प्रख्यात कवि और संस्कृतिकर्मी आलोक धन्वा जी ने ब्लॉगिंग के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत किये। उन्होंने ब्लॉगिंग को विस्मय कारी विधा बताया। उन्होंने बताया कि वे कुछ दिनों से नियमित ब्लॉग देखते हैं। धन्वाजी ने बताया कि कबाड़खाना वाले अशोक पाण्डेय जी ने उनको ब्लॉगिंग के बारे में बताया। उनको प्रियंकर पालीवाल जी से भी इस बारे में जानकरी दी।
आलोक धन्वा जी ने ब्लॉगिंग की तुलना रेल के चलन से करते हुये बताया कि शुरुआत में जैसे रेल यात्रा करने से लोग डरते थे लेकिन आज यह हमारी आवश्यकता बन गयी है वैसे ही शायद अभी ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में इसके प्रति हिचक है लेकिन आने वाले समय में यह जन समुदाय की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकती है।
आलोक धन्वाजी ने अपने वक्तव्य में कहा कि हम आजकल सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं। इतना कठिन समय पहले कभी नहीं रहा- द्वितीय विश्व युद्ध और अन्य संकटों से भी अधिक कठिन समय के दौर से हम गुजर रहे हैं। लोकतंत्र के लिये बहुत कम बची है।
आचारसंहिता की बात करते हुये उन्होंने कहा कि समय और समाज की नैतिकता ही अभिव्यक्ति की नैतिकता हो सकती है। दुनिया कैसे बेहतर बने इस दिशा में प्रयास करने वाली आचार संहिता ही ब्लॉगिंग की आचार संहिता हो सकती है।
ब्लॉग जगत की अचार संहिता की जगह इंटरनेट की नैतिकता की चर्चा होनी चाहिये। जो अपने को अच्छा नहीं लगता उसे दूसरे से नहीं कहना चाहिये। आभासी दुनिया वास्तव में वास्तविक दुनिया का विस्तार है।
अनूप शुक्ल ने अपनी बात शुरु करने से पहले अपने ब्लॉगजगत से जुड़े तमाम दोस्तों को याद किया। रविरतलामी, आलोक कुमार, देबाशीष चक्रवर्ती, जीतेंन्द्र चौधरी और पंकज नरुला आदि। आचार संहिता के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये उन्होंने कहा- मेरी समझ में ब्लॉगिंग की आचार संहिता की बात करना खामख्याली है। ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति
का माध्यम है। समय और समाज की जो आचार संहितायें जो होंगी वे ही ब्लॉगिंग पर भी लागू होंगी। इसके अलावा ब्लॉगिंग के लिये अलग से आचार संहिता बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिये।
नैतिकता की बात पर अनूप शुक्ल ने कहा कि कोई भी आचार संहिता कम से कम ब्लॉगिंग पर लागू न हो सकेगी। नैतिकता लागू करने की बात कुछ ऐसी ही है:
तस्वीर पर जड़े हैं ब्रह्मचर्य के नियम
उसी तस्वीर के पीछे चिडिया बच्चा दे जाती है।
नैतिकता के बारे में रागदरबारी को उद्धरत करते हुये उन्होंने कहा:
"नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है। एक कोने में पड़ी है। सभा-सोसायटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है। तब बड़ी बढ़िया दिखती है। इस पर चढ़कर लेक्चर फ़टकार दिया जाता है। यह उसी के लिए है।"
ब्लॉगिंग को अद्भुत विधा बताते हुये बताते हुये अनूप शुक्ल ने कहा कि लोग यहां की अच्छाई देखने के बजाय इसकी बुराइयों का रोना रोते हैं। यह अकेला ऐसा माध्यम है जिसमें त्वरित दुतरफ़ा संवाद संभव है। ब्लॉग एक तरह से रसोई गैस की तरह है जिस पर आप हर तरह का पकवान बना सकते हैं। साहित्य,लेखन, फोटो, वीडियो, आडियो हर तरह की विधा में इसमें अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं।
