प्लेटफोर्म पर किताबो में सर गडाए बैठी है कुछ .ये कवियों के प्रेम की शिकार महिलाए है जो खूब किताबे पढ़ती है ओर रोते रोते कवियों को गालिया दिया करती है ....................
अच्छी चीजों से जुड़ा सबसे बड़ा विकार है की उन्हें इतना बार दोहराया जाता है की उनका होना एक मामूली सा हो जाता है कि उनकी अच्छाई एक उबाऊ अच्छाई में बदल जाती है .........
कथा देश में गीत चतुर्वेदी........ अच्छी चीजों से जुड़ा सबसे बड़ा विकार है की उन्हें इतना बार दोहराया जाता है की उनका होना एक मामूली सा हो जाता है कि उनकी अच्छाई एक उबाऊ अच्छाई में बदल जाती है .........
पढना भी एक सतत प्रक्रिया है .जो कभी ख़त्म नहीं होती ..उम्र बीतते बीते अक्सर आप पुरानी किताबों को उठाकर दोबारा पढ़ते है ओर उनके भीतर नए अर्थो को पाते है ...ओर कभी ..कभी किसी लेखक को बरसो बाद उसकी वेव लेंथ में जाकर पकड़ पाते है ....ओर लिखना ? एक लेखक कभी कभी लिखने के बारे में भी लिखता है .....
जब आप नहीं लिख रहे होते, तब आप क्या कर रहे होते हैं? मैं ज़्यादातर समय नहीं लिख रहा होता। ज़्यादातर मैं पढ़ रहा होता हूं, संगीत सुन रहा होता हूं, कोई फिल्म देख रहा होता हूं या यूं ही नेट सर्फ कर रहा होता हूं। मैंने पाया है, ईमानदारी से, कि जिन वक्तों में मैं नहीं लिख रहा होता, वह मेरे लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि असल में मैं उन्हीं वक्तों में लिख रहा होता हूं।
अच्छी चीज़ों का सबसे बड़ा गुण या अवगुण यह है कि आप पर उसका कोई भी असर पड़े, उससे पहले वह आपको भरमा देती है। अच्छी कविता तो सबसे पहले भरमाती है। वह आपके फैसला करने की क्षमता को कुंद करती है और फैसला देने की इच्छा के लिए उत्प्रेरक बन जाती है। वह तुरत आपके मुंह से यह निकलवाती है- यह क्या बला है भला? ऐसा कैसे हो सकता है? फिर वह धीरे-धीरे आपमें प्रविष्ट होती है। यही समय है, जब आपकी ग्रहण-क्षमता की परीक्षा होनी होती है। आप उसे अपने भीतर कितना लेते हैं, इसमें अच्छी रचना का कम, आपका गौरव ज़्यादा होता है।
गीत जी को किसी औपचारिक परिचय की जरुरत नहीं है ..यदि आप कंप्यूटर का एक इस्तेमाल कुछ अच्छी चीजों को पढने के लिए करने वाले में से एक है तो उनका ब्लॉग भाषा शब्दों ओर संवेदनाओं के कई नये स्तरों को अपनी तरह से परिभाषित करता है .उनके पास विचारो की एक नैसर्गिक जमीन है...पूरा लेख पढने के उनके ब्लॉग बैतागवाडी पर यहाँ क्लिक करिए
साहिर से बरसो पहले एक नज़्म लिखी थी ".वो सुबह कभी तो आएगी.."....उम्मीद से लबालब.भरी हुई....पर आजकल की नौजवान पीढ़ी सपनो को भी खुरच कर उसके नीचे की तहों को जांचना चाहती है ...उसे फतांसी से गुरेज नहीं है ...पर इस दुनिया में कुछ विलक्षण होने की उम्मीद भी नहीं....
श्रीश यथार्थ से सीधे भिड़ते है ...
मुझे उम्मीद नही है,
कि वे अपनी सोच बदलेंगे..
जिन्हें पीढ़ियों की सोच सँवारने का काम सौपा है..!
वे यूँ ही बकबक करेंगे विषयांतर.. सिलेबस आप उलट लेना..!
उम्मीद नही करता उनसे,
कि वे अपने काम को धंधा नही समझेंगे..
जो प्राइवेट नर्सिंग होम खोलना चाहते हैं..!
लिख देंगे फिर एक लम्बी जांच, ...पैसे आप खरच लेना.
