डॉ. वर्तिका नन्दा अपने को मीडिया ट्रेवेलर लिखती हैं। दो साल पहले उन्होंने ब्लॉगिंग शुरू की। अभी तक कुल १०७ पोस्टें लिख चुकी हैं। मतलब प्रति वर्ष लगभग ५३। अपनी पहली पोस्ट की शुरूआत करते हुये उन्होंने अपने आईआईएमसी की प्रवेश परीक्षा देने के अनुभव लिखे यह लिखते हुये:
अपना ब्लॉग शुरू करने और उस पर पहला लेख छापने का आनंद कुछ और ही होता है. मैंने इसके लिए आईआईएमसी की प्रवेश परीक्षा के लिए लिखे गए एक लेख को चुना है. इसी संस्थान में कभी मैं पढ़ती थी, कभी पढ़ाती थी. आज भी उन दिनों को याद कर गुदगुदी होती है...
मीडिया की बातें करते हुये औरतें करती हैं मर्दों का शोषण में लेख की शुरूआत में ही वे लिखती हैं- मेरा मानना है कि जिंदगी रोडवेज की बस नहीं है, जिसमें सवार होते ही औरत अपनी सीट का हक जमाने लगे इसके बाद टेलीविजन की दुनिया में मौजूद दो तरह की महिलाओं के बारे में जानकारी देते हुये वे लिखती हैं:
टेलीविजन की दुनिया में दो खास किस्म की औरतों से वास्ता पडता है. एक, जो सिर्फ अपने अधिकारों के लिए जीतीं हैं, जो तरक्की के लिए यह भूल जाती हैं कि वे औरत हैं और औरत का जामा पहने, औरत होने के तमाम हथकंडे इस्तेमाल कर किसी मुकाम पर पहुंचना चाहती हैं. दूसरी वे जो इस अनूठी प्रजाति को करीब से देख कर भी खुद को समेटे रखती हैं. इनके लिए सफलता से ज्यादा इनका औरत होना और 'औरतपन' को बचाये रखना जरूरी होता है. इनके लिए सफलता की राह धूल भरी पगडंडियों से होकर गुजरती है.दूसरी तरह की औरतों के बारे में बताते हुये वे कहती हैं:
दूसरी जमात में ऐसी बहुत-सी महिलाएं जेहन में आती हैं, जिन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया. अपनी शर्तें खुद तय कीं और अपनी लक्ष्मण रेखा भी खुद बनायीं और ऐसा करते हुए अपने अंदर की औरत को जिंदा भी रखा. इनके लिए रास्ता लंबा रहा लेकिन नतीजे सुखद रहे.इसके बाद मर्दों के शोषण के बारे में अपनी राय जाहिर करती हैं:
मैं मीडिया में महिला शोषण की बातें अक्सर सुनती रही हूं. हां मीडिया में कई बार महिलाओं का शोषण होता है लेकिन मौजूदा कहानी देखें तो औरत के हाथों मर्दों का शोषण कई गुना बढ़ा है. कोई भी उन लड़कों की बात नहीं करता जो पत्रकारिता संस्थानों से लेकर टीवी में एंकर की नौकरी तक में आम तौर पर इसलिए नकार दिये गये क्योंकि वे या तो आकर्षक नहीं होते या फिर उनके आकर्षण से किसी प्रबंधक या इनपुट एडिटर को सीधे फायदा नहीं होना होता.इसके बाद अपनी कविता में वे कहती हैं:
लोकाट को वो पेड़महिला चौकीदार शब्द पर आलोक कुमार का सवाल था:
पठानकोट के बंगले के सामने वाले हिस्से में
एक महिला चौकीदार की तरह तैनात रहता था।
वर्तिका जी महिला चौकीदार की तरह क्यों? सिर्फ़ चौकीदार की तरह क्यों नहीं?
