शनिवार, जून 19, 2010

शनिवार की चर्चा

नमस्कार मित्रो!

मैं मनोज कुमार एक बार फिर शनिवार की चर्चा के साथ हाज़िर हूं। मेरी पिछली चर्चा के पोस्ट पर एक भाई ने कमेंट किया था कि

हमारे ब्‍लाग की भी आप चर्चा करें। इसके लिए क्‍या करना होगा। बताएं।

इसने, लगा मेरे मुंह पर एक तमचा जड़ दिया हो। ये क्या करना होगा, बताएं शब्द ने हमारे देश को काफ़ी नुकसान पहुंचाया है। आये दिन देखता सुनता हूं, इस जुमले को! कभी

---  मेरे बेटे को नौकरी पर लगवा दीजिए, इसके लिए इसके लिए क्‍या करना होगा। बताएं।

--- मेरा फलाँ जगह ट्रांसफ़र करवा दीजिए, इसके लिए इसके लिए क्‍या करना होगा। बताएं।

--- मेरे बच्ची का दाखिला करवा दीजिए, इसके लिए इसके लिए क्‍या करना होगा। बताएं।

मैं आहत हूं। चर्चा मंच् के एक-क पोस्ट के लिए मैं घंटों मेहनत करता हूं, सैंकड़ों पोस्ट पढता हूं, फिर भी कोई दोस्त कहता है --- इसके लिए इसके लिए क्‍या करना होगा। बताएं।

हम चिट्ठा चर्चाकार अगली चर्चा लिखने के पहले एक बार इस वाक्य को याद कर लीजिएगा, मैं आपसे रेक्वेस्ट करता हूं, कि आप ऐसा करें,इसके लिए इसके लिए क्‍या करना होगा। बताएं।

इस मंच से मैं आप सबसे निवेदन करता हूं कि ऐसा क्या किया जाए कि फिर कोई ब्लॉगर मित्र ऐसा वाक्य न लिखे, इसके लिए इसके लिए क्‍या करना होगा। बताएं।

 

चलिए अब चर्चा शुरु करते हैं।

 

 

 

 

आलेख

मेरा फोटोसंगीता पुरी जी जन-जन तक ज्योतिष को पहुंचाने के सद्प्रयास में लगी हैं। पिछले आलेखों में उन्होंने चर्चा की थी कि किसी भी जन्‍मकुंडली में सूर्य की स्थिति को देखकर बालक के जन्‍म के पहर की जानकारी कैसे प्राप्‍त की जा सकती है।
दरअसल ज्‍योतिष में जब भी सिर्फ कुंडली की चर्चा की जाती है , तो वह जन्‍मकुंडली यानि लग्‍न कुंडली ही होती है। भविष्‍यवाणियों में सटीकता लाने के लिए चंद्रकुंडली , सर्यूकुंडली या अन्‍य अनेक प्रकार की कुंडली बनाए जाने की परंपरा शुरू हुई है। लेकिन ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ की माने तो आज भी लग्‍नकुंडली ही किसी व्‍यक्ति के व्‍यक्तित्‍व का दर्पण है , जो उसके पूरे जीवन के विभिन्‍न संदर्भो के सुख दुख और जीवन भर की परिस्थितियों के उतार और चढाव की जानकारी दे सकता है, जिसपर चर्चा करने में अभी कुछ समय तो अवश्‍य लगेगा।

यह इस क्रम का छठा अंक है। मुझे तो बहुत अच्छी जानकारी मिल रही है। आप भी पढें।

संगीता जी आपकी चेष्टाएं झिलमिला उठीं हैं। आपकी ईमानदारी व प्रयासों की जितनी भी तारीफ की जाए कम है।