मीडिया, साहित्य और पत्रकारिता की स्थापित लोग जो इसको दोयम दर्जे की विधा मानकर इसकी उपेक्षा करते हैं वे अपना ही नुकसान करते हैं। आम आदमी की अभिव्यक्ति का यह औजार अद्भुत है। इसकी आभासी बुराइयों का रोना रोने की बजाय हमें इसकी अच्छाईयों का उपयोग करना चाहिये।
बीच में दो मिनट का समय लेकर यशवंत सिंह ने अपनी बात कही और अनामी अनामी ब्लॉगरों के समर्थन में अपनी बात रखी। उन्होंने बताया कि हमको आज आचार संहिता बनाने वालों की आचार संहिता पर विचार करना चाहिये।
कार्यक्रम के अध्यक्ष ॠषभ देव ने अपना अध्यक्षीय भाषण देते हुये सभी वक्ताओं के विचारों का संक्षिप्त अंश पेश करते हुये अपनी बात कही। उन्होंने नैतिकता, बेनामी ब्लॉगर और अन्य मसलों पर अपने विचार व्यक्त किये। बेनामी ब्लॉगरों के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुये उन्होंने कहा –
बेनामी बड़े-बड़े काम करते होंगे मैं उनका अभिनंदन करता हूं। लेकिन इसको नियम नहीं बनाया चाहिये। मेरे परिचय क्षेत्र में कई लोग हैं जिन्होंने अपने सूचनायें झूठी दी हैं। पाखंड हर जगह निंदनीय है। ब्लॉगिंग कोई खिलवाड़ नहीं है। यह नैतिक कर्म है(नित्य कर्म नहीं ) बच्चों बताते हैं कि उनसे कोई पूछता नहीं है। वरिष्ठ और कनिष्ठ न भी माने तो अनुभवी और कम अनुभवी का अन्तर तो रहेगा ही। मेरी चिंता का कारण बच्चे हैं जो झूठी पहचान बनाकर गलत हरकतें कर रहे हैं।
जिस बात को सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकते वह ब्लॉग पर भी कहने का हक हमें नहीं है। हममें यह हिम्मत होनी चाहिये कि जिसे हम सही समझते हैं वह कह सकें।
कमेंट माडरेशन यदि कमेंट व्यक्तिगत आक्षेप, अश्लीलता और अनैतिकता वाले हों तो उसे हटाने का अधिकार होना चाहिये। लेकिन आलोचना को सम्मान मिलना चाहिये। ब्लॉग को संवाद का माध्यम बनाया जाये अखाड़ा नहीं। पारस्परिक सम्मान जो हम अपने आम जीवन में करते हैं उसे ब्लॉग में भी देना चाहिये। ब्लॉग को समाज सुधार और नैतिकता के अतिरिक्त बोझ से लादना नहीं चाहिये।
संचार विभाग के श्री अनिल कुमार राय ने धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा -जहां आधुनिक संचार माध्यम समाप्त होते हैं वहां से इसकी शुरुआत होती है। यदि हम टिप्पणियों को माडरेशन करने लगे तो फ़िर यह तो एक संपादक की उपस्थिति ही हुई। उन्होंने इस सत्र के लिये धन्यवाद दिया इस वायदे के साथ कि अंतिम धन्यवाद कल दिया जायेगा।
दोपहर के खाने के बाद चार ग्रुप बना दिये हैं। ये चार ग्रुप ब्लॉगिंग पर चर्चा करके कल अपनी प्रस्तुति करेंगे। सभी ब्लॉगर चाय की चुस्कियों के बीच आपस में अपना परिचय देते हुये आगे की बात कर रहे हैं।
bhut khub likh daala he lekin nirasha kisi bimaari ka ilaaj nhin hoti bs koshish kr ke aek ptthr tbiyt se uchalna he asmaan men bhi suraakh hokr rhegaa . akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंAgree.
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जवाब देंहटाएंEthics
जवाब देंहटाएंMoral Philosophy
Moral philosophy is the area of philosophy concerned with theories of ethics, with how we ought to live our lives. It is divided into three areas: metaethics, normative ethics, and applied ethics.
Metaethics
Metaethics is the most abstract area of moral philosophy. It deals with questions about the nature of morality, about what morality is and what moral language means. This section of the site contains material on cognitivism and noncognitivism, and on moral relativism.
