विवेक रस्तोगी ने आज ब्लॉगिंग के पांच साल पूरे किये। आज की अपनी पोस्ट में उन्होंने इस दौरान हुये अपने अनुभव बताये। उन्होंने उस समय के कुछ ब्लॉगरों के नाम याद करते हुये लिखा:
उस समय के कुछ चिठ्ठाकारों में कुछ नाम ओर याद हैं, ईस्वामी, मिर्चीसेठ, रमन कौल, संजय बेंगाणी, उड़नतश्तरी, अनुनाद सिंह, उनमुक्त, रवि रतलामी। और भी बहुत सारे नाम होंगे जो मुझे याद नहीं हैं, पर लगभग सभी का सहयोग रहा है इस सफ़र में और मार्गदर्शन भी मिला।इनमें से मिर्ची सेठ उर्फ़ पंकज नरूला ( जिन्होंने अक्षरग्राम और नारद की शुरुआत की थी)को छोड़कर लगभग सभी कभी-कभी लिखने से जुड़े हुये हैं। रमनकौल ने अपनी ताजी पोस्ट में गूगल की हिन्दी के बारे में लेख लिखा गूगल की उर्दू – कराची मतलब भारत
विवेक रस्तोगी ने जब लिखना शुरू किया तब वे 80 वें ब्लॉगर थे। 535 पोस्ट लिखने के बाद वे बताते हैं कि आज से पांच साल पहले ब्लॉगिंग की दिक्कतें क्या थीं। उस समय आज की तरह हिन्दी सपोर्ट नहीं था। देखिये विवेक कैसे टाइप करते थे:
पहले कृतिदेव फ़ोंट में हिन्दी में लिखते थे फ़िर ब्लॉगर.कॉम पर आकर उसे कॉपी पेस्ट करते थे, इंटरनेट कनेक्शन ब्रॉडबेन्ड होना तो सपने जैसा ही था, एक पोस्ट को छापने में कई बार तो १ घंटा तक लग जाता था। अब पिछले २ वर्षों से हम हिन्दी लिखने के लिये बाराह का उपयोग करते हैं, फ़ोनोटिक कीबोर्ड स्टाईल में। पहले जब हमने लिखना शुरु किया था तो संगणक पर सीधा लिखना संभव नहीं हो पाता था, पहले कागज पर लिखते थे फ़िर संगणक पर टंकण करते थे, पर अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं, अब तो जैसे विचार आते हैं वैसे ही संगणक पर सीधे लिखते जाते हैं, और छाप देते हैं। अब कागज पर लिखने में परेशानी लगती है, क्योंकि उसमें अपने वाक्यों को सफ़ाई से सुधारने की सुविधा नहीं है, पर संगणक में कभी काट-पीट नहीं होती, हमेशा साफ़ सुथरा लिखा हुआ दिखाई देता है।
विवेक जी को बधाई! आगे उनका सफ़र शानदार चलता रहे और नये आयाम जुडें उनकी ब्लॉगिंग में।
आजकल विश्वकप फ़ुटबाल का बुखार चढ़ा है दुनिया भर में। अभय तिवारी इसके बहाने खेलों के आधार की बात बताते हुये लिखते हैं:
असल में फ़ुटबाल समेत दुनिया के सभी गोल-प्रधान खेलों का आधार शुद्ध सेक्स है। ये सारे खेल गर्भाधान का विस्थापन हैं। कैसे? गोल ओवम/डिम्ब है और खिलाड़ी स्पर्म/शुक्राणु। पूरी गतिविधि का उद्देश्य डी एन ए पैकेट को ओवम तक पहुँचाना है। यौन क्रिया में करोड़ों की संख्या में शुक्राणु होते हैं, यहाँ इस खेल में ग्यारह/आठ. छै/ पाँच हैं। यौन क्रिया में एक ही ओवम होता है यहाँ दो विरोधी दलों के लिए दो अलग-अलग ओवम हैं मगर डी एन ए पैकेट के रूप में मौजूद गेंद एक ही है। असल में यह क़बीलाई समाज में रहने वाले मनुष्य के भीतर की संजीवन-वृत्ति की विस्थापित अभिव्यक्ति है। जिसमें एक दल का अस्तित्व दूसरे दल के अस्तित्व का साथ लगातार टकरा रहा है, और दोनों अस्तित्व की इस लड़ाई में एक-दूसरे को मात दे देना चाहते हैं।
अब देखिये आपके भी कुछ विचार हैं क्या इस मसले पर।
अभय तिवारी की पोस्ट देखकर याद आया कि उनकी किताब कलामें रूमी हिन्द पाकेट बुक्स से छपकर आ गयी है। अपनी पहली किताब के छपने का श्रेय अभय ब्लॉगिंग को देते हैं। बताते चलें कि उन्होंने अपनी पोस्टों में रूमी के बारे में पोस्टें अपने ब्लॉग में लिखीं और बाद में रूमी के बारे में लिखने के लिये अपना अलग रूमी ब्लॉग बनाया। देखिये इस ब्लॉग को और जानिये रूमी के बारे में और किताब के लिये हिन्द पाकेट बुक्स से संपर्क करिये। हिन्द पाकेट बुक्स देश में सबसे सस्ती किताबें छापने वालों में से हैं। पेपरबैक संस्करण की अवधारणा हिन्द पाकेट बुक्स वालों ने ही शुरू की। अभय की किताब छपने के लिये बधाई! एक किताब और एक पिक्चर हो गयी उनके नाम। आगे यह संख्या बढ़े इसके लिये शुभकामनायें।
आगे देखिये ट्रेडमार्क बत्तीसी के किस्से बजरिये पंकज उपाध्याय। किस्सों के कुछ अंश तो पढ़ा ही दें आपको।
और आखिर में क्या कहते हैं लेकिन बेहतर हो कि आप खुद ही देंखें ट्रेड मार्क बत्तीसी के किस्से और इसके बाद पढिये गल्प के शिल्पी सॉल बैलो के बारे में जिसका कहना था-
‘लोग अपनी जिंदगी पुस्तकालयों में खत्म कर सकते हैं। उन्हें सावधान करने की जरूरत है।’
प्रीति बड़्थ्वाल ने ने तीन महीने के अन्तराल के बाद फ़िर लिखना शुरू किया। आज की कविता देखिये उनकी:
कहना है आसान,
मगर....,
वो शब्द नहीं आते,
दिल दे दिया उन्हें,
यही हम....,
कह नहीं पाते।
उनकी कविता आगे पढिये यहां पर!
