शनिवार, सितंबर 04, 2010

एक सौम्य चिड़िया और उफ्फ ये अंदाज

मेरी पोस्ट पर एक युवा मित्र ने मुझे सुझाव दिया है कि मैं अपनी कलम का रुख बदल दूँ। उनका कहना है कि स्त्रियों को लेकर मेरी कलम एक तरफ ही चलती है। उनका सुझाव है कि मुझे स्त्रियों के शरीर को अधिक ढकने के लिए कुछ करना चाहिए। गर्मी की भरी दुपहरी उनके शरीर का पूरा ढका न होना मित्र को कष्टप्रद लगता है। यदि वे अपने शरीर को गरीबी के कारण नहीं ढक पा रहीं तो यह चिन्ता का विषय है किन्तु यह चिन्ता सर्दियों में अधिक सही होगी।

अब सोच रहा हूँ शुरूआत शायद इससे करता तो ज्यादा अच्छा रहता -
बहुत लज्जा की बात है कि इस देश में जहाँ नारी तुम यह हो, वह हो, कहा जाता है वहाँ पति अपनी पूर्व मुख्यमंत्री पत्नी की औकात सार्वजनिक तौर पर बता देते हैं। सोचिए कि जो स्वयं किसी का हुक्म बजा रही हो उसके आदेशों पर एक पूरा राज्य काम कर रहा था।

शनिवार की चर्चा और उसकी शुरूआत ऐसे अंदाज में? नही, नही ये तो अपना अंदाज नही, चर्चा का आगाज कुछ हल्के फुल्के अंदाज में होना चाहिये खासकर तब जब जिक्र किसी सौम्य चिड़िया का छेड़ा जा रहा हो। इसलिये ये ठीक रहेगा -
मैंने माँ को कहा कि आज मदर्स डे है। जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैंने सोचा उन्होंने सुना नहीं या समझा नहीं। देखा तो वे वापिस अपनी पुस्तक में उलझ गईं थीं। मैंने उनका ध्यान खींचने के लिए फिर से कहा कि आज मदर्स डे है। आजकल कभी मदर्स डे, कभी फादर्स डे, तो कभी फ़्रैन्डशिप डे मनाया जाता है।

माँ बोलीं," हाँ जानती हूँ। हमारे जमाने में तो केवल एक डे होता था, मन्नाडे!"

तो देखे आपने आज की चिट्ठेकारा के तेवर और अंदाज, सीधे सपाट शब्दों में अपनी बात कहने वाली ये चिट्ठेकारा हैं, मैं अभी से नाम क्यूँ बता रहा हूँ, थोड़ा ठहरिये पहले कुछ और बाँच लीजिये।

स्कूल के टाईम पर काफी डरावनी फिल्में देखी थीं, जिनमें से कुछ रामसे ब्रदर की भी थी, इन फिल्मों में अक्सर ऐसा होता था कि कुछ लोग विरान पड़ी किसी हवेली में जाते थे और वहाँ पड़ा कोई संदूक, आलमारी या तहखाने में पड़ा ताबूत मस्ती मस्ती में खोल देते थे और उनकी इस हरकत का अंजाम होता था सालों पहले दफन किसी ड्रेकुला नुमा प्राणी का फिर से जीवित होना। अब आप जरूर सोच रहे होगें ये कहानी का भला यहाँ क्या काम? वैसे तो कोई काम नही बस इन मोहतरमा का ये आलेख पढ़ कर ये सब याद आ गया, जिसमें ये बताती हैं कि ईस्ट इंडिया कम्पनी फिर से वापस आ रही है और इसे पढ़कर हमें डरावनी फिल्मों की याद आ गयी तो अब हमारी क्या गलती, कहानी तो मिलती जुलती सी है ना -
असहाय, गरीब को अन्तर नहीं पड़ता कि उसे कौन लूट रहा है। लूटने वाला अपने देश का हो तो कम कष्ट नहीं होता और पराए देश का हो तो अधिक कष्ट नहीं होता। उसे तो अन्तर केवल लुटने या न लुटने की स्थिति से पड़ता है। यदि ऐसा न होता तो लूट के विरुद्ध इतने आन्दोलन न चल रहे होते। लोग अपने देशवासियों के स्विस बैंक में बढ़ते धन से तृप्त रहते। यह खुशी उनकी भूख प्यास भुला देती।

