होली शुरु हो गयी है। लेख और कार्टून आने लगे होली के मौके पर। फ़िर मैगजीन कैसे ने आयें। सो संजय बेंगानी ने साथी ब्लॉगरों को हड़काकर, धमकाकर और फ़ुसलाकर लेख,कवितायें, कार्टून मंगवाये और होली पत्रिका होलीजीन निकाल दी। आप भी पढिये। चकाचक है। उतार लीजिये यहां से और पढिये चाहे आनलाइन, चाहे पीडीएफ़ में (2 एमबी और 10 एम बी दोनों में है। उसके पहले राजेश दुबे ने कार्टूनलीला निकाली जो अभी आनलाइन नहीं है । लेकिन आप खरीद कर बांच सकते है। फ़िलहाल तो आप उसका मुखपृष्ठ निहार लीजिये। और हां अगर आप लिखने के साथ-साथ छपाने का भी शौक रखते हैं तो अपनी रचनायें भी भेज सकते हैं कार्टूनलीला में छपने के लिये। राजेश दुबे कार्टूनिस्ट हैं। वे आपकी रचनाओं पर कार्टून बनाकर छापेंगे। पैसा-उइसा भी देंगे जब कभी पत्रिका कमाई करने लगेगी। लेकिन फ़िलहाल आपको आभार से काम चलाना पड़ेगा। पत्रिका का ई पता है-cartoonleela@gmail.com भेजिये अपना लिखा हुआ। छपवाइये। :)
और आपको पता ही होगा कि ब्लॉग जगत में एक ठो हां मैडम हैं जिनका तखल्लुस है हां नहीं तो! और ये हां नहीं तो मैडम बहुत तेज चैनल हैं। हर काम इस्टाइल से करती हैं। ये नीचे का इस्टाइलिश वाला फ़ोटो भी उनका ही है। होली शुरु हुई नहीं कि सब टाइटल बांट दिहिन। तीन ठो पोस्ट बक्सा में हैं एक , दो और तीन! देख लीजिये क्या पता आपको भी कोई टाइटिल मिला हो। टाइटल से मन नहीं भरा तो ब्लॉग चिंतन तक कर डाला। देखिये तो जरा:
ब्लॉगर हौं तो बस एही बतावन, बसौं कोई गुट के छाँव मझारन
नाहीं तो पसु बनिके फिरोगे, आउर खाओगे नित रोज लताड़न
पाहन बनौ चाहे गिरि बनौ, नाही धरोगे धैर्य, कठिन है ई धारण
फिन खग बनि इक पोस्ट लिखोगे, औ करोगे अभासीजगत से सिधारन
अब भाई जब टाइटल बांटने का काम खाली मैडमैं करेंगी का? जब मैडम बांटेंगी तो देशनामा वाले खुशदीप काहे नहीं बांटेंगे? बन्दा 1994 से कलम-कंप्यूटर तोड़ रहा है अब अचानक टाइटल बांटने लगा। होली जो कराये सो कम है!
आप ही देखिये राज भाटिया के उकसावे पर टाइटल फ़िलिम बनाइन हैं खुशदीप। नाम धरिन हैं ब्लॉगोले। कहानी का विवरण आप उनकी पोस्ट में देखिये लेकिन टाइटल हम आपको दिखाये देते हैं:
ठाकुर बलदेव सिंह....सतीश सक्सेना
वीरू....अनूप शुक्ल
जय....समीर लाल
गब्बर सिंह...डॉ अरविंद मिश्र
जेलर...राजीव तनेजा
सूरमा भोपाली....अविनाश वाचस्पति
रहीम चाचा...जी के अवधिया
रामू काका...???
सांभा...???
कालिया...???
अहमद...???
टाइटल का मजा तो ठीक है लेकिन हमको लग रहा है कि अगर कहीं ये फ़िलिम बनी तो ये टाइटिल वाले गब्बर सिंह कहेंगे कि फ़िल्म शुरु करो -जब है जां जाने जहां मैं नाचूंगी । फ़ुल फ़िल्म में केवल यही गाना चलेगा और कुच्छ नहीं! वीरू....अनूप शुक्ल
जय....समीर लाल
गब्बर सिंह...डॉ अरविंद मिश्र
जेलर...राजीव तनेजा
सूरमा भोपाली....अविनाश वाचस्पति
रहीम चाचा...जी के अवधिया
रामू काका...???
