उनके गिलास को भरने के बाद मुझमे विनायक सेन को ओर जानने की उत्सुकता है ..पर वे एक ओर गेर पेशेवर स्टेट मेंट देते है ...."अब इस समाज में कोई क्रान्ति संभव नहीं है ..यहाँ कोई बैचेनी स्थायी नहीं रहती " कुछ झुके सर सिर्फ हूम हां करते है ....ओर पेशेवर टिप्स की तलाश में नज़दीक आये कुछ युवा आहिस्ता से उठने लगते है .
कौन है ये विनायक सेन ?जिसको चिकित्सको का एक तबका भी अपने जमीर की आखिरी नस्ल के तौर पे देखता है ....
पच्चीस साल पहले देश के प्रतिष्टित मेडिकल कोलेज से निकलने के बाद वे उस रास्ते को चुनते है जिस पर मै ओर आप अब भी चलने में हिचकते है .....उनका कर्तव्य प्रेमचंद के मन्त्र ओर कफ़न पर "उफ़ " करके ख़तम नहीं होता ...... वे उस समाज के भीतर उसकी बेहतरी के लिए घुसते है जिसके पास अपनी व्यथा कहने के लिए वो भाषा या औजार नहीं है जिससे सभ्य समाज तारतम्य बैठाता है ...या रुक कर समझने की कोशिश करता है ....तमाम प्रतिकूलताओ ओर सीमायों के बावजूद उनकी प्रतिबद्ता एक अजीब सी जीवटता लिए न केवल कायम रहती है ....बल्कि अपनी नैतिक स्म्रतियो को बेदखल नहीं होने देती .... वे अपनी उस जिम्मेदारी का निर्वाह करते है जिसका बॉस केवल उनका जमीर है ..........
प्रगतिशीलता के तमाम बुलडोज़रो के बीच अपनी बौद्धिक इमानदारी की आँख न मुंदने देने वाला इंसान जो अपने संशय ईमानदारी से रखता है ..... अचानक देशद्रोही कैसे हो गया ?मेरे लिए ये भी ये यक्ष प्रशन है
इस देशद्रोह को दिनेश राय द्रिवेदी डिफाइन करते है
यदि Sedition का अर्थ देशद्रोह हो तो हमें लोकमान्य तिलक और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिए कहना होगा कि वे देशद्रोही थे जिस के लिए उन्हों ने सजाएँ भुगतीं। यह केवल एक शब्द के अनुवाद और प्रयोग का मामला नहीं है। दंड संहिता की जिस धारा के अंतर्गत डॉ. बिनायक सेन को दंडित किया गया है उसे इसी संहिता में परिभाषित किया गया है और इस का हिन्दी पाठ निम्न प्रकार हैं -
धारा 124 क. राजद्रोह
जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यप्रस्तुति द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, या असंतोष उत्तेजित करेगा या उत्तेजित करने का प्रयत्न करेगा वह आजीवन कारावास से, जिस में जुर्माना भी जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से जिस में जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, या जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण-1 'असंतोष' पद के अन्तर्गत अभक्ति और शत्रुता की सभी भावनाएँ आती हैं।
स्पष्टीकरण-2 घृणा, अवमान या असंतोष उत्तेजित किए बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना सरकार के कामों के प्रति विधिपूर्ण साधनों द्वारा उन को परिवर्तित कराने की दृष्टि से आक्षेप प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं हैं।
स्पष्ठीकरण-3 घृणा, अवमान या असंतोष उत्तेजित किए बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना सरकार की प्रशासनिक या अन्य प्रक्रिया के प्रति आक्षेप प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं हैं।
जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यप्रस्तुति द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, या असंतोष उत्तेजित करेगा या उत्तेजित करने का प्रयत्न करेगा वह आजीवन कारावास से, जिस में जुर्माना भी जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से जिस में जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, या जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण-1 'असंतोष' पद के अन्तर्गत अभक्ति और शत्रुता की सभी भावनाएँ आती हैं।
स्पष्टीकरण-2 घृणा, अवमान या असंतोष उत्तेजित किए बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना सरकार के कामों के प्रति विधिपूर्ण साधनों द्वारा उन को परिवर्तित कराने की दृष्टि से आक्षेप प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं हैं।
स्पष्ठीकरण-3 घृणा, अवमान या असंतोष उत्तेजित किए बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना सरकार की प्रशासनिक या अन्य प्रक्रिया के प्रति आक्षेप प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं हैं।
आंकड़े बताते है इस देश की आबादी २०१५ में शायद सबसे ज्यादा हो जायेगी .आंकड़े ये भी बत्ताते है पिछले कुछ सालो में संसद में मौजूद हमारे सांसदों में करोडपति सांसदों की संख्या में तीस प्रतिशत का इजाफा हुआ है ......आंकड़े याद दिलाते है सात लाख नौकर शाहों के इस देश में देश चलाने वाले नेताओ में तकरीबन कुछ लोग ही ग्रेज्यू वेट है ....आंकड़े भी अजीब होते है ... पर आंकड़े ये नहीं बताते के देशभक्ति आनुवंशिक नहीं होती ......लोक संघर्ष ब्लॉग कुछ यूँ बताता है
देश में जब तमाम सारी अव्यस्थाएं है तो उनके खिलाफ बोलना, आन्दोलन करना, प्रदर्शन करना, भाषण करना आदि लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं हैं लेकिन जब राज्य चाहे तो अपने नागरिक का दमन करने के लिए उसको राज्य के विरुद्ध अपराधी मान कर दण्डित करती है। डॉक्टर बिनायक सेन जल, जंगल, जमीन के लिए लड़ रहे आदिवासी कमजोर तबकों की मदद कर रहे थे और राज्य इजारेदार कंपनियों के लिए किसी न किसी बहाने प्राकृतिक सम्पदा अधिग्रहित करना चाहता है। उसका विरोध करना इजारेदार कंपनियों का विरोध नहीं बल्कि राज्य का विरोध है। इजारेदार कम्पनियां आपका घर, आपकी हवा, आपका पानी, सब कुछ ले लें आप विरोध न करें। यह देश टाटा का है, बिरला का है, अम्बानी का है। इनके मुनाफे में जो भी बाधक होगा वह डॉक्टर बिनायक सेन हो जायेगा।
यही सन्देश भारतीय राज्य, न्याय व्यवस्था ने दिया है।
यही सन्देश भारतीय राज्य, न्याय व्यवस्था ने दिया है।
...कुछ तटस्थताओ के लिए भी साहस चाहिए ..इस समाज के कई प्रवक्ता है ....कई स्वीकृत कई स्व घोषित .....जो सिद्धांतो की भी बड़ी तर्क पूर्ण व्याखाए देते है .....यूँ भी लिज़ लिजी देश भक्ति कभी कभी हमारे आदर्शो को भी धुंधला कर देती है ......विज़न को भी ...
