खैर एक रोज दर्द साह्ब के साथ अजब वाकया पेश आया. वे टिप-टाप मे बैठे थे कि दो महिलायें एक सूर्ख गुलाब लिये दर्द साहब को पूछती चली आयीं.थोडा सकुचाते ,कुछ हिचकिचाते हुए उन्होंने वह गुलाब कुबूल किया - मेज के किनारे रखा और प्रदीप गुप्ता को उधार की चाय का आर्डर दिया.दर्द साहब सूर्ख गुलाब का सबब समझ नहीं पा रहे थे .तभी वहां हरजीत का आगमन हुआ.उसने मंजर देखा , प्रदीप गुप्ता से कुछ बात की और फिर उस सार्वजनिक पोस्टर -स्थल से अवधेश की पैरोडी हटाकर एक नया शे’र चस्पां कर दिया
शराबो- जाम के इस दर्जः वो करीब हुए
जो दर्द भोगपुरी थे गटर-नसीब हुए
इसे पढ़्कर दर्द भोगपुरी ने ,जाहिर है, राहत की सांस ली
कुछ ऐसी ही बैचेनियो को एक केलिडोस्कोप में हथकड़ रखता है .....इस बैचेनी में याद आते कुछ किरदार भी है ....यहाँ नेरेटर संस्मरण का हिस्सा भी बनता है ...उसके फ्लो में .हस्तक्षेप नहीं करता ...मसलन
दो महीने तक मैं रोज शाम को उनके पास जाता था. वे मुझसे पंजा, पांव, आँख, भोहें, कोहनी जैसे शरीर के अंग बनवाते रहे. उन्होंने अगले पायदान पर मुझे एक किताब दी जिसमें सब नंगे स्केच थे. उनको देखना और फिर उन पर काम करना बेहद मुश्किल था. मैं तब तक नौवीं कक्षा में आ चुका था और मेरी जिज्ञासाएं चरम पर थी. मैंने कुछ और महीने फिगर पर काम किया. वे मुझसे खुश तो होते लेकिन मुझमे ऐसी प्रतिभा नहीं देख पाए थे कि मेरे जैसा शिष्य पाकर खुद को भाग्यशाली समझ सकें. एक दिन मैंने कहा "मुझसे पेंसिलें खो जाती है शायद मुझे इनसे प्यार नहीं है." उन्होंने पीक से मुंह हल्का करके कहा "बेटा ये राज बब्बर फाइन आर्ट में मेरा क्लासफेलो था, इसने लिखित पर्चे नक़ल करके पास किये है मगर देखना एक दिन फिर से ये पेन्सिल जरुर पकड़ेगा."
पूरी पोस्ट पढियेगा ....ओर इस नेरेशन में डूब जाइयेगा........
सागर अप्रत्याशित लेखक है ....थोड़े विद्रोही तेवर वाले कवि......उनकी कविता मुझे कई बार हतप्रभ करती है .....नंगे यथार्थ से उन्हें रोमानटीसाइज़ उनका फेवरेट शगल है ....उनकी कई प्रतिक्रियाये कई रेखाचित्रो के सामान्तर चलती है .कई बार आगे फलांग जाती है ...बतोर कवि .वे मुझे कभी हड़बड़ी में नहीं दिखते ... उनकी बैचेनिया बनी रहे ....
मसलन अपनी कविता पिता : मुंह फेरे हुए एक स्कूटर
में वे कुछ यूँ दिखते है
आओ ग्लास में उडेलें थोड़ी सी शराब
कि अब तो तुम्हारे शर्ट भी मुझको होने लगे हैं, जूते भी
कि पड़ोस का बच्चा मुझे अंकल कह बुलाने लगा है
तुम खोलो ना राज़
कि किस लोहे ने तुम्हारी तर्जनी खायी थी
कि दादी के बाद वो कौन है जीवित गवाह
जिसने तुम्हें हँसते देखा था आखिरी बार
(अब तुम्हारा गिरेबान पकड़ कर पूछता हूँ)
बाकी साल तो रहने दिया
पर मुंह फेरने से पहले यह तो बता दो
कि पचहत्तर, चौरासी, इक्यानवे, सत्तानवे और निन्यानवे में कौन - कौन सा इंजन तुमपे गुज़रा ?
आओ ग्लास में उडेलें थोड़ी सी शराब
और करें बातें ऐसी कि जिससे खौल कर गिर जाए शराब.
