इस मौके पर विषय प्रवर्तन करते हुये विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूति नारायण राय ने कहा :
बीसवीं शताब्दी को यदि एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो मैं उसे हाशिए की शताब्दी कहना चाहूंगा।
इस कार्यक्रम के उद्धाटन भाषण में नामवर सिंह ने अपने विचार व्यक्त करते हुये बीसवी सदी को सर्वाधिक क्रांतिकारी घटनाओं की शताब्दी बताया। ऐसी शताब्दी जिसमें दो-दो विश्वयुद्ध हुए, विश्व की शक्तियों के दो ध्रुव बने, फिर तीसरी दुनिया अस्तित्व में आयी। इस मौके पर जनकवि बाबा नागार्जुन को याद करते हुये उन्होंने कहा:
बाबा ने काव्य के भीतर बहुत से साहसिक विषयों का समावेश कर दिया जो इसके पहले कविता के संभ्रांत समाज में वर्जित सा था। दलितों, म्लेच्छों, वंचितों और शोषितों को उन्होंने अपनी कविता में पिरोकर प्रभु वर्ग के सामने खड़ा कर दिया। चमरौंधा जूता पहनाकर ए.सी. ड्राइंग रूम में घुसा दिया। ऐसे पात्र इससे पहले प्रेमचंद की कहानियों में ही पाये जाते थे। नागार्जुन के दोहे सुनाकर उन्होंने दर्शकों को रोमांचित कर दिया।
खड़ी हो गयी चाँपकर कंकालों की हूक।
नभ में विपुल विराट सी शासन की बंदूक॥
जली ठूठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक॥
इस मौके पर अन्य रिपोर्टें आप निम्न कड़ियों में देख सकते हैं:
इन्हीं कड़ियों में अन्य लाइव रिपोर्टिंग के किस्से भी हैं।
वक्ताओं ने अपने प्रिय कवियों के बारे में बोलते हुये जो उसे आप कविता वाचक्नवी जी की रिपोर्ट में देख सकते हैं। उनके कुछ अंश देखिये:
- नागार्जुन के काव्य में जेठ का ताप और पूर्णिमा का सौन्दर्य है.-प्रो.शम्भुनाथ
- भारतीय जनता की सम्पूर्ण मुक्ति के कवि हैं नागार्जुन. उनका स्वप्न था कि एक ऐसे भारत का निर्माण करेंगे जहाँ मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की कोई सम्भावना नहीं.-प्रो.नीरज सिंह
- शमशेर की कविताएँ अपनी समकालीनता का एक एल्बम हैं। हमारे पहले की तस्वीर हमारे आज से कई बार इतनी भिन्न होती है कि हम स्वयं नहीं पहचान पाते. कई बार समूचा भोलापन खो चुका होता है.-प्रो.रंजना अरगड़े
- आज जिस प्रकार शमशेर वाले इस सत्र में सबसे कम वक्ता, सब से कम श्रोता हैं, यही शमशेर के साथ आजीवन होता रहा कि बहुत कम लोग उनके साथ रहे, चले.-अरुण कमल
- जिन कवियों को आप प्यार करते हैं उनकी कोई शताब्दी नहीं होती.-अरुण कमल
- फ़ैज़ को अपनी भाषा से बहुत प्रेम था. वे अपनी भाषा के लिए अत्यन्त चिन्तित होने के साथ साथ गर्वित भी थे.-डा.प्रीति सागर
- फ़ैज़ का आशिकाना मिज़ाज़ हमें ही नहीं बुजुर्गों को भी प्रभावित करता है, उन्होंने कहा मेरी दो ही प्रेमिकाएँ हैं, एक है मेरी महबूबा और दूसरा है मेरा देश.-दिनेश कुशवाह
- कवियों की तुलनात्मक चर्चा यहाँ यों हुई है जैसे आप उन्हें नम्बर दे रहे हों.-कवि आलोक धन्वा
अभिषेक अपने काम के लिहाज से बहुत व्यस्त जैसी जिन्दगी जीते हैं फ़िर भी दोस्तों के उकसावे पर किताबें पढ़ने और फ़िर उसके बारे में बताने का समय निकाल लेते हैं। पिछले दिनों उन्होंने जो किताब पढ़ी उसके बारे में बताते हुये लिखते हैं:
किताब पर अगर एक लाइन कहूँ तो... 'किताब खोलने के बाद मैं अपनी जगह से तब उठा जब किताब का आखिरी पन्ना आ गया और आँखे तब-तब हटी जब-जब ये लगा कि पुस्तक पर बुँदे टपक जायेंगी.'
