शुक्रवार, अक्तूबर 08, 2010

शब्दों के जंगल में ....."कठपुतलियो" संग भटकते हुए .....जीवन का दृष्टिकोण

इन दिनों जबकि हर लिखने वाला अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की छटपटाहट में नजर आता है .....कुछ लोग  ख़ामोशी से अपने अनुभव को   बांटते है ....बिना गंभीर होने का दावा पेश किये हुए ......कहते है हर लिखने वाले का एक कम्फ़र्ट ज़ोन होता है ....पर कुछ  लोग इस ज़ोन के दायरे से  बंधते नहीं ......यूँ भी  यदि किसी लिखने वालो को समझना हो तो उसकी कम से कम दस पोस्ट पढनी चाहिए ......ओर अधिक समझना हो तो  दस दिनों में उसकी यहाँ वहां की हुई टिप्पणी भी ......


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कितनी बार यूँ होता है मन वक्त का साथ छोड़ देता है। वक्त के किसी कोने में ढ़ेरा डाल कर पसर जाना चाहता है। किसी सुरीली सी धुन के जाम के साथ पुरानी सी किसी याद में ठहर जाना चाहता है। हौले हौले मन सोंकता है...कुछ कही,कुछ रही बातों को......कुछ अनकही को कह कर देखता है....कुछ को पकड़ कर सुनने की कोशिश करता है...। घावों को कुरेदने में अपना एक सुकून है....। जैसे उनके रिसने से उनके होने पर विश्वास होता है। हसरतों की शायद उम्र नहीं होती....मौसम होते हैं....। मौसम जो वक्त के साथ तो कभी मन के साथ बदल जाते हैं।


बेजी के पास तात्कालिक जीवन की जरूरी -गैरजरूरी वजहों पे रखने के लिए   एक विजन है.......शायद फन....या ओर दूसरी तरह से कहूँ तो "हुनर "


तुम्हारे दुख कैसे तो बेमतलब हैं। कभी तुम्हे देखकर लगता है जैसे कोई बच्ची मुँह फुलाये बाल खोल कर अपने टूटे खिलौने का मातम मना रही हो।"



सच ही कह रहे थे। भरी पूरी जिंदगी में कायदे का एक भी दुख नहीं था। पता नहीं दुख जैसा दुख कैसा होता है।


आप जब उनका गध पड़ते है ....आप अपने  आप को  आश्वस्त करते है ...क्यूंकि वो भी किसी कविता के बहाव जैसा है ....जो शब्दों की ताकत का पुरजोर अहसास कराता है ..सैट साथ ये भी के  शब्द कितने जरूरी है जीवन के लिए

मैं चाहती हूँ कि ठोस बनूँ...ऐसी अवस्था जिसे तराशा तो जा सके पर हलचल के बीच सख्त बना रहे। मैं चाहती हूँ कि लहर को अपने आगोश में भर तो सकूँ पर उसमें अपने अस्तित्व को बचाये रखूँ।
पर मैं ठोस नहीं....तरल भी नहीं.....
हवा सी महकती हूँ....धुँए सी घनी....जलन से भरी....कभी धुँध ....तो कभी ओस....मंद बहती सी कभी .....तो कभी उफनते तूफान सी.....कभी सौम्य कभी उग्र.....
अपनी ही ऊर्जा से जूझती हूँ.....थपेड़ो में सँभलती हूँ....खारे पानी में उभरती हूँ.....
विक्षिप्त....दूर की धीमी आवाज़ से भी संतुलन खो देती हूँ......
खामोशी मुझे बेचैन करती है।
हर आवाज़ मुझे तब साफ सुनाई देती है.... शाश्वत की तलाश को उकसाती है....मैं उलझती हूँ....फिसलती हूँ...सँभलती हूँ.....

मौलिकता कई किस्म की होती है ....कभी कभी कच्ची .अधपकी...ओर कभी कभी रुखी सी भी.....हम इसके लायूड शेड को देखने के आदी है या  सीधा नकारात्मक......पर बेजी ....उनकी मौलिकता मुझे हतप्रभ करती है

रास्ता फिर भी रास्ता ही होता है। एक उम्मीद की तरह बहुत दूर तक ओझल नहीं होता। पीछे छूटे और आगे आने वाले पड़ाव को पाटता एक और पड़ाव। कुछ बहुत आगे निकल जाने का डर और कुछ कहीं ना पहुँच पाने की झुँझलाहट.......कई बार दौड़कर गुजरे पड़ावों की गोद में सिमट जाने को जी चाहता है। छोड़ी पहचान के सुराग का पीछा करना हमेशा मुमकिन नहीं होता...पहचान पनप कर कभी पेड़ तो कभी सूख कर ठूठ बनी दिखती है।

वे जज्बात को आहिस्ता से पकडती है ......मसलन .....