बच्चों के अनुशासन और टीचर के कुशासन को लेकर ये आलेख उन्होंने लिखा है, पढ़कर ही आँखों के आगे ऐसे ऐसे चित्र घूम रहे हैं कि इस पर ज्यादा ना कुछ कह सकता हूँ ना यहाँ " " में कुछ दे सकता हूँ। हाँ इतना बता सकता हूँ कि यहाँ बच्चे के ऊपर किसी ने भी हाथ उठाया, घर में या स्कूल में या कहीं और जेल की सजा तो मिलती ही है साथ में बच्चा भी हाथ से जाता है। और अगर अभी भी आपको हमारी इस बात पर यकीन नही की मारने पीटने पर बच्चे कैसे हाथ से जा सकते हैं तो आप हिटलर की कस्टडी पढ़कर देख लीजिये, दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा।

ऊपर दिये गये लिंक पढ़कर आप की समझ आ ही गया होगा हमने शुरू में ही उफ्फ ये अंदाज क्यों कह दिया था। थोड़ी मशक्कत करनी पड़ी लेकिन एक हलका फुलका आलेख हमने ढूँढ ही निकाला, इसमें ये लिखतीं है, लिखती क्या हैं, एक किस्सा बताती हैं -
को छू रे तू भागवान, न पूछणीं न गाछणीं लमालम भीतरी उणीँ ?

बहुतों को समझ नही आया ना? मतलब मैं बताऊँगा नही क्योंकि आपका मजा खराब हो जायेगा, इसलिये आप खुद जाकर पूरा किस्सा सुन लीजिये।

अगर आप अभी तक इन चिट्ठाकारा को नही पहचान पाये, तो एक लास्ट हिंट के रूप में इनकी लिखी कविता यहाँ दे देता हूँ, शायद इसे पढ़कर समझ आ जाये -
प्रकृति से रिक्त
रंगों से अछूती
धूल के गुबार हैं।

न कोई आम्रमंजरी
न कोई मंजरी महक
डीजली,पैट्रौली बास है।

कोयल नहीं कूकती
चिड़िया नहीं चहकती
वाहनों की बस गूँज है।

सरसों नहीं फूलती
न गेहूँ की बालियाँ
बोनसाई बरगद ही वृक्ष है।

ठंड तो पड़ी नहीं
अंगीठी सेकी नहीं
ए सी ने गिराया तापमान है।

हृदय में न उमंग
मन में न तरंग
ये ही क्या वसंत है?

जो नही पहचान पाये उनके लिये बता दूँ कि आज हम चिट्ठाकारा घुघूती बासूती और उनकी लिखी कुछ पोस्टों की चर्चा कर रहे थे। घुघूती उत्तराखंड की एक लोकप्रिय और सौम्य चिड़िया है जो वहाँ हर किसी के दिल में रची बसी है, ज्यादा जानकारी वो यहाँ दे रही हैं। आज का गीतः सौम्य चिड़िया की जब बात चल रही हो तो गीत भी कुछ ऐसा ही होना चाहिये, इसलिये घुघूती समेत आप सब की नजर है आज ये गीत - धीरे धीरे मचल, ऐ दिले बेकरार, कोई आता है

अमर दादा की चर्चा को भी गीत से सजा दिये हैं, चमेली की खुशबू यहाँ तक आ रही है।


इनके लेख पढ़कर आप को मानना पड़ेगा कि वो एक मजबूत ईरादों वाली महिला हैं और किसी भी विषय में अपने विचार वो बड़ी बेबाकी से रखती हैं। हमको उनका अंदाज इसलिये भी पसंद है क्योंकि बगैर किसी राग लपेट सीधे सीधे वो अपनी बात कह देती हैं। एक स्त्री होने के नाते वो समाज में स्त्री की स्थिति और उनके हालातों को अच्छी तरह से समझती हैं और स्त्री सम्बन्धी पोस्ट में इसे आप नोट भी कर सकते हैं।