इतिहास तीन स्तरों पर चलता है: पहला, जो सनातन है यानी अपने प्राकृतिक वातावरण के सम्बन्ध में मनुष्य का इतिहास। दूसरा, वह पारंपरिक सामाजिक इतिहास है जो समूह या छोटे समूहों से बनता है। तीसरा इतिहास मनुष्य का न होकर विशिष्ट तौर पर किसी एक मनुष्य का होता है। दूसरे शब्दों में, इतिहास प्रकृति की ताकतों, समाज के ढांचे और व्यक्तियों की भूमिकाओं से गढ़ा जाता है। यह सूत्रीकरण फ्रेंच चिंतकों द्वारा दिया गया है जो मानते हैं कि यह मॉडल ही सम्पूर्ण इतिहास का मॉडल है। सम्पूर्ण इतिहास की संरचना में आदिवासियों के तुलनात्मक संदर्भों को बेहतर ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है। मसलन, भारत और अमेरिका के आदिवासियों में आंशिक समानता इसलिए है क्योंकि दोनों देशों में शासक वर्ग द्वारा जतलाए गए अधिकारों के संदर्भ में इनकी सामाजिक व्यवस्था और अनुक्रम तुलनात्मक रहे हैं। यदि योरोपीय औपनिवेशिक ताकतों ने अमेरिकी नेटिवों पर अपना धर्म थोपा, तो भारत में मौर्य साम्राज्य की राजसत्ता ने शाही गांवों के श्रमिकों शिविरों में रहने वाले आदिवासियों के साथ भी तकरीबन यही किया।
.बैरंग भी अपनी प्रतिक्रिया देता है ...ये कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है
डॉ सेन का जुर्म यह रहा कि उन्होने आदिवासियों के लिये काम करते हुए उनके अधिकारों की बात की, उन पर हो रहे जुल्मों का जिक्र किया। उन्होने हिंसा का हमेशा सख्त विरोध किया चाहे वह माओवादियों की हो या सरकारी बलों की! डॉ सेन पुलिस और पुलिस समर्थित गुटों द्वारा व्यापक पैमाने पर किये जा रहे भूमि-हरण, प्रताड़नाओं, बलात्कारों, हत्याओं को मीडिया की रोशनी मे लाये; पीडित तबके के लिये कानूनी लड़ाई मे शामिल हुए। उनका अपराध यह रहा कि वो उस ’पीपुल’स यूनियन फ़ॉर पब्लिक लिबर्टीज’ की छत्तीसगढ़ शाखा के सचिव रहे, जिसने मीडिया मे ’सलवा-जुडुम’ के सरकार-प्रायोजित अत्याचारों को सबसे पहले बेनकाब किया।
इतने गुनाह सरकार की नजर मे आपको कुसूरवार बनाने के लिये काफ़ी है। फिर तो औपचारिकता बाकी रह जाती है। इस लोकतांत्रिक देश की पुलिस ने पहले उन्हे बिना स्पष्ट आरोपों के महीनो जबरन हिरासत मे रखा। फिर कानूनी कार्यवाही का शातिर जाल बुना गया। सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी किसी हिंसात्मक गतिविधि मे संलग्नता को प्रमाणित नही कर पायी। सरकार के पास उनके माओवादियों से संबंध का कोई स्पष्ट साक्ष्य नही दे पायी। पुलिस का उनके खिलाफ़ सबसे संगीन आरोप यह था कि जेलबंद माओवादी कार्यकर्ता नरायन सान्याल के ख़तों को दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाने का काम उन्होने किया। मगर इस आरोप के पक्ष मे कोई तथ्यपरक सबूत पुलिस नही दे पायी। उनके खिलाफ़ बनाये केस की हास्यास्पदता का स्तर एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि सरकारी वकील अदालत मे उन पर यह आरोप लगाता है कि उनकी पत्नी इलिना सेन का ईमेल-व्यवहार ’आइ एस आइ’ से हुआ था। मगर बाद मे अदालत को पता चलता है कि यह आइ एस आइ कोई ’पाकिस्तानी एजेंसी’ नही वरन दिल्ली का सामाजिक-शोध संस्थान ’इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट’ था। फ़र्जी सबूतों और अप्रामाणिक आरोपों के द्वारा ही सही मगर पुलिस के द्वारा उनको शिकंजे मे लेने के पीछे अहम् वजह यह थी कि उनके पास तमाम पुलिसिया ज्यादतियों और फ़र्जी इन्काउंटर्स की तथ्यपरक जानकारियां थी जो सत्ता के लिये शर्म का सबब बन सकती थी।
उत्सव धर्मी इस समाज में साल के आखिरी दिन उम्मीदों ओर आशयो से इतर बिनायक सेन पर लिखना पढना शायद अजीब लगे पर उनकी मौजूदगी किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है ....ओर अपने भीतर सिमटे इस समाज के लिए भी .....वैचारिक असहमतिया ..उम्र कैद की हक़दार नहीं होती.....
सच मानिए आप शायद असहमत हो........पर वे मुझ ओर आपसे कई ज्यादा बड़े देशभक्त है
चाहूँगा कोई भी प्रतिक्रिया या विचार रखते वक़्त इस चर्चा ओर टिप्पणियों पर भी नज़र डाले .....
अरुंधति.....क्रान्ति....नक्सल वाद .आदिवासी ओर वेंटीलेटर पे ये देश
ओह, हम बौने! इन हाईली इण्टेलेक्चुअल ब्लॉगों की बातें क्या समझें!
जवाब देंहटाएंसाल की सब से अच्छी चिट्ठा चर्चा के लिए कहने को शब्द नहीं हैं मेरे पास।
जवाब देंहटाएंपता नहीं बिनायक सेन इस देश के तथाकथित विवेकशील और शिक्षित लोगो की भाषा में क्या बोलता है, इनके बौद्धिक ज्ञान के मुताविक वो क्या करता है, मगर इतना तो तय है कि इस दुर्भाग्यशाली देश के , दुर्भाग्यशाली इसलिए कि इसकी गोद में जयचंद के उन बंशजों ने खूब तरक्की की जो इसके संसाधनों पर सिर्फ अपना हक़ जताना जानते है, राष्ट्र के प्रति उनके क्या कर्तव्य है वह नहीं जानते ! जो कोर्ट के सिर्फ उस फैसले को स्वीकार करते है, जो सिर्फ उनके पक्ष में होता है ! मगर इतना तो मै भी चौड़ा होकर कह सकता हूँ कि बिनायक सेन गद्दार है क्योंकि उसे साक्ष्यों के आधार पर इस देश की अदालत ने गद्दार साबित किया है ! हाँ , ये बात और है कि किन्ही वजहों से उसे भारत रत्न मिले न मिले, लेकिन जिस कदर इस देश के कुछ तथाकथित उस थाली को ही छेदने वाले बुद्धिजीवी, जिन्होंने अभी कुछ समय पहले ही जिस थाली पर खाना खाया, जिस तरह से इसे अन्तराष्ट्रीय रूप देने में लगे है , वह आने वाले सालों में जरूर नोबेल शांति पुरुष्कार अवश्य प्राप्त करेगा ! काश कि यह गरीब आदिवासियों का मसीहा बिनायक सेन तनिक उन ७६ जवानो के गरीब परिवारों की भी तनिक खबर ले पाता, कि वे किस हाल में जी रहे है , जिन्हें इन तथाकथित आदिवासियों ने मौत की नींद सुला दिया ! काश की इस देश के ये तथाकथित बुद्धिजीवी जिस तरह बिनायक सेन की जय-जयकार कर रहे है, हरियाणा के उस फोरेस्ट आफिसर श्री चतुर्वेदी के पक्ष में भी कुछ बोल पाते जिसने इमानदारी के लिए पिछले बारह सालों में जीते जी नरक भोगा ! मगर नहीं , हम हिन्दुस्तानी तो "जिधर हरी उधर चढी" वाले लकीर के फकीर है !
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत चर्चा,बधाई.
जवाब देंहटाएंआज भी आंकड़ों से ओत प्रोत
जवाब देंहटाएंएक हिन्दी ब्लॉगर पसंद है
बिनायक सेन को सजा पर अमेरिका और यूरोप के सारे अखबार चिल्ला रहे हैं.. कोई न कोइ बड़ी बात तो होगी ही. भारत को पूरी न्यायिक प्रणाली को ही मानवाधिकारों का दुश्मन बताया जा रहा है.. द गार्जियन ने एक लेख का शीर्षक दिया "शान्ति के पुजारी के खिलाफ भारत का युद्ध"...
जवाब देंहटाएंबिनायक सेन की देशभक्ति पर मुझे कोइ शक नहीं, न ही उनके द्वारा किये गए पुनीत कार्यों पर..निश्चित रूप से वे मेरे जैसे कई युवाओं के लिए एक प्रेरणास्रोत हैं.. लेकिन....
इसे वामपंथी विचारधारा वाले और अंग्रेज इस तरह क्यों प्रचारित कर रहे हैं जैसे बिनायक सेन को हटाने के लिए भारत का पूरा तंत्र लगा था.. भारत की निर्वाचित सरकार, न्यायपालिका और यहाँ की पूरी जनता भी.. लोग ऐसे हल्ला मचा रहे हैं जैसे आज से पहले दुनिया की किसी अदालत ने गलत फैसला दिया ही न हो.. छात्तीसगढ़ की अदालत ने राज्य के कानूनों और वहाँ की पुलिस द्वारा उपलब्ध कराये गए साक्ष्यों पर अपना निर्णय दिया.. कोइ भी अदालत अभियुक्त के महान चरित्र को देखकर फैसला नहीं देती.. उन प्रमाणों के आधार पर अगर कोर्ट ने यह पाया कि नक्सलियों से संपर्क करने के मामले में क़ानून की सीमाओं का उल्लंघन किया तो और उसके लिए उन्हें सजा दी तो इसका बिनायक के महान व्यक्तित्व और कार्यों से क्या सम्बन्ध है? और जरूरी नहीं कि यह फैसला सही हो.. पर हमारी न्यायिक प्रक्रिया अपील का पूरा अधिकार देती है.. यदि बिनायक ने कहीं भी कानूनी रूप से गलत कार्य नहीं किया तो वे अंततः बाइज्जत रिहा होंगे.. इतना विश्वास है मुझे भारत की न्यायिक प्रणाली पर.. भले उनकी जगह कोइ गरीब ऐसे केस में फंसता तो न बच पाता क्योंकि उसके लिए बुद्धिजीवी लोग इतने बड़े-बड़े लेख थोड़े न लिखते.. न ही गार्जियन में उसपर लेख आता और न ही नोबेल विजेता बयान देते उसपर...
आप उस भारत को मानवाधिकार की सीख मत दीजिए जहां संसद पर हमला करने वाले को भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आवेदन करने का अधिकार है.. और यह भारत ही है कि हम इतना चिल्ल-पों मचा लेते है सरकार से लेकर अदालत तक पर.. और लोकतंत्र तथा मानवाधिकार की रक्षा करना हमें अमेरिका, रूस या चीन से सीखने की जरुरत नहीं है... वे पहले अपना रेकार्ड देख लें...