दुर्भाग्य से हकीक़त का कोई वैकल्पिक स्रोत नहीं होता ….सो सीधी मुठभेड़ अनिवार्य है ..बौदिक मुहावरों की परत उतारे बगैर ....पोलिटिकली अन करेक्ट होने का खतरा उठाते हुए .....तल्खी के थोडा नजदीक ........
दर्पण अपना हस्तक्षेप जारी रखते है
पास्ट -परफेक्ट ,प्रेजेंट -टेस
वो क्रांतियों के दिन थे.
और हम,
मार दिए जाने तक जिया करते थे.
सिक्कों में चमक थी.
उंगलियाँ थक जाने के बाद चटकती भी थीं.
हवाएं बहती थीं,
और उसमें पसीने की गंध थी.
पथरीले रास्तों में भी छालों की गिनतियाँ रोज़ होती थी.
रोटियां,
तोड़के के खाए जाने के लिए हुआ करती थीं.
रात बहुत ज्यादा काली थी,
जिसमें,
सोने भर की जगह शेष थी.
और सपने डराते भी थे.
अस्तु डर जाने से प्रेम स्व-जनित था.
ओम जिंदगी की हकीक़तो को कोमल तरीके से टटोलने वाले कवि है .वे बिना पेचीदा हुए .....रिश्तो पर अपना फ़िल्टर रखते है ...ओर उनकी जटिलताओ आसानी से बयां .....उनके पास कई रंग है कुछ ठहरे हुए ...कुछ मिले जुले ..इच्छाओ के अँधेरे में ये रंग अलग चमकते है
यह बिलकुल हीं रात है
और इसकी परिधि के भीतर
ठीक चाँद इतनी खाली जगह है
और बाकी सभी जगह अमावस बिछी हुई है
इस वक्त उस खाली जगह को महसूसना हीं
मेरी कविता है
और उसे लिख देना
तुम्हें पा लेने जैसा है
पर तुमने जाते हुए
वक्त को दो हिस्सों में बाँट दिया था
और वक्त का वो हिस्सा जिसमें कवितायेँ
लिखी जानी थी,
अतीत में गिर गया है
महेन भी एक युवा कवि है ...उनकी अपनी अलग संवेदनाये है ....अपनी अलग बैचेनिया ......अपने नजरिये ........वे मानवीय जिजीविषाओ की रोजमर्रा की कुछ साधारण घटनाओं में से उम्मीद तलाशते है ....ओर अपने सपने बचाए रखते है.......उनका पता है हलंत
कविताओ से गुजरते हुए ये भी सवाल उठता है के इसकी कितनी आवश्यकता है ?....दरअसल कविता है क्या ....इस सवाल का एक जवाब प्रियंकर जी कुछ यूँ देते है
थोड़ी सी उद्दिग्नता बची रहेगी ह्रदय मेंआँखों मे बची रहेगी सुंदरता देखने की थोड़ी बहुत समझशब्दों में अर्थ खोजने की हिम्मत बची रहेगीबची रहेगी अभी कुछ दिन और जीने की इच्छाथोड़ी सी उदासी बची रहेगी हँसी के साथउष्णता बची रहेगी स्पर्श में थोड़ी बहुतशिशु की मुस्कान में बची रहेगी थोड़ी उम्मीदऔर पुलक बची रहेगी एक लड़की की चुप्पी मेंजब हम जानेंगे अभी बचा हुआ हैथोड़ा बहुत प्रेम हमारे आसपास
कविताओ से गुजरते हुए ये भी सवाल उठता है के इसकी कितनी आवश्यकता है ?....दरअसल कविता है क्या ....इस सवाल का एक जवाब प्रियंकर जी कुछ यूँ देते है
कविता हमारे अंतर्जगत को आलोकित करती है । वह भाषा की स्मृति है । खांटी दुनियादार लोगों की जीवन-परिधि में कविता कदाचित विजातीय तत्व हो सकती है, पर कविता के लोकतंत्र में रहने वाले सहृदय सामाजिकों के लिये कविता – सोशल इंजीनियरिंग का — प्रबोधन का मार्ग है । कविता मनुष्यता की पुकार है । प्रार्थना का सबसे बेहतर तरीका । जीवन में जो कुछ सुघड़ और सुन्दर है कविता उसे बचाने का सबसे सशक्त माध्यम है । कठिन से कठिन दौर में भी कविता हमें प्राणवान रखती है और सीख देती है कि कल्पना और सपनों का संसार अनंत है ।कविता एक किस्म का सामाजिक संवाद है ।
उपरोक्त पंक्तिया उनके ब्लॉग पर ६ अगस्त की पोस्ट से ली गयी है .......बिना उनका शुक्रिया अदा किये हुए .....मुझे लगा कविता का इतना बेहतर परिचय बांटना उचित है.......ओर आखिर में अपने फेवरेट शायर को याद करते हुए उनकी एक नज़्म के साथ.......