बातें अनकही भी रह जाती हैं. कहने वाले के गले में जज़्बों के दलदल में घँसी.....जितना आवाज़ को थामने की कोशिश करती है...थोडी और गहराई में उतर जाती है. सुनने वाले की तरस किनारे पर खडी ....बेबस, लाचार.... बात को डूबते , दम तोडते देखती है. ऐसी बातों की आवाज़ नहीं होती. यह शब्दों के जेवर नहीं पहनती .... जुदा हुए साये की तरह....बेआवाज़ ....बस गूंज सुनाई देती है.

ओर जब वो बेटी की  तरह  कागज में उतरती है  ...तो शायद अपने साथ न जाने कितने रिश्तो को छूते चलती है बनावटी समाज के इस भ्रमित युग में  रोजमर्रा   के दोहराव   से  उबती    जिंदगी   में ऐसे  संवेदनायों  किसी ऑक्सीजन  सा काम करती है .....ओर  रिश्तो में  भावुकता के आश्वस्तकारी  होने की जरुरत को कन्फर्म भी ....




घर के पिछवाड़े की बाड़ी छोटी टहनियों को गूँथ कर पापा ने रामू की मदद से बनाई थी। छोटी मोटी यहाँ वहाँ मुड़ी टहनियाँ कैसे तो पंक्ति में बँध गई थी। धीरे धीरे सँभल कर मैं उनपर हाथ चलाती। चिकनी, फिर खुरदुरी...बीच में काँटे। एक कोने से हिलाओ तो मिट्टी फिसल कर सरक सरक नीचे गिरती।


आँख बंद कर फेफड़ों को फैला कर भरी पूरी एक साँस लेती....और मार्च एप्रिल का जायका मेरे जहन में समा जाता...। पूरे साउँड और विश्अल एफेक्ट्स के साथ।

..............................................................
महीना मार्च ही है। गर्म हवायें भी हैं। बड़ी सी गाड़ी की स्टीयरिंग व्हील थामे....प्यारी सी गुड़िया को रियर सीट में बैठा कर...फूलों की क्यारियों के बीच से गुजरते हुए.....कैसे तो मन फिर उसी दोपहरी के लिए तरसा है.......।


उनकी कविताएं  स्वंय की पडताल भर नहीं है .....वे  भावनाओ के अनंत आकाश में विचरती अनिवार्य लिखित शर्ते है .....

इस वक्त और अनंत के बीच
किसी गहरे गर्त में
ठहरा हुआ
कोई बोध...
तृषित...
अधूरा...
अस्तित्व की निरर्थकता से निढ़ाल
अनभिज्ञ आकर्षण के बीच
ऐंठा हुआ
तलाशता है
अपना शेष अंश…



सोचती हूँ…
काश शिनाख्त हो पाती....
............
तो दफ्न ही कर आती.....


उनकी  कविताये  न केवल खूबसूरत है उसके पास रवानगी भी है .......सच कहूँ तो कभी कभी वे पेशेवर लेखको से भी बेहतर नजर आती है .....मसलन उनकी  कविता "उधम "

अपनी ज़मीन
और आसमां के बीच
क्षितिज के
दहलीज़ पर
एक तख्ते के ऊपर
पंक्ति में
अपराधियों की तरह
सारे
भ्रम विभ्रम
जो उभर आये
मानस पटल पर
चित्त के
दोगले संतान की तरह
...............
धकेलना है इन्हे
सीमाओं के परे
कोई ऐसी जगह
ब्रह्माण्ड में
जहाँ यह
सांस ले सके
शाश्वत सत्य की तरह....

असल जीवन में भी वे न केवल एक सह्रदय महिला है .....बल्कि जिंदगी से भरपूर .है ....फिलोसफी  की पहली बड़ी किताब मैंने  उनसे  ही मांग कर    मेडिकल   कोलेज के दिनों में पढ़ी थी .....नोट्स टू माइसेल्फ़ ....
उनका पता है
मेरी कठपुतलिया
दृष्टिकोण 

 उनकी लिखी...... मेरी एक फेवरेट कविता को याद करता हूँ....
....मुझे
 ऐसे भी रुकती है हवा
सांस रोक कर
कि उसके पांव
वहीं जड हो जाते हैं

क्यूँ ना...
तुम ही सांस फूंक दो
कि थोडी हलचल तो हो...


(तरुण जी द्वारा  प्रस्तावित   केवल एक चिट्ठाकार  पर  चर्चा को  जारी  रखते हुए)


 

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17 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी चर्चा है.
    कहीं आपके ही interview में पहले इनका नाम सुना है शायद आपने पढाई एक ही कोलेज में की है... हमने इन्हें कभी नहीं पढ़ा कारण आपने पहले ही पैरे में लिख दिया है.