इस पर उनका जबाब था:
महिला चौकीदार लिखने का मतलब ज़रा अतिरिक्त सतर्कता से है लेकिन आप इसे महिलावादी दृष्टिकोण से न देखें। यह सिर्फ एक छोटा सा ख्याल था जो आया और कविता लिखने के बाद मैने इसमें ..महिला..शब्द को हौले से जोड़ दिया।
इसके बाद हौले से उन्होंने अपने ब्लॉगिंग शुरू करने के बारे में भी लिख दिया:
जब बहुत छोटी थी, तभी टीवी से नाता जुड़ गया। रास्ते में कई लोग बार-बार दीए रखते गए, सिखाते गए कि टीवी की दुनिया है क्या। मन प्रिंट का हिस्सा बनने के लिए भी हिलोरे लेता रहा और इस तरह टीवी, प्रिंट और अध्यापन- तीनों ने मुझे हमेशा जगाए रखा।
यह ब्लाग जागी हुई इसी अलख को कायम रखने की कोशिश है। यह एक स्कूल है जिसमें मैं सीख रही हूं। आप भी मेरे साथ इस पाठशाला में शामिल हो सकते हैं। यहां हम मीडिया से जुड़े गुर आपस में बांटेगें, एक-दूसरे से कुछ जानेगें-समझेंगे, संवाद करेंगें और टटोलेंगे कि सीखना क्या वाकई उतना आसान है जितना देखने-सुनने में लगता है।
मीडिया में हंसने-हंसाने के कार्यक्रमों के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुये डॉ.वर्तिका लिखती हैं:
हंसाना अब मीडिया की मजबूरी है लेकिन हंसी तो चार्ली चैप्लिन की भी थी। जब भी हंसते हुए दर्द की बात होती है तो पहला नाम भी चार्ली का ही आता है। आज जब ख़बर में दर्द, विद्रूपता, भूख, गरीबी, तनाव, परेशानी के कई रंग घुल गए हैं, अगर हंसी, हंसी- हंसी में इस दर्द को भी अपने में समेट ले तो न्यूज़ मीडिया को वाकई कोई हंसी में नहीं लेगा।
अगली ही पोस्ट में अपराध और हंसी में कौन हावी टीवी पर इसके बारे में सवाल करने लगीं:
टीवी चैनल चलाने वाले पहले अपराध को अपनी रोज़ी-रोटी का सबसे बड़ा सिक्का माने हुए थे। अब हंसी भी इसमें शामिल हो गई है। लेकिन इन दोनों हथियारों में सबसे कामगर हथियार है कौन सा, मैं इस सवाल का जवाब तलाश रही हूं।
हंस में छपी उनकी एक कविता के अंश हैं:
ये खबरों की दुनिया है
यहां जो बिकता है, वही दिखता है
और अब टीवी पर गांव नहीं बिकता
इसलिए तुम ढूंढो अपना ठोर
कहीं और।
श्रीलाल शुक्ल का पद्यभूषण होने के किस्से के बहाने अपने समाज में साहित्यकारों की स्थिति पर लिखती हैं:
बहरहाल पद्मभूषण तो मिलने से रहा। नए का इंतजाम शायद जल्द हो जाए लेकिन इससे कुछ संकेत जरूर मिलते हैं।सोचना होगा- महफिलों का दौर सूख चुका, लेखकों की पुरानी पीढ़ी का सूर्यास्त करीब है। ऐसे में जो नई सुबह हमें मिलेगी, वह क्या लेखकों और कवियों के सान्निध्य से परे होगी?