दिल्ली - पुरानी दिल्ली की दोपहर
लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर
चारपाई बुनने वाला जब
घंटा घर वाले नुक्कड़ से, कान पे हाथ रख कर
इक हांक लगता था - ’चार पाई. बनवा लो...’
खसखस कि टट्यों में सोये लोग अन्दाज़ा लगा लेते थे.. डेढ़ बजा है..
दो बजते बजते जामुन वाला गुजरेगा
’जामुन.. ठन्डे.. काले जामुन’
-गुलज़ार
8.5/10
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय/अति पठनीय
बेजोड़ चिटठा-चर्चा
--ऐसी होनी चाहिए चिटठा चर्चा
हाय ! किसी को यह बता दो, जब ऐसे ख्याल दिल में जोर मारने लगे तो चिठ्ठा चर्चा ही उपयुक्त मंच है.
जवाब देंहटाएं"जब आप नहीं लिख रहे होते, तब आप क्या कर रहे होते हैं? मैं ज़्यादातर समय नहीं लिख रहा होता। ज़्यादातर मैं पढ़ रहा होता हूं, संगीत सुन रहा होता हूं, कोई फिल्म देख रहा होता हूं या यूं ही नेट सर्फ कर रहा होता हूं। मैंने पाया है, ईमानदारी से, कि जिन वक्तों में मैं नहीं लिख रहा होता, वह मेरे लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि असल में मैं उन्हीं वक्तों में लिख रहा होता हूं।"
--- बहुत मार्के की और जरुरी बात... दरअसल हम तबी लिखने की प्रक्रिया से गुज़र रहे होते हैं... लिखने को लेकर कई अन्य पोस्ट सबद पर भी मौजूद हैं...
श्रीश यह साल दूर ही रहे ... अपनी जिंदगी में उलझे हुए... अलबत्ता बज्ज़ पर हम मस्ती कर लेते हैं... इनकी कवितायेँ पढ़कर इतना तो लगता ही है की इनको रेगुलर रहना चाहिए...
दर्पण लगातार अच्छा लिख रहे हैं चाहे कहानी हो, ग़ज़ल हो या कविता पर इस कविता से शिकायत यह है की वो अपने लय में इसमें अंतिम पैरे में ही आये हैं..
ओम आर्य को शुरूआती दिनों से ही पढता रहा हूँ... उनकी सोच ही कविता है ... और लगातार उम्दा लिखना चकित करता है.... इन दिनों वो भी लेकिन किसी का क़र्ज़ उतर रहे हैं...
बचने को लेकर भी कई कवितायेँ लिखी गयी हैं फिर चाहे वो अनुनाद पर साइड बार में लगा मंगलेश डबराल की "कवियों में बची रहे थोड़ी सी लज्जा" हो या फिर मेरी खुद की "main chahunga (http://kalam-e-saagar.blogspot.com/2009/12/blog-post_22.html) की" हो mahen ji का भी usi silsile की ek kadi lagi.
ant में samay batati hui nazm mast है...
chalte chalte anil kant से baatcheet पर mehsoos kiya hua nishkarsh
"sabhi कविता से shuru karte हैं, gadd लिखने lagte हैं, kahaniyan likhte हैं, इस dauran jo samjh viksit hoti है वो यह की कविता लिखना sabse mushkil kaam है और use पढ़कर uska romach mehsoos karna adbhut kshan ....
और nayi बात पर की यह कहानी "jibah"
http://nayibaat.blogspot.com/2010/10/blog-post_19.html
और ant में ek ऐसे ही कविता का link dena chahuga jo sabko अपने desk पर taang lena चाहिए
http://kabaadkhaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_22.html
आपके द्वारा प्रस्तुत चिटठा चर्चा पहली बार पढ़ा , लेकिन चुने हुए लिंक और संदर्भित कविताएँ बेजोड़ हैं. उम्दा प्रस्तुति के लिए आभार
जवाब देंहटाएं--
शुक्रिया सागर लिंक देने के लिए ......न तुम केवल एक अच्छा लिखने वाले हो .....अलबत्ता एक अच्छे पाठक भी हो......ओर एक अच्छा पाठक ही अच्छा लिख सकता है ....
