खामोशी की चीख सही जगह सुनाई देती है...बुद्धुओं की सवारी करते हैं शब्द.
शब्दों की सवारी करते हैं बुद्ध !
जब तक हम शब्द इस्तेमाल करते हैं, हम कोई और हैं. आत्म-बहिष्कृत हैं. self-existed.
और जब हम अपना 'स्वयं' होते हैं, तो शब्द नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द सदा 'The Other' है, हमारा Outsider है.
अपने को जानना दूसरे को नष्ट करना है. यह दूसरा ही शब्द है!
भाषा ही अहंकार है. The other है.
सारा झगड़ा शब्दों के कारण होता है और शब्दों के दायरे में होता है, और शब्दों में कोई भी शख्स exact point पर नहीं हो सकता. शब्द केंद्रभ्रष्टता है. हमारा अपना पड़ोस! पर हम स्वयं नहीं. हमारा घर नहीं.उपदेश की यह तथाकथित भाषा मेरी ख़ुद से बातचीत है. You are just excuse.
कितने महत्वपूर्ण है न शब्द .....वाकई संवाद करते है ...बकोल विष्णु खरे अब कविता ओर गध की भाषा कोमन है .....
आशीष को पढ़ते हुए यही महसूस होता है
........ ....... ......कविता की बात चली तो .....जाने क्यों
कुमार अम्बुज की एक कविता याद आती है .....
था बेसुरा लेकिन जीवन तो था ........कहते है कविता निजी अभिव्यक्ति है ....पर कागज पर आते ही .अपना निजत्व छोड़ देती है .....कवि के सरोकार जुदा नहीं है ....अब उच्चारित कविताये नहीं लिखी जाती...... ना अबला तेरी यही कहानी जैसी.....कविता ने भी अपने नए ठोर ठिकाने ढूंढ लिए है.....परम्परागत आदर्श वादी कल्पनाये अब उबासी लेती मालूम होती है .......कवि यथार्थ से खेलते दिखते है ...कभी कभी इतने अधिक के .. लगता है .भाषा के खिलंदडेपन का मोह भी छोड़ रहे है .....जब
अनामिका जी कहती है
..".मै एक दरवाजा थी..."..... जितना वे अपरम्परागत मालूम होती है ....... कविता भी उतनी ही अपरम्परागत दिखती है ......
...मसलन जितना मुझे पीटा गया / उतना मै खुलती गयी ....
..तो क्या अब .कविता का कोई निश्चित फोर्मेट .नहीं रहा ...क्यूंकि ...हर कविता के .हर कवि के अपने पाठक है .........अकविता .के भी........
नेट ने शायद इसे एक ओर जगह दी है रेंज बढ़ाने को ......भगवत रावत जब कहते है ".
असाधारण होने के लिए साधारण चीजों के बीच से गुजरना होता है "तो यही सोचता हूँ के अलग पड़े हुए साधारण से दिखाई पड़ने वाले शब्द किसी कविता में रखे कितने असाधारण हो जाते है .....
आज़ाद नज़्म ओर कविता के बीच के पतले से मुहाने पर
ओम आर्य अक्सर रिश्तो को टटोलते मिलते है .रिश्तो पे लिखना उनका पेशन लगता है ...शायद अपना बेस्ट भी वे वही देते है ....
दरअसल
कई बार तुम्हें याद करता
उसकी बाहों में गया हूँ
और कई बार
उसकी बाहें तुम्हारी यादों में रही हैं
तभी तो लगता है
कि सिर्फ आत्मा हीं नहीं
हमारे रिश्ते भी देह बदलते हें
वे मूलत कवि नहीं है सिर्फ अपने आस -पास को ज्यो का त्यों उठाकर रखती है .....पीछे मुड़कर देखते हुए उसे आज से जोडती है ......उनका गध सामाजिक परिवेश के कई मिथ से लड़ता है .....आप उन्हें पढेगे तो पायेगे ....वे अपने विचारो के लेकर कितनी स्पष्ट है
अधपकी उम्र मे फ़िर मिल बैठी है सखियाँ
सालो बंद कपाट सी खुल-खुल आती है यादें
उमड़-धुमड़ जाते है किस्से
जागती रातो और बेसबब बातों के
पिछले जन्म में देखे-गढ़े सपनों के अम्बार में
अपने भीतर बहुत-बहुत लड़कपन लिए अधेड़ स्त्रियाँ
बीनती है तिनके जो बचे रह गए है जीवन में
जैसे बीनती रही थी उनकी नानी-दादियाँ
मिलजुल धूप में सूखते गेहूं, दाल
और जीवन में बिखरे कंकण
प्रेम के पुल को पारकर कभी घर पहुँची थी कई स्त्रियाँ
और कुछ उलट पाँव फिर खुद को खोजती
चली गयी थी किसी दूसरी छोर, अनजान देश और भूगोल में
अब, जब उत्कंठा नही बची है भाग्य-भविष्य की
अधपकी उम्र मे सहज हो जाता है वर्जनाओं पर बात करना
अब वों ओढी हुयी मर्यादाए नही है
जब प्रेम भी छिपाने की मशक्कत होती थी
|
महिमा का मिथ
(वियतनाम युद्ध से सम्बंधित कविताएँ)
जॉन केंट
अंग्रेजी से अनुवाद : कुमार अनुपम
अनुवाद करना भी एक जटिल प्रक्रिया है ....खास तौर से कविता का .... ये कविताएं भी मनुष्य की अपनी बनायीं हुई स्थितियों पर गहरे चोट करती है ....ओर मिथ से दूर एक क्रूर यथार्थ को निष्पक्ष सामने रखती है .....