मेरी पसंद
जिन्दगी चलती रही,
ख्वाब कुछ बुनती रही,
कुछ पलों की छांव में,
अपना सफ़र चुनती रही।
पैर में छाले पङे,
पर न डगमग पांव थे,
पथ के हर पत्थर में जैसे,
शबनमों के बाग़ थे।
गरदिशों की चाह में,
हर सफ़र है तय किया,
हर मुश्किल का सामना,
हर क़दम डट कर किया,
है तमन्ना अब के मंजिल,
जिन्द़गी को मिल जाए,
और फिर हो सामना,
खुद का,
खुदी के आईने से........
प्रीति बड़थ्वाल 'तारिका’
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी। आपका हफ़्ता चकाचक शुरू हो, झकाझक बीते।
उस वक्त हिंदी ब्लॉगिंग में दिक्कत तो थी ही .. मै ब्लॉग बनाकर भी यूनिकोड में लिखकर कुछ पोस्ट न कर सकी थी .. कृतिदेव फॉण्ट को एक आलेख कॉपी करके पेस्ट कर दिया था .. 2007 में ही मुझे यूनिकोड लिखने के बारे में जानकारी मिल पायी थी।
जवाब देंहटाएंप्रीति बड़्थ्वाल जी की रचना भी अच्छी लगी !!
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा....प्रीती जी से परिचय कराने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंविवेक जी को बहुत-बहुत बधाई ! हम खुशकिस्मत हैं कि जब ब्लॉगिंग में प्रवेश किया तो सब सुविधाएँ हिन्दी टाइपिंग के लिए उपलब्ध हो गयीं. प्रीति की कविता भी अच्छी है. अभय जी के ब्लॉग पर कई दिनों से जाने को सोच रही थी, सो लिंक मिल गया.
जवाब देंहटाएंएक अनुरोध है...अब जबकि ब्लॉगवाणी बंद है तो आपलोग थोड़े अधिक चिट्ठे शामिल करें ... हाँ गुणवत्ता से समझौता ना करें.
Vivek ji ko badhayi...yaad hai mujhe bhi,jab transliteration nahi tha...tang aake maine English me bogging shuru kee. Jab transliteration ke bare me pata chala tab Hindi me likhne lagi!
जवाब देंहटाएंअनूप भाई,
जवाब देंहटाएंख़ाकसार की किताब की यहाँ चर्चा करने के लिए बहुत शुक्रिया!
vivek ji aur abhay ji ko badhai, links ke liye shukriya....
जवाब देंहटाएंअनूप जी, हमारी चर्चा करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं’ट्रेड मार्क बत्तीसी’ के किस्से सुनाने का शुक्रिया...
जवाब देंहटाएंकितना अच्छा लगता है न जब पता चलता है कि कोई पिछले ५ साल से ब्लोगिग कर रहा है। विवेक जी की पोस्ट पढी थी और उस वक्त हिन्दी मे लिखने मे जो कष्ट आते थे उनके बारे मे भी पता चला.. बडे हिम्मती लोग थे जो उस वक्त भी हिन्दी मे लिखने का माद्दा रखते थे.. विवेक जी को शुभकामनाये...
अभय जी को भी ढेर सारी शुभकामनाये...
अच्छी चर्चा, अभय जी को बधाई. मेरी पसंद..... :/ कविता से ज़्यादा कवियित्री पसंद आईं... :)
जवाब देंहटाएंअनूप जी नमस्कार,
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को आपने इस चर्चा में शामिल किया बहुत बहुत शुक्रिया।
प्रीति जी की रचना बेजोड़ लगी...
जवाब देंहटाएंसंक्षिप्त सही पर सुन्दर चर्चा रही...आभार आपका...