My Photoराजेश उत्साही जी की जीवन की सार्थकता की तलाश जारी है। 26 साल तक एकलव्‍य संस्‍था में होशंगाबाद, भोपाल में काम किया फिर बाल विज्ञान पत्रिका चकमक का सत्रह साल तक संपादन। बच्‍चों के लिए साहित्‍य तैयार करने की कई कार्यशालाओं में स्रोतव्‍यक्ति की भूमिका निभाई। फिलहाल बंगलौर में हैं। तीन ब्‍लागों- गुल्‍लक, यायावरी और गुलमोहर- के माध्‍यम से दुनिया से मुखातिब हैं। इस बार मैंने चुना है उनकी गुल्लक पर प्रस्तुत एक रुका हुआ फैसला : शादी के लड्डू।

यह बात उन दिनों की है जब उनका दिल टूट चुका था। और टूटे दिल के टुकड़ों को समेटना और फिर से दिल लगाने के लिए उन्हें  बहुत हिम्‍मत जुटानी पड़ी। उनका दिल टूटा लेकिन अपने ही हाथों से। क्योंकि उनका मानना था कि अगर जीवन में सुखी रहना है तो जिससे प्‍यार करो उससे शादी कभी मत करो। इसलिए उन्होंने लड़्की के अभिभावक को कह दिया है,

“मैं बगावत करके शादी कर सकता हूं, पर उसको वो खुशी नहीं दे पाऊंगा जिसकी वो हकदार है। इसलिए बेहतर यही होगा कि आप कोई और अच्‍छा सा लड़का देखकर उसका विवाह कर दें।”

मेरा फोटोस्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। क्रान्ति की ज्वाला सिर्फ पुरुषों को ही नहीं आकृष्ट करती बल्कि वीरांगनाओं को भी उसी आवेग से आकृष्ट करती है। 1857 की क्रान्ति की अनुगूँज में जिस वीरांगना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वह झांसी में क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई हैं। 18 जून 1858 को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की इस अद्भुत वीरांगना ने अन्तिम सांस ली पर अंग्रेजों को अपने पराक्रम का लोहा मनवा दिया। तभी तो उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा- ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द थी।”
उनकी पुण्य तिथी पर उन्हें स्मरण करते हुए आकाक्षा जी कहती हैं

''खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी/ अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी/......छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।''

लो आया खाप का मौसम........................घुघूती बासूती

की प्रस्तुति Mired Mirage पर पढिए। कह रही हैं लोगबाग अपने शहर, अपने संसार के कायदे कानूनों से कुछ तंग से थे। उन्हें पसन्द था स्वतन्त्र रहना और उनकी धरती के वासी खापी थे यानि खापीकर खप करते थे या यह कहिए कि बताते थे कि कैसे जिएँ, कैसे उठें, बैठें, ब्रश करें कि दातुन और ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर या दाएँ से बाएँ आदि, किससे बोलें, किसके साथ हँसे, किससे प्रेम करें किससे विवाह करें आदि आदि। सो वे आभासी संसार की तरफ बढ़ चले। सुना था यहाँ सामान्य शिष्टता के अतिरिक्त कोई कानून नहीं हैं।

अच्छे दिन लम्बे कहाँ चलते हैं ? वैसे भी खाप प्रदेश के लोग यहाँ भी बहुतायत में रहते हैं सो यह भी हो सकता है। खाप के कई भाई बहन हैं जो नियन्त्रण में ही विश्वास रखते हैं। संख्या सदा सही के साथ नहीं होती, होती तो हमारे देश को ऐसे नेता मिलते? खैर जो होगा सो देखा जाएगा। बहुत हुआ तो कुछ बोरिया बिस्तरा गोल करने को बाध्य हो जाएँगे, और भी अखापी दुनिया होंगी इस आभासी दुनिया से आगे।

 


संस्मरण

अगर आप समाज में बदलाव लाना चाहते हैं तो इसकी शुरुआत घर से होती है। पहले आप ख़ुद में बदलाव लाएँ, अपने घर में बदलाव लाएँ और फिर अपने आस-पास या अपने साथ उठने-बैठने वालों को बदलें। कह रही हैं सृजनगाथा पर नीलम शर्मा ‘अंशु’!