मैं नए वर्ष में कोई संकल्प नहीं लूंगा
@Gyan ji....जाहिर है......अपने पच्चीस साल ......एक समाज को देने वाले ..इंटेलीजेंट आदमी की बाते समझ आनी मुश्किल है ..पचीस साल कितने कम होते है न ? अपनी नैतिक जिदो पर अड़े ये लोग कितना निरर्थक जीवन जीते है ..?
जवाब देंहटाएं@गोदियाल जी ....यही निवेदन है ..किसी भी तात्कालिक प्रतिक्रिया से पहले उस लिंक को भी गौर से पढ़े जो इस चर्चा के अंत में दिया गया है .....
इतनी अच्छी चिट्ठा चर्चा के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंडॉक्टर अनुराग भाई: चर्चा अच्छी और सामायिक है बधाई स्वीकार करें ! विनायक सेन जैसी गद्दारी अगर ज्यादा डॉक्टर कर पाते तो आज भारत में सब-सहारन अफ्रीका से ज्यादा कुपोषण नहीं होता... रही बात कोर्ट की, या 'विदेशी साजिश' की तो इसके बारे में हमें कुछ नहीं कहना है सिवाय एक शेर के जो कबाडखाना से चुराया गया है....
जवाब देंहटाएं“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”
-मुनव्वर राना
dr anuraag we hope that you will keep the good work going on this manch
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद इधर का रुख किया है ..अनुराग जी आप इस चर्चा के लिए बधाई के पात्र है ....
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबिनायक बाबू का मैं कट्टर समर्थक रहा हूँ, और रहूँगा ।
अभी हालिया घटनाक्रम में सत्तारूढ़ पार्टी का न्यायप्रक्रिया को लेकर जो रवैया रहा है, वह सन्देहरहित तरीके से सन्देहास्पद है, और निन्दनीय़ है ! मैं विकल हो रहा था कि मौज़ूदा घटनाक्रम पर कैसे क्या लिखूँ.. .. डॉक्टर अनुराग ने यह इच्छा पूरी कर दी और.. बड़े अच्छे तरीके से व्यक्त हुये हैं । उन्हें शत शत बधाईयाँ ।
और कुछ भले ही न हो, पर बिनायक बाबू आगामी सर्वहारा सहानुभूति के क्रान्ति की बुनियाद के तौर याद किये जाते रहेंगे, और उनकी लड़ाई अब और भी मुखर तरीके से अपने लिये समर्थन जुटा सकेगी ।
नववर्ष-उल्लासी मित्रगण क्षमा करें, पर भारतवर्ष में आगामी दशक के मध्य तक सिविल नाफ़रमानी जैसे द्रोह की सँभावनायें देख रहा हूँ.. ईश्वर करे कि यह रक्तिम क्रान्ति न हो !
अनुराग जी ,
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम आपको नव वर्ष की मंगलमय कामना !
मेरी बिनायक सेन से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं, हो सकता है कि वो १००% निर्दोष हों, और उन्हें गंदी भारतीय राजनीति का शिकार बनना पडा हो, लेकिन जिस तरह से पिछले तीन सालों से कुछ ख़ास बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा इस मुद्दे को जरुरत से ज्यादा उछाला गया है, मेरा विरोध सिर्फ उससे है! अगर श्री बिनायक सेन बेक़सूर है तो उनको फंसाया जाना नितांत निंदनीय है, मगर एक ख़ास बिनायक सेन के लिए ही क्यों इतनी हाय-तोबा ? बहुत से बिनायक सेन है इस देश में हम उनकी क्यों अनदेखी करते है ? और जिस तरह से कोर्ट को भला-बुरा कहा जा रहा है वह क्यों ? अगर आप देश के क़ानून को देखे तो कोर्ट ने एकदम सही फैसला दिया है , जो भी आरोप थे उस हिसाब से ;
INDIAN PENAL CODE S. NO. SECTIONS PARTICULARS PUNISHMENT
7 120-B Being party to criminal conspiracy: i) to commit an offence punishable with death or rigorous imprisonment for a term of 2 years or more ii) other than a criminal conspiracy mentioned above i) As if he has abetted the offence ii) Imprisonment upto 6 months or fine or both
8 121-A A Conspiracy to commit crime under Section121 (waging/attempting/abetting war against Government of India) Upto life imprisonment or upto 10 years of imprisonment and fine
10 124-A Sedition — By words (spoken or written) attempts to bring hatred, contempt, disaffection (disloyalty, feelings of enmity) towards Government Imprisonment for life to which fine may be added Or Upto 3 years imprisonment to which fine may be added, or with both
EVIDENCE PUT OUT AGAINST DR BINAYAK SEN BY THE PROSECUTION
3 unsigned letters allegedly recovered from Piyush Guha, a businessman, on 6 May, 2007. The police allege the letters are from Narayan Sanyal, smuggled out of jail by Binayak Sen.
The police read huge significance into the fact that Binayak Sen visited Narayan Sanyal in jail 33 times. They allege he did so masquerading as Family
Scrap of handwritten paper in Gondi, containing names of Ilina Sen, Binayak Sen and Rajendra Sayal, all PUCL activists, recovered in another Farsegarh FIR
Postcard addressed to Binayak from Narayan Sanyal
Letters by one Soma Sen to Tushar Kanti Bhattacharya (her husband, who the State alleges is a Naxalite
CDs and newspaper clippings on fake encounters by police and Salwa Judum recovered from Binayak’s house. Sundry documents police claim are banned
Allegation that Binayak Sen helped Amita Srivastav, a PhD student from Allahabad, open a bank account. Amita is missing since December 2005
Allegation that Binayak helped Amita rent a house in which Narayan Sanyal stayed. Also that Ilina helped her secure a job as a teacher in a school at Raipur
खैर, मेरा टिपण्णी का उद्देश्य आपकी चर्चा की नुक्ताचीनी नहीं था बल्कि जो एक आज हमारे बुद्धिजीवी समाज में एक ख़ास "बिनायक सेन बयार" चल रही है उसे इंगित करना था . वैसे हमारे ज्ञानी पूर्वज कह गए कि " what is visible need not be true and what is true need not be visible."
श्री ज्ञानदत्तजी पांडेय सा. से पूर्ण ससहमत...
जवाब देंहटाएंनूतन वर्ष की सबके प्रति शुभ और मंगलमय कामनाओं के साथ...
इतनी सार्थक और बेहतरीन चिठ्ठा चर्चा पहले नहीं पढ़ी...राजेश उत्साही जी ने भी अपने चिठ्ठे में बिनायक सेन जी की चर्चा की है...सरकार जिनसे डरती है या तो उन्हें उम्र कैद की सजा देती है या फिर सफ़दर हाशमी की तरह खुले आम कत्ल करवा देती है...ये ही होता आया है ये ही होता रहेगा...लेकिन कब तक...??????
जवाब देंहटाएंनीरज
‘हम सब बहुत बौने लोग है,जिनके आसमान की हदे बहुत छोटी है।’
जवाब देंहटाएंदेशभक्ति आनुवंशिक नहीं होती, लिज़ लिजी देश भक्ति कभी कभी हमारे आदर्शो को भी धुंधला कर देती है,विज़न को भी।
वैचारिक असहमतिया,उम्र कैद की हक़दार नहीं होती।
सच मानिए आप शायद असहमत हो,पर वे मुझ ओर आपसे कई ज्यादा बड़े देशभक्त हैं।
आपके दृष्टिकोण से अनुराग पैदा हो गया है।
डॉ.अनुराग ने आइना दिखाया तो छिद्नान्वेषी लगे मीन-मीख निकालने!
जवाब देंहटाएंवर्ष-2011 की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
किसी लोकतांत्रिक राज्य सत्ता के विरुद्ध सशस्त्र हिंसक विद्रोह करने वालों का साथ देना क्या होता है?
जवाब देंहटाएंगरीबों, दलितों, मजलूमों का साथ देना अच्छी बात है लेकिन यदि ये गिरोह बनाकर राज्यसता से जुड़े निर्दोष सैनिकों, अधिकारियों और कर्मचारियों का कत्ल करने लगें तो उन्हे और उनके सहयोगियों के साथ क्या किया जाना चाहिए?
विनायक सेन की सहानुभूति जिन लोगों के साथ रही है वे लोकतांत्रिक तरीके छोड़कर हिंसा का रास्ता अपना चुके थे। फिर सरकार क्या करती?
विनायक सेन के सद्कार्य निश्चित रूप से प्रशंसनीय हैं लेकिन हिंसावादियों की मदद करने का आरोप सिद्ध पाये जाने पर अदालत द्वारा उनको सजा देनी ही चाहिए।
फैसले पर अपील का रास्ता तो उपलब्ध ही है।
किसी भी राज्यसत्ता के विरुद्ध सशस्त्र हिंसक विद्रोह कभी सफल नहीं हो सकता चाहे वह जितना भी बड़ा और मजबूत क्यों न हो। तमिल टाइगर्स का उदाहरण सामने है।
जवाब देंहटाएंभारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इसको किसी प्रकार प्रश्रय नहीं दिया जाना चाहिए।
इसे भी पढ़ें .
जवाब देंहटाएंhttp://halchal.gyandutt.com/2011/01/blog-post.html
PUCL ??