यह एक लाइन वाली बात उन्होंने अपनी पोस्ट में दो लाइनों में कही। एक के साथ एक फ़्री का जमाना है हर जगह। :)
कोई किताब क्यों किसी को पसन्द आती है इस बारे में अपनी फ़िलासफ़ी बताते हुये अभिषेक लिखते हैं:
मेरा अनुभव कहता है कि अगर कुछ भी पढते समय अगर उससे जुड़ाव हो जाए लगे कि कहीं ना कहीं हमने भी ऐसा महसूस किया है. कुछ पढते समय अगर पात्रों के साथ-साथ चलना हो पाता है वो बहुत अच्छा लगता है. कुछ पंक्तियाँ भले ही कितनी साधारण हो वो हमेशा के लिए याद रह जाती है क्योंकि उसमें अपनी या अपने आस-पास की बात दिखती है. ये कहानी वहाँ चलती हैं जहाँ मेरी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा गुजरा है. और वो हिस्सा जिसे बचपन कहते हैं. मैं घर जाने के लिए आज भी उसी स्टेशन पर उतरता हूँ जिसका वर्णन पहले पन्ने पर है. उसी गाँव में मैंने प्राथमिक शिक्षा पायी है जो पुस्तक में नायिका का गाँव है. पुस्तक पढते हुए मैं उसमें आये हर रास्ते पर चल पाया. एक-एक दृश्य देखा हुआ मिला. एक एक चरित्र में किसी की छवि दिखती गयी. खेती के तरीके अब भी लगभग वही हैं. उन खेतों में आज भी भदई बोना जुए का खेल ही है... नावों और बैलों को छोड़कर आज भी सबकुछ वैसा ही है. पुस्तक में आया बरगद का पेंड आज भी वैसे ही खड़ा है. आंचलिक शब्दों, दृश्यों और पात्रों से जुडने में जहाँ कोई समय नहीं लगा वहीँ उनको भुलाने में समय लग रहा है.
किताब का नाम है कोहबर की शर्त! कोहबर के बारे में सवाल-जबाब हुये हैं पोस्ट में। उसका मतलब कुछ को पता है कुछ को नहीं। देखिये आप भी क्या होता है कोहबर और क्या है कोहबर की शर्त।
कल भारत का खेलों में जलवा रहा। कामनवेल्थ खेलों में पदक मिले और क्रिकेट में आस्ट्रेलिया से जीत। एक अखबार में हेडिंग थी: पांच गोल्ड कंगारू बोल्ड। इस मौके पर विवेक सिंह ने अपनी कविता में भारत माता की खुशी जाहिर करते हुये लिखा:
खाता खोला स्वर्ण का, सही निशाना मार
बिन्द्रा-नारंग को कहें, बहुत बहुत आभार
बहुत बहुत आभार बनाया कीर्तिमान है
अर्जुन की इस मातृभूमि की बढ़ी शान है
विवेक सिंह यों कहें खुश हुई भारत माता
सही निशाना लगा स्वर्ण का खोला खाता
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी। लेकिन जल्दी ही।
शानदार/ ज्ञानवर्धक चर्चा।
जवाब देंहटाएं..आभार।
बढ़िया चर्चा !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा ..अच्छी रिपोर्ट
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया चर्चा।
जवाब देंहटाएंबढ़िया रिपोर्टमयी चर्चा.
जवाब देंहटाएंTHIK HAI.....YE BHI
जवाब देंहटाएंPRANAM
साहित्य-जगत सम्बन्धी ख़बरों को पढ़कर अच्छा लगा...'विभूति' का बखान तो वैसे पिछले दिनों खूब सुन चुके हैं.बाबा नागार्जुन का सन्दर्भ पसंद आया!
जवाब देंहटाएंचार महान विभूतियों को नमन॥
जवाब देंहटाएंहम्म... बढ़िया चर्चा, यह बहुत ख़ुशी की बात है है की शमशेर, अज्ञेय, केदार और नागार्जुन ,के जन्म के सौ साल एक साथ पूरे हुए...अतः उनके बारे में बहुत कुछ पढने को भी मिल रहा है... मैंने नागार्जुन को बहुत कम पढ़ा है...