इसी क्रम में अंशु को अचानक नीलोफ़र याद हो आई। उसे हैरानी होती कि क्या यह वही नीलोफ़र है? यादाश्त की सुईयाँ पीछे घूमती है जब आज से सोलह-सतरह वर्ष पूर्व एक साधारण सी युवती सरकारी नियुक्ति पर एक छोटे से शहर से महानगर कोलकाता आती है।
पढिए एक संस्मरण जिसमें नीलोफ़र के कानों में तो यही शब्द गूंज रहे थे, ख़ानदान की इज्ज़त लड़की, ख़ानदान की रौनक कुहू ....। पिशीमोनि ! मैं आपकी कुहू।’

अंत तक पठनीयता से भरपूर होना ही इसकी सार्थकता है जिसके जरिये ..... विषय को समझने का ईमानदारी से प्रयास किया गया है और यही इसका निहितार्थ भी है।!

 

 

कविताएं

जागती आँखों से स्वप्न देखना जिनकी  फितरत है वह दिगम्बर नासवा जी कहते हैं

मैने कई बार
सच की चाशनी लपेट कर
कई
झूठ बोले हैं

कई बार अंजाने ही
झूठ बोलते अटका हूँ
पर हर बार मेरी बेशर्मी ने
ढीठता के साथ सच पचा लिया

इस ढीठता के साथ अत्म मंथन भी किया उन्होंने, और जो सच सामने आय वह यह है कि

सच की दहलीज़ पर झूठ का शोर
सच को बहरा कर देता है
वीभत्स सच को कोई देखना नही चाहता
सच आँखें फेर लेता है

झूठ का इतना सही सच मैंने पहले नही पढा, आप भी पढ़िए! यभी सच है कि असल मे झूठ ही एक ऐसा सच है जिसके बिना हम नहीं रह सकते... झूठ को सच का जामा पहना कर कभी अपने को तो कभी दूसरो को खुश करने की कोशिश मे लगे रहते हैं!!

डॉ० डंडा लखनवी ने नुक्कड़ पर रवीन्द्र कुमार राजेश की कविता की अविव्यक्ति समय की रामायण गीता। प्रस्तुत की है। यह एक बहुत सुन्दर रचना है। इसमें कवि के उद्गार उत्तम हैं... 

सबकी अपनी व्यथा कथा है, अपनी राम कहानी,

भाग्य भरोसे चले ज़िदगी, क्या राजा, क्या रानी,

द्वापर  की   द्वौपदी   विवश   है, त्रेता   की सीता।

                               समय की रामायण गीता॥

पाने की चाहत में  भटका  कुछ  भी नही मिला,

औघड़ दानी बन   बैठा मन, रहता खिला-खिला,

मेरे जीवन   का  अमरित  घट कभी नहीं रीता।

                             समय की रामायण गीता॥

My Photoअल्पना वर्मा की कविता निर्वात इस बात को हमारे सामने लाती है कि कभी कभी ऐसा ही होता है सब कुछ होते हुए भी निराशा घेर लेती है! और उन्होंने उन्हें सुन्दर अभिव्यक्ति दे दी है | देखिए


रास्ते ठहरे हुए हैं ,
सूर्य भी धुन्धला गया ,
दिन बुनती हूँ तो
रात की चादर बनता जाता है!
तक रही हूँ आसमाँ ,
शायद कभी रोशन भी हो,
खोजती हूँ वो सितारे ,
जो कभी ,
बिखरे थे आकाश में !
शब्द थे साथी मगर ,
वो भी कहीं जा सो गए,
भाव थे हमराह पर ,
किस राह जाने खो गए ,
है शिथिल देह ,
और मन निर्जीव सा
हर तरफ फैला हुआ है
मौन' किस निर्वात का ,
शून्य में ठहराव ये
अंत ही होता मगर ,
ज़िन्दगी...
चलते रहने के बहाने ढूँढ़ ही लेती है !