जवाब देंहटाएंजिनका चयन पसन्द हमें पसन्द है !गोते लगा कर लिखते हैं ।
जवाब देंहटाएंएक अलग- सी अनूठे कवियों की चर्चा ...
जवाब देंहटाएंआभार ...!
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (22/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
नि:संदेह, आज की चर्चा का माल बहुत बढ़िया है. ब्लाग खोल लिए हैं, आराम से पढ़ूंगा...यही कह कर जा रहा हूं...( ब्लागर और भिखारी का क्या भरोसा.. दोनों किधर निकल जाएं ) पता नहीं बाद में टिप्पणी करने आना हो या न हो...
जवाब देंहटाएं..ज्ञानवर्धक चर्चा। उपयोगी लिंक।
जवाब देंहटाएं‘वो सुबह कभी तो आएगी.’
जवाब देंहटाएंसुबह ज़रूर आएगी, सुबह का इंतेज़ार कर :)
आप जैसे कुछ लेखको की प्रस्तुतियों पढ़ने के बाद लगता है कि ब्लॉग जगत में अब स्तरीय लेखन की परंपरा प्रारंभ हो चुकी है।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा....काफ़ी दिनों के बाद चिट्ठा चर्चा पढी है....
जवाब देंहटाएं==============
"हमारा हिन्दुस्तान"
"इस्लाम और कुरआन"
Simply Codes
Attitude | A Way To Success
:) main aaya aur 3-4 naye blog padhe ..khurak lee .... aur ab jaa raha hun ....samay ka sahi upyog hua ..humesha hota hai aapka likha ..aapka diya kuch bhi dekhne padhne se ... :)
जवाब देंहटाएंकुछ लोगों को नियमित ना पढ़ पाने का और टिप्पणियां ना कर पाने का अपराधबोध मन में रहता है. वज़ह सागर साहब के शब्दों में "जिन्दगी में उलझा रहा" और इसके 'एक साल' हो गये सहसा एहसास हुआ..बिलकुल ठीक फरमाया उन्होंने. इसके बावजूद अनुराग जी और सभी सुधीजनों ने यदि मुझे अप्रासंगिक नही होने दिया तो सहज आभारी हूँ. बाकी कविता तो खुद को लिखवा लेती है, किसी से से भी पूँछ लीजिये , इसे लिखता नही कोई.
जवाब देंहटाएंगीत जी, ब्लॉग-लेखन में है, यह हम सभी का सौभाग्य ही है. हमेशा ही उत्कृष्ट वहां पढने को मिलता है. सागर जी, ने पहली बार ओमजी का लिंक थमाया , तबसे गाहे-बगाहे उन्हें पढ़ लेता हूँ. दर्पण तो दर्शन भी इतना रियलिस्टिक बना देते हैं कि जिन्दगी बिलकुल सपाट खड़ी हो जाती है,सामने. महेन जी की कुछ पोस्टें पढी हैं मैंने और आश्वस्त हुआ हूँ, कि हिंदी ब्लॉगजगत में आने वाली कविताएँ सहज ही, साहित्य की कई मैगजीनों में छपने वाली कविताओं से उम्दा होती हैं. प्रियंकर जी ने वाकई बड़ी खूबसूरत बात लिखी, कविता के बारे में..कई और तार निकलते हैं इन बातों से. गुलज़ार को क्या कहूँ....जैसे मौसम इन्हीं के ईशारे से अपनी अठखेलियाँ सीखता हो, और कुछ ही शहर हैं जो इनकी कलम की स्याही तक पहुँच पाते हैं.
आखीर में एक पुरानी बात फिर दोहराता हूँ, अनुराग जी की चर्चा की शैली, बात के सिरे को पकड़ने का अलहदा ढंग और माकूल दृष्टि..यह सबकुछ इसे इतना सजीला-सटीक बना देता है कि मानना पड़ता है कि आले से ही नाप सकते हैं नब्ज जिन्दगी की...डाक्टर साहब आप कभी थकियेगा मत....!
aapki prastuti hamesha lajawaw rahi hai......
जवाब देंहटाएंoospar sagar/apoorv/shrish jaise pathak ki
pratikriya jehnasib bana deti hai......
aur han...आप कभी थकियेगा मत....
pranam
लिंकों पर नहीं जा पाई हूँ अभी...तुरंत जाउंगी भी नहीं क्योंकि यह सही नहीं होगा....