सांभा...???
कालिया...???
अहमद...???
होली के मौके पर लंदन बुलेटिन में शिखा वार्ष्णेय ने दुनिया भर में होली की तरह मनाये त्योहारों की जानकारी दे दी। खाली जानकारी देना तो विकीपीडिया टाइप मामला हो गया सो उस्ताद लोगों की तरह मैडम अपनी तरफ़ से भी कुछ न कुछ कहेंगी ही न! सो कहा है वो आप भी सुन लीजिये:
यूँ देखा जाये तो अपने पराये की यह भावना सिर्फ एक मानसिकता भर है। जहाँ तक मुझे इस घुमक्कड़ी और अप्रवास ने सिखाया और अनुभव कराया है वह यह कि, मानो तो पूरी दुनिया एक जैसी है न मानो तो अपना पड़ोसी भी एलियन लगेगा। मनुष्य हर जगह एक जैसे ही हैं। सभी के शरीर में दिल, दिमाग निश्चित जगह पर ही होता है,त्वचा का रंग बेशक अलग अलग हो परन्तु खून का रंग सामान ही होता है। हाँ कुछ भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार उनके रहन सहन के ढंग अवश्य बदल जाते हैं और फिर उनके अनुसार कुछ सोचने का ढंग भी,परन्तु मूलत: देखा जाये तो हर जगह , हर मनुष्य एक जैसा ही होता है।
तो तय हुआ कि हर जगह , हर मनुष्य एक जैसा ही
होता है। ठीक ? अब आगे देखा जाये मामला!
काजल कुमार कार्टूनिस्ट काले चश्में वाले |
राजेश दुबे संस्कार धानी वाले |
फ़िलहाल
आप ये कार्टून देखिये। छोटे लगाये हैं कि अगल-बगल लग सकें।
बड़े होते ही गठबंधन पार्टियों के घटक दलों की बहककर अलग-अलग हो जा रहे थे।क्लिकियाइये बड़े हो जायेंगे
सिद्धार्थ त्रिपाठी रायबरेली के बड़े खंजांची साहब को पता नहीं कहां से समय मिल गया आज और उन्होंने कवि/संपादक की नोकझोंक पेश की देखिये क्या कहते हैं दुष्यंत कुमार अपने संपादक धर्मवीर भारती से:
पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुजूर
संपादकी का हक तो अदा कीजिए हुजूर
अब जिन्दगी के साथ जमाना बदल गयाअब जब संपादक भी कवि है तो ऊ भी कुछ न कुछ तो कहिबै करेगा। सो देखिये क्या कहता है कवि संपादक अपने पीड़ित शायर से सिद्धार्थ त्रिपाठी के यहां नोक-झोंक में।
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुजूर
ये नयी पीढ़ी न जाने क्या अगड़म बगड़म लिख कर स्वाहा कर देती है एक तरफ़ पंडितजी उनको कैरेक्टर लेस कहते हैं दूसरी तरफ़ कहा जाता है- तुम व्यंग्य में माहिर हो गये हो। सच क्या है वह तो घटनास्थल पर ही पता चलेगा।
आपको होली के मौके पर गिरता हुआ कटहल देखना हो तो पहुंचिये सुखी कैसे हों की तकलीफ़देह पड़ताल में जुटे प्रमोद सिंह की नोटबुक पर!
प्रिया दत्त क्यों नहीं आयीं काटजू से मिलने ? यह मसला अगर समझना चाहते हैं तो हाथ रगड़ते हुये चलिये पुण्य प्रसून बाजपेयी के यहां।
सड़क छाप भाईसाहब होली में सबके मुंह काले कर रहे हैं आप भी देखिये तमाशा राइटर एट लार्ज पर!