चर्चाओं को शर्तिया नया आयाम मिल रहा है इन मुद्दों से। डा० अनुराग की जगह किसी और ने ये मुद्दा उठाया होता तो शायद एक लंबी बहस छेड़ने का मंसूबा रखता मैं। लेकिन इस ब्लौग-जगत में चंद गिने चुने जेन्युइन लोगों में से एक इस अलबेले डाक्टर को अच्छे से जानता हूं मैं।
जवाब देंहटाएंविनायक सेन को लेकर ब्लौग और मिडिया में छिड़े विवादों और इस चर्चे में शामिल तमाम लिंको पर दृष्टिपात करने के पश्चात, यूं लगा कि जैसे एक कुछ अजीब-सी पार्सियलिटी व्याप्त हो सब जगह। ऐसा क्यों हो रहा है कि जहां अरुंधतियों को लेकर एक तरक आक्रोश फैल जाता है, वहीं विनायकों को लेकर सहानूभूति...???? क्या महज इसलिये कि अरुंधति के जिक्र से कश्मीर जुड़ा हुआ है, और विनायक के साथ समथिंग लेस इम्पोर्टेंट??
मुल्क में नक्सलिज्म के जनक के रूप में जाने वाले चारू मजूमदार का फेमस कोटेशन है "a revolutionary is not a revolutionary, till he dips his hand in blood of a capitalist"...और विनायक सेन को कई बार इस कोटेशन को दुहराते हुये पाया गया। महज ये कोटेशन ही अपने-आप में भृकुटियाँ उठाने लायक है?
हमसब एक विभाजित विचारधाराओं में जीना पसंद करते हैं। कभी ईरोम शर्मिलाओं को लेकर विभाजन, कभी अरुंधतियों को लेकर विभाजन तो कभी विनायकों को लेकर विभाजन। शर्मिला को लेकर जाने कितनी कवितायें, जाने कितने पोस्ट रंगे जा चुके हैं इसी ब्लौग-जगत में...सोचता हूं इन लिखाड़ों में से कितनों ने एक पोस्ट-कार्ड तक भेजने की जोहमत उठायी होगी एक युग से अस्पताल के बिस्तर पर लेटी उस लड़की को? कुछ ऐसी ही सोचों का उन्वान विनायक को लेकर भी बन रहा है मन में। फ़ेसबुक में विनायक के समर्थन में रोज अपडेट होते स्टेटस बस एक विद्रुप-सी मुस्कान भर ला पाते हैं मेरे होठों पर।
डा० साब, चिट्ठा-चर्चा को एक नया मंच बनाने के लिये सलाम मेरा। कुछ बहस रूबरू होंगी मेरठ में अगले महीने :-)
कानून वही
जवाब देंहटाएंजुल्म वही
तरीका वही
......बदले हैं तो सिर्फ चेहरे
शुक्रिया डॉक्टर...शुक्रिया
मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
जवाब देंहटाएंये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
अनुराग जी, तमाम लोग तो टिप्पणियों में भी गाली-गलौझ की भाषा पर उतर आए। कोई बात नहीं। समाज के उस तबके को जागने की जरूरत है, जिसके लिए डॉ. विनायक काम कर रहे हैं। विनायक सेन जो काम कर रहे हैं, उनका १० प्रतिशत काम करने वाले अगर देश भर में कुछ लोग (या कहें कि हर राज्य में एक भी) खड़ा हो जाए, तो शायद इलाज के बगैर, कुपोषण से मरने वालों की संख्या कम हो जाए। लोग अपने और अपने अधिकारों के प्रति जाग जाएं। लोकतंत्र में भी अपना हक ले सकें।
इससे सुन्दर,सार्थक और सृजनात्मक चर्चा नहीं हो सकती थी...आप सभी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाएँ...
जवाब देंहटाएंविनायक सेन चिट्ठाचर्चा पर काहे बोलतो?
जवाब देंहटाएंहम ओर आप कागजो ओर कंप्यूटरो की स्क्रीन पर लड़ने वाले लोग है ..जिनकी रीड की हड्डिया अपनी महत्त्वकान्क्षायो ओर निजी सरोकारों के चलते रोज थोड़ी मुड रही है ...हम इस व्यवस्था में खामियों की शिकायत तो करते है ...पर इसे दुरस्त करने के लिए कोई कदम नहीं उठाते ?
जवाब देंहटाएंहम असहमतियो से कितना घबरा जाते है .?
किसी ने एक बार लिखा था ..यदि हम अपने चिंतन ओर सिद्दांतो को अपने अहंकार के वृत में सीमीत रखकर पोषित करे परन्तु परिक्षण के लिए उसे वास्तिवकता के धारातल पर न उतारे तो वे अपना अर्थ खो देते है ..
हमारा शत्रु कौन है ? अकर्मण्यता ?भ्रष्टाचार या आदिम लालच ?या विनायक सेन ?
क्या व्यवस्था वाकई इतनी अनुशासित है जो आलोचना से परे है ?क्या सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन ओर सुधार की गुंजाइश हमेशा नहीं बनी रहती ?क्या उस गुंजाइश की बात करना अपराध है ?
हम विकास तो चाहते है पर इस विकास का एक बराबरी का हिस्सा उस तबके को देने के लिए बनायीं गयी योजनाओं के क्रियावरण का सारा जिम्मा सरकार ओर उसके नुमाइंदो पर छोड़ देते है ....वही तंत्र जिससे हम भली भाँती वाकिफ है .....आप विनायक सेन को दोषी मानते है मानिये .....सजा देनी है दीजिये ...पजिन कमियों पर वे संशय रखते है उन्हें ख़ारिज न करिए ..
सामाजिक व्यवस्था के उस ध्रुवीकरण का एक पहलु भी भी देखिये जिसमे राजा नीरा राडिया कलमाड़ी जैसे लोग टी वी कैमरों के सामने मुस्कराते है ...ओर पीछे बेकग्रायुंड में कोई शोकगीत नहीं बजता
देशभक्ति के कम्बल को फिर हमारी ओर चतुराई से फेंका जाएगा ओर हम कई बुनियादी सवालों को भावावेश में भूल जायेगे .ओर देश के कई हिस्से आहिस्ता आहिस्ता हमसे अलग थलग महसूस करने लगेगे
@गोदियाल जी ...सिद्धार्थ जी....सतीश जी....
हिंसा को कोई भी समर्थन नहीं दे रहा ..आपसे पुन अनुरोध है चिटठा चर्चा के अंत में दी गयी पुराणी चर्चा का लिंक ओर उसकी टिप्पणियो को भी पढ़िए ....आदिवासी ओर नक्सलवादी दो अलग अलग चीज़े है .उद्देश्य व्यक्ति विशेष या किसी वाद का का महिमा मंडन नहीं है ..उद्देश्य वर्तमान सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्न भर करना था
@आदरणीय अनुराग जी,
जवाब देंहटाएंसामाजिक व्यवस्था और शासन तंत्र के दोषों और कमियों पर आपसे कोइ मतभेद नहीं है.. इनके प्रति शायद आपसे ज्यादा आक्रोश मेरे मन में है.. जहां तक विनायक सेन को दोषी मानने की बात है तो मैं कौन होता हूँ उनको दोषी मानने वाला.. आपको बता दूं कि विनायक जी के सामाजिक कार्यों के प्रति मेरे दिल में गहरा सम्मान है.. उनके वे कार्य आदर्श हैं मेरे लिए.. जिन सामजिक मुद्दों के लिए वो आवाज उठाते हैं और काम करते हैं उसके लिए उनकी जितनी भी तारीफ़ की जाए वह कम है.. पर यह कार्य उन्हें यह अधिकार कहीं से भी नहीं देते कि वो नक्सलवादी हिंसा का समर्थन करें और उनके लिए कार्य करें और क़ानून उन्हें न छू पाए (मैं यह नहीं कह रहा कि उन्होंने ऐसा किया ही होगा)...यह दो बिलकुल अलग मुद्दों को मिलाना होगा.. आपकी चर्चा के सारे लिंक्स को पढ़ा है मैंने.. पर फिर भी मैं मानता हूँ कि नक्सलवाद किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता.. और नीरा कलमाडी जैसे लोगों से हमें भी घृणा है पर यहाँ उनको लाने का क्या तुक है.. अब क्या हर अदालत नीरा और कलमाडी को उदाहरण माँ कर फैसले देगी.. कि वो बाहर घूम रहे हैं तो तुम भी जाओ.. कमी हर जगह है.. आपको लगता है कि जो लोग आज विनायक के लिए इतना हल्ला कर रहे हैं वो इतने ही जोश में होते अगर विनायक की जगह कोइ आम आदिवासी होता... विनायक जी का केस लड़ने के लिए तो अब तक लाखों डॉलर्स आ गए होंगे चंदे में.. कई बड़े वकील भी तैयार होंगे... मेरा विरोध बस इसी दोगली बुद्धीजीविता से है...
एक बात और.. "हम ओर आप कागजो ओर कंप्यूटरो की स्क्रीन पर लड़ने वाले लोग है .." - सबके बारे में यह आम निष्कर्ष कैसे निकल लिया आपने.. इसलिए कि हम जो अपने स्तर पर छोटे कार्य करते हैं वो आउटलुक में नहीं छापते और अंग्रेजी ब्लोग्स में नहीं आते?