Normative Ethics
While metaethics treats the most abstract questions of moral philosophy, normative ethics is more concerned with providing a moral framework that can be used in order to work out what kinds of action are good and bad, right and wrong. There are three main traditions in normative ethics: virtue ethics, deontology, and consequentialism.
Applied Ethics
The most down to earth area of moral philosophy is applied ethics. This seeks to apply normative ethical theories to specific cases to tell us what is right and what is wrong. In this section, various thorny ethical issues are discussed: e.g. abortion, animal rights, and punishment.
http://www.moralphilosophy.info/
जवाब देंहटाएंआचार संहिता = code of conduct
जवाब देंहटाएंA code of conduct is a set of rules outlining the responsibilities of or proper practices for an individual or organization. Related concepts include ethical codes and honor codes.http://en.wikipedia.org/wiki/Code_of_conduct
जवाब देंहटाएंवैसे अक्षरा नैतिक को मिलती हैं !!!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और सार्थक चर्चा , ये बात
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही है कि ब्लॉग को अखाड़ा न बनाया जाए बल्कि विचारों के आदान प्रदान का सशक्त माध्यम बनाया जाए
लगातार दी जाने वाली रिपोर्ट्स के लिए धन्यवाद
जीवन में हर क्षेत्र / डिसिप्लिन की आचार संहिता होती है -मतलब क्या करें और क्या न करें -लगता है इसे शुक्ल महराज किसी और अर्थ में ले रहे हैं ..... दुहाई है !
जवाब देंहटाएंek vimarsh wahan(vardha)me chal raha hai.......
जवाब देंहटाएंek vimarsh yahan(chitthacharcha)par chal raha hai.
iski gatishilta bani rahe..ye bhi mahatwapurn hai.
vinit bhai ki vastav me jaroorat thi wahan.....
pranam.
सही है.. ब्लोगिंग को आचार संहिता में नहीं बाँधा जा सकता.. वैसे ये ख्याल ही बचकाना लगता है..
जवाब देंहटाएंअभी चिट्ठाचर्चा वाली पिछली पोस्टें देखा, तो पता चला कि वर्धा सें संबंधित यह तीसरी पोस्ट हैं....एकदम लाइव।
जवाब देंहटाएंबढ़िया विवरण मिल रहा है। शुभकामनाएं।
चित्रों के साथ परिचय की कमी खल रही है ...
जवाब देंहटाएंओह, कागज और लेखन विधा वालों की महिमा से अभिभूत होना शायद नहीं जायेगा हिन्दी ब्लॉगरी में।
जवाब देंहटाएंदोयम रहने के लिये अभिशप्त रहेंगे बन्दे। लार टपकेगी कि अखबार के किसी चिरकुट कॉलम में नाम का जिक्र हो जाये! :)
‘बेनामी बड़े-बड़े काम करते होंगे मैं उनका अभिनंदन करता हूं। लेकिन इसको नियम नहीं बनाया जाना चाहिये। ’
जवाब देंहटाएंमैं भी इस डरपोक कौम का अभिनंदन करता हूं :)
कुल कितने ब्लॉगर आए..? चार ग्रुप में कौन-कौन हैं..? चार से भाग देने पर क्या एक भी शेष नहीं बचे! या शेष एक दो तीन, एक दो तीन हो गए? कल चर्चा से थके मन की शांति के लिए एकाध घंटे का हास्य कवि सम्मेलन रख दिया जाय तो मूड फ्रेश होने की संभावना है। आपकी मर्जी..ज्यादा लिखूंगा तो कहेंगे कि खुद तो आए नहीं दूर बैठ कर ढील रहे हैं।
