गुरुवार, अक्तूबर 06, 2005

हवाएँ राह चलते भी हमें पहचाने लेती हैं

लोग पूजा कर रहे हैं लताजी की परेशान हैं देबाशीष। खेलों की देशभक्ति के विकेंद्रीकरण के बारे में भी विचार करते को कहते हैं। पड़ोसी के दुख को महसूसते हुये सुनील दीपक का ऐसा कहना है कि दुनिया सिमट रही है लेकिन हम अपने घर में अजनबी हो रहे हैं । पूरे नौ महीने (लिखने) के बाद स्वामीजी स्वामीजी बता रहे हैं वो हिंदी में क्यों लिखते हैं। गाली का भी सामाजिक महत्व होता है कुछ ऐसा कहना है फुरसतिया का। सूरजदेव के बढ़ते कदमों को देखकर मिर्ची सेठ उन्हें अपने यहांले गये। सानिया, समाचार और सनसनी की जानकारी मिलेगी देशदुनिया में। कंकर स्त्रोत पढ़कर चलो कनाडाजीतू के साथ आप भी कहोगे वाहक्या बात है। मयकसी में खुशी देखकर नारदजी भी व्यस्त हो गये।

रविजी ने लिखा निबंध लेकिन किसी ने भाव नहीं दिया । आप पढ़िये बतायें कैसा है। विषय है- धर्मनिरपेक्षता-एक नई सोच। देवेंद्र आर्य नेतूफानी गजल लिखी लेकिन संजय विद्रोही ने आत्मसमर्पण कर दिया इससे अशोक को शोक हुआ कि लोग लंबी कविता कैसे लिख लेते हैं। बाप भी अकेला हो सकता है यह बता रहे हैं शशि सिंह। इंद्रधनुष काफी दिन बाद दिखा लेकिन पता नहीं परदा झीना क्यों है।अनुगूंज १४ को समेटा आलोक ने तथा ए,बी,सी कथा कही। समाचार की दुनिया के कुयें में पड़ी है अंग्रेजी की भांग और दैनिक जागरण जैसे हिंदी दैनिक भी उसी के दीवाने हैं कुछ ऐसा बता रहे हैं आशीष। आपको देवेंद्र आर्य की एक गज़ल तो यहीं पढ़ा दें इसे टाईप करने में रविरतलामीजी का पसीना बहा है।
हवाएँ दो रुपए में एक कप तूफान लेती हैं
फिर उसके बाद राहत की मलाई छान लेती हैं।

कोई मौसम हो, जैसे औरतें जब ठान लेती हैं
ख़ला में भी हवाएँ अपने तम्बू तान लेती हैं।

बंधी तनख़्वाह वाले हम, छिपाना भी जो चाहें तो
हमारी जेब के पैसे हवाएँ जान लेती हैं।

ग़रीबी की तरह कमज़र्फ होती हैं हवाएँ भी
जरा सी सांस क्या मिलती है, सीना तान लेती हैं।

हवा को हम भले पहचानने में भूल कर जाएँ
हवाएँ राह चलते भी हमें पहचाने लेती हैं।

हम अपने घर में हैं, बाज़ार जाते भी नहीं लेकिन
हवाएँ फिर भी हमको अपना ग्राहक मान लेती हैं।

हमारी तरह थोड़े ही कभी तोला, कभी माशा
हवाएँ ठान लेती हैं तो समझो ठान लेती हैं।

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