बात की गंभीरता को अगले प्लेटफ़ार्म पर लाने के लिये डॉ अनुराग का शुक्रिया। अभी अपनी ही किसी टिप्पणी को एडिट-पेस्ट कर रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंसरकार की मंशा और नीतियों पर शंका अनोखी बात नही। मगर मुझे सबसे ज्यादा खतरनाक स्थिति तब लगती है जब हम आपसी बहस मे ही इतनी गहरी विभाजक रेखाएं खींच देते हैं कि चीजों मे फ़र्क देखना मुश्किल हो जाता है। सरकारी नीतियों का विरोध करने का मतलब माओवादियों का समर्थन करना तो नही है? और अगर सरकारी अक्षमता के खिलाफ़ आवाज उठाने वाले डॉ सेन का समर्थन करने का मतलब माओवादी हिंसा का समर्थन समझा जाता है तो यह समझ के सतही और एकांगी स्तर का परिचायक है। यह सोच मुझे 9/11 के बाद के जार्ज बुश की दुनिया के तमाम देशों को दी अहंकारी हुंकार की तरह लगती है कि अगर आप अमेरिका के मित्र नही हैं तो आप अमेरिका के शत्रु हैं। यह जरूरी नही है कि सभी को सरकार-प्रायोजित हिंसा और नक्सली हिंसा मे से ही एक पाला चुनने को विवश किया जाय। इन दोनों पालों के अलावा एक तीसरा पाला भी है जो हिंसा के किसी भी रूप का विरोध करता है, चाहे वह पुलिस द्वारा की गयी हो, या सलवा-जुडुम द्वारा, या माओवादियों द्वारा। यह पाला सरकारी और माओवादी हिंसा मे भेद नही करता न हिंसा के किसी रूप को जस्टीफ़ाइ करने की कोशिश करता है। वो नक्सली हिंसा का समर्थन किये बिना भी विस्थापितों के दर्द की बात करता है, उनके प्रति अन्याय का विरोध करते हुए सरकार की अदूरदर्शी नीतियों को कटघरे मे खड़ा करता है। मै खुद को भी इसी तीसरे पाले का हिस्सा पाता हूँ। मुझे हास्यास्पद यह लगता है कि जब जेलबंद चीनी मानवाधिकार कार्यकर्ता ल्यु जियाबो को नोबेल मिलता है हम खुशी जताते हैं, जब ईरानी सरकार अपने राजनैतिक विरोधियों पर गोली चलवाती है या मानवाधिकारों की बात करने पर शिरीन इबादी को नजरबंद करती है, हम चिंता प्रकट करते हैं, हम पाकिस्तान के तालिबानी इलाकों मे मानवाधिकारों के हनन पर उत्तेजित होते हैं, तिब्बतियों पर चीनी आत्याचार के प्रति आंदोलित होते हैं या म्यामार मे आन सांग सू क्यी की अथक राजनैतिक लड़ाई का समर्थन करते हैं, जुलियन असांजे के अमेरिकी सरकार को बेनकाब करने पर ताली बजाते हैं। मगर बात जब अपने घर की आती है, अपने समाजकर्मियों, मानवाधिकार-कर्मियों की आती है तब हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है। हमे सरकारी पक्ष सुहाने लगता है। बिनायक सेन जैसों की बातों से असहमत होना एक अलग बात है, और उनसे वैचारिक विरोध होना पूरी तरह जायज है। मगर उनकी बातें पसंद न होने पर उनकी आवाज बंद कर देना, उन्हे जबरन जेल मे ठूँस देना लोकतंत्र के लिये बहुत घातक प्रवृत्ति है। जब तक हम असहमतियों को सकारात्मक तरीके से लेना नही सीखेंगे, एक सभ्य और वयस्क लोकतंत्र की कल्पना दूर की कौड़ी है। ब्लॉग-जगत इस प्रवृत्ति का अपवाद नही लगता। डॉ अनुराग या किसी अन्य की बात असहमति है तो उसका वैचारिक और तथ्यगत पक्ष रखना चाहिये। मगर व्यक्तिगत छीटाकशी कर हम अपनी रूढ़ता ही साबित करते हैं। और असहमति के प्रति यह असहिष्णुता जब तक कायम रहेगी तब तक चाहे हमारा लोकतंत्र हो या ब्लॉग-तंत्र, हम वयस्क नही हो पाएंगे। हमारी अदूरदर्शिता का नतीजा हमारे मुल्क को ही झेलना होगा। मुझे लगता है कि आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार और उनके विस्थापन की समस्याओं को सुलझाने की बजाय जब तक हम उनके पक्ष मे उठने वाली आवाजों को दबाने की कोशिश करते रहेंगे तब तक हम और ज्यादा आदिवासियों को हिंसक गतिविधियों मे शामिल होने को मजबूर करते रहेंगे। उनके पक्ष मे उठने वाली वाजिब आवाजों पर सरकार भले ही उम्र-कैद का कार्क लगा दे, या गोली से ठंडा कर दे, मगर आक्रोश के उस लावे का क्या करेंगे जो जमीन के अंदर खौल रहा है और जिसे निकलने का रस्ता नही मिल पा रहा! यकीं कीजिये ऐसे माओवादियों का प्रभावक्षेत्र कम नही होगा वरन और ज्यादा ही बढ़ेगा।
"अरुंधति.....क्रान्ति....नक्सल वाद .आदिवासी ओर वेंटीलेटर पे ये देश"- इसी की बात कर रहे हैं न? ये पूरी पोस्ट मैंने कल रात ही पढ़ी थी.. गाँव छोडब नाहीं गीत भी सूना था.. अभी तो आपने लिंक ही गलत दिया है.. खुल नहीं रहा.. पर शायद इसी की बात कर रहे हैं..
जवाब देंहटाएंआपकी यह चर्चा वाकई सारगर्भित है और मुद्दे के कई बिंदुओं को गहराई से छूती है... सबसे बड़ी बात कि एक संतुलित नजरिया प्रस्तुत करते हुए पाठक को सोचने पर विवश करती है... वर्तमान चर्चा से काफी ऊँचा स्तर है उसका..
@अपूर्व और डा० साब,
जवाब देंहटाएंआपदोनों की टिप्पणियों की प्रतिक्षा थी। अपूर्व, some facts are not clear with you as far as vinayak case is concerned....इस मुद्दे पर कई सारी बातें लिखने - बताने को है। बात सिर्फ वैचारिक मुद्दे के समर्थन की नहीं रह गयी थी। there were so many other things involved. i wish, i could tell u everything...
गौतम राजरिशी जी से पूर्णत: सहमत हूँ... क्या किसी महान व्यक्तित्व को, समाज के लिए महान कार्य करने के एवज़ में नक्सलवाद जैसे हिंसक आन्दोलनों के समर्थन को जायज़ ठहराया जा सकता है??? समझ से बाहर है की अरुंधती मानसिकता को आखिर कैसे समर्थन दिया जा रहा है?
जवाब देंहटाएंवैसे इस तरह की चर्चा को व्यक्तिगत ब्लॉग पर करना ही उचित है, चिटठाचर्चा जैसे सामूहिक मंच पर करना थोडा अखर रहा है... बाकी किसी मंच पर कैसी चर्चा करनी चाहिए यह तो मंच को चलाने वालों का अधिकार क्षेत्र है, हमें कुछ भी कहने का कोई हक बनता तो नहीं है...
@सतीश जी ...हाँ उसी की बात कर रहा था ......वो इतनी विस्तृत चर्चा हुई थी ...जिसकी बातो को दोहराना नहीं चाहता था ....
जवाब देंहटाएं@गौतम .....मेजर .....किसी भी द्रश्य को देखने के बाद हर व्यक्ति अपनी सूझ बूझ ओर दूसरे स्रोतों को मिला जुला कर रख किसी द्रश्य की व्याख्या करता है ....सूचनाओं की इस भीड़ में कई सत्य प्रायोजित भी है ........दूसरी व्याख्या क्या है मेजर ?निसंकोच कहो .....
@ मेजर साब
जवाब देंहटाएं..am listening sir..I would appreciate your endeavours to extend my understanding regarding this...
Dr Saab,
जवाब देंहटाएंthere were more issues...many more issues.you really think that someone can be apprehended just for ideological support to a selected group of rebels? democracy has still not gone that bad sir...otherwise today, likes of Gilani,Arundhati,Mallik would not have been roaming free.here in this case, ideolgy-support was certainly there in abundance and then there were something much more, which no government worth its salt would have tolerated. Well off-course, only if you and me are actually taking naxalism as serious a threat as militancy in K-valley and North-East....otherwise, i withdraw my arguments.