जवाब देंहटाएंवैसे ऊपर वाला आलेख बढ़िया है।..सभी से आँखें चार करना छोड़कर, आचार सहिंता पर दिमाग झोंकने और पोस्ट लिखने के लिए आभार।
संहिता के होने या न होने का संबंध सीधे वर्चुअल स्पेस पर लिखनेवाले लोगों से है। ये कोई एक राज्यकीय स्पेस नहीं है कि कोई खाप पंचायती करने बैठ जाए। ये खुली दुनिया है। ये अलग बात है कि हम तीस-चालीस ब्लॉगरों को शक्ल,नाम और पता ठिकाने को जान लेते हैं तो बस इसे ही दुनिया मान लेते हैं। अगर कन्सेप्चुअली वर्चुअल स्पेस को समझने की कोशिश करें तो आचार संहिता पूरी तरह वर्चुअल स्पेस की अवधारणा के खिलाफ बात करनेवाला मुद्दा है।
जवाब देंहटाएंव्यावहारिक तौर पर देखें तो आपको कुछ ब्लॉगरों को नाम-पता सब ठीक-ठीक मालूम है तो आप लाद दें उन पर आचार संहिता और बाकियों के साथ आप क्या करेंगे? या फिर देर रात उस लेखक की नीयत बिगड़ जाए और बेनामी होकर कुछ लिख जाए तो आप क्या कर लेंगे? आप तकनीकी रुप से उसे आइडेंटिफाय भी कर लें तो फिर उससे ये कहां साबित हो सकेगा कि उसने ऐसा किस मनःस्थिति में रहकर किया? आप किसी की मनोदशा,उसकी चलन पर आचार संहिता लागू नहीं कर सकते। ये जब नागरिक संहिता के तहत जीनेवाले इंसान के बीच संभव नहीं हो पाता है तो आप मन की बारीकियों पर कैसे लागू कर सकेंगे?
ये एक ग्लोबल माध्यम हैं,जिसमें आए दिन रगड़े होंगे और ये रगड़े जरुरी नहीं कि बलिया, बक्सर, बनारस, दिल्ली का ही लेखक करे और जिसका निपटारा वर्धा,इलाहाबाद में किया जाए? ये अमेरिका की समस्या पर मुनिरका( दिल्ली में एक स्टूडेंट प्रो इलाका)में बैठकर ताल ठोंकने का काम होगा। इसलिए मेरी अपनी समझ है कि ये मुद्दा वर्चुअल स्पेस की पूरी अवधारणा को बहुत ही सीमित और फ्रैक्चरड तरीके से देखने की कोशिश करता है। मुझे तो यहा तक लगता है कि जो कोई भी बेबाक तरीके से ब्लॉगिंग करता आया है,उसके दिमाग में इस मुद्दे का आना ही उसके लिखने पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है।..
मेरी बात पढ़कर आप कहेंगे कि मैं तब लिखने के नाम पर फुलटाइम,फुलटू,फुलस्पीड में आवारगी की डिमांड कर रहा हूं। नहीं,ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। कोई भी लेखक जब इस स्पेस पर लिखता है तो लिखने के साथ उसकी किसी न किसी रुप में प्रतिबद्धता होती है। बल्कि लिखना अपने आप में एक प्रतिबद्धता का काम है,खास तरीके की कमिटमेंट है। ये संहिता से कहीं आगे और बड़ी चीज है। संभव है कि ये प्रतिबद्धता हर किसी के लिखने में अलग-अलग तरीके और साइज के हो। कोई लिखकर किसी एक या दो शख्स की कनपटी गरम करना चाह रहा हो तो कोई अपने लेखन से पूरी सिस्टम को हिलाकर रख देने की मंशा रखता हो। ऐसे में मुझे लगता है कि हमें उसकी उस प्रतिबद्धता को लेकर बात करनी चाहिए,संहिता की नहीं। पूरा कमेंट पढ़ने के लिए- http://hunkaar.com/
कोनू काम धंधा नाही का?
जवाब देंहटाएंइता बडका ब्लाग जगत का चौधरी की ब्लाग सम्मेलन रिपोर्टवा को पढने वाले भी चार ही मिले क्या?