रचना निर्वात एक सहज भावबोध की कविता है , जिसका आशावादी समापन इसकी विशेषता है , उपलब्धि है । यह कविता आपके विशिष्ट कवि-व्यक्तित्व का गहरा अहसास कराती है। इस कविता की कोई बात अंदर ऐसी चुभ गई है कि उसकी टीस अभी तक महसूस कर रहा हूं।

My Photoश्यामल सुमन की कविता बचपन को पढ़कर एक भावनात्मक राहत मिलती है। इसे पढते वक़्त यह रचना हमें बचपन की वीथियों में बरबस खींच कर ले जाती है! ना जाने कितने चिर परिचित दृश्य आँखों के आगे चलचित्र की तरह घूम जाते हैं!

याद बहुत आती बचपन की।
उमर हुई है जब पचपन की।।
बरगद, पीपल, छोटा पाखर।
जहाँ बैठकर सीखा आखर।।
नहीं बेंच, था फर्श भी कच्चा।
खुशी खुशी पढ़ता था बच्चा।।
खेल कूद और रगड़म रगड़ा।
प्यारा जो था उसी से झगड़ा।।
बालू का घर होता अपना।
घर का शेष अभीतक सपना।।
रोज बदलता मौसम जैसे।
क्यों न आता बचपन वैसे।।

आपकी कविता पढ़ने पर ऐसा लगा कि आप बहुत सूक्ष्मता से एक अलग धरातल पर चीज़ों को देखते हैं। पढ़ने वाले को उसकी अपनी कथा लगती है। आपकी कविता अपनी आत्मीयता से पाठक को आकृष्ट कर लेती है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ने 37 साल पहले एक कविता लिखी थी कामुकता में वह छला गया। यह कविता एक सच्चे, ईमानदार कवि के मनोभावों का वर्णन।

देख अधखिली सुन्दर कलिका,
भँवरे के मन में आस पली।
और अधर-कपोल चूमने को,
षट्पद के मन में प्यास पली।।

प्रतिछाया को समझा असली,
और मन ही मन में ललचाया।।

सत्यता समझ ली परछाई,
कामुकता में वह छला गया।
नही प्यास बुझी उस भँवरे की,
इस दुनिया से वह चला गया।।

इस कविता के शीर्षक से ही भावनाओं की गहराई का एह्सास होता है। कविता की व्याप्ति इतनी बड़ी हो कि वे जन समान्य को समेट सकें। यह काम आपकी कविता बखूबी करती है।

मेरा फोटोपेशे से कॉपीरायटर तथा विज्ञापन व ब्रांड सलाहकार. दिल्ली और एन सी आर की कई विज्ञापन एजेंसियों के लिए और कई नामी गिरामी ब्रांडो के साथ काम करने के बाद स्वयं की विज्ञापन एजेंसी तथा डिजाईन स्टूडियो का सञ्चालन. करने वाले ARUN C ROY का भूख के बारे में मानना है कि
कई प्रकार की
होती हैं
भूख और
कई आकर की भी
होती हैं

उनकी इस इस कविता में उपहास के साथ आक्रमकता भी है जो इसे विशेष दर्जा प्रदान करती है। कहते हैं

बदलते हुए स्थान और भाव के साथ
बदल जाते हैं
भूख के मायने

भूख
अपनी पूरी रंगीनियत में
है होती
जब वह होती है
पांच सितारा होटलों की लाबी में
कारपोरेट के बोर्ड रूम में
स्टॉक एक्सचेंज की रैलियों में

आपकी इस कविता में निराधार स्वप्नशीलता और हवाई उत्साह न होकर सामाजिक बेचैनियां और सामाजिक वर्चस्वों के प्रति गुस्सा, क्षोभ और असहमति का इज़हार बड़ी सशक्तता के साथ प्रकट होता है।

सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर प्रस्तुत है प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटता रावेन्द्र कुमार रवि जी का एक प्रेम-गीत 'ओ मेरे मनमीत'.!
सोच रहा-
तुम पर ही रच दूँ
मैं कोई नवगीत!
शब्द-शब्द में
यौवन भर दूँ,
पंक्ति-पंक्ति में प्रीत!
हर पद में
मुस्कान तुम्हारी
ज्यों मिश्री-नवनीत!