रागदरबारी का एक शुरुआती संवाद है :जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ऒर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ऒर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है।
जवाब देंहटाएंउसई तरह इस मसले के भी कई पहलू हैं। डा.विनायक सेन अच्छे इंसान हैं, जनता का भला चाहते हैं, हिंसा का विरोध करते हैं, अच्छी नौकरी त्यागकरके जनता की भलाई के लिये लगे इसके अलावा और जो अच्छी बातें बताईं गयीं उनके बारे में वह एक पहलू है।
इसई का दूसरा पहलू यह भी है कि उनकी सहानुभूति जिन आदिवासियों के साथ है उनके ही पैरोकार नक्सलियों द्वारा सैकड़ों निरपराध और मात्र अपनी ड्यूटी बजाते हुये जवान मारे गये। ऐसे में डा.विनायक सेन घोषित नक्सली नेता से कई बार मिलते हैं तो उससे पुलिस अपनी बुद्धि से कोई निष्कर्ष निकालती और उनको मुखबिर मानती यह एक भी एक पहलू ही तो है। कई लोग नक्सली इलाके में बर्बरतापूर्वक मार दिये मुखबरी के आरोप में। ऐसे में डा.विनायक सेन के नक्सली नेता से मिलने-जुलने को अगर पुलिस मुखबरी मानती तो यह सहज प्रतिक्रिया है उसकी( सही या गलत मैं नहीं कह रहा)
गौतम राजरिशी की टिप्पणी का यह अंश बहुत कुछ कहता है :फ़ेसबुक में विनायक के समर्थन में रोज अपडेट होते स्टेटस बस एक विद्रुप-सी मुस्कान भर ला पाते हैं मेरे होठों पर।
चर्चा बहुत जमी। बधाई।
तो क्या हम यह मान लें कि POWER FLOWS THRO THE BARREL OF GUN और अपनी मांग के लिए हिंसा पर उतर आएं। हिंसा में मरनेवाले तो मासूम ही होते हैं ना... चाहे वो पुलिस हो या आदिवासी... कोई नेता तो नहीं मरता :(
जवाब देंहटाएंhey apoorv,
जवाब देंहटाएंthats all i can say for now.i have my own limitations, but that doesn't change the truth.read my last comment and please read between lines...and other than what Anoop Shukl ji has said above, things were much beyond than that.
Very well said major sahaab. "there were more issues...many more issues". I agree with you as a serving army officer you have certain limitations but as far as I'm concerned , I have no such limitations and let me tell another truth that despite of financial crises in Europe and America in last five years more than 30000 crore rupees were funded to Indian christian missionaries and its an open secrete that some of these missionaries are engaged in their nobel work of conversion in those adivashi areas. And after Kandhmal violence, there was news that Naxalites are also being funded by these missionaries.No one should get surprised if tomorrow we find that there were link between these missionaries and Mr. Binayak Sen. Thats why western media is making so much hue and cry.
जवाब देंहटाएंWas he not aware of the killing attitude and kills by those for whom he worked. Didn't he tell the court a lie that he had not told jail people that he was a relative of the person he wanted to meet in jail ? Is not Dr Binayak Sen an accomplice of people? He then should have come forward in the public much earlier to help as a social worker and extend his within the knowledge of the governments, and if disallowed should have raised an alert. Not the way he was rendering a service to the naxalites. His involvement is beyond doubt. This PUCL always make noise over state actions against terrorists, naxalites but never utter a word against the atrocities, terrorism act of these terrorists, naxalites. They talk of Adivasis, but get funded from outside nations. These International forces, with the help of PUCL, want to demoralise state and the police / armed forces.
अनुराग जी, आपने ऐसी चर्चा छेड़ दी, जिससे तमाम नई बातें जानने को मुझे मिली। प्रतिक्रिया देने वालों की जानकारी कितनी पुख्ता हैं, पता नहीं। तमाम नई धारणाएं निकलकर सामने आईं। जैसे- अमेरिका में मंदी है, इसलिए वह भारत के ईसाई मिशनरियों को पैसा दे रहा है, ईसाइयत फैलाने के लिए। माओवादियों को भी वह ईसाइयत फैलाने के लिए पैसे दे रहा है। इसके पहले माओवादियों को आईएसआई ने पैसे दिए थे। साथ ही माओ चीन के थे, तो चीन पैसे दे ही रहा है।
जवाब देंहटाएंअब उम्मीद बनी है कि कुछ बदलाव होगा। प्रतिक्रिया और गरीबों को हक न देने की कुंठा इतनी आगे बढ़ चुकी है कि जनता ही इसका जवाब दे देगी। बिहार और उत्तर प्रदेश ने लोकतांत्रिक तरीके से जवाब दिया है। उम्मीद है कि अन्य राज्य भी इसका जवाब लोकतांत्रिक तरीके से ही दे देगी।
that is why we need to appreciate dr anuraags efforts because he initiated a charcha / debate
जवाब देंहटाएंmany among us who were ignorant about such issue got to read view point of others to understand the gravity of the issue
major gautam has raised valid points
and democracy still prevails and will prevail
we dont just have to follow blindly
we may have diverse views but we stand together when it comes to our Nation
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
जवाब देंहटाएंडॉ बिनायक सेन ने अपनी शिक्षा CMC(क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज) वेल्लोर से प्राप्त की है जो छत्तीसगढ़ से बहुत दूर का इलाका है ।
indian medical association raipur पर भी काफी दबाव डालने की कोशिश की गयी इनका समर्थन करने के लिए
http://www.pravakta.com/story/18073
जवाब देंहटाएंhttp://www.pravakta.com/story/18034
Exactly, Dr. Sinha.
जवाब देंहटाएं@सत्येन्द्र .....
जवाब देंहटाएंविनायक सेन की गिरफ़्तारी से ज्यादा परेशां करने वाली चीज़ ...देश के एक बड़े हिस्से में पढ़े लिखे वर्ग का उस गिरफ्तारी को सहमति देना है ..लोकतान्त्रिक ढांचे में जहाँ तमाम किस्म के सच मौजूद है ..प्रायोजित यथार्थ ओर प्रायोजित सच के मुलम्मे में जिस तरह माओवादी "शोषण" का इस्तेमाल सरकार के खिलाफ कर इस लोकतंत्र के खिलाफ करते है ....सत्ता तंत्र" देशभक्ति" का इस्तेमाल कर .बुनियादी सवालों को पीछे छोड़ने में करता है ......"पोलिस ओर सेना के जवान' ओर "आदिवासी" टूल की तरह फिर इस्तेमाल होते है .......होते रहेगे
अनुराग जी, माओवादियों की जो भी सोच हो, उनमें जो भी भटकाव हो उस पर मैं नहीं जाता। सबसे बड़ी बात यह है कि जो समाज का मलाई खाने वाला तबका है, वह किसी भी हाल में वंचितों को हक देने के पक्ष में नहीं है। कोई भी गरीब आदमी अरुंधती राय के कश्मीर मसले पर दिए गए बयान का समर्थन नहीं करेगा। कोई भी गरीब आदमी तीस्ता सीतलवाढ़ द्वारा गुजरात में किए गए फर्जीवाड़े का समर्थन नहीं करेगा। इनके बयानों का समर्थन तो सत्ता पक्ष ही करता है, जिससे गरीबों का आंदोलन चलाने वाले कमजोर हों और लोगों को समझाया जा सके कि ऐसे ही लोग हैं तो गरीबों के हक की बात करते हैं। अब अरुंधती राय, शीतलवाड़ या दिग्विजय सिंह अगर सेन का समर्थन करते हैं तो जनता के बीच भ्रम जैसी स्थिति होती है कि सेन भी उसी जमात के हैं। सत्ता पक्ष भी तो यही चाहता है, क्योंकि वंचितों को हक दिलाने का उनका कोई उद्देश्य या मंशा नहीं है।
जवाब देंहटाएंसेन के मामले में लगता है कि न्यायधीश महोदय ने पहले ही फैसला तय कर लिया था, तथ्यों से उन्हें कोई मतलब नहीं था। हो सकता है कि न्यायधीश महोदय किसी तरीके से व्यक्तिगत रूप से माओवाद से पीड़ित रहे हों और उन्होंने भी मान लिया हो कि सेन माओवादी हैं। लेकिन अगर बेबुनियाद रूप से यह कह दिया जाए कि वह पुलिस, राज्य की भाजपा सरकार या किसी ऐसे तत्व के प्रभाव में फैसला दिया गया है तो जनता में भ्रम होता है।
सेन वास्तव में इस सत्ता व्यवस्था के लिए खतरनाक हैं। इसका कारण मुझे यह लगता है कि वे वास्तव में वंचितों की मदद को समर्पित थे और जनता उनकी बात समझती थी। निश्चित रूप से ऐसे में सत्ता पक्ष को लगा होगा कि अधिकार के प्रति अगर जागरूकता आती है तो जनता लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक (जो भी तरीका अपना पाएगी) तरीके से अपना हक मांगेगी और तब सरकारों को कारोबारियों के साथ मिलकर प्राकृतिक संसाधनों को लूटने, जनता को उनकी जमीन से बेदखल करने और उनका अनवरत शोषण करने का मौका नहीं मिलेगा। ये काम अरुंधती, तीस्ता या अन्य कोई मानवाधिकारवादी या एसी कमरे में बैठकर लोगों की बुद्धि को खाकर जीने वाला बुद्धिजीवी नहीं कर सकता।
http://newsforums.bbc.co.uk/ws/hi/thread.jspa?forumID=13289
जवाब देंहटाएंand
http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2010/12/post-139.html#commentsanchor
मुझे कुछ नहीं कहना बल्कि थोडा और समझना है.... कम से कम कुछ साल और....