एक
एक अनाथ लड़का
जिसकी एक ही बांह,
मुझे एकटक घूरता रहता है
घृणा की एक लम्बी उम्र
इन आठ संक्षिप्त सालों में...
दो
हम जीत लेते हैं गाँव के गाँव
वीसी के नाते प्रतिष्ठित है जो
ग्रामीण कपड़ों में लिपटा होने के बावजूद
वे दागते एके ४७
जवाब में हम उन्हें मार डालते
'हुच्च' की आवाज़ सुनते हम चीखते-
अपने हथियार डाल दो, बाहर आओ, अपने हाथ ऊपर उठाए हुए!
(वियतनामी कबूतरों!)
वे जवाब देते अपशब्द और आग के साथ
बारूद से भर देते हम उनकी 'हुच्च'
बस एक ग्रेनेड उछालकर
सन्नाटा...
सावधानी से हम झांकते भीतर
सभी तो मृत...
एक नवयुवती
नवजात शिशु को जकड़े हुए अपनी छाती से
एकमेक
रक्त की नदी में।
तीन
लड़का जो दस से अधिक का नहीं
कुझे चकाचौंध करता अपने कपड़ों तले से
हथियार चमकाता है
मुझे एक उदार आश्वस्ति दो
पूछो मुझसे क्यों
मौत के घाट उतारा मैंने एक दस साल के लड़के को!
|
.......नरेश जी की ये कविता कम आक्रोश अधिक है ..पूरी कविता कबाडखाना पे पढ़ी जा सकती है ....बिना अधिक विम्बो के कवि मुखर है .कही कही लायूड भी .पर सन्देश स्पष्ट है ….
चार सौ बरस बाद
किसी को कुतुबमीनार से चिल्ला कर कहने की ज़रूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा और कैसा इसका हस्तक्षेप
कि चीज़ों के गिरने के नियम
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए है
और लोग
हर कद और हर वज़न के लोग
खाये पिए और अघाए लोग
हम लोग और तुम लोग
एक साथ
एक गति से
एक ही दिशा में गिरते नज़र आ रहे हैं
इसीलिए कहता हूँ कि ग़ौर से देखो, अपने चारों तरफ़
चीज़ों का गिरना
और गिरो
गिरो जैसे गिरती है बर्फ़
ऊँची चोटियों पर
जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ
|
अब एक ओर कविता पैर पसारती नजर आती है ...महानगरीय कविता .मुझे अक्सर लगता है गौरव उसी हिस्से का प्रतिनिधित्व करते है ......वे अश्लील होने की हद तक कठोर मालूम पड़ते है ...
उधर से आओ तुम दोबारा
पान और पैसे खाते हुए
दृश्य में शाम को कोई टीवी देख रहा हो,
फिल्म नहीं
दर्द नहीं के बराबर होता हो,
कोई बच्चा बाँटता हो टॉफी तो बेहतर है।
हम सैनिक बनें या सताए जाएँ,
टक्कर खाएँ या अकेले हों,
किसी को भाई कहकर पुकारें और डरें नहीं,
जैसे डरना गिर गया हो छत से।
किसी की अंत्येष्टि हो तो
हम मुस्कुराना और योजनाएं बनाना सीखें।
सोते-सोते लिखना सीखें किताबें,
ट्रेन में करना प्यार।
दर्द हो तो
उसे दृश्य से मिटाकर सीख पाएं
बच्चों से टॉफी बँटवाना।
|
वे उसी दुनिया की बात करती है जिसमे हम रहते है ...बिना जटिल विम्बो का सहारा लिए .....