बात कलेवर की: इनके चिट्ठे का डिजाईन काफी सादगी भरा है, फालतू का ताम-झाम इन्होंने भी पालकर नही रखा लेकिन चिट्ठे के हैडर पर लगाया चित्र जरूरत से कुछ ज्यादा ही बड़ा है। सबकी अपनी अपनी पसंद होती है लेकिन मुझे लगता है कि इस चित्र की हाईट कम से कम आधी कम होनी चाहिये और चौड़ायी थोड़ा सा ज्यादा। उनके लेख पढ़कर लगता है इस बात को उन्हें नही बल्कि उनके जमाताओं (यही शब्द था ना घुघूती जी) को कहना चाहिये।

अपनी बातः पिछली चर्चा में अनूप जी ने गीतमाला का जिक्र छेड़ा था, इसलिये अब से शनिवारी चर्चा में एक और एडिशन मिलेगा, आज का गीत। चूँकि इसका ख्याल अभी अभी बना, इसलिये आज अपनी ही दुकान का माल परोसे जा रहे हैं लेकिन अगली बार से आपको दूसरों की दुकान में रखे गीतों के व्यंजन भी परोसे जायेंगे। अगर आप को ये पसंद ना आये तो कहने में हिचकयेगा नही, हम अगली बार से इसे हटा देंगे और हमें मेहनत थोड़ा कम करनी पड़ेगी।

पिछली चर्चा में ही सतीश जी ने टिप्पणी छोड़ी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि शायद ये बेहतर होता अगर मैं ये पोस्ट अपने व्यक्तिगत ब्लोग में डालता। सतीश जी, अगर मैं ऐसा करता तो शायद मेरी फीड के पाठक बढ़ जाते लेकिन फिर सभी चिट्ठे या चिट्ठाकारों की चर्चा तो नही हो पाती ना क्योंकि व्यक्तिगत ब्लोग में जगह व्यक्तिगत पसंद को ही मिलती। और वैसे भी चिट्ठा चर्चा का सही मंच चिट्ठा चर्चा ही है। टिप्पणियों की संख्या से कभी भी किसी पोस्ट को नही परखना चाहिये, मैं जब ९वीं या १०वीं में था तब मैंने एक रूसी लेखक की उपन्यास/किताब पढ़ी थी, शायद लियो टॉलस्टॉय की वार एंड पीस। एक जगह पर दिये शब्द मुझे अच्छी तरह से तो याद नही लेकिन कुछ ऐसा लिखा गया था, जब एक व्यक्ति (शायद नायक) किसी पहाड़ी से मिलता है - "तुम पहाड़ी लोग इतने दुर्गम जगहों पर, इन खतरनाक रास्ते वाले पहाड़ों पर घर क्यूँ बनाते हो, यहाँ क्यों रहते हो। यहाँ तुमसे मिलने कोई भी तो नही आ सकता, सबसे अलग से रहोगे, कोई जानेगा तक नही। पहाड़ी कहता है - हम यहाँ रहते हैं क्योंकि ये पहाड़ हमें प्यारे हैं, ये हमारी रक्षा करते हैं, हमारे अपने हैं। जो भी इन्हें प्यार करता होगा वो इन पहाड़ों को ढूँढ ही लेगा, इन रास्तों में चलने का तरीका बना ही लेगा और जिन्हें इन पहाड़ों से प्यार नही उनसे मिलने की हमें भी कोई विशेष इच्छा नही"। जिसमें ऐसा लिखा गया था वो किताब कोई और हो सकती है, कहने का तरीका यानि शब्द मेरे हैं जो अलग हो सकते हैं लेकिन अर्थ कुछ ऐसा ही था। आपके विचारों का सम्मान करता हूँ लेकिन अभी यहाँ इस चर्चा में टिप्पणी की संख्या से नजर हटाईये और हमारे इस शेर का लुत्फ उठाईये। एक अच्छे खासे शेर की बोटी बोटी अलग कर उसे अपने हिसाब से जोड़ के फिर से शेर के रूप में पेश कर रहा हूँ -

हम कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नही होती
वो आह भी भरते हैं तो छप जाते हैं अखबार

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25 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी चर्चा के तो चर्चे ही चर्चे हैं ।

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  2. बहुत सुन्दर!