पढ़ रहा हूँ जान रहा हूँ...
जवाब देंहटाएंअभी मुझे भी कुछ नहीं कहना बल्कि थोडा और समझना है...
विनायक सेन के विषय में किसी भी पाले में नहीं पड़ना चाहूँगा.
क्यूंकि तथ्य का ज्ञान नहीं है. बस सतही बातें पता हैं ब्लॉग और समाचारों के द्वारा. अपने को एक हफ्ते का समय देता हूँ...
हाँ एक बात का उत्तर देना ज़रूर चाहूँगा क्यूंकि उसके लिए तथ्यों की आवश्यकता नहीं है:
मगर एक ख़ास बिनायक सेन के लिए ही क्यों इतनी हाय-तोबा ? बहुत से बिनायक सेन है इस देश में हम उनकी क्यों अनदेखी करते है ?
@P.C. Godiyaal: सर , बात इतनी सी है की एक समय में एक ही मुद्दे को उठाया जा सकता है. गरीबी , नक्सली, एड्स, भ्रष्टाचार, घूसखोरी, क्रिकेट इनके लिए तो समाचार में भी अलग अलग सेगमेंट होते हैं. एक ही समय में एक ही कविता में एक ही कहानी में, एक ही लेख में या एक ही व्यक्ति द्वारा सारे मुद्दे तो उठाये नहीं जा सकते. या तो फ़िर इसलिए चुप करके बैठे रहो कि, बाज़ीचा - ए - अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे...
@ Gautam Sir: Can't comment on your comments as well 'cuz terrorist of one 'phase of time' or 'place' or 'society' can be treated as 'Revolutionist' of other 'phase of time' or 'place' or 'society' respectively. So, Question: If there are two opinion for any person or phenomenon for that matter then "हमसब एक विभाजित विचारधाराओं में जीना पसंद करते हैं।" is good or bad or is just 'is' ?
जवाब देंहटाएंdemocracy has still not gone that bad sir...otherwise today, likes of Gilani,Arundhati,Mallik would not have been roaming free.
जवाब देंहटाएंagreed up to certain extent( धुंआ उठा है तो आग...), however,at the same time, logical enough can't this be treated as the question and reason of debate as well? As in "Why democracy is/was so harsh in case of Dr. Vinayak Sen?" I repeat that (at least as of yet) don't know whether it (democracy) is indeed harsh or not ? but doesn't it gives enough reasons to get involve in debate for. (Sad but true that we are only able to discuss the things. And we are good at it.)
TBC....
dear darpan,
जवाब देंहटाएंthings are not that simple as they apear.dont just pick up one sentence of my comment and build your argument.politicians do that.the particular sentence "democracy has still not gone..." is part of the whole comment.please read carefully.the democracy has not gone bad in this particular case, because the support was not restricted to ideological level only.it had surpassed the thin line that separates ideology from direct support.i wish, i could write the details here...in this war{and believe me,its almost a war for Police and PMF out there} you can not afford to be divided.you just can't say that you are against the militancy in kashmir, but you favour the cause of naxalites.you can not divide your priorities here and if you are doing that then it is simply hippocracy...
call me sometimes, will disscuss in lenght and will attempt to wisen you on the issue.
i rest may case here.no more comments!
अफ़सोस... दिल जा पड़ा गढ्ढे में,
जवाब देंहटाएं-चिटठा चर्चा पर एक से एक बेकार लेखक अपना ज्ञान उंडेलते रहते हैं और शायद इसीलिए चिटठा चर्चा की साख बहुत गिरी है...
-अनूप शुकुल को चाहिए कि वे कुछ अच्छे लेखकों विचारकों से वहां लिखने का आग्रह करें तो शायद वह चर्चा अच्छी बन पड़े...
इस प्रकार की लाइनों का मतलब ?
चर्चा चारों दिशाओं में उछाल मार रही थी और साथ उत्सुकता भी ....एक हीरो को खलनायक साबित करने का षड्यंत्र डाक्टर साहिब की पोस्ट में कुछः स्पष्ट हुआ था लेकिन टिप्पणियों ने उसे फिर धुंधला कर दिया....
जवाब देंहटाएंज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey said...
जवाब देंहटाएंसंजीत त्रिपाठी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी:
आदरणीय ज्ञान जी,
समय की कमी के चलते एक लम्बे समय से आपकी पोस्टें देर से पढ़ रहा हूँ, कमेन्ट तो कम ही दे रहा हूँ,
आज स्वास्थ ठीक न होने की वजह से घर पर ही हूँ दिन भर से, तो ऐसे में आपके इस पोस्ट पर कमेन्ट किया , कमेन्ट डिसेबल्ड हैं इसलिए ईमेल से भेजने की गुस्ताखी कर रहा हूँ,
http://halchal.gyandutt.com/2011/01/blog-post.html
---
हम्म, पता नहीं डॉ विनायक सेन निर्दोष हैं या दोषी लेकिन छत्तीसगढ़ में आमजन इस फैसले को सही मान रहा है. इसके पीछे भी कारण हैं, वो यह कि यहां हर दिन नक्सली वारदात हो रही है, लोग रोजाना ही मरे जा रहे हैं, कभी सड़क खोदी जा रही है तो कभी पुलिया उडाये जा रहे हैं, अब ऐसे में कोई नक्सलियों से सहानुभूति रखे तो आमजन क्या सोचे?
दूसरी बात जो कही जा रही है कि डॉ विनायक सेन ने यह किया वह किया. मैं छत्तीसगढ़ में ही पैदा हुआ हूँ , लेकिन छत्तीसगढ़ के अख़बारों में डॉ विनायक सेन द्वारा किए गए कार्यों का उल्लेखन कभी पढ़ा हो ऐसा मुझे याद नहीं, मिडिया पर सरकारी दबाव की बातें तो पिछले दस साल की ही है न, उस से पहले तो दबाव नहीं था या कम था, फिर क्यों नहीं छापा अख़बारों ने डॉ विनायक सेन के यहाँ किए गए कार्यों को, जबकि यहाँ वामपंथ विचारधारा वाले अख़बार भी रहे हैं? और जब अख़बारों तक में उनके कार्य नहीं छपे हैं तो आमजन क्या जानेगा और उनकी सहानुभूति का वही अर्थ निकलेगा जो निकाल ही रहा है.
ऊपर एक सज्जन ने कहा कि "पीयूसीएल जेपी द्वारा स्थापित संस्था है, उसका माओवाद से कोई लेना देना नहीं है". सहमत हूँ लेकिन यह कहने से पहले यह याद रखें कि कोई भी संस्था अपने किसी सदस्य की पूर्णरुपेण गारंटी कैसे ले सकती है की उसकी सहानुभूति किसके साथ है? बतौर उदाहरण कांग्रेस की स्थापना और शुरूआती सदस्य काफी भले लोग थे, लेकिन अब उसका क्या हाल है?
दोस्तों, दूर बैठ कर गाल बजने वालो से हमेश ही एक निवेदन करता आया हूँ कि कभी छत्तीसगढ़ आइये और एक महीने ही बस बस्तर के अंदरूनी इलाको में रह कर देखिये.... हालात क्या हैं...... फिर सहानुभूति किसके तरफ होगी ये देखते हैं....
वैसे मेरा मानना है कि डॉ सेन को सुप्रीम कोर्ट से रहत मिल जाएगी.
बाकी रही चिटठाचर्चा की बात, तो करने वाले और समूह बनाने वाले ही भला जानें ...
नव वर्ष की बधाई और शुभकामनाएं
January 3, 2011 7:51 PM
http://halchal.gyandutt.com/2011/01/blog-post.html में संजीत त्रिपाठी की टिप्पणी पर भी ध्यान दिया जाए
जवाब देंहटाएंयह 1980 की बात है. दल्ली राजहरा में भिलाई इस्पात संयंत्र की मजदूर यूनियन की उपाध्यक्ष कुसुम बाई प्रसव काल में थीं. मामला दाइयों के बस के बाहर हो गया और संयंत्र के अस्पताल ने उन्हें भर्ती करने से इनकार कर दिया. इसलिए कि वे संयंत्र की नियमित मजदूर नहीं थीं. मजबूरी में उन्हें कोई 80 किलोमीटर दूर स्थित दूसरे अस्पताल ले जाया जाना था, लेकिन उससे पहले ही उनकी मौत हो गयी. इस घटना से गुस्साए आदिवासियों ने गांव-गांव उनकी शव यात्रा निकाली, ताकि बताया जा सके कि जिनके लिए वे अपना खून-पसीना एक करते हैं, उनके लिए मजदूरों की जिंदगी की कोई कीमत नहीं. इसके एक साल बाद खान मजदूरों की पहल पर शहीद अस्पताल की स्थापना हुई. शुरुआत क्लीनिक से हुई, जो डेढ़ दशक में 60 बिस्तरों का अस्पताल हो गया. डॉ बिनायक सेन इस बड़े काम के प्रणेता और नियामक रहे हैं.