दीवार से लगे बिजली के तार के पीछे
ये किसकी चिट्ठी खोंस रखी है तुमने
पता नहीं
पर दिखती कितनी सुन्दर है
आईना
पानी उतर रहा है तुम्हारे शीशे से
और साफ़ नहीं दिखाई देती है सूरत
नहीं
ये आईना तो
बच्चों के बाप की तरह गोलमोल बात करता है
| उन्हें पढना मानो इस दुनिया से बेदखल होने सा है ....वे कही सतर्क दिखाई देते है.....कही तटस्थ .उनकी कविताएं लकीर नहीं पीटती है....वे अपना एक संसार रचती है ...जो कभी कभी निराश भी करता है ....बेरहम भी दिखता है ...उनके पास कहने को बहुत कुछ है ...यहाँ उनकी एक कविता के अंश है .....युद्ध ओर उदासिया ...कविता का शीर्षक है ....पूरी कविता यहाँ पढ़ी जा सकती है
सबसे तीखी रौशनी वाला तारा सबसे जल्द मरता है-
तुमने कहा तो मुझे लगा इस तारे में दूब रोप देनी चाहिए
पीली गर्द में वह शाम ढल रही थी और चेहरे धुंधले पड़ रहे थे...
सबकुछ वैसा ही था जैसे आज था तुमसे मिलते समय
तुम इतने दिन कहां रहे दोस्त
किन-किन युद्धों में शामिल हुए कितनी नदियां पार कीं कितनी बार
आज तुम्हें सड़क पर एक लंबी नाव में आते देखा तो याद आया
ऐसी कितनी नावें जलाकर हम इस पार आए थे
उबासियों भरे इस थके हुए युद्ध में
जहां नदियां सिर्फ बीते दिनों की याद में बहती हैं।
|
कुछ कवि अकवित होते है .....उनके पास अपने शब्द होते है अपनी व्याख्या ........भाषा की देह पर शब्द गूंथते .......
क्यारियों के सामर्थ्य पर, चिंगारियों पर, गीले-सीले शिकवे छाते हैं मानसून के बादल और समय का संकोच,
कोंचती किताबें यहीं बनती हैं हादसों और सब्जबागों के साथ बंट खप गए जंगल पहाड़ सपनों और आशंकाओं में,
संभावनाओं के दिए तले यही उगते हैं मदार, बबूल / रेत में
बादशाह बचे जाते हैं बच्चों के पढ़ने और चारण और कठपुतलियों के खेल के लिए सर्वांग प्रफुल्ल.
एकी यात्रा .को पढने के लिए क्लिक करे
| उनके बारे में कुछ कहना मुनासिब न होगा.....अनुनाद को मै एक ऐसा ब्लॉग मानता हूँ जिसकी फीड आप किसी रोज़ मोबाइल बंद कर तसल्ली से बांचिये ....आप सिर्फ शब्दों के एक भीतरी संसार में विचरण करेगे ....जब आप वहां से वापस लौटेगे तो एक बेहतर मनुष्य होगे ....क्यूंकि वहां ढेर सारी दृष्टिया है .ढेर सारे सरोकार ....कुछ ऐसे भी जिन तक अमूमन हम पहुँच नहीं पाते
कविता लिखना
अट्ठारह से पच्चीस की उम्र तक
पोस्टर चिपकाना हुआ
पच्चीस से तीस तक यूँ ही कुछ दुक्खम-सुक्खम निभाना हुआ
तीस की उम्र में अचानक ही दिल्ली जाकर
पुरस्कार पाना हुआ
तीस से पैंतीस के बीच ख़ुद को वहां से ढूंढ़ कर लाना हुआ
पैंतीस के बाद थोड़ा शर्माना हुआ
न आना हुआ
न जाना हुआ
अख़बार में मुखड़ा देख
एक सहकर्मी वरिष्ठ आचार्य ने कहा चौंककर
अरे शिरीष
तू तो कवि है साला
माना हुआ !