आज के शहर के लोगों के बारे में भी सुनिये उनसे:
शहर के लोग अब कम बोलते हैं
वे दिखते हैं बसों-ट्रेनों में लटके हुए
कार चलाते
दफ्तर आते-जाते हुए
पर वे बोलते नहीं।
न तो समय होता है बोलने का
न ताकत
न बोलने-बतियाने का कोई खास सामान।
टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता नाम से ही डॉ.वर्तिका की किताब प्रकाशित हुई है। यह लेख शायद इसी पुस्तक में शामिल है।
बेटियों के बारे में लिखते हुये बेहतरीन बात कहती हैं :
बेटा पैदा होता है
ताउम्र रहता है बेटा ही।
बेटी पैदा होती है
और कुछ ही दिनों में
बन जाती है बेटा।
फिर ताउम्र वह रहती है
बेटी भी-बेटा भी।
इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये सुशील छौक्कर कहते हैं:कहा तो सच ही है। वो भी सोलह आने सच।
भटकन का सुख देखिये उनकी:
रंग की मानिंद घुलते
रेत की मानिंद फैलते
पेड़ की मानिंद झूमते
और इंसान की मानिंद भटकते रहने में
असीम सुख है
बशर्ते भटकन
किसी छोर से मिलन कराती हो।
हिन्दी ने साबित कर दी अपनी ताकत लेख पर अनुनाद सिंह की टिप्पणी देखकर एक बार लगा कि जहां हिंदी की बात होती है वहां अनुनाद जी अवश्य दिखते हैं।
अपनी विदेश यात्रा के किस्से सुनाते हुये वे कहती हैं:
यात्राएं सबसे बड़ी यही बात सीखाती हैं। यात्रा जोड़ती है और अंदर बनी गांठें खोलती है। पराए मुल्क में अपने देस की भाषा भीनी लगती है और बेहद स्वादिष्ट लगती है अपने घर की वही दाल भी जिसे घर में रोज खाते हुए उसकी अहमियत समझ में ही नहीं आती। यह हिंदुस्तान ही है कि खाने के साथ मुफ्त में मिल जाए काले नमक वाला प्याज, चटनी और साथ ही सॉस भी। लेकिन पहुंचिए विकसित देशों में और समझ में आता है कि हम जिस देश में रहते हैं, वो तो वाकई दिलवालों का है।
अनिल कुंबले बहाने देश समाज और राजनीति के बारे में अपनी सोच बताते हुये डॉ.वर्तिका लिखती हैं:
अब जबकि कई क्रिकेटर फैशन शो में रैंप पर थिरक रहे हैं, फिल्मी शोज में बहूदे ढंग से मटक रहे हैं या फिर बेतुके चुटकुले पर दहाड़ें मार कर हंस रहे हैं, कुंबले जैसे खिलाड़ी सम्मान और गरिमा की एक मिसाल तो हैं ही।वैसे सच कहें तो वे क्रिकेटरों की जमात से भी बड़ी मिसाल उन राजनेताओं के लिए हैं जो अपनी रिटायमेंट की उम्र लांघने के दशकों बाद भी रिटायर होना नहीं चाहते। सच ही है। किसी बदलाव को गरिमा और आत्म-सम्मान के साथ आमंत्रित करना और उसे बारीकी से समेटना बिना मानसिक ताकत और हिम्मत के संभव ही नहीं।
लगे हाथ नेताजी एक ठो और बनगी देख ली जाये:
आज चुनाव हो गए हैं
बाबा-बेबी लोग भी थक गए हैं
रिलैक्स करने जाएंगे लंदन
समाज में स्त्री की स्थिति के उनकी कविता में देखिये:
नौकरानी और मालकिन
दोनों छिपाती हैं एक-दूसरे से
अपनी चोटों के निशान
और दोनों ही लेती हैं
एक-दूसरे की सुध भी
मर्द रिक्शा चलाता हो
या हो बड़ा अफसर
इंसानियत उसके बूते की बात नहीं।
प्रेम के बारे में उनका मानना है:
प्रेम में आंखें खुली हों या मुंदी
जो प्रेम करता है
उसके लिए कुछ सपना नहीं
बस, जो सोच लिया, वही अपना है
चांद और फ़िजा के मसले पर अपनी राय जाहिर करते हुये उनका कहना है:
सोचना होगा कि न्यूज चैनलों का काम फिल्म दिखाना और विवादों को और विवादास्पद बनाने के लिए आइडिया देना है या फिर न्यूज दिखाना है?