रवि जी आपने इस कविता में अपने-आपको बहुत अच्छी तरह से बखूबी ढ़ाला है, और ऐसा लग रहा है कि आप बोल रहें हो या नहीं, आपकी कविता ज़रूर बोल रही है।

ग़ज़लें

मेरा फोटोअर्चना तिवारी जी मैं एक शिक्षिका हैं। शिक्षा पर सभी का अधिकार है इसलिए वे उन बच्चों को पढ़ाती हैं जो निर्धन हैं शुल्क नहीं दे सकते। बचपन से उन्होंने सुना है, देखा है कि कलम में बड़ी शक्ति होती है, वह धाराओं का रुख मोड़ सकती है...तो वे भी कलम के साधन से शब्दों के रास्ते आशाओं की मंजिल पाने की कोशिश कर रही हैं|
बस आँखों में दिखता पानी एक निहायत खूबसूरत और सशक्त रचना है! इसकी लयबद्धता और छंदमय रचना बेहद प्रभावित करती है।

सूखे खेत, सरोवर,झरने,बस आँखों में दिखता पानी

हाहाकार मचा है जग में,छाए मेघ न बरसा पानी।

भ्रष्टाचार के दलदल में अब,अपना देश धंसा है पूरा

कौन उबारे, सबके तन में ठंडा खून रगों का पानी।

अब रक्षक को भक्षक कहिए,कलियां रौंद रहे है माली

लोग तमाशा देख रहे हैं,किसकी आंख से छलका पानी।

खेती किस किस से जूझेगी,किसका किसका हल ढूंढेगी

एक साथ इतने संकट हैं,आंधी,बिजली,सूखा,पानी।

प्रेम वचन शीतल वानी है जिससे पीर मिटे सब मन की

सूखे, झुलसे तरू के तन की जैसे प्यास बुझाता पानी।

इस कविता/ग़ज़ल पए इस्मत ज़ैदी का कहना है

 

 बहुत उम्दा कविता ! अर्चना जी आप की ये पूरी कविता लय में और वज़्न में है ,बहुत सटीक शब्दों का चयन किया है आपने। पढ़ कर साहित्य पढ़ने की संतुष्टि प्राप्त होती है। बधाई हो !! सब से बढ़कर जिस समस्या पर ये कविता है हमें उस संबंध में अब जाग जाना चाहिए।

 

मेरी पसंद


My Photoआज की मेरी पसंद है संगीता स्वरूप जी की रचना सच बताना गांधारी।

हे गांधारी !

तुम्हारे विषय में बड़ी जिज्ञासा है

उत्तर  पाने की तुमसे आशा है

जानना चाहती हूँ  तुमसे कुछ तथ्य

क्या बता पाओगी पूर्ण सत्य ?

पूछ ही लेती हूँ तुमसे आज

लोगों को बड़ा है तुम पर नाज़ ...

कहते हैं सब कि गांधारी पतिव्रता थी

पति के पदचिह्नों  पर चला करती थी

किया था तुमने पति  का अनुसरण

प्रतिज्ञा कर दृष्टिहीनता को किया वरण

पर  सच बताना  गांधारी

क्या यह तुम्हारा  सहज ,

सरल, निर्दोष  प्रेम था ?

दया  थी पति  के प्रति

या फिर  मन का क्षेम  था ?

यदि प्रेम  की   अनुभूतियों  ने

तुमसे  ऐसा  कराया

तो क्षमा  करना गांधारी

मेरा मन इस कृत्य के लिए

तुमसे सहमत नहीं हो पाया .

पति की इस लाचारी को

अपने नेत्रों से आधार प्रदान करतीं

बच्चों की  अच्छी परिवरिश  से

सच ही उनका कल्याण  करतीं

अपनी दूरदर्शिता से तुम

राज्य   का उत्थान करतीं

जब लडखडाते  धृतराष्ट्र  तो

तुम  उनका संबल  बनतीं .

पर तुमने तो हो कर विमुख

अपने कर्तव्यों  को त्याग दिया

हे  गांधारी !

कहो ज़रा ये तुमने क्या किया ?

पर  सच तो यह है  कि--

नारी  मन कौन  समझ पाया है

उसके हृदय के भूकंपों को

कब कौन जान पाया  है ?

मन के  भावों को  अन्दर  रख

रोज  सागर  मंथन करती है

मंथन से निकले हलाहल को

स्वयं रोज पिया करती है

शायद  तुमने भी तो उस दिन

चुपचाप  विषपान किया था 

आक्रोशित  मन के उद्वेलन  को

तुमने चुपचाप सहा था

आजीवन दृष्टि विहीन रहने में

मुझको  तेरा आक्रोश  दिखा है

सच कहना  गांधारी ---

ऐसा  कर क्या तुमने

सबसे प्रतिकार लिया है ?

धोखा   खा कर शायद यह

प्रतिक्रिया हुई ज़रूरी

समझ सकी हूँ बस इतना ही

कि  यह थी तेरी  मजबूरी

मौन  रहीं तो  बस  सबने

तुमको था देवी जाना

असल क्या था मन में तुम्हारे

यह  नहीं किसी ने  पहचाना ......

 

 

बस!

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29 टिप्‍पणियां:

  1. हम पढ़ लिए, और लिंक भी पलट-उलट लिए.. कमेन्ट भी कर ही रहे हैं.. अब और क्या करना होगा? :D

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  2. बहुत खूब .... सच बताना गांधारी ! बधाई संगीता संवरूप जी।

    क्या करना होगा, पढ़कर सचमुच अवसोस हुआ। और वहीं पी. डी. जी के कमेंटस् ने होठों पर अनायास ही मुस्कान ला दी।

    - नीलम शर्मा 'अंशु'

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  3. नमस्कार ,
    मैं ये स्वीकार करती हूं कि मैं इस कॉलम की नियमित पाठिका नहीं हूं लेकिन अक्सर पढ़ती हूं ,ये देख कर अच्छा लगता है कि आप लोगों की मेहनत रंग लाती है और आप काफ़ी कुछ cover कर लेते हैं,
    बहुत बढ़िया!

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  4. मुझे क्या करना होगा???????? मजाक कर रही हूँ वैसे चिठा चर्चा मे कुछ कहते हुये दर लगता है। आगे झेल चुकी हूँ। अच्छी चर्चा धन्यवाद्

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  5. अच्छा लगा आपका प्रयास , आपका प्रयास प्रशंसनीय, आपकी जीतनी तारीफ की जाये कम है, बहुत अच्छे ढंग की प्रस्तुति, नए मंच को आगे लाने का बेहतरीन प्रयास .... इतना ही लिख पा रहा हूँ ...यदि कुछ औऱ लिखना हो तो बताएँ .... होहोहोहोहोहोहोहोहोहोहो (क्या मजाक करना भी मना है ।

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  6. अच्छी चर्चा।
    अच्छा प्रयास।