|
दोनों प्रकारों के बीच सिर्फ़
सुबह की चाय ही रहती थी
या यूँ कहें कि
उसकी सुबह सिर्फ़ उस चाय की प्याली में ही
रहा करती थी
जो प्याली के साथ ही
रीत जाया करती थी
इसके बरक्स
उम्मीद
किसी रेगिस्तानी कसबे में
अरब सागर की
किसी लहर के इंतज़ार की तरह
क्षीण और दूरस्थ थी
या अखबार के परिशिष्ट की
बिना हवाले वाली अपुष्ट ख़बर की तरह अवास्तविक
जो अमेरिका द्वारा
तीसरी दुनिया की भूख के
जादुई डिब्बाबंद समाधान की शोध के
अन्तिम चरण में होने की
बात करती थी
संजय उन लेखको में से है जिनका गध ओर कविता दोनों अपने नजरिये को मजबूती देता है ...उनके सरोकार स्थिर रहते है ....उनका सृजन रहस्मयी नहीं है ...न चमकीला .वो आत्मायो की पड़ताल करता है ...बिना भावुक हुए .यही उनकी खासियत है संजय की पूरी कविता अनुनाद पर पढ़ सकते है
| ये कविताये भी अनुनाद से ली गयी है .....बुझी आत्मायो को जलाने की कोशिश करती प्रतीत होती है
हवा के माथे की सलवटे -सिनान अन्तून
हवा है एक अंधी माँ
लाशों के ऊपर से
लड़खड़ाती गुज़रती
कफ़न भी नहीं
बादलों को बचाओ तो सही
मगर कुत्ते हैं बहुत ज्यादा तेज़
2
चाँद है कब्रिस्तान
रौशनी का
और सितारे हैं
कलपती औरतें
3
हवा थक गई
ढो-ढोकर ताबूत
और एक ताड़ के पेड़ के सहारे
टिक गई
एक उपग्रह ने पूछा:
अब किस तरफ?
हवा की बेंत के भीतर की ख़ामोशी बुदबुदाई:
"बग़दाद"
और ताड़ के पेड़ में आग लग गई
|
सत्य कभी एक साथ पूरा नहीं खुलता
वह उघड़ता है परत दर परत
और एक यात्रा चल निकलती है
अनंत सी, अनवरत
यह अलग बात है कि
हममें से अधिकतर पर
गुजरता है यह दुरूह और दुष्कर
उसे ही सत्य मान लेते हैं
जो मिल जाता हैं इधर-उधर
हारे हुए हम
बुन लेते हैं चौतरफ़ चारदीवारियां
सचेत और चौकस होते जाते हैं
रूढ़ और कूपमण्डूक
भ्रमों की आराधना को अभिशप्त
यही बाकी बचता है
हमारे पास
सत्य की उपलब्धि के नाम पर
| ओर कुछ के लिए कविता समय से असहमति है..........
आराम कुर्सी
चकित हूँ मैं भी
कि मैंने भी इसी घर में रहते हुए
ऐसे ही मौसमों को गुजरने दिया
ऐसे ही बेखयाली में खोला नहीं बालकनी का दरवाजा
और ऐसे ही तुम्हें याद न करने के जूनून में
उस कुर्सी को भी कभी नहीं देखा.
|
मेरी पसंद -
सांप ! तुम सभ्य तो हुए नही
नगर में बसना भी तुम्हे नही आया
एक बात पूंछू (उत्तर दोगे? )
तब कैसे सीखा डसना -विष कहाँ से पाया ?
----------------------------अज्ञेय |
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self-existed=self exiled!
जवाब देंहटाएंऔर भी ढेरों गलतियां हैं वर्तनी की ,शब्द की और अभिव्यक्ति की भी ....
भैया और जो कुछ हो यह गति तो मत बनाईये आदि चिट्ठाचर्चा की ...
या तो फिर साहित्यकार कटेगरी का दावा त्याग करिए..
good links
जवाब देंहटाएंचर्चा तो अच्छी है..पर लिंक नहीं दिए जिससे सीधे यहाँ से क्लिक कर पढ़ा जा सके....एक दो ही लिंक हैं जहाँ पहुंचना संभव हुआ
जवाब देंहटाएंसांप ! तुम सभ्य तो हुए नही
जवाब देंहटाएंनगर में बसना भी तुम्हे नही आया
एक बात पूंछू (उत्तर दोगे? )
तब कैसे सीखा डसना -विष कहाँ से पाया ?
----------------------------अज्ञेय
ye kabhi college life mein padha tha aur apni diary mein likh liya tha .........aaj padhkar phir yaad aa gaya ki har yug mein kitna saamyik hai.............vaise bahut hi badhiya prastuti rahi..............naayab posts.
कविता पर अच्छी चर्चा।
जवाब देंहटाएं@ Arvind Mishra
जवाब देंहटाएंगलतियां = गलतियाँ
बनाईये = बनाइये
अच्छा संकलन पर पूरे लिंक नही मिले ...