जवाब देंहटाएंअब तक ९ गोल्ड हो गए हैं और पांच गोल्ड कंगारू बोल्ड - यह शीर्षक हिंदुस्तान की है
अभिषेक ओझा के लिखने की शैली बहुत अच्छी है और tag लाइन भी -Once upon a time i tried to व्रिते
खड़ी हो गयी चाँपकर कंकालों की हूक।
नभ में विपुल विराट सी शासन की बंदूक॥
जली ठूठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक॥
यह याद रहेगी... शुक्रिया.
पांच गोल्ड कंगारू बोल्ड...
जवाब देंहटाएंपैसा वसूल हो गया.
स्तरीय चर्चा.
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंमै पालतू हूं ? किसके दिये निवाले गटकता हूं मै ? और प्रजातन्त्र के इस युग में राजा भला रह कहां गया । न राजा, न प्रजा । सभी पब्लिक है, अवाम, जन साधारण ! सहस्रशीर्षा पूरूषः सहस्राक्षः सहस्र पादकृहे कोटिशीर्ष, हे कोटिबाहु, हे कोटिचरण...!
क्या कोई इस तरह बेबाक लिख सकता है, डायरेक्ट हिट ! क्योंकि उनके लेखन का यही क्रम आगे भी जारी रहता है..
समारोह खत्म हुआ परसों रात साढे़ आठ बजे और मृगांकजी की निगाहें अपने नये निशाने पर जीम है...बाबू जी को इक्वायन हजार की थैली । पन्द्रह हजार अभिनन्दन-ग्रन्थ सोख लेगा । पांच हजार लग जायेंगे समारोह में । बची हुई निधि से एक-आध संस्था की बुनियाद डाली जायेगी । ललनजी को जंच जाये तो दिल खोलकर साथ देंगे । फिर उनकी रामसागर बाबू से कैसी घुटती है । बाबू गोपीवल्लभ ठाकुर को भी यह प्रस्ताव पसन्द आयेगा । ये तीनों अपनी गुंजलक में समूची दुनिया को लपेट लेगें...लाख दो लाख क्या, यह त्रिमूर्ति कहीं सचमुच भिड़ गयी तो नम्बरी नोटों की वर्षा होने लगेगी । और फिर जादू सम्राट पी0सी0 सरकार दंग रह जायेंगे । सोचते-सोचते मृगांकजी का माथा गरम हो उठा ।
हाँ, यह बाबा नागार्जुन के कलम की निडरता है, जो साहित्यजगत के ऎसे गबड़चौथ को उन्होंनें अभिनन्दन के उद्योगपर्व में बेबाकी से उकेरा है । उनकी एक अन्य रचना पहर तो जैसे कहर ही ढा देती है ।
बकिया आपके कीबोर्ड से निकली चर्चा चौंचक न हो, ऎसा हो ही नहीं सकता । किन्तु नामवर जी मौकों के हिसाब से अपने को बदलते रहने में कितने सिद्धपुरुष हैं, यह देखते हुये उनका प्रसँग ( जैसे कि बाबा उनके रिकेमेन्डेशन हों ) अरुचिकर लगा । आगे यह भी जानिये अनूप जी, कि मैं साहित्य का विद्यार्थी तो नहीं , हाँ उसका कीड़ा अवश्य हूँ । सो इतना कह ही सकता हूँ ।
जली ठूठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक
जवाब देंहटाएंबाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक॥
सुंदर चर्चा ।
मैं तो आजकल `चर्चा के लायक कार्यक्रम' के आयोजन में इतना गले तक डूब गया हूँ कि चिट्ठाचर्चा पढ़कर आनंदित होने का मौका ही नहीं मिल रहा है। आज यह सब पढ़कर आपको धन्यवाद देने का मन करता है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा
जवाब देंहटाएंरपट के अलावा भी बहुत कुछ ग्रहण करने योग्य है यहाँ ।
जवाब देंहटाएंशरद जी सब कुछ ग्रहण कर लीजिये कहीं ग्रहण न लग जाए
जवाब देंहटाएंफिल्म नदिया के पार में इस उपन्यास की आधी कहानी ही प्रयोग हुई थी .उपन्यास की बाकी कहानी को लेकर नदिया के पार पार्ट 2 बननी चाहिए, जैसे पिछले वर्ष सचिन और राजश्री की फिल्म अखियों के झरोखों से फिल्म का पार्ट 2 फिल्म जाना पहचाना बनी थी, वैसे उपन्यास की बाकी कहानी क्या है
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