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ़ के हर गांव में मितानिन दीदी हैं. मितानिन माने दोस्त. यह उन्हीं की मुस्तैदी का नतीजा है कि राज्य में शिशु मृत्यु दर में अभूतपूर्व कमी आई है. उन्होंने सुरक्षित प्रसव और टीकाकरण कराने का कार्यभार संभाला. प्रसव के दौरान और उसके बाद के अवैज्ञानिक तौर-तरीकों को बदलने की बड़ी भूमिका का निर्वाह किया. वे आंगनबाड़ी केंद्रों के कामकाज को दुरुस्त करने में भी जुटीं. मितानिन दीदी राज्य के हर गांव में जाना-पहचाना नाम है, जो सभी के सुख-दुख की साथी है और जिसके जिक्र के बगैर किसी भी गांव की तसवीर अधूरी है. डॉ बिनायक सेन इस प्रयोग के जनक हैं, जिसकी सफलता को राज्य सरकार ने स्वीकारा और 2000 में उसे राज्य स्तर पर सरकार और नागर समाज की साझेदारी के कार्यक्रम के तौर पर लागू भी किया.
छत्तीसगढ़ देश के बेहद गरीब पांच राज्यों में शामिल है. आदिवासी बहुल इस राज्य में खुद आदिवासी दूसरे दर्जे के नागरिकों की हैसियत में पहुंचा दिए गए हैं. सरकार और नक्सलियों के बीच हिंसक लुकाछिपी का खेल चालू है और दो पाटन के बीच आदिवासी हैं. जार्ज बुश की तर्ज पर मुख्यमंत्री का कहना है कि जो सलवा जुडूम के कैंप में नहीं, वे नक्सली या उनके हमदर्द हैं.
हालांकि सलवा जुडूम के कैंप किसी नरक से कम नहीं. कैंपों में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं बस कहने भर को हैं. गंदगी का राज है और पीने के पानी का भारी अकाल है. इस कारण दस्त-उल्टी जैसी शिकायतें आम हैं. बंदूक की नोक पर सलवा जुडूम के कार्यकर्ता, जिन्हें एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) का दर्जा हासिल है, आदिवासियों को उनके गांव से हांक कर अपने कैंपों में ले आते हैं और उन्हें गुलामों की तरह रखते हैं. उनके नाम पर आनेवाली सरकारी सुविधाओं को लूटते हैं, बलात्कार करते हैं और नक्सलियों के नाम पर बेकसूरों की हत्याएं करते हैं. इस अन्याय में, जाहिर है कि पुलिस और अर्धसैनिक बल बराबर के हिस्सेदार हैं. जो कैंपों में नहीं हैं, वे कल्याणकारी योजनाओं से वंचित हैं और नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाइयों के पहले शिकार हैं.
जवाब देंहटाएंसबसे सुरक्षित काम है खामोश रहना. ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर. लेकिन डॉ बिनायक सेन चुप नहीं रह सके. रोगी की सेवा और इलाज की तरह उन्होंने सवाल उठाना और जवाब मांगना भी अपना धर्म समझा. मानवीयता और लोकतांत्रिकता की पैरोकारी की. सरकार-प्रशासन की नीयत और कार्रवाइयों को कटघरे में खड़ा किया. और जो गांधीजी के तीन बंदरों की मुद्रा में न बंध सके, वह शांति का दुश्मन है, कानून-व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा है.
आरोप है कि डॉ बिनायक सेन नक्सलियों के पत्रवाहक की भूमिका में थे कि उन्होंने रायपुर जेल में बंद नक्सली नेता नारायण सान्याल का पत्र रायपुर के व्यवसायी और नक्सलियों के साथ रिश्ता रखने के आरोपी पीयूष गुहा तक पहुंचाया. जबकि वह जेल अधिकारियों की अनुमति से बीमार नक्सली नेता का इलाज कर रहे थे. उन पर राज्य के स्टेट पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया है. इस काले कानून के तहत एक हजार से ज्यादा लोग विभिन्न जेलों में बंद हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ता और डॉ बिनायक सेन की पत्नी प्रोफेसर एलिना सेन के मुताबिक इस कानून के तहत पहली गिरफ्तारी 12वीं दर्जे की छात्रा की हुई थी, इसीलिए कि उसके दोस्त का राजनैतिक विचार असुविधाजनक माना गया.
यह दुखद है कि हर स्तर पर डॉ बिनायक सेन की जमानत याचिका को खारिज कर दिया गया. सर्वोच्च न्यायालय ने भी बगैर कोई कारण बताए यही किया. क्या संयोग है कि वह तारीख थी 10 दिसंबर 2007 – मानव अधिकार दिवस. गिरफ्तारी से पहले उन्हें भगोड़ा तक बताया गया, जबकि वह कोलकाता में थे और बीमार थे. लेकिन इस तोहमत से बचने के लिए वह बीमारी में ही रायपुर पहुंचे और जैसा कि तय था, तुरंत हिरासत में ले लिए गए. हत्या, बलात्कार, आगजनी, दंगा, अपहरण, तस्करी और माफियागिरी जैसे जघन्य अपराधों के पराक्रमी जमानत पर फौरन रिहा हो जाते हैं, और अक्सर चुनावी दंगल में उतर कर माननीय भी हो जाते हैं. और यह विडंबना है कि डॉ बिनायक सेन की रिहाई के लिए बाकायदा अभियान छेड़ने की जरूरत पड़ती है. 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं तक को सामने आना पड़ता है. पूरी दुनिया में हमारी भद पिट रही है. तनिक सोचिए डॉ रमन सिंह जी, डॉ मनमोहन सिंह जी. सविनय निवेदन है कि फिर से विचार कीजिए मी लॉर्ड.
जवाब देंहटाएंthis article is taken from "CHOUTHI-DUNIYA"...
http://www.chauthiduniya.com/2009/03/dr-vinayak-sen-kyanaxli-hai.html
जवाब देंहटाएंमुझसे बहुत से लोगी ने मेल में कहा वे इस मामले से अनभिग है ....आप गूगल पर बिनायक सेन टैप करेगे तो कई लेख आपको मिल जायेगे......पक्ष -विपक्ष में ......
मसलन विपक्ष में ये लेख
http://www.vpvaidik.com/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%95-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82
http://jansattaexpress.net/articles/5053
आज तक कोई ऐसी मिसाल है कि भारत के दूरस्थ स्थान में रहने वाले एक व्यक्ति के लिए 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं तक को सामने आना पड़ता है
जवाब देंहटाएंhttp://chhattisgarhwatch.com........सबूत-जो-बने-सजा-के-आधार
जवाब देंहटाएंhttp://www.vpvaidik.com
http://thatshindi.oneindia.in/news/2010/12/24/binayakprofilevv.html
आदरणीय सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ , कि पहले मेरे प्रदेश में आइए और फिर विनायक सेन अथवा किसी और की बात करिए. अगर आज कश्मीर में आतंकवादी वहाँ के बाशिन्दो की मदद कर रहे हैं, उन्हे दवाई, रोटी कपड़ा दे रहे हैं और बदले में रहने के लिए छुपने के लिए पनाहगाह माँग रहे हैं, तब तो वो लोग भी आपकी नज़र में महान होंगे......सिर्फ़ समाज कल्याण करने से आपको देशद्रोह का लाइसेन्स नहीं मिल जाता है. इतने सालो में क्या किया नक्सलियों ने समाज के हित में, कितने स्कूल खोले और कितने स्कूल बम से गिराए, पहले यह तो पता कर लीजिए. ब्लॉग में चर्चा करना बहुत आसान है. कितने हस्पताल नक्सली चला रहे हैं, कितने लोगो को तकनीकी शिक्षा दे रहे है, बंदूक हाथ में देकर बच्चो को रोज़गार दे दिया, फिर जब कश्मीर में उमर अब्दुल्लाह या यासीन मलिक जब आतंकवादियों का समर्थन करते हैं तब यह वामपंथी विरोध क्यों करते हैं. यह सब यहाँ के यासीन मलिक हैं. नक्सली हिंसा का चाहे आप सीधा समर्थन करिए या वैचारिक समर्थन, आप भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं. जाने किस क्रांति की बात करते हैं यह अरुंधती रॉय जैसे लोग, जब मेरे प्रदेश के ७५ जवानो को गोलियों से भून दिया जाता है तब यह वामपंथी किसी कॉफ़ी हाउस में बैठ कर कॉफ़ी पी रहे होते हैं. जब बस्तर का कोई स्कूल या सरकारी दवाखाना या कोई पुल बम से नेस्तनाबूद कर दिया जाता है तब बस्तर के दिल पर क्या गुज़रती है, यह वामपंथी क्या जाने. खैर मैं यहाँ सिर्फ़ यह कहना चाहता हूँ की एक विचारधारा के समर्थन में इतना मत बह जाइए की आपकी मानवता ख़त्म हो जाए......आपका अपना व्यक्तित्व विलीन हो जाए.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद