बुधवार, अगस्त 25, 2010

"हम सब अपने पूर्वाग्रहों का एक्सटेंशन है"


कभी कभी मन में ये सवाल    उठता था  के   उर्दू में तमाम बंदिशों  ओर  सो काल्ड संकीर्णता के बावजूद इतना खुलापन क्यों है .....क्यों हिंदी में कोई इस्मत चुगताई पैदा नहीं होती ...क्यों हिंदी   ब्लॉग में भी महिलाये लिखते वक़्त अपने आप को "एडिट' कर लेती है .....तो क्या भाषा में भी एक हिंसा होती है . जो कभी कभी किसी  विचारात्मक  विकास को रोक देती है .... कंट्रोवर्सी ओर इमेज का .भय उनकी लेखन प्रक्रिया में जानबूझकर   कुछ तटस्थता की ढिलाईया लाता है ... .....सच की  आकृतियो  में अपना पुरुष दृष्टिकोण रोपते कुछ बुद्धिजीवियों से अनामिका  जी   अपने लेख "पूरा स्त्री शरीर एक दुखता टमकता हुआ घाव है '  अपना विरोध जाहिर करती है ......"बौद्धिक छल" के इस खेल के विरोध में उनकी प्रेसेंस  भ्रमित करने वाले कई संदर्भो की पड़ताल अपने तरीके से करती है ...



कौन माई का लाल कहता है कि स्त्री आत्मकथाकारों के यहां दैहिक दोहन का चित्रण पोर्नोग्राफिक है? घाव दिखाना क्या देह दिखाना है? पूरा स्त्री-शरीर एक दुखता टमकता हुआ घाव है। स्त्रियां घर की देहरी लांघती हैं तो एक गुरु, एक मित्र की तलाश में, पर गुरु मित्र आदि के खोल में उन्हें मिलते हैं भेड़िये। और उसके बाद प्रचलित कहावत में रोमको रूमबना दें तो कहानी यह बनती नजर आती है कि ऑल रोड्स लीड टु अ रूम।


 ...आगे वे कहती है


चतुर बहेलिया वाग्जाल फैलाता है और चूंकि भाषा एक झिलमिली भी है, एक तरह का ट्वालाइट जोनभी, कुछ हादसे घट भी जाते हैं! अपने ही भीतर से संज्ञान जगा या किसी और ने सावधान किया तब तो पांव पीछे खींच लिये जाते हैंवरना धीरे-धीरे देह के प्रति एक विरक्ति-सी हो जाती है और उसकी हर तरह की दुर्गति-मार-पीट से लेकर यौन दोहन तक इस तरह देखती है लड़की जैसे छिपकली अपनी कटी हुई पूंछ! देह जब मन से कट जाए भाषा में दावानल जगता है और जिसे लिखना आता है, वह दावानल की ही स्याही बनाकर धरती सब कागद करूंकी मन:स्थिति में पहुंच जाता है। यह एक थेरेपी भी है और आगे इस क्षेत्र में असावधान कदमों से आने वाली बहनों या मानस-पुत्रियों को दी गयी सावधानी भी, संस्मरण मीरा की इन पंक्तियों का उत्तर-आधुनिक पक्ष : जो मैं ऐसा जानती, प्रीत किये दुख होय / नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत न करियो कोय।


.लेकिन जिस सत्य से हम परिचित है ....उसे सिर्फ वे याद दिलाती है 


इस तरह से देखा जाए तो हर स्त्री-आत्मकथा आगे आनेवालियों की खातिर एक उदास चेतावनी है। इसमें मीरा का मीठा विरह नहीं बोलता, एक हृदयदग्ध जुगुप्सा बोलती है पर बोलती है वही बात। आदर्शवाद स्त्रियों को घुट्टी में पिलाया जाता है। पहले स्त्रियां तन-मन से सेवा करती थीं और सिर्फ अपने घर के लोगों की, आदर्शवाद के तहत सेवा अब भी करती हैं सिर्फ तन-मन से नहीं, तन-मन-धन से करती हैं और सिर्फ घर की नहीं, ससुराल-मायका, पड़ोस, कार्यक्षेत्र, परिजन-पुरजन सबकी। दुर्गा के दस हाथों का बिंब आगे बढ़ाएं तो दस दिशाओं में फैले दस हाथों में अस्त्र-शस्त्र नहीं, दस तरह के काम रहते हैं।

इस बहस के कई मतान्तर हो सकते है कई सन्दर्भ ....हम सबके भीतर एक जिद होती है ....अपने साथ हुए असहमतो से असहमत होने की जिद  ....
क़्त के किसी  एक हिस्से की व्याख्या सब अपनी समझ ओर बूझ से करते है .....यूँ भी असहमतिया कभी कभी किसी विकास प्रक्रिया का एक हिस्सा होती है ....कुछ असहमतिया हद दर्जे की ईमानदार भी होती है ...उन्हें आप यूँ ही निर्वासित नहीं कर सकते ..

लम्बी विमर्शो बहसों के दौर में प्रियंकर जी अपने अपने लेख "साहित्य का  पर्यावरण यानि भाषा छुट्टी पर " इस द्रश्य को  यूँ ..देखते  है


दार्शनिक विट्गेंस्टाइन कहते हैं, “दार्शनिक समस्याएं तब खड़ी होती हैं जब भाषा छुट्टी पर चली जाती है.यानी भाषा के बेढंगेपन का विचार के बेढंगेपन से गहरा संबंध है. कवि लीलाधर जगूड़ी भी अपनी एक कविता में यही पूछते दिखते हैं कि पहले भाषा बिगड़ती है या विचार’ . एक काल्पनिक प्रश्न के उत्तर में कन्फ़्यूसियस अपनी प्राथमिकता बताते हुए कहते हैं यदि भाषा सही नहीं होगी तो जो कहा गया है उसका अभिप्राय भी वही नहीं होगा; यदि जो कहा गया है उसका अभिप्राय वह नहीं है,तो जो किया जाना है,अनकिया रह जाता है; यदि यह अनकिया रह जाएगा तो नैतिकता और कला में बिगाड़ आएगा ; यदि न्याय पथभ्रष्ट होगा तो लोग असहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े दिखाई देंगे. अतः जो कहा गया है उसमें कोई स्वेच्छाचारिता नहीं होनी चाहिए. यह सबसे महत्वपूर्ण बात है.



अंत में प्रियंकर जी बात से जैसे हिंदी का एक  आम पाठक अपनी सहमति  दर्ज करता है

किसी को हटाने-बिठाने और उखाड़ने-स्थापित करने के व्यवसाय/व्यसन में पूर्णकालिक तौर पर संलग्न महाजन भले ही इस तथ्य से मुंह फेर लें पर सच तो यह है कि आम हिंदीभाषी को इन दुरभिसंधियों से कोई लेना देना नहीं है. हिंदी समाज में साक्षरता और शिक्षा के स्तर तथा साहित्य के प्रति सामान्य उदासीनता को देखते हुए कुल मिला कर यह छायायुद्ध अब एक ऐसे घृणित प्रकरण में तब्दील हो गया है जो भारतेन्दु के सपने और हिंदी जाति के एक नव-स्थापित अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय को उसके शैशव काल में ही नष्ट कर देने की स्थिति निर्मित करने का दोषी है. श्लेष का प्रभावी प्रयोग करते हुए भारतेन्दु ने हिंदी जाति के दो फल फूटऔर बैरगिनाए थे. नियति का व्यंग्य यह है कि उनका सुंदर सपना भी इन्हीं आत्मघाती फलों की भेंट चढने जा रहा है.
सदाचार को तो हम पहले ही मार चुके हैं, यह भाषा-साहित्य से सामान्य शिष्टाचार की विदाई का बुरा वक्त है .
किसी रचनाकार की केन्द्रीय चिंता कई है ....साहित्य  में संघर्ष  से इतर कुछ कवी चेतना के कई स्तरों को छू कर लौट आते है ...ऐसे ही एक कवि नरेश सक्सेना जी एक कविता "समुद्र  पर हो रही बारिश  ' के माध्यम से   सुशीला पूरी जी परिचय कराती है 



कैसे पुकारे
मीठे पानी मे रहने वाली मछलियों को
प्यासों को क्या मुँह दिखाये
कहाँ जाकर डूब मरे
खुद अपने आप पर बरस रहा है समुद्र
समुद्र पर हो रही है बारिश


नमक किसे नही चाहिए
लेकिन सबकी जरूरत का नमक वह
अकेला ही क्यों ढोये



कभी कभी हम किसी रचना प्रक्रिया से गुजरते वक़्त  जब   आक्रोशित होते है तो शायद अपना बेहतर देते है .....यूँ भी कुछ कविताएं कभी कभी खुद का प्रतिनिधित्व करती है.दर्पण ऐसे ही किसी बगावती तेवर लिए समय से रूबरू होते है



कविता,
मुहावरों में ऊँटों के मार दिए जाने का कारण जानने की 'उत्कंठा' है.
कविता जीरा है...
..जब वो भूख से मरते हैं.
अन्यथा,
पहाड़.

पहाड़...
...चूँकि खोदे जा चुके हैं,
...गिराए जा चुके हैं, ऊँटों के ऊपर.
इसलिए दिख जाती है,
पर समझी नहीं जा सकती.
'कविता लुप्त हुई लिपि का जीवाश्म है.'


 
पूरी कविता "कविता उम्मीद से है ! पर चटका लगा कर पढ़ी जा सकती है
उसका क्षेपक 
उसे यूँ समराइज़   करता है
कविता ज़ेहन में अचानक रिंग टोन सी नहीं बज सकती,क्यूंकि उसका अस्तित्व 'शब्द' है.
वो ज़ेहन में पड़ी रहती है अब बस....अनरीड मेसेज की तरह कभी डिलीट कर दिए जाने के लिए.
अलबत्ता मुझे ये तमाम कविताओ पर फिर बैठता मालूम पड़ता  है 
मसलन मुकेश कुमार  की ये कविता ....सड़क
              काले कोलतार व रोड़े पत्थर के मिश्रण से बनी सड़क
पता नहीं कहाँ से आयी
और कहाँ तक गयी
जगती आँखों से दिखे सपने की तरह
इसका भी ताना - बाना
ओर - छोर का कुछ पता नहीं

कभी सुखद और हसीन सपने की तरह
मिलती है ऐसी सड़क
जिससे पूरी यात्रा
चंद लम्हों में जाती है कट!
वहीँ! कुछ दु: स्वप्न की तरह
दिख जाती है सड़कें
उबड़-खाबड़! दुश्वारियां विकट!!
पता नहीं कब लगी आँख
और फिर गिर पड़े धराम!
या फिर इन्ही सड़कों पर
हो जाता है काम - तमाम!!

.
१५ अगस्त बीते शायद एक हफ्ता हुआ है....देशभक्ति  वापस दराजो में बंद हो चुकी है ...अगली .२६ जनवरी तक ....कश्मीर में सिखों ने  एक बूढ़े नेता के यहाँ फ़रियाद रखी हुई  है के उन्हें अपने देश में रहने दिया जाए ....पाकिस्तान ने  अंतत भारत की आर्थिक  सहायता जो करोडो डालर में है स्वीकार कर  ली है .. किसी महिला मैगज़ीन ने एकता कपूर को महिलाओ के लिए काम करने के लिए पुरुस्कृत किया है ... उड़ीसा के किसान .यू. पी   के किसान  भूमि अधिग्रहण मसले पर सडको पर उतर आये है.. ..पूरी दुनिया के शायद  सबसे बड़े लोकतंत्र के नुमाइंदो ने अपनी तनख्वाहे तय कर  'असल लोकतंत्र " की परिभाषा पे मुहर लगा दी है ...  ....पीपली लाइव के  यथार्थ   पर रीझे….. हम तमाम बौद्धिक जमावड़ो में  अपनी हिस्से की  साझेधारी  रख अपने कर्तव्य का स्लाट पूरा कर...."दुनिया फिर भली होगी" लिखकर . ए सी में सो जाते है ...




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35 टिप्‍पणियां:

  1. कल फ़ेसबुक पर देखी झलकी ने इस पोस्ट के प्रति पहले से ही सचेत कर दिया था मुझे। किंतु कितना भी संभल कर पढ़ा... फिर भी पढ़ने के बाद जाने सारे पूर्वाग्रहों को एकदम से एक्सटेंद होते देखा खुद में। सचमुच। अनामिका के शब्द उद्वेलित करते हैं लेकिन जाने क्यों लिंक पर किया गया क्लीक संदर्भ पोस्ट खोल नहीं पा रहा। जरा देख लीजियेगा....

    चर्चा की आखिरी पंक्तियां हड़काती हैं :-)

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  2. बहुत बढ़िया समीक्षात्मक चर्चा .

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  3. अच्छी विश्लेष्णात्मक चर्चा |अनामिका जी को पढना भी एक अद्भुत पठन है |
    उनकी कुछ पंक्तिया -कवि ने कहा- में से है
    नदी
    दूर किसी घर में कुछ गिरा है
    पीतल की गगरी -सा !
    लुढ़कती चली आई है टनटनाहट
    सुनी दोपहर में
    कई देहलियाँ लांघकर |

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  4. चाहे पोस्ट लिखें या चर्चा....आप कुछ बोलने लायक नहीं छोड़ते डाक्टर साहब....बहुत गलत बात है यह...

    थोडा हल्का फुल्का नहीं लिख सकते ??????

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  5. खबर थी कुछ दिनों पहले के अखबार में कि 'नालंदा विश्व विद्यालय' को लेकर बिहार विधान सभा में इतनी अच्छी बहस हुई कि अध्यक्ष महोदय ने तक कहा "इतनी बढ़िया बहस कि बीच में से उठने का मन ही नहीं हुआ.... पता ही नहीं चला कि कब इतना समय बीत गया."

    हमें बहसों का, विरोधों का सार्थक होना इतना आश्चर्यचकित क्यूँ कर देता है, तब जबकि किसी भी बहस की सामान्य शर्त ही उससे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना होना चाहिए. या कम से कम (अन्य अर्थों में ज्यादा से ज्यादा) दस्तावेज़ी असहमति. जूते कुर्सियां चलाना या दूसरे के घर के परदे उखाडन नहीं.
    अटलबिहारी बनाम जवाहर लाल नेहरु वाला दौर याद दिलाती हैं आपकी ये बात कि....
    "kuch asehmatiyan hadd darze ki...."

    बहरहाल हिंदी बोल्डनेस और उर्दू बोल्डनेस दरअसल स्प्रिंग की स्थितिज उर्जा की तरह है, और इसीलिए हिंदी लेखिकाएं महिला उद्धार, स्त्री शारीर से इतर भी कुछ लिख पाती हैं. 'गिल्लू' जैसी कहानी जिसमें स्त्री की संवेदनशीलता तो है पर कथित सरोकार नहीं. और इसीलिए थोडा और तुलनात्मक हुआ जाये तो बिलकुल समान कारणों से अंग्रेजी साहित्य में 'महिला सरोकार' और कम हैं.
    जहाँ लेखिकाएं अपने फलक को विस्तार देती हुई जासूसी कहानियां भी उसमें समां लेती हैं.

    तो असल में तमाम बंदिशों और सो कोल्ड संकीर्णता के 'इन्सपाएट ऑफ़' नहीं 'बिकॉज़ ऑफ़' खुलापन है उर्दू साहित्य में.

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  6. खालिद होसन्नी ही अफगानिस्तान के बारे में बात कर सकते हैं और तस्लीमा जी ही मुस्लिम समुदाय की महिलाओं की स्थिति के बारे में. स्त्रियों को स्त्री होने के कुछ नुक्सान हैं तो कुछ फायदे तो अवश्य ही हैं. और फिर किसी को भी मुकम्मिल जहाँ नहीं मिलता.
    दरअसल इस विषय में बहुत सी बातें हैं जो बिना किसी पूर्वाग्रह के कही जानी चाहिए.(सबसे बड़ा है रोग,क्या कहेंगे लोग.)
    एक सवाल 'स्त्री आरक्षण' 'अनुसूचित आरक्षण' क्या समाज के इन तबकों के दुर्बल होने पे मोहर नहीं लगाता. या तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि ये वाकई में दुर्बल तबके हैं या फिर कंधे से कन्धा मिला के चलना होगा किसी भी आरक्षण को नकारते हुए. और हाँ स्त्रियों को खुद कुछ करना पड़ेगा. बिना मरे स्वर्ग नहीं दिखता. (और ना नरक)
    वैसे इश्वर से भी कुछ सवाल होने चाहिए ! दुनियाँ, स्त्रियाँ, पुरुष सब उसी ने तो बनाये हैं.

    anyway
    हम तमाम बौद्धिक जमावड़ो में अपनी हिस्से की साझेधारी रख अपने कर्तव्य का स्लाट पूरा कर...."दुनिया फिर भली होगी" लिखकर . ए सी में सो जाते है ...ये पंक्तियाँ चोट करती है..


    PS -चिट्ठा चर्चा पे दर्पण जी की कविता का लिंक नहीं खुल रहा .देख ले ज़रा :-)

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  7. कुछ महीने पहले एक कविता लिखी थी उसकी अंतिम पंग्क्ति थी
    "अक्सर हम अपने पूर्वाग्रहों के बल पर लिखते हैं कविता"

    http://kalam-e-saagar.blogspot.com/2010/04/9.html

    अब तो इसमें "जीते हैं जिंदगी" भी जोड़ना चाहिए था

    आज आपकी चर्चा का शीर्षक सार्थक होता दिख रहा है. अनामिका जी का लेख फुर्सत से पढ़ी जाएगी...

    हाँ समुद्र पर हो रही बारिश २ दिन पहले नज़र से गुजरी है. दर्पण की कविता पढ़ी गयी सबसे पहले... यह उनकी अब तक की बेस्ट कविता है जिसमे कविता से ज्यादा मुखर प्रस्तावना लगा जो कविता के लिए तैयार करती है.

    और बड़े भले वक्त में यानी बारिश के मौसम में हम तीनो की (अपूर्व, दर्पण और खाकसार) की जुगलबंदी हुई... तो उठाये गए कुछ गलियारों के प्रश्न...

    रही बात सोने जाने की पर उससे पहले अगर "आयटम ये आम हुई, डार्लिंग तेरे लिए" हो जाये तो .... कैसा रहेगा !!!

    शुक्रिया.

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  8. कविता और विमर्श के साथ मौजूदा समय की भी चर्चा अच्‍छी लगी।

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  9. अच्छी समीक्षात्मक चर्चा.

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  10. बहुत बढ़िया समीक्षात्मक चर्चा !

    जवाब देंहटाएं

  11. " एक पुख़्ताकार दीबाचा-नवीसों ( समीक्षक ) ने मालूम होता है कि इँशा-परदाज़ों ( साहित्यकारों ) की रेवड़ में नर और मादा अलग-अलग रखें हैं \ गोया अदब कोई टेनिस टूर्नामेन्ट हो जिसमें औअरतों और मर्दों के मैच अलहदा होते हैं । अदबी ठेकेदारों ने जिंस ( लिंग ) के एतबार से इन्हें वही मर्तबा दिया है । तुल्बा और तालिबाल ( छात्र एवँ छात्रा प्रशिक्षु ) का ख़िताब ( सँबोधन ) जब ज़ुदागाना ( अलग-अलग ) नहीं होता तो यह ठेठ फ़िक़रे-बाज़ी भी नहीं, चूँकि टेनिस-टूर्नामेन्ट अदब नहीं है । माहिरे-तालीम ( विद्वान ) की हैसियत से उनको अदीब के जिंस ( लिंग ) से ग़ाफ़िल होकर सिरफ़ दिमाग़ी नश्वो-नुमा ( मानसिक विकास ) पर ज़ियादा गौर करना चाहिये ।"

    डॉक्टर अनुराग, यह लाइनें मेरा कोई ज़ाती नुक़्ता ( व्यक्तिगत टिप्पणी ) नहीं, बल्कि लाहौर के डॉ. पतरस की कलम से नुमाँया हुई है । इससे निकलने वाले नतीज़ों पर होने वाले बहस को मैं शेष पाठकों पर छोड़ता हूँ, लेकिन एक बात तो साफ़ है कि इन ख़्यालात के पक्केपन से कोई शायद ही इँकार कर सके । कोई वज़ह नहीं कि ऎसे इँक़लाबी ख़्यालात उर्दू अफ़साना-निग़ारों को मन-माफ़िक लिखने का हौसला न देते रहे हों ।

    आज की चर्चा को पूरे तौर पर पढ़ते समय यदि पूर्वाग्रह की जगह पर आग्रह पढ़ा जाये, तो तस्वीर और भी साफ़ होती है.. पूर्वाग्रह से एक हठवादी कठोरता का भान होता है । चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो, स्त्रीलिंग को हम परँपरागत वर्ज़नाओं से अलग नहीं कर पाये हैं । उसने अपनी ऊर्ज़ा और मेघा से एक ऊँचा मुकाम भले हासिल कर लिया हो, पर वह अपने पर सदियों से थोपी हुई अस्पृश्यता से आज़ाद नहीं कर पायी है ।



    N.B. और हाँ, क्या तुम्हें स्पैम टिप्पणियों से डर नहीं लगता ? क्या यह मँच रातों-रात दीवाने-ख़ास से दीवाने-आम में तब्दील हो गया.. .. या कि स्वयँ स्पैमरों का ही हृदय परिवर्तन हो गया ? अपनी बेशर्म मुस्कुराहट रोकना मुश्किल हो रहा है, ही..ही..ही..

    जवाब देंहटाएं
  12. "इस बहस के कई मतान्तर हो सकते है कई सन्दर्भ ....हम सबके भीतर एक जिद होती है ....अपने साथ हुए असहमतो से असहमत होने की जिद "
    लगता है आप हमे राय साहेब की राय पर ले जाने की ज़िद...:)

    जवाब देंहटाएं
  13. .
    .
    .
    बहुत खुराक मिली दिमाग को... अच्छी चर्चा...

    "१५ अगस्त बीते शायद एक हफ्ता हुआ है....देशभक्ति वापस दराजो में बंद हो चुकी है ...अगली .२६ जनवरी तक ....हम तमाम बौद्धिक जमावड़ो में अपनी हिस्से की साझेधारी रख अपने कर्तव्य का स्लाट पूरा कर...."दुनिया फिर भली होगी" लिखकर . ए सी में सो जाते है ..."

    इतना नैराश्य क्यों डॉक्टर साहब...ए सी का कोई अपराधबोध न पालिये... ए सी में बैठकर ही सही, देखिये आपने अपना काम तो कर ही दिया... काफी और लोग भी कर रहे हैं लगातार, बिना रूके, बिना थके...बदल जायेंगे यह पूर्वाग्रह भी... आशावान रहिये!

    जवाब देंहटाएं
  14. .
    मेरी पिछली टिप्पणी का सँदर्भ केवल यही था कि नारी को उसके ज़ेन्डर के आधार पर क्यों देखा जाये, उसके मानसिक व्यक्तित्व के आधार पर क्यों नहीं ?

    फिर भी यह लग रहा था कि कुछ अधूरा है...
    सो, अनामिका का यह आलेख कल रात दुबारा पढ़ा, तीसरी बार अभी सुबह पढ़ा,
    इस नाते " झिलमिली भाषा का वाग्जाल " फैला कर पाठकों को आकर्षित करने में बतौर लेखिका वह सफल रही हैं,
    किन्तु विमर्शात्मक लेखन के स्तर पर उनके इस एकतरफ़ा नज़रिये को सिरे से ख़ारिज़ किये जाने की तमाम गुँज़ाइशें हैं । उन्हें शायद स्वयँ भी ऎसी सँभावना का भान रहा होगा, तभी उन्होंनें इसमें " नव-स्वतंत्र समूह परफार्मेंस-इथिक्स के तबोताब में जरा ज्यादा ही रहता है, पर इतना तो श्रेय उसे दिया ही जाना चाहिए " जैसे झिलमिले " डिसक्लेमर को चुपके से एक कोने में टाँक रखा है ।

    चलिये थोड़ी देर को यही मान लेते हैं कि पुरुष का अँतिम सत्य एक आदिम पशु है, पर यह सवाल अनुत्तरित रह जाता है कि स्त्री अपने किस सत्य को परिभाषित किये जाने की तलाश में छटपटा रही है ? अपने को अबूझ बनाये रखने को उसने सदैव श्रेयस्कर माना है । यौन-शोषण पर वाज़िब बिलबिलाहट के सँग वह यौन-प्रलोभन, यौन व्यापार, यौन-उत्कँठा जैसे बहुत सारे यौनिक सँदर्भों को क्यों भुला देना चाहती है ?
    अनामिका यह क्यों भूलती हैं कि, घाव दिखाने के नाम पर देह उघाड़ने की उसकी चाह का अँतिम सत्य पाठकों के मनःस्खलन का फ़्रॉयडियन सच है, फ्रॉयडियन स्लिप नहीं ?

    जवाब देंहटाएं
  15. @आदरणीय cmpershad......लगता है आपने लेख के सन्दर्भ को समझा नहीं है .....पीछे इसी विषय पर हुई एक चर्चा में शायद आपके कुछ सवालों का जवाब मिले ...
    @आदरणीय अमर कुमार जी .....गुरुवार ....वैसे इस माह के हंस में सुधा अरोड़ा जी का लेख "क्या पति अपने रकीब को सहानुभूति देगे '...रिकमेंड करता हूँ...अभी शायद ओन लाइन नहीं हुआ है वर्ना मेरी इच्छा उसे भी पाठको के समक्ष इस मंच पर रखने की थी
    नीचे संसद को मिलने वाले कुछ भत्ते की डिटेल दे रहा हूँ.आंकड़े २००७ के है ..कुछ ओर आंकड़े एक हफ्ते पहले के दैनिक हिन्दुस्तान में भी प्रकाशित हुए है ...

    Monthly Salary : 12,000

    Expense for Constitution per month : 10,000

    Office expenditure per month : 14,000

    Traveling concession (Rs. 8 per km) : 48,000 ( eg.For a visit from kerala to Delhi & return: 6000 km)

    Daily DA TA during parliament meets : 500/day

    Charge for 1 class (A/C) in train: Free (For any number of times)
    (All over India )

    Charge for Business Class in flights : Free for 40 trips / year (With wife or P.A.)

    Rent for MP hotel at Delhi : Free

    Electricity costs at home : Free up to 50,000 units

    Local phone call charge : Free up to 1 ,70,000 calls.

    TOTAL expense for a MP per year : 32,00,000 [i.e. 2.66 lakh/month]

    TOTAL expense for 5 years : 1,60,00,000

    For 534 MPs, the expense for 5 years :
    8,54,40,00,000 (nearly 855 crores)


    ये आंकड़े sakthivel द्वारा उपलध सोर्स से लिये गए है

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  16. @ डॉ .अनुराग

    यह सब तो ठीक है..
    पर यह आँकड़ें, अभी यहाँ क्यों ?
    क्या यह बहस की दिशा मोड़ने की कोई चतुराई है ?
    सूचनार्थ.. फिर तो, ठीक है !
    तुमने ही लिखा है... दुनिया फिर भली होगी..
    आओ, तब तक भजन करें !

    जवाब देंहटाएं
  17. आदरणीय अमर कुमार जी ....ये आंकड़े मै पहले इस चर्चा में लेना चाहता था ...बहस खुली है .....सारी बहस शुरू ही जेंडर पर हुई थी क्यूंकि लिखने वाले का जेंडर देखा गया था ...सोचिये इससे पहले कितने लेखको(पुरुष) ने अपनी खुलतम आत्मकथाये लिखी है ...कभी बवाल हुआ ?
    .सच बात तो ये है के पुरुष अगर किसी चीज़ से डरता है तो वह है चतुर ओर आत्म निर्भर स्त्री .......किसी भी बोल्ड ओर खुला लिखती स्त्री या आत्म निर्भर अपने तरीके से जीवन जीती स्त्री के चरित्र प्रमाण पत्र पर लोगो में साइन करने की होड़ को मैंने ब्लॉग जगत में भी देखा है ओर साहित्य जगत में भी......ओर समाज में भी.... दरअसल ये इस समाज की दोमुंही नीति है ...
    दूर क्यों जाते है ब्लॉग जगत में भी जब लोगो के तर्क ख़त्म हो जाते है ....अश्लील ओर छद्म वेश में टिप्पणिया शुरू हो जाती है

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  18. लगे हाथों इसे भी देख लें ...

    http://deshnama.blogspot.com/2009/12/blog-post_24.html

    साभार : देशनामा ब्लॉग, संचालक : खुशदीप सहगल, स्रोत पूर्णतः विश्वशनीय है (खुशदीप जी, जी न्यूज़ में प्रोडूसर हैं)

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  19. बयान बेबाक देना था और देना भी था। कल से इसी कश्मकश में थी कि शब्दों का फॉर्मेट कैसे निर्धारित करूँ कि विभूतिनारायण खेमे में ना रखी जाऊँ।

    जाने क्यों ऐसा लगता है कि दलित, अल्पसंख्यक और नारी मात्र मुद्दा रह गये हैं, वो मुद्दा जिसका उपयोग मात्र चर्चा में रहने और चर्चा पाने के लिये किया जाने लगा है।

    अनामिका जी का लेख पढ़ा। उनका प्रचुर अध्ययन और लिखने का अभ्यास इसे सुंदर बना रहा है।

    बोलना पहले भी चाह रही थी कि जीवन के कटु सत्य बताना और जीवन का एक ही सत्य मान लेना ये दो चीज हैं। नारी विमर्श की बात नारी देह की बात तक सीमित रह गई है इस बात का अफसोस है मुझे।

    "पूरा स्त्री शरीर एक दुखता टमकता हुआ घाव है '

    सच है ये। अलग अलग घाव हैं ये। फिर भी सर का घाव दिखाने के लिये शरीर दिखाना ज़रूरी नही। मगर हो गया है यही। समस्या कोई भी हो लंबे लंबे विवरणों से उसे शरीर पर ही ला कर केंद्रित कर देना, नारी विमर्श का तरीका बन गया है।

    टमकता घाव ये है कि आज भी बहुत जगहों पर एक लड़के के लिये ९ लड़कियों की लाईन लगी है। घाव ये है कि आज भी कई घरों में लड़कियों की पढ़ाई से समझौता हो जाता है और लड़कों को संपत्ति बेच कर पढ़ाया जाता है। घाव ये है कि अब भी कई घरों में पढ़ाई रुकवा कर शादी कर दी जाती है लड़कियों की कि इतना पढ़ा कर उतना ही पढ़ा दामाद ढूँढ़ना और उस उतने पढ़े दामाद के हिसाब से दहेज इकट्ठा करना मुमकिन नही रह जाता। घाव ये है कि आज भी लोग लड़के को फिक्स डिपॉज़िट और लड़की को बनिया का चक्रवृद्धि ब्याज ही समझते हैं। घाव ये है कि आज भी कई पति अपनी पत्नी को टी०वी की तरह प्रयोग कर रहे हैं,जब चाहा आन जब चाहा आफ...! घाव ये है कि अगर पति की इच्छा नही है तो अब भी नौकरी छुड़वा कर घर बैठा दिया जाता है।

    इन सब घाव के शरीर में अपने अपने अंग हैं। इनका दर्द कम नही। इन्हे दिखाने के लिये यही दिखाना काफी है, कुछ विशेष अंगों तक येनकेन प्रकारेण पहुँचना ज़रूरी नही।

    मगर इन सब घावों को हलका मान बस एक घाव को हाईलाईटेड किया जा रहा है कि क्यों नही बना सकती महिला अनेक शारीरक संबंध ? जबकि पुरुष बना सकते हैं।

    और क्यों नही दे सकती वो अपने अनेकानेक संबंधों का १५ १५ पन्नो में विवरण।

    जारी...

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  20. पिछली टिप्पणी से जारी...

    सबसे बड़ी समस्या हर समाज में गरीबी और निरक्षरता है। मैं दूसरों को नही कहती खुद के लिये कहती हूँ कि ये सच है कि मैं सड़क चलते लड़कों के भद्दी टिप्पणियों पर रोक नही लगा सकती। आफिस में बैठे सहकर्मी की द्विअर्थी बातों पर रोक नही लगा सकती। अचानक किसी के द्वारा किये गये भावनात्मक छल पर रोक नही लगा सकती।

    मगर ये भावनात्मक छल कितनी बार होगा मेरे साथ। और ये छल कितनी बार मन से शरीर तक रास्ता नापेगा। मैं कितनी बार तब जागूँगी, जब बस मेरे पास हाय हाय करने का समय बचेगा। मैने जब दुनिया को पढ़ा, दुनिया की बात, दुनिया का दर्द लिखने का बीड़ा उठाया है तो कितनी देर लगेगी मुझे भेड़ियों को समझने में। एक गड्ढे में गिर कर संभलना क्यों नही सिखा रही मुझे मेरी बुद्धि। हर बार गड्ढों मे गिर कर मैं क्या सीखना चाहती हूँ। कौन सा अनुभव बटोरना चाहती हूँ ? हर दो वर्ष बाद एक मानव कमजोरी जनित भूल और मैं आरक्षण कोटे में खुद को रख कर कह दूँ कि मैं तो बेचारी चिड़िया थी। गलती उस दाना फेंकने वाले बहेलिये की है जिसने दाने के पीछे जाल बिछा रखा था। बहेलिया बरी नही किया जा सकता, मगर चिड़िया कब समझेगी कि इन दानो के पीछे हमेशा जाल होता है। हमारी पढ़ाई लिखाई बौद्धिकता कब हमें अनुभवी बनायेगी।

    क्यों ना मान लूँ कि इसका आनंद उभयपक्षी है और जब उभयपक्षी है तो हर संबंध को बलात्कार बताने की क्यों ठान ली है।

    पहली बात तो मुझे नही मालूम कि अगर पुरुषों का अनेक संबंध रखना वैध करार हो गया हो। गलत तो उन्हे भी कहा जाता है और ऐसा नही कि फतवे उनके खिलाफ नही ज़ारी हुए। बच्चन ने यूँ ही नही लिखा था

    "मै छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता,
    शत्रु मेरा बन गया है, छल रहित व्यवहार मेरा।"

    १७ साल की उम्र उनके द्वारा हुए अवैध अंकुरण को तब भी गलत कहा गया था और अब जब रीति बन गई है अवैध को ही वैध कहने, उसे ही उत्तम कहने की तो सभी कह रहे हैं सभी कर रहे हैं। अपनी रसिक प्रवृत्ति के लिये राजेंद्र यादव भी कटघरे में खड़े किये गये हैं। फर्क उनको भी नही पड़ा फर्क महिला लेखिकाओं को भी नही पड़ता।

    I don't care का एक ब्रह्म वाक्य ले कर सब चल रहे हैं।

    मगर मुझे व्यक्तिगत रूप से ये लगता है कि पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चलने की होड़ में उनके सारे अवगुण आत्मसात करना आज भले ही आधुनिकता और प्रगतिशीलता की निशानी बन जाये। मगर आने वाली पीढ़ी में विस्फोट का करण बन सकती है। ज़रूरत उन्हे रोकने की है न कि खुद भी उसी राह चल देने की। अगली पीढ़ी जो बहुत जल्दी समझदार हो रही है उसके सामने कौन से आदर्श रखे जाने हैं प्रश्न ये है। मन में आने वाली हर चीज को वैध करार दे देना कितने दिन सामाजिक संतुलन बनाये रखेगा इस पर विचार करना होगा।

    ये मेरी बात थी। प्रगतिशीलता की कसौटी पर अगर खरी ना हो तो क्षमा...!!

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  21. .
    आदरणीय कँचन जी ने तो जैसे ढोल की पोल खोल दी..
    अब यदि मैं कुछ लिखता हूँ, तो यह ज़ायज़ न होगा,
    क्योंकि सिरे से ढोल को ही फोड़ देना मेरा मन्तव्य नहीं !

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  22. बात अच्छे और बुरे लोगो की है... अच्छे या बुरे लोगो का कोई जेंडर नहीं होता..
    लेखिका को पूर्णतया खारिज ना करते हुए यही कहूँगा कि असहमति उनसे रखता हूँ.. ऐसा नहीं कि उनका लिखा मेरी समझ में नहीं आया पर मैं सिकुड़ के यदि हिन्दुस्तान का आम आदमी बन जाऊ तो मुझे इक्का दुक्का शब्दों के अलावा कुछ खास समझ आएगा नहीं.. मैं यदि आम आदमी हूँ तो मेरा ये दुर्भाग्य ही है कि मुझ पर बौद्धिक लोगो द्वारा की गयी बाते मुझे समझ ही नहीं आती..

    हम अक्सर अपने आस पास कई लोगो से छले जाते है.. इस से फर्क नहीं पड़ता कि हमारा जेंडर क्या है ? मसलन की दिल्ली में रहने वाली हमारी लैंडलेडी ने मेरा एडवांस डिपोजिट लौटाया नहीं था.. :) स्त्री द्वारा पुरुष भी चले जाते है.. दैहिक और मानसिक शोषण तो दोनों ही गलत है.. ऐसे में आदरणीय अमर कुमार जी का ये कथन (इस नाते " झिलमिली भाषा का वाग्जाल " फैला कर पाठकों को आकर्षित करने में बतौर लेखिका वह सफल रही हैं, किन्तु विमर्शात्मक लेखन के स्तर पर उनके इस एकतरफ़ा नज़रिये को सिरे से ख़ारिज़ किये जाने की तमाम गुँज़ाइशें हैं ।) मुझे अपनी तरफ खींचता है.. एक लेखिका के रूप में उन्होंने एक उत्तेजित पोस्ट दी है पर एकतरफा नज़रिए का इल्जाम तो उन पर बनता ही है..

    कंचन कँवर की टिपण्णी सही मायनों में चर्चा की केंद्र बिंदु मानी जानी चाहिए... दरअसल हर मुद्दे की वजहे कई है बस हम अपने हिस्से की उठाते है..

    बहरहाल इस मंच के माध्यम से एक और सार्थक चर्चा जो कही ना कही ले तो जाती ही है.. अंतिम पैरा हमारे जड़त्व जीवन की एक सच्चाई है मुंह छुपाये भी तो कैसे..

    अंत में
    शुक्रिया डा. साहब

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  23. lekh me athmprachallan kam
    tippniyon me adhik hai....

    yahan kuchh hai jiska kuch aarth..hai

    aadarniya dr. amarji, anuragji, kuush bhai evam kanchanji ko abhar vimarsh ke asstar ko jari rakhne ke liye.........

    regards....

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  24. ".सोचिये इससे पहले कितने लेखको(पुरुष) ने अपनी खुलतम आत्मकथाये लिखी है ...कभी बवाल हुआ ?" -डॊ. अनुराग

    आदरणीय डॊक्टर साहेब, बवाल लेखिकाओं की आत्मकथाओं पर भी नहीं मचा था, मचा है तो किसी के एक शब्द कहने से :)[वैसे मैंने पिछली पोस्ट भी देखी है]

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  25. सच बात तो ये है के पुरुष अगर किसी चीज़ से डरता है तो वह है चतुर ओर आत्म निर्भर स्त्री

    a perfect analysis dr anurag

    मगर मुझे व्यक्तिगत रूप से ये लगता है कि पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चलने की होड़ में उनके सारे अवगुण आत्मसात करना आज भले ही आधुनिकता और प्रगतिशीलता की निशानी बन जाये।

    dear kanchan
    so you want to say woman are followers OK then the leaders ie man ought to improve themselves so that followers can be good

    we need to teach our sons better manners so that our daughters dont feel cheated at the end of the day that in-spite of being better then the son in mannerisms she is the one who is reprimanded time and again

    i really have failed to understand why always we need to talk about copying man we have to learn now that woman are ENTITY by themselves and any comparison with man bemoans what ever woman does in life .

    lets applaud or criticize a woman as a human being without comparing her to man

    LETS STOP THIS SLOGAN THAT WOMAN ARE BECOMING LIKE MAN BECAUSE THAT ITSELF IS A GENDER BIASED STATEMENT AS IT NULLIFIES ALL THAT A WOMAN DOES IN HER LIFE

    she may be good she may be bad but dont say she copies man because she is not copying rather she doing what she wants to do

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  26. यौन-शोषण पर वाज़िब बिलबिलाहट के सँग वह यौन-प्रलोभन, यौन व्यापार, यौन-उत्कँठा जैसे बहुत सारे यौनिक सँदर्भों को क्यों भुला देना चाहती है ?
    अनामिका यह क्यों भूलती हैं कि, घाव दिखाने के नाम पर देह उघाड़ने की उसकी चाह
    @dr amar

    sir the day the world stops treating woman as a body without brain made for the pleasure of man and starts treating her as a human being with brain competent enough to do what ever is good enough for her , to be able to make her own decisions all what YOU say will not happen

    WHY woman body is a weakness for man ??? an biological disorder in some i would say because for them all woman are just body so that they can be happy

    if woman body is a weakness for man then HATS OFF to those woman who have learnt the art of using their body to do what the brains cant do .

    dont you think sir its high time man need to overcome this weakness

    lately ND TIWARI was fined for the DNA he left in ladys womb that latter on became a boy and took him to supreme court

    what poetic justice sir one mans dna other mans monetary compensation and poor woman the womb / the carrier of dna still needs a man her son to get this justice for her

    could her version be belived by the society

    and dear kanchan this happened ages ago not today

    जवाब देंहटाएं
  27. आज तो इस चर्चा में साहित्यकार छाये हुए हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  28. रचना दी को प्रणाम...

    मैने अपना नज़रिया लिखा.... उसपे क़ायम हूँ....!!

    आपका अपना नज़रिया है... और किसी के नज़रिये से मेरा कोई विरोध नही...!!

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  29. इस विषय पर इतना अधिक है लिखने को कि कई पोथियाँ भी अपने भीतर न समेट सकेगी।
    वैसे पहली बात तो यह है कि हिन्दी साहित्य को मैं ठीक से समझती नहीं। दो शब्द जो मुझे ब्लौग जगत से जुड़ने से ही परेशान कर रहे हैं वे हैं देह विमर्श। यह क्या है पता नहीं। मन, शरीर,आत्मा, हृदय, इच्छाएँ ये सब स्त्री के पास हैं देर सबेर सबकी ही बात होगी। इनमें से कुछ भी बुरा नहीं है और न ही कोई शब्द बुरे हैं। शब्द बुरे भले नहीं होते बुरा या भला होता है उन्हें वाक्यों, पहरों में पिरोने का तरीका!

    खैर, मैं तो यह कहना चाहती हूँ कि जिस समाज में ’मैं चाहती हूँ, यह चाहती हूँ या वह चाहती हूँ’ कहना सीखने में ही इतना समय लग जाए कि जब तक स्त्री ये शब्द बोलना सीख पाती है या इन्हें उच्चारित करने का साहस जुटा पाती है ये बेमानी हो जाते हैं, वह समाज ही कुछ गलत है। हर चाहत के लिए एक समय, आयु, स्थिति, मानसिक व शारीरिक स्थिति की आवश्यकता होती है। घुटनों के जवाब दे देने के बाद अपने देशाटन की इच्छा व्यक्त करने या उसे पूरा कर पाने का साहस जुटाने का क्या लाभ? नजर कमजोर होने पर छोटे छोटे अक्षरों वाली पुस्तकों की भेंट मिलने का क्या लाभ? कहा वृष्टि जब कृषि सुखानी? जब तक आम स्त्री माँग करने या अपनी इच्छाओं को पूरा करने की स्थिति में पहुँचती है तब तक वे इच्छाएँ लगभग बेमानी हो चुकी होती हैं। शायद यही कारण है कि वह अपनी इच्छाऒं की पूर्ति से अधिक किसी अन्य की इच्छाओं के अपूर्ण रह जाने में ही सुख व तृप्ति खोजना शुरू कर देती है। शायद यही सास बहू के सम्बन्धों क रहस्य हो।
    यह स्थिति यदि आज की शहरी नौकरीपेशा स्त्री की न हो तो बढ़िया है किन्तु यह स्थिति आम है तो सही।
    कंचन से इस विषय में विचार सदा भिन्न रहे हैं आज भी रहेंगे।
    घुघूती बासूती

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  30. डॉ अनुराग जी ,
    आपके ब्लॉग में कई महत्वपूर्ण आलेख हैं और उन पर संयमित चर्चा भी .
    ''हंस'' के अगस्त अंक में मेरे जिस आलेख की चर्चा आपने की है , उस आलेख का शीर्षक राजेंद्र यादव ने बदल दिया था और कुछ पंक्तियाँ भी काट दी थीं .
    असंपादित आलेख अपने मौलिक शीर्षक के साथ इस लिंक पर उपलब्ध है .
    http://streevimarsh.blogspot.com/
    चाहें तो आप चिटठा चर्चा के पाठकों के लिए उसे अपने इस मंच पर प्रस्तुत कर सकते हैं .
    शुभकामनाएं ,
    सुधा अरोड़ा .

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  31. डॉ अनुराग जी ,
    आपके ब्लॉग में कई महत्वपूर्ण आलेख हैं और उन पर संयमित चर्चा भी .
    'हंस' के अगस्त अंक में मेरे जिस आलेख की चर्चा आपने की है , उस आलेख का शीर्षक राजेंद्र यादव ने बदल दिया था और कुछ पंक्तियाँ भी काट दी थीं .
    असंपादित आलेख अपने मौलिक शीर्षक के साथ इस लिंक पर उपलब्ध है .
    http://streevimarsh.blogspot.com/
    चाहें तो आप चिटठा चर्चा के पाठकों के लिए उसे अपने इस मंच पर प्रस्तुत कर सकते हैं .

    शुभकामनाएं ,
    सुधा अरोड़ा .

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