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  7. यह ठीक है कि, भ्रष्टाचार हमारे देश का राष्ट्रीय शिष्टाचार बनता जा रहा है, लोग इसके प्रति सहज होते जा रहे हैं ( इससे बेख़बर कि यह बूमरैंग करके उनको भी लपेट सकती है )..पर,
    मुझे लगता है, कि यहाँ ’ क्या करना होगा ’ को अनायास ही गलत परिप्रेक्ष्य में ले लिया गया है ।
    इसका बहुत आसान और व्यवहारिक उत्तर यह हो सकता था कि,
    इसके लिये आपको टिप्पणी बक्से में यदा कदा अच्छे चिट्ठों का लिंक सुझाते रहना चाहिये, क्योंकि ऍग्रीगेटर की कार्यप्रणाली से इतर चर्चाकार के अवलोकन क्षमता की अपनी मानवीय सीमायें हुआ करती हैं ।
    क्या करना होगा ... इस प्रकार की अवाँछित अपेक्षाओं की काट चर्चाकार की व्यक्तिगत रुचि एवँ विवेक का तानाशाही फ़रमान भी हो सकता है ।
    क्या करना होगा ...का मौज़िया प्रत्युत्तर यह भी हो सकता है कि, " इसके लिये आपको अपनी पोस्ट को उछालने के हथकँडे अपनाना होगा । इसके लिये ब्लॉगजगत में कई गुरुघँटाल मुफ़्त-सेवा प्रदान करने को सदैव तत्पर मिलेंगे !

    दूसरा बेहतर विकल्प है, चर्चा को सोद्देश्य विषयपरक रूप देना चाहिये । भले ही कोई विचारोत्तेजक बहस न छेड़ सकता हो, पर उसमें सक्रिय सहभागिता से शनैः शनैः उसकी हिचक दूर होती जायेगी, और वह भविष्य में ऎसी कोई दुहाई न देगा ।


    मैं एक बार फिर दोहराऊँगा कि,
    इस मँच के लिये लिंक-चयन पर पाठकों की सहभागिता आमँत्रित की जानी चाहिये ।

    चयन प्रक्रिया की समीक्षा अपने आप में एक पूरी पोस्ट का विषय है.. चर्चाकार को अपनी सँवेदनात्मक विवेक का समागम व्यवहारिकता से कराते रहना चाहिये !

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  8. समागम व्यवहारिकता से...
    Corrigendum:
    कृपया सुधार कर पढ़ें
    सँवेदनात्मक विवेक का समागम चिट्ठा-चयन की व्यवहारिकता से कराते रहना चाहिये !

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  9. आदरणीय मनोज जी को साधुवाद... निःस्वार्थ भाव से अनगिनत पोस्ट को पढना, आंकलन करना, चुनना, फिर चर्चा में शामिल करना, सच में मेहनत का काम है.. जो हर किसी के बस का नहीं...और उस पर ख़ुद की क्षमताओं को आंके बिना ये सुनना कि ''मुझे क्या करना होगा'' एक प्रश्न चिन्ह है.... लगता है हिन्दुस्तान में व्याप्त इस 'मुझे क्या करना होगा' रुपी रोग से ब्लॉग जगत भी अछूता नहीं रहा..
    एक बार फिर एक सार्थक और सफल चर्चा के लिए आदरजोग मनोज जी को कोटिशः साधुवाद !

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  10. सार्थक चर्चा तो यही है………………बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  11. हमने भी पढ़ लिया। अच्छा भी लगा।

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  12. "मुझे लगता है, कि यहाँ ’ क्या करना होगा ’ को अनायास ही गलत परिप्रेक्ष्य में ले लिया गया है ।
    इसका बहुत आसान और व्यवहारिक उत्तर यह हो सकता था कि,
    इसके लिये आपको टिप्पणी बक्से में यदा कदा अच्छे चिट्ठों का लिंक सुझाते रहना चाहिये, क्योंकि ऍग्रीगेटर की कार्यप्रणाली से इतर चर्चाकार के अवलोकन क्षमता की अपनी मानवीय सीमायें हुआ करती हैं ।"

    अमर कुमार जी की इन पंक्तियों से सहमत हूँ.... शायद उन्हें लगा हो कि कोई प्रोसेस होती होगी... कोई प्रक्रिया.. कोई विषय...। आप उसे दिल से न लें.. और यूं ही हमें अच्छी चर्चाओं का सुख दिलवाते रहें.. संगीता जी की कविता बहुत पसंद आयी... बाकी लिंक्स पर जा रहा हूँ..