जवाब देंहटाएंविनीत कुमार की टिप्पणी मेल से
जवाब देंहटाएंदेखिए,बहस या सेमिनार का मुद्दा चाहे जो भी हो,वो किसी भी रुप में अकारथ नहीं जाता। ये सवाल अक्सर किसी के भी मन में आया करते हैं कि इन सेमिनारों और चर्चाओं से भला होता क्या है, जो जहां पत्थर तोड़ रही होती है,जो जहां कूड़े बीन रहा होता है,वो सालों से बीनता-तोड़ता चला आता है..तो फिर क्यों करते हो उनके नाम पर चर्चा या सेमिनार? यही सवाल यहां भी उठते हैं कि जब कोई आचार संहिता मानने को तैयार ही नहीं है,आचार संहिता जैसी बात पर सहमत ही नहीं है तो फिर क्यों करा रहे हैं इस पर विमर्श?
इस मामले में मेरी अपनी राय है-
इस तरह के मुद्दे पर विमर्श करने से न तो लिखने के चलन में कोई फर्क आनेवाला है और न ही इस संहिता को ध्यान में रखकर लिखना शुरु करेंगे। लिखेंगे वही जो महसूस करेंगे और जो महसूस करेंगे वो संहिता के सींकचे में ही हो,उनकी सहमति की मोहताज हो,जरुरी नहीं।..तब तो फिर हो गया वर्चुअल स्पेस पर लेखन भला।
तो फिर...
जैसा पहले भी कहा कि कोई भी सेमिनार न तो अकारथ जाती है और न इस नीयत से कराए जाते हैं। इस तरह के मुद्दे पर भी कराने से ऐसा ही होगा। कुछ लोग पंडितई की पांत में आगे बढ़ जाएंगे। कल को वो संहिता बनानेवाली कमेटी में घुस-घुसा दिए जाएंगे। उसके विशेषज्ञ करार दिए जाएंगे..कई और सभाओं में अपनी शक्ल चमकाएंगे और इस तरह अभी महज जो गैरजरुरी मुद्दा है वो कल को एक सांस्थानिक शक्ल के तौर पर हमारे सामने होगें। पेड न्यूज,आदिवासी अस्तिमता विमर्श,दलित औऱ स्त्री-विमर्श करने में माहिर लोग इसे बेहतर समझ सकते हैं।
जारी
विनीत की मेल से प्राप्त टिप्पणी
जवाब देंहटाएंसंहिता के होने या न होने का संबंध सीधे वर्चुअल स्पेस पर लिखनेवाले लोगों से है। ये कोई एक राज्यकीय स्पेस नहीं है कि कोई खाप पंचायती करने बैठ जाए। ये खुली दुनिया है। ये अलग बात है कि हम तीस-चालीस ब्लॉगरों को शक्ल,नाम और पता ठिकाने को जान लेते हैं तो बस इसे ही दुनिया मान लेते हैं। अगर कन्सेप्चुअली वर्चुअल स्पेस को समझने की कोशिश करें तो आचार संहिता पूरी तरह वर्चुअल स्पेस की अवधारणा के खिलाफ बात करनेवाला मुद्दा है।
व्यावहारिक तौर पर देखें तो आपको कुछ ब्लॉगरों को नाम-पता सब ठीक-ठीक मालूम है तो आप लाद दें उन पर आचार संहिता और बाकियों के साथ आप क्या करेंगे? या फिर देर रात उस लेखक की नीयत बिगड़ जाए और बेनामी होकर कुछ लिख जाए तो आप क्या कर लेंगे? आप तकनीकी रुप से उसे आइडेंटिफाय भी कर लें तो फिर उससे ये कहां साबित हो सकेगा कि उसने ऐसा किस मनःस्थिति में रहकर किया? आप किसी की मनोदशा,उसकी चलन पर आचार संहिता लागू नहीं कर सकते। ये जब नागरिक संहिता के तहत जीनेवाले इंसान के बीच संभव नहीं हो पाता है तो आप मन की बारीकियों पर कैसे लागू कर सकेंगे?
ये एक ग्लोबल माध्यम हैं,जिसमें आए दिन रगड़े होंगे और ये रगड़े जरुरी नहीं कि बलिया,बक्सर,बनारस,दिल्ली का ही लेखक करे और जिसका निपटारा वर्धा,इलाहाबाद में किया जाए? ये अमेरिका की समस्या पर मुनिरका( दिल्ली में एक स्टूडेंट प्रो इलाका)में बैठकर ताल ठोंकने का काम होगा। इसलिए मेरी अपनी समझ है कि ये मुद्दा वर्चुअल स्पेस की पूरी अवधारणा को बहुत ही सीमित और फ्रैक्चरड तरीके से देखने की कोशिश करता है। मुझे तो यहा तक लगता है कि जो कोई भी बेबाक तरीके से ब्लॉगिंग करता आया है,उसके दिमाग में इस मुद्दे का आना ही उसके लिखने पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है।..