जवाब देंहटाएंविंडो लाइव राइटर का सही इस्तेमाल शायद करना अभी तक मुझे नहीं आया ...इसलिए ये लिंक वाली गलतिया हुई...इससे पूर्व में मनोज जी ओर रचना जी की टिप्पणिया भी मिट गयी है ......उनके लिए क्षम प्रार्थी हूँ.......कोशिश करता हूँ के लिंक पुनः दे सकूँ .
जवाब देंहटाएंself-existed. व् दूसरे शब्द सीधे आशीष व् अन्य ब्लॉग से उठाये गए है ....
वही मैं देख रहा हूं कि मेरी टिप्पणी कहां गई ... ऐसा कुछ आपत्तिजनक तो नहीं लिखा था...
जवाब देंहटाएंलिंक सुधारने की कोशिश की गयी है ....अब शायद सभी लिंक मिले ......
जवाब देंहटाएंओर हाँ...... कृपया "क्षमा "पढ़े
मनोज कुमार ने आपकी पोस्ट " सुनो कवि !तुम भाषा की देह पर शब्द उलीचते कामगार हो... " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंएक बहुत ही अच्छी चर्चा। कई महत्वपूर्ण प्रश्न भी सामने आए हैं। जैसे कविता ... शब्द ... फॉर्मेट ... अभिव्यक्ति ...
कहना चाहूंगा अपने पसंद की जिस कवि की कविता आपने प्रस्तुत की है उनका ही कहना था
"काव्य सबसे पहले शब्द है। और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है।"
कविता में नवीनता की उत्पत्ति वस्तुतः सच्ची कविता लिखने की आकांक्षा से ही उत्पन्न होती है। जो कथन सृजनात्मकता तथा संवेदनीयता से रहित हो उसे किसी भी स्तर पर कविता नहीं कहा जा सकता।
मनोज कुमार की टिप्पणी
धन्यवाद जी!
जवाब देंहटाएंbahut khub
जवाब देंहटाएंachhi charcha
इतने अच्छे कवियों पर चर्चा... यकीन ही नहीं हो रहा है कि ऐसा भी होता है।
जवाब देंहटाएंकुमार अंबुज को भी याद कर आपने अच्छा काम किया।
बधाई..
नरेश जी की स्पष्ट सन्देश वाली कविता काफी अच्छी लगी.. अन्य प्रस्तुतियां भी सुन्दर है.
जवाब देंहटाएंजैसे भी हो...बात पहुंच जाए...पाठक तक...
जवाब देंहटाएंऔर अपनी आत्मतुष्टि सा कुछ...जिससे लगे कि कुछ अलग से अंदाज़ में कहा है शायद...बातें वही हैं...आपके शब्द उसे ही और कितना मारक, प्रभावी...बना सकते हैं...बस्स...
बाकि सब चलता रहेगा...क्या फ़र्क पड़ता है...?
इतनी सारी कविताएं एक साथ देखकर अच्छा सा लगा...
अपुन भी यहां हैं...गज़ब है...और अच्छा है...
भाषा की देह पर शब्द उलीचते कामगार !!!
अच्छी और सुगठित चर्चा लिंक्स एकत्रित करने एवं उन्हे ध्यान से पढ़ने मे किये गये श्रम को दर्शाती है..कई भूले हुए कवि याद किये गये और बिसरायी सी कविताएँ स्मृति-पटल की प्रथम पंक्ति मे रखी गयीं..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएँ हैं और कई नए लिंक मिले हैं.
जवाब देंहटाएंकाफी समय और मेहनत लगी होगी.सब को पढ़ना ,समझना और जानना ताकि उनके /उनके लेखन के बारे में लिखना ..
बहुत बहुत आभार.
बढिया।
जवाब देंहटाएं--------
करे कोई, भरे कोई?
हाजिर है एकदम हलवा पहेली।
बदिया चर्चा.अपने समय के महत्वपूर्ण कवियों के बीच उपस्थित पाया जाना सुखद अहसास है.इस सम्मान के लिए आभार आपका.
जवाब देंहटाएंरही बात अशुद्धियों की,तो नेट पर हिंदी लिखना लगातार विकासमान अवस्था में है.इसलिए इस पर अतिसतर्कता कभी कभी स्थगित रखी जा सकती है.
बहुत अच्छी कविताएँ ,अच्छी चर्चा..
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंकुछ और लिखने का मन है,
फिलहाल तो आभा जी से सहमत ।
शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंआईला, ऍप्रूव्ड ?