अपनी एक पोस्ट में उन्होंने बी.ए.आनर्स जनर्लिज्म का पाठ्यक्रम पोस्ट किया कि इन विषयों पर समय-समय जानकारी दी जायेगी।
सपने अभी मरे नहीं हैं और कविता भी में उनका कहना है:
तो कविता के नाम पर कूटनीति, राजनीति, वाकनीति – सब होती रही है, आगे भी होगी। लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि तमाम उपेक्षाओं, विवादों और हेराफेरियों के बावजूद कविता जिंदा है। युवा इन्हें पढ़ रहे हैं, गुनगुना रहे हैं। बहुत से घरों में आज भी कविता किसी पुरानी डायरी में गुलाब के सूखे फूल के साथ आलिंगन किए बैठी है। इस कविता की खुशबू को कोई राजनीति छीन नहीं सकती।
डॉ.वर्तिका के अधिकांश लेख अखबारों में प्रकाशित हैं। कवितायें पत्रिकाओं में। ब्लॉग-जगत में भी उनकी कविताओं के पाठक उनके लेखों के पाठकों से अधिक हैं। उनकी कवितायें सहज और आम आदमी की बात कहती कवितायें हैं। सहज संवेदना वाली उनकी कविताओं में जब स्त्री पर अत्याचार की बात होती है तब उनका आक्रोश समस्त पुरूष समाज के प्रति
दिखता है:
सहारा देने की ताकत पुरूष में कहां
इस ताकत के कैप्सूल अभी बने नहीं
डॉ.वर्तिका के अधिकतर लेख मीडिया और समसामयिक विषयों पर लिखे हैं और हायपर रियलिटी शायद उनका पसंदीदा शब्द है। उनके लेखों में उनकी मेहनत और अध्ययन झलकता है तो कविताओं में एक स्त्री की छवि जिसने अपने अंदर की औरत को जिंदा भी रखा
इतने सारे लेखों और बेहतरीन कविताओं के बावजूद डॉ.वर्तिका के यहां टिप्पणी करने वालों की संख्या बमुश्किल एक पोस्ट पर दो अंकों (कविता वाली पोस्टों पर) ही रहा। कई लेख ऐसे हैं जो एक ही दिन पोस्ट हुये। पाठकों में कुछ ऐसे भी हैं जिनको डॉ.वर्तिका ने क्लास में पढ़ाया भी है।
कुल मिलाकर डॉ.वर्तिका का ब्लॉग पढ़ना एक सुखद अनुभव है।
कल गिरिजेश राव टुकड़ा टुकड़ा दुपहर दो पीढ़ियों के प्रतिनिधियों के बीच संवाद के बहाने आज के समय के कई छविचित्र संजोये हैं। इसमें शहर है , देहात है, मोबाइल है, चुप्पी है। और भी बहुत कुछ है जिसके चलते पाठकों ने इस संवेदनशील पोस्ट को बहुत पसंद किया। इस पोस्ट में एक उदासी भी है जिसमें बुजुर्ग का अकेलापन है और
युवक के पास कहने को कुछ नहीं। मौन फाँस कुछ और गहरे धँस गई है।पोस्ट के कथ्य से इतर उपर और ऊपर में क्या सही है इसपर बहस भी है।
इसके अलावा इस पोस्ट में तत्सम और तद्भव शब्दों की रगड़-घसड़ भी है। अगर यहां चादर शुभ्र है तो धूप का नहान भी है। और भी बहुत कुछ है टुकड़ा टुकड़ा दुपहर में और इसके मायने सब के लिए अलग हैं।
एक तरफ़ जहां गिरिजेश जैसी प्रौढ़ होते युवक की इस संजीदा पोस्ट में एक बुजुर्ग के प्रति चिंतित भाव हैं वहीं एक ऐसे व्यक्ति के किस्से भी हैं जिसने ५५ वर्ष की उम्र में अपना पहला जन्मदिन मनाया। इस जन्मदिन की सूत्रधार रही उनकी बहू आराधना। इस जन्मदिन के बाद अपनी बहू-बेटे से बातचीत के किस्से सुनिये:
मैनें उनसे पूछा कि इतनी तैयारी तुम लोगों ने कब, कैसे और क्यों कर ली. बेटे ने कहा- यह सब आराधना का खेल है. मैंने तो सामान लाने मे सहयोग किया है. आराधना ने मुझसे पूछा- क्या आपको बुरा लग रहा है? मैनें कहा, बुरा नहीं बल्कि अच्छा लग रहा है. सच में पूछो तो इतनी ज्यादा ख़ुशी हुई है कि जिसका शब्दों में वर्णन करना मुश्किल है.
और इसके बाद उनके विचार भी सुनिये:
ऐसा नहीं है कि आराधना ने जो कभी-कभी मुझसे कहा वह मुझे पता नहीं था. मैंने ऐसी बातें इससे पहले भी सुनी व पढ़ी थीं लेकिन जो प्रभाव इस उत्सव का पड़ा वह उस सुने व पढ़े का नहीं पड़ा. इस उत्सव से मुझे महसूस हुआ कि ये दोनों मुझे दिल से बहुत चाहते हैं और एक-दुसरे के प्रति यह चाहना (प्रेम करना) जितना जरुरी है उतना ही उसका उजागर होना जरुरी है.
और इसके बाद अनंत अन्वषी जी का फ़ैसला सुनिये:
इसके बाद मैंने फैसला किया कि अब न केवल इनके जन्मदिन बल्कि अन्य लोगों के जन्मदिनों को भी पूरे उत्साह से मनाऊंगा. देर आये दुरुस्त आये.
मेरी पसन्द
पीएम की बेटी ने
किताब लिखी है।
वो जो पिछली गली में रहती है
उसने खोल ली है अब सूट सिलने की दुकान
और वो जो रोज बस में मिलती है
उसने जेएनयू में एमफिल में पा लिया है एडमिशन।
पिता हलवाई हैं और
उनकी आंखों में अब खिल आई है चमक।
बेटियां गढ़ती ही हैं।
पथरीली पगडंडियां
उन्हे भटकने कहां देंगीं!
पांव में किसी ब्रांड का जूता होगा
तभी तो मचाएंगीं हंगामा बेवजह।
बिना जूतों के चलने वाली ये लड़कियां
अपने फटे दुपट्टे कब सी लेती हैं
और कब पी लेती हैं
दर्द का जहर
खबर नहीं होती।
ये लड़कियां बड़ी आगे चली जाती हैं।
ये लड़कियां चाहे पीएम की हों
या पूरनचंद हलवाई की
ये खिलती ही तब हैं
जब जमाना इन्हे कूड़ेदान के पास फेंक आता है
ये शगुन है
कि आने वाली है गुड न्यूज।
डा.वर्तिका नन्दा
और अंत में
आज की चर्चा का जिम्मा शिवकुमार मिश्र का था। शाम को तकादा किया था तो पता चला कि उनको कोई खास काम था नहीं इसलिये वे व्यस्त हो गये। इसके बाद करेला के ऊपर नीम चढ़ाकर अपना प्लान बताया कि वे चर्चा करने ही वाले थे कि बिजी हो गये। बहरहाल उन्होंने डा.वर्तिका नन्दा के ब्लॉग और उनकी कविताओं के बारे में बताया। फ़िर मैंने उनके ब्लॉग को देखा और लगभग सभी लेख और कवितायें देखीं। उनमें से कुछ का जिक्र यहां किया।
अनंत अन्वेषी जी की पोस्ट की कल मैंने चर्चा की थी।
इस पर उनकी प्रतिक्रिया थी:
यह देखकर बहुत ख़ुशी हुई की "चिटठा चर्चा" ने मेरी पोस्ट - "आई ए ऍस टॉपर इवा सहाय से मुलाकात" को १ जून २०१० का सर्वश्रेष्ठ पोस्ट चुना और उस पर समीक्षा प्रकाशित की | मैंने ब्लॉग की दुनिया मै तीन महीने पहले ही प्रवेश किया है और प्रति माह एक पोस्ट ही दे पा रहा हूँ | इस अवधि मे ब्लॉग की दुनिया को जो थोड़ा बहुत जाना उससे लगा कि इस दुनिया मे शायद गिरोहबाजी भी चल रही है | ब्लॉग कि दुनिया मे मै तो अभी किसी को भी न के बराबर जानता हूँ और शायद ही कोई मुझे जानता है | ऐसी स्थिति मे मेरी पोस्ट को चिटठा चर्चा ने जो महत्व दिया है उससे मेरा वास्तव मे उत्साह बढ़ा है और चिटठा चर्चा के प्रति विश्वास जगा है |
उनकी प्रतिक्रिया पढने के बाद मैंने उनकी बाकी की दो पोस्टें भी पढ़ीं। दूसरी पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा। सुखद एहसास हुआ कि एक बुजुर्ग का पहली बार जन्मदिन ५५ वर्ष की उम्र में मनाया जाता है और उसकी सूत्रधार बनती है उनके परिवार नयी शामिल हुई बहू। इसमें एक संतुष्ट पिता के मनोभाव हैं जो अपने बच्चों के अपने प्रति व्यवहार से अविभूत है।
इसी समय मुझे गिरिजेश राव की पोस्ट का ख्याल आया। उस पोस्ट में शायद एक पुत्र का अपराधबोध भी शामिल है जिसको लगता है कि शायद उसको अपने पिता की और बेहतर देखभाल करनी चाहिये।
बहरहाल,इन पोस्टों को पढ़ते हुये मुझे बार-बार एहसास हुआ कि ब्लॉगजगत में बहुत कुछ ऐसा भी है जिसको देखकर और पढ़कर कोफ़्त नहीं होती। यह अलग बात है कि वे पोस्टें संकलकों में ऊपर की तरफ़ नहीं दिखती जिसका इशारा गिरिजेश राव ने किया है:
ब्लॉगवाणी में ऊपर पहुँचने के लिए कई अन्य योग्यताओं की भी आवश्यकता पड़ती है जो मुझमें नही हैं। मैं परवाह भी नहीं करता। आप जैसे सुधी जन की सलाह, प्रोत्साहन और लगाव मिलते रहें, यही बहुत है।
फ़िलहाल इतना ही। आपका समय शुभ हो।
वाह!
जवाब देंहटाएंक्या खोजी नज़र है आपकी..!!
डा० वर्तिका नंदा से परिचित करने के लिए आभार.
अभी तो आपके लिखे में ही डूब कर मस्त हो गया...ब्लॉग भी पढूंगा, कभी फुर्सत में.
वर्तिकामयी चर्चा भी अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंबिना साँस रोके ही पढ़ लिया पूरा चिठ्ठा, बहुत ही भाया। वर्तिका नन्दा से मिलाने के लिए आभार। बहुत ही अच्छा लगा, बधाई।
जवाब देंहटाएंadbhut pratibha.
जवाब देंहटाएं?
जवाब देंहटाएंअविचलित चर्चा !
जवाब देंहटाएंहालांकि कभी टिप्पणी तो नहीं की लेकिन वर्तिका नन्दा जी का ब्लाग हम भी यदाकदा पढ ही लेते हैं.. बहरहाल बढिया रही चर्चा.
जवाब देंहटाएंजहां हिंदी की बात होती है वहां अनुनाद जी अवश्य दिखती हैं।...शायद यहाँ दिखते होना चाहिए.
रोचक चर्चा...डॉ वर्तिका और श्री राव को अगली फुर्सत मे पढ़ते हैं... आभार
जवाब देंहटाएंआईये जाने ..... मन ही मंदिर है !
जवाब देंहटाएंआचार्य जी
@पं.डी.के.शर्मा"वत्स" वर्तनी की गलती सुधार ली। बताने के लिये शुकिया।
जवाब देंहटाएंब्लॉगजगत में बहुत कुछ ऐसा भी है जिसको देखकर और पढ़कर कोफ़्त नहीं होती।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा लगा पढकर।
चिट्ठा-चर्चा में निपुण, लगते बहुत अनूप!
जवाब देंहटाएंरचना-रचनाकार का, खिल उठता है रूप!!
वर्तिका जी को पहले भी २-३ बार पढ़ा है पर आज अच्छे से जाना.. आपका आभार.
जवाब देंहटाएंब्लाग जगत में बहुत कुछ अच्छा है।
जवाब देंहटाएंसचमुच अनूप जी,
जवाब देंहटाएंआजकल ब्लाग में जिस तरह की गंद मची हुई है उसके बीच आपकी यह पोस्ट पढ़ना बहुत सुकून दे गया । सचमुच एक सकारात्मक और रचनात्मक पोस्ट। वर्तिका नंदा और उनकी रचनाओं के बारे में पढ़कर यह यकीन भी आया कि ब्लागिंग की दुनिया में गंभीर विमर्श वाले लोग भी हैं।
बहुत बढ़िया चर्चा.
जवाब देंहटाएंयह अच्छा हुआ कि वर्तिका जी के ब्लॉग के बारे में बताकर मैं निकल लिया. क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद मैं इतनी बढ़िया चर्चा न कर पाता. जिन्हें यह शिकायत रहती है कि उन्हें टिप्पणियां नहीं मिलती वे वर्तिका जी का ब्लॉग पढ़ें. कम से कम टिप्पणी न मिलने की शिकायत नहीं करेंगे.
बढ़िया चर्चा, बहुत अच्छा लिखती हैं नंदा जी, बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंशिवकुमार जी की टिपण्णी सही है.. मुझे भी लगता है कि जिस परिश्रम से ये चर्चा की गयी है वो शायद केवल आप ही कर सकते है.. वर्तिका जी को पढने के लिए समय निकालना ही पड़ेगा.. अनंत अन्वेषी जी की बात को मैं अपनी भी बात कहूँगा.. मुझे भी पहली बार अपनी चर्चा देखकर अच्छा लगा था खास कर तब जब मैं नया ही था.. वैसे मैं आज भी नया हूँ.. :)
जवाब देंहटाएंकाजलकुमार जी का बनाया हुआ कार्टून पसंद आया.. उत्तम चर्चाओ में एक और योगदान आपका..
चिट्ठा चर्चा पसंद आई , वर्तिका नंदा से , उनके लेखों से व कविता से परिचय अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंटुकड़ा टुकड़ा दुपहर भी मन को छू गई।
चिट्ठा चर्चा पसंद आई , वर्तिका नंदा से , उनके लेखों से व कविता से परिचय अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंटुकड़ा टुकड़ा दुपहर भी मन को छू गई।
चिट्ठा चर्चा पसंद आई , वर्तिका नंदा से , उनके लेखों से व कविता से परिचय अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंटुकड़ा टुकड़ा दुपहर भी मन को छू गई।
aaj ki charcha achchi lagi
जवाब देंहटाएंVartika Nanda ji se parichay lekh aur kavitaon ke ansh bahut achhe lage.
जवाब देंहटाएंSaarthak prastuti ke liye dhanyavaad.
चिट्ठा चर्चा पसंद आई , वर्तिका नंदा से , उनके लेखों से व कविता से परिचय अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंजबरदस्त
जवाब देंहटाएंबेटी पैदा होती है
और कुछ ही दिनों में
बन जाती है बेटा।
वर्तिका जी को अखबारों ओर यदा कदा ब्लॉग में पढ़ता आया हूँ .....लेकिन इमानदारी से कहूँ .....आपकी तरह नहीं....यूँ भी किसी इंसान को जानना हो तो उसकी पंद्रह बीस पोसते उसका समूचा खाका खींच देती है ......पर यक़ीनन उनकी पिछली पोस्ट लाज़वाब है ....टेलिविज़न क्षेत्र से जुडी एक- दो महिलाए मेरे अच्छी मित्र है .ओर वे कमोबेश यही बात करती है जो वर्तिका जी ने कही है ......यानी एक समझदार व्यक्ति वही महसूस करता ओर बेबाकी से लिखता है जो अपनी समझ से देखता बूझता है ......हिन्दुस्तान में उन्हें पढता आया हूँ...अलबत्ता पी एम् की बेटी वाली कविता मुझे इतनी पसंद नहीं आयी......जितनी ये
जवाब देंहटाएंनौकरानी और मालकिन
दोनों छिपाती हैं एक-दूसरे से
अपनी चोटों के निशान
और दोनों ही लेती हैं
एक-दूसरे की सुध भी
मर्द रिक्शा चलाता हो
या हो बड़ा अफसर
इंसानियत उसके बूते की बात नहीं।
या ये
कविता लिखने के बाद मैने इसमें ..महिला..शब्द को हौले से जोड़ दिया।
ऐसी महिलाए वाकई ऐसे पेशे को गरिमा देती है .......
.गिरिजेश रावकी पोस्ट पढवाने का शुक्रिया ......उनके अन्दर भी एक प्रतिभा है .......
वाकई आज की आपकी चिटठा चर्चा अपना अर्थ पूरा करती है ......पिछले तीन दिनों कुछ अच्छी कविताये पढ़ी है .....ब्लॉग में ही ....पढने वालो के लिए कभी टोटा नहीं है ...जब कभी मन माफिक नहीं मिलता तो कुछ लोगो की पुरानी पोस्ट पढता हूँ
vartika apne jiwan ke prarambhik dinon se he pratibha sampann thi..jab vah school me thi..tab se hee midia me pahunch gaye thi.. vartika ne kahaniyan bhi likhi.. kahaniyon se hee shuruaat ke..aaj bhi ve jo sochtee hai..jitee hain..vahee likhtee hain..himmat se likhtee hain..unkee himmat ko salam...
जवाब देंहटाएंएक बेहतरीन चर्चा और एक बेहतरीन ब्लोग्गर से रूबरू करवाने के लिए
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आपका । वर्तिका नंदा जी का नाम तो बहुत सुना हुआ था , उन्हें कभी कभार पढा भी था , मगर आज की पोस्ट से समग्र जान कर बहुत ही अच्छा लगा । आभार
डा० वर्तिका नंदा से परिचित करने के लिए आभार. उनका ब्लोग देख आये हैं और अब उन्हें नियमित पढ़ेगें।
जवाब देंहटाएंsahi maayne me charcha yahi hai ... kisi blogger ke athak parishram aur uski pratibha ko poora samman diya hai aapne....chahe vartika ji ke lekh hon ..kavitayen hon..ya tippani par tippani ...sab ek se ek ...
जवाब देंहटाएंTO
जवाब देंहटाएंVARTIKA NANDA (PUNJABI)
MOBILE- +91- 9811201838
LADY SHRI RAM COLLEGE FOR WOMEN
LAJPAT NAGAR –IV
NEW DELHI- 110024
INDIA
Dear
Social / unsocial agent of criminal branch and LEGAL INTERNATIONAL CHEATER (vivek dewan). I hope you are very fine. Criminal branch digest huge amount of money from CHEATER so now he is LEGAL INTERNATIONAL CHEATER. Now criminal branch very hungry for rs two lacks. Demanding indirectly rs two lacks and use to local people and WOMEN WEAPON for touchier, broken my door by women, stolen my bank documents, latter, mobile phone etc. misguide and misuse to my friend. I am request to you please half to rs two lacks for criminal branch only.
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