मेरी बात पढ़कर आप कहेंगे कि मैं तब लिखने के नाम पर फुलटाइम,फुलटू,फुलस्पीड में आवारगी की डिमांड कर रहा हूं। नहीं,ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। कोई भी लेखक जब इस स्पेस पर लिखता है तो लिखने के साथ उसकी किसी न किसी रुप में प्रतिबद्धता होती है। बल्कि लिखना अपने आप में एक प्रतिबद्धता का काम है,खास तरीके की कमिटमेंट है। ये संहिता से कहीं आगे और बड़ी चीज है। संभव है कि ये प्रतिबद्धता हर किसी के लिखने में अलग-अलग तरीके और साइज के हो। कोई लिखकर किसी एक या दो शख्स की कनपटी गरम करना चाह रहा हो तो कोई अपने लेखन से पूरी सिस्टम को हिलाकर रख देने की मंशा रखता हो। ऐसे में मुझे लगता है कि हमें उसकी उस प्रतिबद्धता को लेकर बात करनी चाहिए,संहिता की नहीं।
संहिता वाली बात संभव है जिस किसी के दिमाग में उपजी है,संभव है कि वो कुछ अश्लील और गालियों के इस्तेमाल किए जानेवाले शब्द को लेकर भी पनपी हो। लेकिन आप इन गालियों को प्रोत्साहित न करते हुए भी इसके समाजशास्त्र और लिखनेवाले के एग्रेशन लेबल तक ले जाकर सोचेंगे तो पूरे विमर्श का आधार ही बदल जाएगा। संहिता की बात करना दरअसल ब्लॉगिंग के भीतर की बनती संभावित कॉम्प्लीकेटेड बहस को सतही तौर पर जेनरलाइज और सतही कर देना होगा।
हां इस पूरी बहस में एक चीज का जरुर पक्षधर हूं और वो भी किसी नियम के तहत नहीं,एक अपील भर कि लिखने के साथ-साथ अगर अकांउटबिलिटी आ जाए तो कुछ स्थिति और बेहतर हो सकती है। क्योंकि अनामी होकर हर कोई बहुत गहरी और व्यापक सरोकार की बात करेगा,जरुरी नहीं। अगर न भी अकांउटेबल होते हैं तो फिर बहुत दिक्कत नहीं है। हां बस अगर वो बम धमाके की तरह आतंकवादी संगठन जैसे जिम्मेदारी अपने-आप ले लेते हैं तो इससे व्यक्तिगत स्तर पर ब्लॉगरों की ताकत में जरुर इजाफा होगा और टेलीविजन के अतिरिक्त "वर्चुअल स्पेस पर स्टिंग ऑपरेशन" होते रहने का भय बना रहेगा।.
सिद्धार्थजी का मैं शुक्रिया अदा करने के साथ माफी मांगता हूं कि आ न सका। हम लाख तार्किक बातों के बीच रहते,करते हुए भी कुछ मामलों में अपने फैसले इमोशन के आधार पर ही लेते रहते हैं। मैं यूपीएससी पास करनेवाले उन लौंड़ों में से नहीं हूं जो कि इमोशन को अपने व्यक्तित्व की खोट मानते हैं। मैं इसे अपनी पूंजी के तौर पर लेता हूं और बची रहे,इसकी लगातार कोशिश रहती है। दिल्ली से यशवंत गए हैं,हम यहां बैठे-बैठे उम्मीद और भरोसा करते हैं कि वो अपनी बात में मेरा भी तेवर शामिल करेंगे। बाकी ब्लॉगर गुर्गे तो अपनी बात कह ही रहे हैं। उम्मीद करता हूं कि उनके मुंह से भी हमारी ही जुबान निकलेगी।
आप जितना महसूस करें,जैसा अनुभव रहे,उसके एक-एक रेशे को भाषिक रुप दें,इसी उम्मीद के साथ
आप सबका,
विनीत
सर्थक चर्चा। इस मंथन से आचार-अमृत निकले। यही कामना है।
जवाब देंहटाएंविवरण देते रहें.मुद्दा बिढ़या है.