    पिछली बार की चर्चा के बाद से अब शनिवार का बेताबी से इंतजार होने लगा है। घुघुती जी के बारे में अच्छी तरह से पता है लेकिन इस तरह से उनके बारे में पढ़ना अपने में बहुत अच्छा अनुभव है।

    शनिवारी गीतमाला की फ़िर से शुरुआत देखकर बहुत अच्छा लगा।

    टॉलस्टॉय की वार एंड पीस का उद्धरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा।

    हेडर के बारे में अपनी राय पर अमल करके देख लीजिये न भाई। आप तो चर्चा के न जाने कब से एडमिनिस्ट्रेटर भी हैं।

    बहुत अच्छा लगा आज की चर्चा पढ़कर।

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  3. चर्चा का यह नया आयाम खूबसूरत है।

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  4. ..घुघूती उत्तराखंड की एक लोकप्रिय और सौम्य चिड़िया है ..चिड़िया वाली यह पोस्ट बहुत अच्छी है।
    ..आज की चर्चा पढ़कर आनंद आ गया।

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  5. घुघूती जी से कौन परिचित नहीं है ...निर्भीक और निष्पक्ष लेखन है उनका ...
    अच्छी चर्चा , अच्छे लिंक्स और सबसे अच्छा गीत ...इसी मूवी का गीत ." कुछ दिल ने कहा , कुछ भी नहीं "...भी बहुत खूबसूरत गीत है ..!

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  6. बहुत अच्‍छा लगा घुघूती जी के बारे में चर्चा पढ़कर। धन्‍यवाद।

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  7. GB mam is a writer par excellence and she is a crusader of woman issues . In times of blog turbulence she always makes it a point to give hard hitting comments in favour or against the issue

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  8. सार्थक शब्दों के साथ अच्छी चर्चा, अभिनंदन।
    @ पिछली बार की चर्चा के बाद से अब शनिवार का बेताबी से इंतजार होने लगा है।
    हम्म!

    फ़ुरसत में .. कुल्हड़ की चाय, “मनोज” पर, ... आमंत्रित हैं!

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  9. चर्चा का ये अन्दाज़ भी काबिल-ए-तारीफ़ है।

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  10. पता नहीं कहां से शुरू हो गई चर्चा, क्षमा करना. समझ नहीं आई.

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  11. धन्यवाद, तरूण भाई.. आपने मेरी रुकी साँसें लौटा दीं । अब तक कुल-ज़मा यह लग रहा था कि चिट्ठाचर्चा ने निष्पक्षता के विरोध में अपना आधा शटर गिरा रखा है । खैर.. रात गयी.. बात गयी.. बात को पकड़ कर बैठोगे तो यह दूर तलक भागती है ।

    मैं कहता न था कि,, " जैको बाप रिछैलै खायो.. ऊ काल क्वैल देख डरा " जिसके बाप को कभी ( काले ) रीछ ने खा लिया था, वह आज तक काले कोयले तक को देख कर डरता है ! अख़बार की आपने भली कही.. " पौथी न पातड़ी नाम नरैण पँडित :) " इसका अर्थ बताने की आवश्यकता नहीं है, निमड़िया गौंक के घिनौड़ पधान बने रहने की चाह रखने वाले समझ गयें होंगे । अन्य पाठक इसे कोई कूट-सँदेश न समझें, पहाड़ का न होते हुये भी इससे उतरने के बाद वाले हैंग-ओवर में तरूण दाज़्यू एक किक लगा देते हैं । सच है, पहाड़ों का अपना एक अलग नशा होता है, आज घुघूती दिद्दा का बयाँ इसकी गवाही है । अपनी सीमाओं में रह कर घुघूती दिद्दा की साफ़गोई का मैं ब्लॉगिंग के शुरुआती दिनों से ही कायल रहा,

    घुघुता जी की बीमारी के दौरान दी गयी टिप्पणियों के बाद मैंनें उनकी पोस्ट पर टिप्पणी देने से बचता रहा, क्योंकि मेरे डॉक्टर होने के नाते वह कभी भी मुझसे अपना मताँतर व्यक्त न कर पायेंगी, और.. जहाँ पर असहमतियों की खाल न उधेड़ी जाये वहाँ फिर टीका-टिप्पणी का मज़ा ही क्या रहा । चलिये आज की चर्चा के माध्यम से अपने मन का बोझ हल्का कर सका, आप यहाँ आज पुनः बाज़ी मार ले गये ।
    हर शनिवार को एक शिकार तलाशने का आपका यह प्रयोग बिल्कुल सफल है, बधाई !