एक ओर कवि निखिल आनंद गिरि भी अपनी विशिष्ट मौलिकता के संग संबंधो के कई जटिल व्याकरणों पर अपनी माइक्रोस्कोप धरते है ....ओर आहिस्ता से आदमी के भीतर सेंध लगाते है .उनकी कविता "रात चाँद ओर आलपिन '..ऐसे एक शोट का क्लोज़ अप लेती है
इस कविता को पढ़ते हुए आप जान जाते है ....स्त्री को समझने का एक चौकन्नापन उनके भीतर मौजूद है ......
अभी बाक़ी हैं रात के कई पहर,
अभी नहीं आया है सही वक्त
थकान के साथ नींद में बतियाने का....
उसने बर्तन रख दिए हैं किचन में,
धो-पोंछ कर...
(आ रही है आवाज़....)
अब वो मां के घुटनों पर करेगी मालिश,
जब तक मां को नींद न आ जाए..
अच्छी बहू को मारनी पड़ती हैं इच्छाएं...
चांदनी रातों में भी...
कमरे में दो बार पढ़ा जा चुका है अखबार....
उफ्फ! ये चांदनी, तन्हाई और ऊब...
पत्नी आती है दबे पांव,
कि कहीं सो न गए हों परमेश्वर...
पति सोया नहीं है,
तिरछी आंखों से कर रहा है इंतज़ार,
कि चांदनी भर जाएगी बांहों में....
थोड़ी देर में..
वो मुंह से पसीना पोंछती है,
खोलती है जूड़े के पेंच,
एक आलपिन फंस गई है कहीं,
वो जैसे-तैसे छुड़ाती है सब गांठें
और देखती है पति सो चुका है..
अब चुभी है आलपिन चांदनी में...
ये रात दर्द से बिलबिला उठी है....
सुबह जब अलार्म से उठेगा पति,
और पत्नी बनाकर लाएगी चाय,
रखेगी बैग में टिफिन (और उम्मीद)
एक मुस्कुराहट का भी वक्त नहीं होगा...
फिर भी, उसे रुकना है एक पल को,
इसलिए नहीं कि निहार रही है पत्नी,
खुल गए हैं फीते, चौखट पर..
वो झुंझला कर बांधेगा जूते...
और पत्नी को देखे बगैर,
भाग जाएगा धुआं फांकने..
आप कहते हैं शादी स्वर्ग है...
मैं कहता हूं जूता ज़रूरी है...
और रात में आलपिन...
किशोर .......वे रचनात्मक निर्वासन की देहरी पर नहीं बैठते ..लिखकर अपने आप को एक्सटेंड करते है ..हिंदी ब्लॉग में उन जैसे लेखको की उपस्थिति को मै आवश्यक मानता हूँ ..जिनके विम्ब उनके भीतरी शोर को ख़ामोशी से अभिव्यक्त करते है
चौराहा भीड़ से ऊबा हुआ था. चिल्लपों से थक कर उसने अपने कानों में घने बाल उगा लिए थे. वह किसी स्थिर व्हेल मछली की तरह था. सम्भव है कि उसे सब रास्तों का सच मालूम हो गया था और वह सन्यस्थ जीवन जी रहा था. इस सन्यास में देह को कष्ट दिये जाने का भाव नहीं दिखाई पड़ता था. कई बार ऐसा लगता था कि चौराहा वलय में घूर्णन कर रहे मसखरों और कमसिन लड़कियों की कलाबाजियां देखने जैसा जीवन जी रहा था. उसको किसी नवीन और अप्रत्याशित घटना की आशा नहीं थी. सीढ़ियों को अपनी ओर आते देख कर भी कौतुहल नहीं जगा.
चौराहे ने एक लम्बी साँस भरी और खुद का पेट सीने में छुपा लिया. चौराहों और सीढ़ियों का भी सदियों पुराना रिश्ता था. चौराहों के माथे को खुजाने के लिए कनखजूरे इन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ कर आया करते थे.
चौराहे ने पीपल की ओर देखा. पीपल ने दलदल के पानी सोखू युक्लीप्टिस पेड़ों की ओर देखा. युक्लीप्टिस ने कौवों के पांखों में खुजली की. कौवों ने देखा कि बिना सीढ़ियों की छतें बहुत सुरक्षित दिखने लगी थी. मुंडेरों तक पहुँचने के लिए अब आदमी को आदमी के ऊपर खड़ा होना होगा.
कहते है भीड़ की स्मरण शक्ति कम होती है .ओर भारतीय समाज एक भीड़ जैसा ही है ....हम अपने जमीर के मैले होने का अक्सर जिक्र करते है पर उसे दुरस्त करने का प्रयास नहीं.....हम दरअसल अपनी सहूलियत से असूलो को चुनने वाले समाज की ओर बढ़ रहे है ....जहाँ विरोध सैदान्तिक नहीं होता है ...व्यक्ति ओर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को देख कर तय किया जाता है ....राडिया टेप काण्ड ओर विकिलीक्स के खुलासे आहिस्ता आहिस्ता धुंधले पड़ने लगेगे ... सच के भी कई मुगालते होते है .....प्रसून वाजपेयी उन्ही मुगालतो पर बात करते है
असल में राडिया के फोन टैप से सामने आये सच ने पहली बार बडा सवाल यही खड़ा किया है कि अपराध का पैमाना देश में होना क्या चाहिये। लोकतंत्र का चौथा खम्भा, जिसकी पहचान ही ईमानदारी और भरोसे पर टिकी है उसके एथिक्स क्या बदल चुके हैं। या फिर विकास की जो अर्थव्यवस्था कल तक करोड़ों का सवाल खड़ा करती थी अगर अब वह सूचना तकनालाजी , खनन या स्पेक्ट्रम के जरीये अरबो-खरबो का खेल सिर्फ एक कागज के एनओसी के जरीये हो जाता है तो क्या लाईसेंस से आगे महालाइसेंस का यह दौर है। लेकिन इन सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस तमाम सवालो पर फैसला लेगा कौन। लोकतंत्र के आइने में यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका और संसद दोनो को मिलकर कर यह फैसला लेना होगा। लेकिन इसी दौर में जरा भ्रष्टाचार के सवाल पर न्यायापालिका और संसद की स्थिति देखें। देश के सीवीसी पर सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाया कि भ्रष्टाचार का कोई आरोपी भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले पद सीवीसी पर कैसे नियुक्त हो सकता है। तब एटार्नी जनरल का जबाव यही आया कि ऐसे में तो न्यायधिशो की नियुक्ति पर भी सवाल उठ सकते हैं। क्योकि ऐसे किसी को खोजना मुश्किल है जिसका दामन पूरी तरह पाक-साफ हो। वही संसद में 198 सांसद ऐसे हैं, जिनपर भ्रष्टाचार के आरोप बकायदा दर्ज हैं और देश के विधानसभाओ में 2198 विधायक ऐसे हैं, जो भ्रष्टाचार के आरोपी हैं। जबकि छह राज्यो के मुख्यमंत्री और तीन प्रमुख पार्टियो के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती ऐसी हैं, जिन पर आय से ज्यादा संपत्ति का मामला चल रहा है। वहीं लोकतंत्र के आईने में इन सब पर फैसला लेने में मदद एक भूमिका मीडिया की भी है। लेकिन मीडिया निगरानी की जगह अगर सत्ता और कारपोरेट के बीच फिक्सर की भूमिका में आ जाये या फिर अपनी अपनी जरुरत के मुताबिक अपना अपना लाभ बनाने में लग जाये तो सवाल खड़ा कहां होगा कि निगरानी भी कही सौदेबाजी के दायरे में नहीं आ गई। यानी लोकतंत्र के खम्भे ही अपनी भूमिका की सौदेबाजी करने में जुट जाये और इस सौदेबाजी को ही मुख्यधारा मान लिया जाये तो क्या होगा।
चलते चलते .
हमारी नैतिक बैचेनी अपनी लक्ष्मण रेखा बड़ी चतुराई से चुनती है .....हम उन्ही बहसों को हाईलाईट करते बुद्धिजीवियों के तर्कों को सुनते है जिन पर सार्वजानिक सहमति बन सके ...सवाल फफूंद लगे इस लोकतंत्र पर रेग्मार्क कर साफ़ करने का नहीं ....सवाल ये भी है के क्या कर्तव्यो को याद दिलाने की जिम्मेवारी इस देश में सिर्फ कोर्ट की है ?
क्या हम वाकई एक आदर्श विहीन समाज की ओर बढ़ रहे है ....? सोच कर देखिये
हम सभी को आत्म निरीक्षण की आवश्यकता है ....मीडिया को ही नहीं...आखिर समाज के विकास की भागेदारी सामूहिक ही होती है ..
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जवाब देंहटाएंसम्मोहित कर देने वाली चर्चा,
सागर मुझे पसँद हैं, हथकढ़ का अँदाज़े बयाँ अपने हिसाब से पाठक के मूड को ट्रॉन्सफ़ॉर्म करने में सक्षम है ।
किन्तु सहित सागर सहित हथकढ़ से हट कर और भी कलमनवीस हैं, जिन्हे तुम सामने ला सकते हो ।
विडियो मे सोनिया सिंह जिन चुप्पियों की आत्मस्वीकृति दे रही हैं, वह बेमानी है । जहाँ सारा देश 2G यानि कि सोनिया जी, और राहुल जी सहित अन्य महामहिमों की अभ्यर्थना करके अहोभाग्यम कृत कृत्य हो रहा हो.. वहाँ वास्तव में ऎसी बहस क्या मायने रखते हैं ?
शानदार चर्चा है। एकदम मस्त।
जवाब देंहटाएं8/10
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
यह चिटठा चर्चा पसंद आया.
तारीफ़ में कहना चाहूँगा :
गर ऐसी चिटठा चर्चा को पढने के लिए कोई फीस भी हो तो मुझे ऐतराज नहीं है.
जिंदाबाद
सागर काफी तल्ख़ होकर बात करते हैं | कविताओं में गुस्सा साफ़ दिखता है, उससे भी अच्छी बात ये कि गुस्से का कारण जानने की कोशिशें नाकाम होती हैं | एक तरह से अपने ही अन्दर घुटता हुआ कवि कहूँगा मैं तो, वैसे ये घुटन हर एक के अन्दर होनी चाहिए थी |
जवाब देंहटाएंकई बार किशोर की कहानी मुझे समझ नहीं आती | किशोर को पढ़ो तो एक बार सिर्फ शब्द चयन, बिम्ब उभरते देखो | एकदम आखिर में आपको लगेगा कि आपने कुछ मिस कर दिया, तो अब दुबारा एक एक लाइन को पिछली लाइन से जोड़कर, मतलब समझकर पढ़ो | अभी तक ब्लॉग पे जिन लोगों को पढ़ा है, उनमें गीत और किशोर का को आप एक लय में पूरा पढ़ सकते हो |
अगर अपनी बात समझा नहीं पाया हूँ, तो बस इतना ही कहूँगा कि आप दोनों बहुत अच्छा लिखते हैं |
हम्म्म् आपकी चर्चा.... असली डिसकशन लगती है.....! सिर्फ लिंक्स लगाने का बहाना नही....! सागर की कविता अभी पढ़ी....! अच्छी लगी....!
जवाब देंहटाएंहथकढ़ और किशोर जी को पढ़ चुकी थी....! और ये दोनो जगहें हमेशा से रोकती हैं।
हथकड़ ..जब पहली बार पढ़ा था टिपण्णी देने को मन बेचैन हुआ ..पर आप्शन ही नहीं मिला ..आज भी जब भी पढ़ती हूँ तो वही बेचैन जागती है ,सागर तो जबरदस्त लिखते है ...सच्चाई और कल्पना गुथाम्गुथा करते है उनकी कहानी और कविता में जिसमे अक्सर सच्चाई जीतती है ,किशोर जी तो अपने आप में पाठशाला है आप उनकी कहानियों से बहुत कुछ सीखते है ..सारे पात्र जीवंत हो उठते है ... इस तरह की चर्चाओ का इंतज़ार रहेगा
जवाब देंहटाएंऐसे च्रर्चाकार की भी चर्चा होनी चाहिए।
जवाब देंहटाएं..बहुत अच्छा लगा।
'हमारी नैतिक बैचेनी अपनी लक्ष्मण रेखा बड़ी चतुराई से चुनती है'-यही तो आज का सच है और एक बड़ा कारण भी जो हमें [अक्सर]सच का सामना नहीं करने देता.
जवाब देंहटाएं-बरखा एपिसोड के बाद कई भ्रम' टूटे भी होंगे.
-चर्चा हेतु विषय और सभी पोस्ट्स का बहुत अच्छा चयन.
sundar charcha.....behtarin links.......
जवाब देंहटाएंa pair clap to dr.saheb....
pranam.
अभी मेरे जेहन में एक साथ कई बातें आ रही हैं रख दूंगा तो रायता फ़ैल जायेगा..... ठीक अपनी ही लिखी कविता कि तरह... जिसे हर बार पढने के बाद भी करीने से बना नहीं पाता (ना मुझमें उतना धैर्य है और पहली ड्राफ्ट ही पब्लिश होती है हमेशा) और महीने भर बाद तो खैर नफरत ही होने लगती है लेकिन क्या करें अपाहिज है तो क्या हुआ; है अपना जन्मा ही...
जवाब देंहटाएंब्लॉग्गिंग में रहते दो साल चार महीने होने को आये लेकिन हमने कभी मेल पर, फोन पर बातें नहीं की... की जा सकती थी लेकिन आपका आभामंडल ही कुछ ऐसा लगा जिसने रोका ... यह रोमांच मजेदार है... किसी किशोर स्टुडेंट और महिला टीचर के बीच पलते प्यार के माफिक ... खैर..
कभी कभी यह भी लगता है मैं शाहरुख़ खान टाइप हूँ जिसे यशराज और धर्मा कैम्प ना प्रोमोट करे तो वो बेरोजगार हो जाए तो इत्ते दिन बाद भी कुछ आप जैसे लोगों के सहारे ही अपना ब्लॉग चल रहा है.
बातें यह कि यहाँ (दिल्ली में) साहित्यिक चर्चा, कविता, कहानी, शिल्प, कथ्य के मंच हैं पर उनमें अपने कामकाज के अनिर्धारित कारणों से शामिल नहीं हो पाता.. ऐसे में हफ्ते में एक बार अपूर्व, सुकून देता है या फिर यह मंच... खैर ... (फिर से)
आपके शीर्षक ही बहुत अपील करते हैं. (अपना ब्लॉग होता और कुछ और भी लिखता) मुझे लगा था कि पिता सीरिज पर आपकी नज़र नहीं पड़ रही है क्योंकि जिसका जिक्र हुआ है यह तीसरी किस्त है (अमूमन हम दोनों एक सामान ब्लॉग को ही फोलो करते हैं और कई बार कुछ बेहद अच्छी चीजें पढने से रह जाती हैं) और हर तीन - चार महीने पर मैं आपके ब्लॉग लिस्ट से अपना अकाउंट मिला लेता हूँ..और ऐसे में ही पता चला था निखिल गिरी आनंद का भी तभी वहां तक पहुंचा था.. इसी कविता को जी मेल पर बज्ज़ भी किया था.
हथकढ़ बड़ा एकाकी लगता है... वहां प्रस्तुत बिम्ब भले ही अलग हो पर किरदार आइना बन जाता और अपना सा लगता है. कमेन्ट ना होना उत्सुकता भी जगाता है और बेचैनी भी यही उसे अलग भी करता है. एक शब्द है इसके लिए - माईंडब्लोईंग
इधर आजकल जरा सा भावुकता का मौसम है तो कहना चाहूँगा कि ब्लॉग पर गरिमामयी प्रेजेंस में (मेरे दिमागी स्तर के आधार पर ) प्रमोद सिंह (अज़दक) के बाद अगर किसी का हाथ चूमने कि इक्षा हुई है तो वो आपकी.
मीडिया पर अभी कुछ पढ़ नहीं पाया व्यस्तता को मुझसे मुहब्बत हो गयी है और उससे उबरता हूँ तो अपना ही राग आलापने लगता हूँ.
मंटो कि प्रोफाइल लगा दी गयी है रंग दे बसंती के "जिद्दी हम भी यहाँ" कि तर्ज़ पर कहना चाहुगा कि "नैतिकता होती है कवि के ह्रदय में गोली सरीखी" (साभार : महमूद दरवेश; कबाडखाना ब्लॉग) (यह भी साफ़ कर दूँ कि मैं कोई कवि नहीं हाँ इसका भरम सबको जरूर देता रहता हूँ)
अपनी तरफ से----- "वो लिखना ही क्या जो आपको पाठकों को सामने सफाई देना पड़े"
चलते -चलते श्रीश कि बात याद दिलाना चाहूँगा "डॉ. साब आप कभी थकना मत".
भावुकता और प्यार भी बड़ी अजीब सी शै होती है... जब इससे उबर चुके होते हैं तो वाहियात भी लगने लगती है... समझदार मन ने अब अपने लिखे को पढ़ा तो लगा एडिट की जा सकती थी... दिल खोलकर रखना समझदार मन बेवकूफी से ज्यादा कुछ और नहीं कहता... हालांकि बातें तब भी सही और सच्ची थी और अब भी हैं. लेकिन यह मगरूर दिमाग कहाँ इसका इकरार करता है. बहरहाल...
जवाब देंहटाएंइन दिनों निजार कब्बानी का मौसम है... कबाडखाना से लेकर, कर्मनाशा, पढ़ते-पढ़ते और अनुनाद ने इसपर बेहतर काम किया है. नयी बात पर मनोज कुमार झा के कुछ बेहद सुन्दर कवितायेँ पढने को मिली ... यकीन मानिए पढ़कर आपके दिल से वाह निकलेगी ... उनकी कविताओं के बिम्ब कमाल के हैं ... एकदम अनछुए, अनूठे, और ताजगी भरे...
एक अच्छी कविता अनुनाद पर यहाँ भी
http://anunaad.blogspot.com/2010/12/blog-post_02.html
सबद भी पढ़ा जा सकता है तुर्रा यह की आज रघुवीर सहाय का जन्मदिन है..
चारो फैले भ्रष्टाचार में बस यही तो कह सकते हैं - जाएं तो जाएं कहां ?
जवाब देंहटाएंकृपया ‘चारों ओर ’ पढ़ें... क्षमा :(
जवाब देंहटाएंचर्चा अपने मुकाम तक पहुँचती है या नहीं, पता नहीं.. पर हाँ एक बार रुक कर समय जरुर लेती है.. जो बिम्ब मिले है वो सब अपने आप में ईमानदार कलम चलाते है.. इन लिंक्स को पढना वाकई सुकूनदायक है..
जवाब देंहटाएंबरखा दत्त वाले केस के विषय में आपकी कही बात ही याद आती है.. कि नैतिकता के मामले में भी हम सेलेक्टिव हो जाते है..
प्रीतिश नंदी कहते है कि हिन्दुस्तान की जनता का कही पर कोई डिलीट बटन है.. जो एक बार दबाये जाने से सबकी मैमोरी डिलीट कर देता है.. हम ब्लास्ट्स भूल जाते है, घोटाले भूल जाते है.. दरअसल हमारे लिए ७०-८० हज़ार रुपयों के घोटालो से बड़ी चिंता का विषय है वो पांच रूपये जो अगले सप्ताह पेट्रोल पर बढ़ने वाले है.. अपनी अगली इन्स्ताल्ल्मेंट पूरी करने के चक्कर में हमें अपनी मोरालिटी भूलते जाते है..
achhi charcha......
जवाब देंहटाएंWow !! Awesome chittha charcha. with Awesome 'One Liners' :) (Anuraagizm continues...)
जवाब देंहटाएंराम जेठमलानी कहते है .....स्विस बैंको में इतना पैसा पड़ा है के हिन्दुस्तान के हर घर को दो लाख मिल जाएगा ओर देश के सारे कर्जे चुक जायेगे .
जवाब देंहटाएं.कितना बड़ा सपना है ?
७० लाख नौकर शाहों के इस देश में जहाँ ....ओर शायद हज़ारो में पढ़े लिखे नेता हो....ऐसे सपने देखना वाहियात लगता है न .!!!!!!
हिप्पोक्रेसी शब्द नहीं होता तो मैं बहुत क्न्फ़्यूज़ रहता...
जवाब देंहटाएंपहली बार इस चिट्ठाचर्चा मे आयी हूँ और पढ कर निशब्द हूँ ऐसी ही चर्चा होनी चाहिये। बाकी चर्चाओं की तरह 20-25 लि न्क देने का क्या फायदा जिन्हें हम एग्रिगेटर्स पर या और कहीं भी पढते रहते हैं। किसी चर्चा मंच परेक बार मैने ऐसी ही सलह दे डाली {बिन माँगे} मत पूछिये कितनी गालियाँ मुझे मिली[ अभद्र भाशा मे} कि मैने चर्चा मन्चों पर जाना ही छोड दिया था । कुछ दिन से शिवम मिश्रा जी की चर्चा मे जाना शुरू किया। । बहुत शानदार और जानदार चर्चा है। शुभकामनायें।
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