिंदी में क्यों नहीं हो पाया .अब कारण पता चलता है ......लेखको के भीतर भी एक पूरी जमात ऐसी है जिसके भीतर का " एक पुरुष "मरा नहीं है ....... लोग कंप्यूटर ओर एल सी डी लेकर भले ही बैठ गये है ....पर दिमाग को नहीं बदल पाये ........
    स्कोलरशिप से याद आया .....मिडिल क्लास की अपनी त्रासदी है ......

    'दाल रोटी की फ़िक्र में गुम गये
    मुफलिसी ने कितने हुनर जाया किये "

    जवाब देंहटाएं
  6. शानदार चर्चा....बधाई.
    कभी 'डाकिया डाक लाया' पर भी आयें...

    जवाब देंहटाएं
  7. एक बड़ी मजेदार और अच्छी पॉडकास्ट आर्ट ऑफ़ रीडिंग पर भी आई है...

    http://artofreading.blogspot.com/2010/07/blog-post.html

    जवाब देंहटाएं
  8. स्कालरशिप भारत रत्न से कम नहीं होती....कितना सही कहा गया...मुग्ध हूँ इस लाइन पर...

    सुन्दर चर्चा की है आपने...

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत बढ़िया चर्चा रही। कई ब्लॉग जो छूट गए थे उनके लिंक मिले। आभार।
    घुघूती बासूती

    जवाब देंहटाएं
  10. अच्छा कि सामयिक विवाद से जुडी पोस्टों को एक जगह नत्थी कर दिया .. और कुछ मनहर पोस्टों की झलक भी दिखा दी आपने .. सुन्दर !

    जवाब देंहटाएं
  11. .
    श्रीमन चर्चाकार जी,
    विनीत जी को तल्लीनता से पढ़ते समय आप यह क्यों भूलते हैं, कि नामवर सिंह को लेकर कईयों के पेट में सायास दर्द उठ पड़ा है, ( हो सकता है कि उठाया भी जाता हो ).. यदि वह भी ( नामवर सिंह )जुगाड़ से लाभ के पद पर काबिज़ हैं, तो दूसरे को इस कदर लुलुआये जाने पर प्रतिक्रिया देना तो दूर, उसे पिटते देख खुल कर मुस्कुरा भी नहीं सकते ।
    रवीन्द्र कालिया ने जो चाहा वह हुआ, ममता कालिया ने सुर मिलाया.. और अपना मार्ग प्रशस्त किया, मैत्रेयी पुष्पा ने इस तपिश में अपनी गोटी लाल की सो अलग । क्या विनीत जी की मँशा पाठकों का ध्यान उस ओर से हटाने की तो नहीं है ?
    अवनीश मिश्र का यह अवलोकन कि " ..... उसे इतना महत्व दिया जाना ही बताता है कि नामवर का आतंक पुराणी पीढी पर ही नहीं नयी विद्रोही पीढी पर भी है..." क्या इँगित करता है ? क्या यह नामवर के आतँक ( ? ) / भोड़ेंपन को याद दिला कर उसे जीवित रखने का उपक्रम है ? क्या यह एक तरह का सँतोष है या यह कोई पछतावा है, जिसे वह घुमा-फिरा कर छिपा रहे हैं ?
    विनीत जी की तेज नज़रों का मैं भी कायल हूँ, वह चट भाँप लेते हैं," What is Hot ! " सो वह ऎसा कर रहे हैं । इस चर्चामँच के पाठकों को आप स्वयँ निष्कर्ष निकालने दें । यह तो फिस्स हुई छुरछुरिया पर ऎड़ी मसलने जैसा हुआ ।
    बेहतर होता कि हम यहाँ उन कारणों की पड़ताल कर पाते कि हिन्दी-पट्टी के रचनाकार अपनी नाक पर रूमाल रखे रखे उसे इतना सुकोमल क्यों बनाये रखना चाहते हैं । निःसँदेह ही विभूति राय की प्रतिक्रिया बड़े भदेस स्तर की और फूहड़ है, पर यह हिन्दी वालों के भावभँगुर स्त्रैणता को भी उघारती है ।

    हमारी हिन्दी क्योंकर ऎसी आँधियों में अटकी पड़ी रह जाती है ? यह सवाल उठाने लायक मेरा कद और कूव्वत नहीं है, पर इन चँद लाइनों पर गौर करें, जो कि मेरी नहीं हैं...
    " ... हीज़ड़े के अदब के मुताल्लिक क्या यही जिज्ञासा फ़रमायेंगे या कि कोई विभाजक सूत्र ऎसा है जो साहित्यकार ( इँशा-परदाज़ ) हीज़ड़ो के अदब को साहित्यकार ( इँशा-परदाज़ ) मर्दों और औरतों के अदब से पृथक / भिन्न करता है । मैं औरत पर औरत और मर्द पर मर्द के नाम का लेबल लगाना भोंड़ेपन की दलील समझता हूँ ।" --- मँटो
    ( सँदर्भ: चिड़ी की दुक्की / पृष्ठ 9 )

    जवाब देंहटाएं
  12. visible after approval ?

    भईया यह शर्त पहले बता दिया करो..
    यहाँ कमेन्ट-बक्से में कोई क्यों टाइमखोटी करे ?

    जवाब देंहटाएं
  13. सुन्दर चर्चा. अनेक उपयोगी लिंक्स मिले.
    आभार

    जवाब देंहटाएं

चिट्ठा चर्चा हिन्दी चिट्ठामंडल का अपना मंच है। कृपया अपनी प्रतिक्रिया देते समय इसका मान रखें। असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप करने वाली टिप्पणियाँ हटा दी जायेंगी।

नोट- चर्चा में अक्सर स्पैम टिप्पणियों की अधिकता से मोडरेशन लगाया जा सकता है और टिपण्णी प्रकशित होने में विलम्ब भी हो सकता है।

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.

Google Analytics Alternative