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  12. चर्चा का ये अंदाज बहुत अच्छा लगा |वैसे तो घुघूती जी को पढ़कर एक परिपक्वता का का अहसास देता है हर विषय पर कितु आज की चर्चा में उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगा |
    आभार

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  13. तरुण जी को धन्यवाद और आदरणीय घुघूती बासूती जी को बधाई! बडे दिनों के बाद चिट्टा चर्चा पूरी पढी और मन प्रसन्न भी हुआ। घुघूती जी वाकई हिन्दी ब्लॉग जगत के प्रकाशवाहकों में से एक हैं और उन्हें पढना सदा सुखकर होता है।

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  14. "सोचिए कि जो स्वयं किसी का हुक्म बजा रही हो उसके आदेशों पर एक पूरा राज्य काम कर रहा था।"

    A HAND THAT ROCKS THE CRADLE RULES THE WORLD :)

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  15. घुघूती दी को कौन नहीं जानता अपने इस हिंदी ब्लौग-जगत में...

    कुमाऊं की पहाड़ियों से जरा भी वास्ता रखने वाले इस सौम्य चिड़िया को अच्छी तरह जानते होंगे और जाने कितने ही आंचलिक कुमाऊंनी प्रेम-गीत इस सौम्य चिड़िया को लेकर रचे गये गये हैं। घुघूती दी के इस ब्लौग का नाम और खुद अपने लिये इस परिचय और इस ब्लौग-नाम को चुनना, मुझे मेरे ब्लौग के शुरूआती दिनों से प्रभावित किये हुये है।

    शुक्रिया तरुण जी एक अलग-सी बेहतरीन चर्चा के लिये।

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  16. .
    .
    .
    घुघूती बासूती जी को पढ़ना हर बार आपको कुछ और बेहतर बनाता है...ब्लॉगवुड की स्तंभ हैं वो...विवादों से दूर...हर बार अपने स्तर को बरकरार रखती हुई...और हर बार सोचने को कुछ खुराक देती हुईं...

    बेहतरीन चर्चा, आभार आपका!


    ...

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  17. अपनी राय बेबाकी से रखने वाली महिला है ....जो वक़्त ओर मौसम देखकर नहीं बदलती .ओर न समझदारी भरी चुप्पी ओढती है.....हमेशा उनकी बात से सहमति हो ऐसा नहीं है पर उनकी साफगोई केलिए आदर है ....

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  18. तरुण, आपने मुझपर लिखकर मुझे सम्मानित किया है। आभार। माँ की तबीयत खराब होने से उनके पास गई थी। फिर घर लौटी भी तो कुछ अपने में ही उलझ गई, सो न ब्लॉग पढ़ रही थी, न लिख रही थी। एक सहेली ने आपकी इस चर्चा के बारे में बताया तो यहाँ आई।
    मित्रों की टिप्पणियों के लिए भी आभार।
    डॉक्टर अमर ने आना व टिपियाना क्यों छोड़ा यह रहस्य अभी समझ में नहीं आ रहा। शायद डॉक्टर शब्द वाले अपने सभी पुराने लेखों को खंगालना होगा। तब तक के लिए अपनी टूटी फूटी क्षतिग्रस्त स्मृति का सहारा ले लेती हूँ। वैसे एक बात है यदि मैंने कुछ अपमानजनक कहा होता तो लगभग लगभग पक्का था कि मुझे याद होता। क्योंकि ऐसा मैंने ब्लॉगिंग में एक ही बार किया है और न आज तक भूली हूँ न भूलना चाहती हूँ। भूलने से भूल फिर से जो हो जाने की संभावना रहती है।
    जहाँ तक बहस, मतांतर बताने की बात है व बात रूपी बाल की खाल निकालने की बात है तो यह तो मुझे बहुत ही प्रिय है। हो सकता है कि उस दौर में डॉक्टरों पर बहुत अधिक निर्भर होने व कुछ मधुर कुछ कटु अनुभवों के बीच किसी वार्ता को और आगे ले जाने में थकान लगी हो और रणछोड़ के क्षेत्र, प्रभास क्षेत्र में रहते हुए मैं भी रण छोड़ चलती बनी होऊँ। जो भी हुआ हो अब इस बात को दो साल हो गए हैं। मेरे चिट्ठे पर डॉक्टर अमर का स्वागत है, मय बहस, मतांतर व बाल की खाल निकालन क्रिया समेत!
    घुघूती बासूती

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