जवाब देंहटाएं९९- जो अद्वैत सत्य ईश्वर है.- यो० प० १७, आ० ३
जवाब देंहटाएं( समीक्षक ) जब अद्वैत एक ईश्वर है तो ईसाईयों का तीन कहना सर्वथा मिथ्या है . ॥ ९९ ॥
इसी प्रकार बहुत ठिकाने इंजील में अन्यथा बातें भरी हैं. सत्यार्थ प्रकाश पृष्ट ४१४, १३वां समुल्लास
परम विचार - यह देखो ऋषि का चमत्कार. इसे कहते हैं गागर में सागर. यह थोड़े से शब्द तेरी पूरी पोस्ट पे भारी हैं.
पादरी तूने क्या चखा है यह तेरे उत्तर से स्पष्ट हो जायेगा. तेरे पे ज्ञान की आत्मा उतरती हो तो दे इसका जवाब.
.
जवाब देंहटाएंउत्साहजनक, रोचक, ज्ञानवर्धक इत्यादि इत्यादि,
पर यह स्वास्थ्यवर्धक भी होगा, इसमें मुझे (XकिंचितX) पूर्ण-सँशय बना रहेगा ।
इसे छाछ से मट्ठा निकालने जैसी मेहनत के लिये उपयोग होने वाले शब्द महना-मथ की सँज्ञा दी जा सकती है । इस घोर मट्ठा से क्या निकलता है, यही देखना है । हालाँकि अकादमिक आयोजन भी अब अछूते नहीं रह गये.. पर यह भी जगज़ाहिर है कि गैर-अकादमिक आयोजन के रूप में ऎसी गोष्ठियाँ, ऎसे सम्मेलनादि ध्रुवीकरण एवँ गुटों के गठन की मातृशक्ति है । और.. यह मैं खुले मन से कह रहा हूँ । हमारी सँस्कृति कि बुनियाद ही ऎसी है, सागर-मँथन के समय से ही सुर और असुरों के विभाजन की शुरुआत हो चुकी थी । आज तलक तमाम तरह के छलावे समाज को बाँटते ही आये हैं ।
गुरुवर ज्ञान जी की टिप्पणी को विस्तार देते हुये एक शँकालु प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या वज़ह है कि, यह आयोजन विभूति नारायण जी की डेहरी पर हो रही है ?
अपने को लॉबीइँग के शिकार होते रहने से हम कब मुक्त हो पायेंगे ? और... एक बात यह कि,
अनूप जी द्वारा ब्लॉगिंग मँच की तुलना रसोई गैस से किया जाना सुखद लग सकता है, और है भी ! पर, बुज़ुर्गों द्वारा आज तक शँका की दृष्टि से देखा जाने वाला यही सुगमतर रसोई-गैस सरकारी राशनिंग और दो-नम्बरी बाज़ारवाद की शिकार हो चुकी है ।
ऎसे में सन 2020 तक गली मोहल्लों और घरेलू स्तर तक विस्तार पाने की सँभावना रखने वाले इस प्लेटफ़ॉर्म को हम स्वयँ ही बाँधने का प्रयास क्यों करें ?
.अधूरी टिप्पणी चली गयी..
जवाब देंहटाएंजाने भी दो, यारों !
ब्लॉग्गिंग की तुलना साहित्य, पत्रकारिता या एकेडमिक शोध से होनी ही नहीं चाहिए कि नैतिकता की बात हो या संपादन की. ये जैसे चल रही है चलने दिया जाए. यदि अनुशासन, नियम या नैतिकता की बात की गयी तो यहाँ भी गुटबाजी शुरू हो जायगी और फिर वही कि पौवे वालों का बोलबाला होगा और आम आदमी बोल नहीं पायेगा.
जवाब देंहटाएंअस्तित्व में सब कुछ समाहित है । इंटरनेट में सबकुछ समाहित है । ब्लॉग की आचार-संहिता बनाने का मतलब है ब्लॉग को अवरुद्ध करना ...अपने चश्में से देखना ।
जवाब देंहटाएंjo is post ki heading ko vinit bhai ke enalysis
जवाब देंहटाएं..... sarthak karta hai...... sath hi gyan dadda
guruwar amar aur rachna mam bhi sandarbho ki sahi
vyakhya kar rahe hain.....
pranam.
Lagta hai Mahatma Gandhi Hindi Vishwavidyalaya men saare moorkh wahan ka blog chala rahe hain . Shukrawari ki ek 15 November ki report Priti Sagar ne post ki hai . Report is not in Unicode and thus not readable on Net …Fraud Moderator Priti Sagar Technically bhi zero hain . Any one can check…aur sabse bada turra ye ki Siddharth Shankar Tripathi ne us report ko padh bhi liya aur apna comment bhi post kar diya…Ab tripathi se koi poonche ki bhai jab report online readable hi nahin hai to tune kahan se padh li aur apna comment bhi de diya…ye nikammepan ke tamashe kewal Mahatma Gandhi Hindi Vishwavidyalaya, Wardha mein hi possible hain…. Besharmi ki bhi had hai….Lagta hai is university mein har shakh par ullu baitha hai….Yahan to kuen mein hi bhang padi hai…sab ke sab nikamme…
जवाब देंहटाएंPraveen Pandey has made a comment on the blog of Mahatma Gandhi Hindi University , Wardha on quality control in education...He has correctly said that a lot is to be done in education khas taur per MGAHV, Wardha Jaisi University mein Jahan ka Publication Incharge Devnagri mein 'Web site' tak sahi nahin likh sakta hai..jahan University ke Teachers non exhisting employees ke fake ICard banwa kar us per sim khareed kar use karte hain aur CBI aur Vigilance mein case jaane ke baad us SIM ko apne naam per transfer karwa lete hain...Jahan ke teachers bina kisi literary work ke University ki web site per literary Writer declare kar diye jaate hain..Jahan ke blog ki moderator English padh aur likh na paane ke bawzood english ke post per comment kar deti hain...jahan ki moderator ko basic technical samajh tak nahi hai aur wo University ke blog per jo post bhejti hain wo fonts ki compatibility na hone ke kaaran readable hi nain hai aur sabse bada Ttamasha Siddharth Shankar Tripathi Jaise log karte hain jo aisi non readable posts per apne comment tak post kar dete hain...sach mein Sudhar to Mahatma Handhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya , Wardha mein hona hai jahan ke teachers ko ayyashi chod kar bhavishya mein aisa kaam na karne ka sankalp lena hai jisse university per CBI aur Vigilance enquiry ka future mein koi dhabba na lage...Sach mein Praveen Pandey ji..U R Correct.... बहुत कुछ कर देने की आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंMAHATMA Gandhi Hindi University , Wardha ke blog per wahan ke teacher Ashok nath Tripathi nein 16 november ki post per ek comment kiya hai …Tripathi ji padhe likhe aadmi hain ..Wo website bhi shuddha likh lete hain..unhone shayad university ke kisi non exhisting employee ki fake id bhi nahin banwai hai..aur unhone program mein present na rahne ke karan pogram ke baare mein koi comment nahin kia..I respect his honesty ..yahan to non readable post per bhi log apne comment de dete hain...really he is honest...Unhen salaam….
जवाब देंहटाएंMAHATMA Gandhi Hindi University , Wardha ke blog per wahan ke teacher Ashok nath Tripathi nein 16 november ki post per ek comment kiya hai …Tripathi ji padhe likhe aadmi hain ..Wo website bhi shuddha likh lete hain..unhone shayad university ke kisi non exhisting employee ki fake id bhi nahin banwai hai..aur unhone program mein present na rahne ke karan pogram ke baare mein koi comment nahin kia..I respect his honesty ..yahan to non readable post per bhi log apne comment de dete hain...really he is honest...Unhen salaam….
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