नौकरी पेशा लोगों के लिये मार्च का महीना बड़ा जालिम टाइप होता है। जित्ता काम साल भर में नहीं होता उत्ता इकल्ले मार्च में हो जाता है। सरकार के सारे फ़ण्ड खर्चने का महाभारत मार्च में होता है। मार्च इत्ती तेजी से मार्च करता है कि जड़त्व के नियम की आड़ में आधे से ज्यादा अप्रैल तक पर कब्जा जमा लेता है। दस-पन्द्रह-बीस अप्रैल तक मार्च का झण्डा फ़हराता है। बहरहाल।
इसई मार्च की व्यस्तता के शिकार अपन भी सुबह चर्चा कर नहीं पाये। लेकिन देखा कि कल की चर्चा दैनिक भास्कर में छपी है। शहर में अखबार खोजा सो मिला नहीं। कोई नहीं यही देखिये जो छपा है अखबार में। इसका मतलब कि अखबार वाले भी चिट्ठाचर्चा बांचते हैं कभी-कभी।
बहरहाल अब देखते हैं एकाध ब्लॉग और बताते हैं आपको भी उनके बारे में। चलिये सबसे पहले आपको मिलवाते हैं एक वाहियात आदमी से। उसके बाद अच्छे ब्लॉग का जिक्र करते हैं। देखिये क्या कहते हैं सागर के ब्लॉग में यह आदमी अपने बारे में बताता है:
तुम्हें कभी कभी लगता होगा न कि मैं कितना घुन्ना आदमी हूं और यह कल्पना भी करती होगी कि कभी जो मुझे मिलना हुआ गर सच में तो इस रास्कल को कॉलर से पकड़कर फलाना बात पूछूंगी, चिलाना सवाल करूंगी। लेकिन तुम्हारी ही तरह मेरे पास जबाव नहीं होते, सिर्फ सवाल हैं, बेहिसाब मौलिक सवाल। जबाव भी है लेकिन वो सब बस समझौते से उगा है, जबाव में घनघोर बदलाव है, यह मौलिक नहीं है, यह कभी कुछ है तो कभी कुछ। ग़ौर करोगी तो पाओगी जबाव मूड पर निर्भर करता है। एक प्रश्न है जो अटल और नंगा खड़ा रहता है। खैर छोड़ो....मैं भी कितना वाहियात आदमी हूं कहां से कहां बह जाता हूं।यही घुन्ना और समझौते से उगा आदमी किन ख्यालों में गुम रहता है यह भी देखा जाये जरा:
दुपट्टा सलीके से अब लेने लगी हो। और इस संभालते वक्त चेहरे पर की हया भी देखने लायक है। क्या आगे चलते अब भी हुए यूं अचानक पीछे पलट कर कर देखकर हंसती हो? क्या मेरी तरह अब भी कोई तमीज़ से छेड़ता है तो चेहरे पर ऐसा एक्सप्रेशन लाती हो जैसे खट्टी दही चखी हो? क्या साइड के टूटे दांतों वाली खिड़की अब भी हमेशा झांकती रहती है? क्या वहीं जहां से तुम्हारी नाक की बनावट माथे में मिलकर खत्म होती है वहीं से भवहें अपनी ऊंची उड़ान भरती हैं?सागर के ब्लॉग के नाम के बारे में डा.अरविन्द मिश्र ने अपने विचार व्यक्त करते हुये लिखा था:
सोचालय नाम देखते ही ही मुझे कुछ अजीब सा भाव इस ब्लॉग से विकर्षित कर जाता है -मनुष्य के दिमाग को 'शौचालय ' के रूप में ध्वनित करने की सोच वाला क्या कुछ विकृत सा न लिखेगा ? मगर मन मारकर कुछ अंश आज यहाँ पढ़े तो लगा जनाब तो अच्छा लिखते है मगर मैं तो फिर भी वहां प्रवेश करने से रहा -नाम तो वे बदलेगें ना?अब क्या तो नाम बदलेगा वह अपना नाम- वाहियात खुद ही कहता है जो अपने को। :)
चलिये एक और वाहियात आदमी के किस्से देखिये जरा। मियां मुशर्रफ़ कीर्तिश भट्ट की नजर में कैसे दिखते हैं देखिये:
ये साथ का स्केच प्रमोद सिंह जी की फ़ेसबुक दीवार से लिया गया है। उसमें लिखे हैं प्रमोद जी-बीच बजार छोटे शहर के हिम्मतवालों की दोस्तियां.. एक पुरानी खींची फोटू की नकल..!
ये नीचे की फोटो के लिये विवरण लिखते हैं प्रमोद बाबू:
बउआ-बउनी.. मीना कुमारी की 'छोटी बहू' में इनकी कास्टिंग न हो सकती थी.. चेहरे पर की क्रमश: खुशीआइल और मुरझाइल उसी के प्रतिक्रिया में है..
ये वाली के लिये टाइटल अंग्रेजी में है-a new sketchy sketch of an old blastin' affair..
इसके लिये क्या लिखा है देखिये-पोती के साथ आजी, स्वरगनिबासी.. उमा के साथ टिल्डे..
चलते-चलते देखिये इरफ़ान जी का बनाया कार्टून:
आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी।शुभ रात्रि।
सही बात है कि मार्च का महीना बहुत जालिम होता है तभी तो छुट्टी के दिन की चर्चा भी उड़ी उड़ी सी लग रही है :)
जवाब देंहटाएं@काजल कुमार, उड़ी-उड़ी चर्चा की बाद की चर्चा भी देखिये जरा। उसमें आपका कार्टून भी है (मतलब आपका बनाया कार्टून)
जवाब देंहटाएंचर्चा में चित्रों को खूब प्यार मिला..हैं भी बड़े प्यारे।
जवाब देंहटाएंहां प्रमोद जी के चित्र तो प्यारे हैं ही। वे पॉडकास्टिंग भी बहुत शानदार करते हैं।
हटाएं"अब क्या तो नाम बदलेगा वह अपना नाम- वाहियात खुद ही कहता है जो अपने को।"
जवाब देंहटाएंजो खुद को वाहियात कहे उससे बेहतर कोई और नहीं होता है, सागर खुद को जैसा भी प्रजेंट करे, है दिल का बहुत ही बढ़िया.. :)
हाँ, नाम तो नहीये बदलेगा इसका गारंटी हम लेते हैं, कोई पढ़े चाहे ना पढ़े.. ;)