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  13. खूबसूरत चर्चा .... अच्छे लिंक मिल गये .... शुक्रिया मुझे भी शामिल करने का ....

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  14. अच्छी चर्चा...मेरी रचना पसंद करने का शुक्रिया...

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  15. डा. अमर कुमार जी की बातें प्रेरक लगीं।

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  16. अनूप शुक्ल जी डा. अमर कुमार का सुझाव
    "मैं एक बार फिर दोहराऊँगा कि, इस मँच के लिये लिंक-चयन पर पाठकों की सहभागिता आमँत्रित की जानी चाहिये।"
    पर ध्यान देने की कृपा करेंगे।
    व्य्क्तिगत तौर पर मुझे यह सुझाव जंचा।

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  17. @ नरेन्द्र व्यास जी
    आपका आभार।
    आपकी इन बातों से सहमत हूं।
    " ''मुझे क्या करना होगा'' एक प्रश्न चिन्ह है.... लगता है हिन्दुस्तान में व्याप्त इस 'मुझे क्या करना होगा' रुपी रोग से ब्लॉग जगत भी अछूता नहीं रहा.."

    जवाब देंहटाएं
  18. @ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)जी
    दिल से नहीं लिया है। कुछ व्यक्तिगत अनुभव थे उस परिप्रेक्ष्य में ये बातें कह दी। और खास कर अन्य चर्चाकारों से निवेदन किया।
    जब मैं ब्लॉग के क्षेत्र में बिल्कुल ही नया था तो मुझे भी इस तरह के विचार ग्रसित किया करते थे, कि चर्चाओं में मेरा नंबर कब आएगा?

    जवाब देंहटाएं
  19. क्या बात है ...बहुत बढ़िया ..आपकी पसंद हमें भी बहुत पसंद है.

    जवाब देंहटाएं
  20. बहुत खूब!


    आप पढ़िए:

    चर्चा-ए-ब्लॉगवाणी

    चर्चा-ए-ब्लॉगवाणी
    बड़ी दूर तक गया।
    लगता है जैसे अपना
    कोई छूट सा गया।

    कल 'ख्वाहिशे ऐसी' ने
    ख्वाहिश छीन ली सबकी।
    लेख मेरा हॉट होगा
    दे दूंगा सबको पटकी।

    सपना हमारा आज
    फिर यह टूट गया है।
    उदास हैं हम
    मौका हमसे छूट गया है..........





    पूरी हास्य-कविता पढने के लिए निम्न लिंक पर चटका लगाएं:

    http://premras.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  21. मनोज जी आप बहुत दिनों से आये नहीं तो ढूँढने चली आई .....पर आप तो तमाचा लिए खड़े हैं .....गलत समय पर आ गयी शायद .....चलिए फिर आती हूँ ....

    हाँ सभी बेहतर रचनाओं का चयन किया आपने ....!!

    जवाब देंहटाएं
  22. बेनामीजून 20, 2010 9:31 am

    koi bhi jpehli baar is manch par aataa haen to usko lagtaa haen ki shayad yahaan agar uski blog pravisti dikhaii daegi to uska blog bhi ek achchi kategory ka blog mana jayegaa

    yae is manch ki safaltaa maatr haen ki koi kahey

    mujeh yahaan aanae kae liyae kayaa karna hogaa

    जवाब देंहटाएं
  23. चौपाल अच्छी लगी. लोग भी ठीक ठाक जम जाते है. और गुफ्तगू भी अच्छी हो जाती है . गन्धारी पट्टी बान्धे भी सबसे आगे खडी लगी.

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  24. me samast joshi samaj ka aahawan karata hun ki vo joshi samaj ke hit ke liye aage aaye

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