जवाब देंहटाएंआपके शब्दों के जाल से पहले मुक्त हो लूँ,जिसमे समय लगेगा अभी ,तब ही जाउंगी...अभी गयी तो रचना के भावभूमि तक किसी हालत में नहीं पहुँच पाउंगी...
क्या लिख देते हैं आप भी डाक्टर साहब ...उफ्फ्फ !!!!
ब्लॉग जगत पे जो कविता है वह पूरी तरह जीवंत और गतिमान है..ऐसा तब लगता है जब डॉक साब की अनुभवी उँगलियाँ के तले धड़कती कविताओं की नब्ज की आश्वस्तिदायक रफ़्तार हमे समझ पाने को मिलती है..समर्पित और सजग पा्ठक वर्ग ही सार्थक साहित्य के पहरुए होते हैं..आपकी चर्चाएं इसी सिलसिले की कड़ियाँ लगती हैं..गीत जी की पोस्ट सिर्फ़ कविता की ही बात नही करती है..बल्कि जीने की बुनियादी शर्तों मे सार्थकता तलाशने की कोशिश करती है..इसी से यह पोस्ट न सिर्फ़ साहित्यानुरागी वरन किसी भी उत्सुक पाठक को सीखने का मौका बन कर आती है..प्रियंकर जी का कथन भी इधर बढ़ती हुई सामाजिक संवादहीनता के दौर मे जीवन की सबसे मौलिक चीजों और मूल्यों पर आस्था की जरूरत को रेखांकित करता है..कविता परिभाषाओं के दायरे मे और उनसे परे भी बहुत कुछ ऐसा समेटती है जो कि अन्यथा शब्दों की पहुँच से बाहर होता है..जीवन के होने की सबसे मूलभूत इकाइयों मे से एक यह हमारे समय मे हमारी उपस्थिति का सबसे अहम् दस्तावेज होती है..हमारे अंदर मौजूद मनुष्यता के प्रतिशत का मानक भी हमारे साहित्य से तय होता है..ओम जी को तबसे पढ़ रहा हूँ जबसे हिंदी-ब्लॉगिंग से परिचय हुआ..और उनकी कविताओं मे सूक्ष्म डिटेल्स मे भी परिपक्वता चमत्कृत करने वाली लगती है..उनकी कविताएँ मन के अंतरतम के भय को रोशनी मे लाती हैं और अवसाद का वातावरण रचती हैं....यह कविताएं कभी कभी डराती भी हैं..मगर कविताओं मे निहित आशावाद अक्सर आश्वस्त करता है..यही आशावाद महेन जी की उद्धृत कविता का सबसे सबल पक्ष है..और यह आशावाद महज किताबी या उपमाओं की बाजीगरी जैसा नही है..यह कविताई चमत्कार की बजाय साधारण चीजों मे छुपी सबसे मूलभूत भावनाओं को आधार बनाता है..जीवन की सबसे उत्कट इच्छा जहाँ से पनपती है..जहाँ से प्रेम का उद्भव होता है...ब्लॉगिंग से जुड़े अपने अपराधबोधों मे से एक श्रीश साहब को बहुत कम पढ़ पाना भी है..उनकी अपनी व्यस्तताएं होंगी..मगर उनका यहाँ होना ब्लॉगिंग को एक स्तर देता है..और उद्देश्य भी..
जवाब देंहटाएं..पेन सस्ते ही सही मगर ऐसी चर्चाएं जारी रहें यही कामना है..
महसूस किये जाने किये जाने योग्य चर्चा !
जवाब देंहटाएंआज की ( यानि दो दिन पहले की ) चर्चा पढ़ने से अधिक महसूस किये जाने की अपेक्षा रखती है,
यथार्थ की धरती से घूम-फिर कर वापस लौटने पर एक सुखद आश्चर्य है, और सुकून है डॉक्टर अनुराग का आँदोलित विवेचन-युक्त वर्तमान चर्चा के सभी सँदर्भ ! इसका यहाँ होना ब्लॉगिंग में बने रहने की आशा को बल देता है । गीत जी पर किसी की नज़र क्यों नहीं पड़ रही है, यह मलाल था, जो आज बहुत हद तक दूर हुई है । मैंनें तुम्हारी पँडिताइन भाभी ( जिन्हें तुम मैडम कहते आये हो ) को यह चर्चा पढ़वा कर, उनका आशीर्वाद इसी टिप्पणी के माध्यम से अग्रषारित कर रहा हूँ । चुकौती तेल के दिये में नया प्रकाश भरने में तुम सक्षम रहे हो, अनुराग !
आज कहीं किसी बिन्दु पर आलोचना की ग़ुँज़ाइश ही नहीं है, सच्ची !
@ उस्ताद जी, खूसट ब्लॉगर्स के मेरे घाघ कोटे से इन्हें एक अतिरिक्त नम्बर यानि कि, 9.5 / 10 दिया जाये !
Still the same bourgeoism, at an open forum ?visible after approval ?
जवाब देंहटाएंCome on, just delete it..i.e. my comment !
I never cherished a seived narration under a tongue-in-cheek clause.
I am sorry for having been here !
No personal grudges whatsover.
With Good-Wishes.
दुर्भाग्य से हकीक़त का कोई वैकल्पिक स्रोत नहीं होता ….सो सीधी मुठभेड़ अनिवार्य है ..बौदिक मुहावरों की परत उतारे बगैर ....पोलिटिकली अन करेक्ट होने का खतरा उठाते हुए .....तल्खी के थोडा नजदीक ........
जवाब देंहटाएंBy the way..
Which brand of, whose pen wrote this catching phrase ?
निश्चय ही ऐसी चर्चाएँ अभिभूत सी करती हैं , अभिभूत ठीक उसी लक्षण में जिसकी योजना आपने चर्चा के तीसरे पैरे में रखी है , अच्छी कविताओं सी ! परफेक्ट चयन है ! विश्लेषण के दौरान आपके द्वारा रखी गयी ईषत टीप भी कम मनोहारी नहीं है !
जवाब देंहटाएंबाकी ऊपर की टीपों में बहुत कुछ कह दिया गया है ! सागर भाई ने अच्छे लिंक भी दिए हैं , उनके बारे में अपन का भी वही ख्याल है जो आपने उनकी टीप के बाद अपनी टीप में कहा है !
'हलंत' ब्लॉग की 'थोड़ा' कविता मुझे ऊपर चयनित कविताओं में परिपक्वता के लिहाज से प्रिय लगी ! उनकी कविता में जीवन के जिस 'थोड़े' पक्ष को रखा गया है , कविता का महत्तर दाय तो उसी थोड़े की रक्षा / निर्वाह / जागरुकीकरण से जुड़ा है ! वही थोड़ा जीवन भर कहाता रहता है - 'अपने होने का इंतिजार हूँ मैं / तमाशाई नहीं दीदार हूँ मैं ! '
हिमांशु की चिट्ठा चर्चाएँ साहित्यिक रूप रंग की होती थीं , जो कि अब निष्क्रिय हैं , या तो आपके द्वारा की गयी चर्चाएँ साहित्यिकता का निर्वाह करती/कराती हुई दिखती हैं , बेशक ! आभार !
बिल्कुल समय नहीं निकाल पा रहा हूँ डा० साब इंटरनेट के लिये। दिसम्बर तक यही हालात रहेंगे...बस पोस्ट पढ़ी है। लिंक देखने की फुरसत नहीं। दिसम्बर मध्य के पश्चात वक्त ही वक्त है। कहने को तो सभ्यता में हूँ, लेकिन कश्मीर को मिस कर रहा हूँ फिलहाल...
जवाब देंहटाएंगीतचतुर्वेदी,श्रीश ,दर्पण, ओम जी को बहुत पढा है मेरे सब से मनपसंद कवि हैं लेकिन महेन जी और प्रियंकर जी के ब्लाग का लिन्क शायद पहली बार मिला है। यही चर्चा असली चर्चा है। इससे अच्छे लिन्क तो मिलते ही हैांउर चर्चा होने लायक लेखक को उतसाह भी मिलता है। बहुत अच्छी लगी चर्चा। धन्यवाद। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंएक लम्बी आह भर लेने भर का वक़्त है...
जवाब देंहटाएंऐसी चिठ्ठा चर्चा पहले कभी पढ़ी हो याद नहीं...आपकी लेखनी भी क्या अजब चीज़ है...अद्भुत शब्द ढूंढ कर उन्हें वाक्यों में पिरो देती है..वाह..
जवाब देंहटाएंनीरज
बहुत ही अच्छी चर्चा .
जवाब देंहटाएंप्रियंकर जी के बारे में पहली बार जाना..
आभार
बहुत ही अच्छीऍहर्चा ,चर्चाकार डा: अनुराग जी को बधाई्। आलेख में ऐसी निरन्तरता है कि मैं इसे पूरा पढे बिन रह न सका।
जवाब देंहटाएं