आखीर में यादों का जंकयार्ड ही मिलता है। देखिये क्या है वहां:
इतने साल बाद भी सारे रस्ते वैसे ही याद थे...किस मोड़ पर रुकी थी...कहाँ पहली बारिश का स्वाद चखा था...कोलेज के आगे का चाट का ठेला...गोसाईं टोला की वो दूकान जहाँ एक रुपये में कैसेट पर गाना रिकोर्ड करवाते थे. नेलपॉलिश खरीदने वाली दुकान. बोरिंग रोड का वो हनुमान जी का मंदिर. आर्चीज की दुकान की जगह लीवाईज का शोरूम खुल गया है.
कितने सालों में ये शहर परत दर परत मेरे अन्दर बसता रहा है. बचपन की यादें नानीघर से. जब भी जाते थे दिदिमा अक्सर बाहर ही दिखती थी. उसमें कोई फ़िल्मी चीज़ नहीं दिखती थी. कोने खोपचे के किराने की दुकान, आइसक्रीम फैक्ट्री, दूर तक जाती रेल की पटरियां. हर चीज़ के साथ जुड़े कितने लोग दिखते रहे...मम्मी, नानाजी...बचपन और कोलेज के कुछ दोस्त जिनका अब नाम भी याद नहीं.
आज के लिये बस इतने ही चिट्ठे बाकी फ़िर कभी!
जज्बे को सलाम
यह
है उत्तर प्रदेश की सोमवती ! इन्होंने उपले बनाकर और बेचकर अपने दो बेटों
की परवरिश की, उन्हें पढ़ाया-लिखाया। आज उनके दोनों बेटे उत्तर प्रदेश
पुलिस में डिप्टी एस.पी हैं। एक मां और स्त्री के संघर्ष की प्रतीक बनी
सोमवती को हमारा सलाम ! फ़ेसबुक में Dhruv Gupta की जरिये।और अंत में :
कल कई साथियों ने प्रतिक्रिया दी कि जमाये रहो चर्चा। सो हम जमा दिये आज भी। कल का कोई भरोसा नहीं काहे से कि फ़ैशन के दौर में गारंटी चलती नहीं और फ़िर ये ठहरा बेफ़ालतू का काम। चलिये आप मजे करिये। हम भी लगते हैं काम से।
सभी होली मुबारक हो।
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बड़ी तेज हो गयी है चर्चा अब यहाँ से सीधे भागते हैं लिनक्स पर -आभार
जवाब देंहटाएंशुकुलायिन और बच्चों के साथ होली चकाचक मने -शुभकामनाएं
आइये लिंक बांच के फ़िर से टिपियाने। तब तक होली फ़िर से मुबारक!
हटाएंलगता है कि चर्चा नियमित होने लगी है
जवाब देंहटाएंअच्छी बात है
एेसे लगता है कि सुबह का भूला घर लौटा
हां लौटा है फ़िर से भटकने भूलने के लिये और लौट के आने के लिये!
हटाएंbhoolene bhatkene aur laut aane ka ye silsila ......... chalta rahe
जवाब देंहटाएंholinam.
आमीन!
हटाएंचिटठा चर्चा की वापसी अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंकई कहावतें हैं, ऐसी घटनाओं के लिए :)
कहते हैं सुबह का भूला, अगर शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते हैं,
या फिर कह देते हैं, लौट के बुद्धू घर को आये :)
आपके यहाँ फ़ोलोवर्स 420 हो गए हैं, ई नंबर से आपका कुछो लेना-देना तो नहीं न है :)
बाकी, धन्यवाद का टोकरा देने आये हैं, सम्हाल लीजियेगा।
और होली की बधाई की टोकरी भी, खूब पकवान खाइये और रंग में रंग जाईये।
आपका आभार !
बस इन दो (भूला और बुद्दू ) में ही काम चल जायेगा। भूला है और बुद्धू है इसलिये आता,जाता रहता है। 420 फ़ालोवर भी इसई निभ जायेंगे- भूला और बुद्धु है इसई लिये 420 फ़ालोवर हैं। :)
हटाएंधन्यवाद! होली की शुभकामनायें आपको भी। सपरिवार! :)