    "रास्ता फिर भी रास्ता ही होता है। एक उम्मीद की तरह बहुत दूर तक ओझल नहीं होता। पीछे छूटे और आगे आने वाले पड़ाव को पाटता एक और पड़ाव। कुछ बहुत आगे निकल जाने का डर और कुछ कहीं ना पहुँच पाने की झुँझलाहट.......कई बार दौड़कर गुजरे पड़ावों की गोद में सिमट जाने को जी चाहता है। छोड़ी पहचान के सुराग का पीछा करना हमेशा मुमकिन नहीं होता...पहचान पनप कर कभी पेड़ तो कभी सूख कर ठूठ बनी दिखती है।"

    -------- प्रभावित तो करती है

    शुक्र है चर्चा जारी है.. कई और लोगों को जानने और पढने का मौका है और उनके विविध आयामों को समझने का भी...

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  2. अनुराग जी ,

    आज आपने जिस चिट्ठे की चर्चा की है वो तारीफ़ के काबिल है ..

    आपकी चर्चा इतनी सशक्त है कि बिना पढ़े रहा नहीं गया ..और उनके दोनों ब्लोग्स पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ..

    आभार

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  3. बेजी को पढना हमेशा अच्छा लगता है। उन के लेखन में ताजा खिले गुलाबों जैसी ताजगी होती है, और बेदर्द लोगों के लिए कांटे भी साथ में।

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  4. सच कहा उनके लेखन मे रवानगी है……………परिचय बहुत बढिया दिया और उन्हे फ़ोलो भी कर लिया वैसे पढ चुकी हूँ उन्हे।

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  5. ‘अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की छटपटाहट में नजर आता है’

    हम अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं :)

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  6. पहली पंक्तियाँ ही पढ़ी हैं अभी ...रहा नहीं जा रहा. पहले इनका ब्लॉग पढकर आते हैं ..चर्चा बाद में पढेंगे .
    आभार आपका.

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  7. बेजी की कविताएं मुझे भी आकर्षित करती रही हैं। अक्सर ऐसा लगता है कि बेजी के भीरत कोई गहरी खामोशी शोर मचाती है, और उस शोर को लयबद्ध तरीके से वह हौले से छोड़ जाती हैं, नतीजा होता है कि जो शख्स एक बार वहां घूम आया, अगली दफे जाना ही चाहता है। वैसे अनुराग भाई, आपने बढ़िया तरीके से पेश किया बेजी को।

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  8. बहुत अच्छा लिंक चुना है...बहुत अच्छा लिखा हुआ हें सब.

    आभार इसे पढाने के लिए.

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  9. दिल से कीबोर्ड जोड़ देने वाले कुछ चुनिन्दा ब्लोग्गर्स में से एक.

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  10. .
    मुझे लगता है, मैं उन्हें ज़रूरत से बहुत कम ही पढ़ा है,
    उनको मिस करते जाने की आज एक कचोट सी हो रही है,
    यहाँ से डोरी थाम कर वैसे कठपुतलियों तक पहुँच तो बना ली है,
    यह टिप्पणी तो महज़ उपस्थिति दर्ज कराने की आतुरता है..
    धन्यवाद डॉक्टर अनुराग, बहुत ही सधा हुआ चयन और सधे हुये शब्द !
    फुरसतिया शब्दावली में.. मन प्रफ़ुल्लित च किलकित हुआ ।

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  11. बेजी मैडम इन दिनों इर्रेगुलर है..पर हाँ उन्हें पढना निहायत ही सुकूनदायक है.. दो ऐसे ब्लॉग है जिनमे आपको पोएटिक प्रोस मिलेंगे एक तो प्रत्यक्षा जी का और दूसरा कठपुतलिया.. एक मस्ती शोर शराबे वाले बीच से निकल कर जब हम किसी शांत बीच पर बैठकर किनारों से टकराती लहरों को देखते है.. कुछ वैसा ही सुकून इन दो ब्लोग्स को पढ़कर मिलता है..

    उम्मीद है आगे भी इसी तरह और ब्लोगर मिलते रहेंगे..

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  12. बेजी जी के लेखन का मैं शुरु से जबरद्स्त फैन रहा हूँ। टिप्पणी करूँ या ना करुँ पर पढता जरुर हूँ। वो साधारण शब्दों में बहुत कुछ कह जाती है। इस बहुत कुछ को हम बहुत पसंद करते है।

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  13. अनुराग जिस तरह तुमने मेरा परिचय दिया है खुद मेरी दिलचस्पी मुझमें बढ़ी है। इस सभा में सबके स्नेह के बीच लाने का तहेदिल शुक्रिया।
    काफी दिनों से बहुत कम लिखा है। ऐसा नहीं है कि कुछ खास लिखने को नहीं था पर तेज बहाव के रफ्तार में शब्द दबे से हैं...पानी उतरेगा तो शायद उभर आयें...।

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  14. aap hame rasta dikhaeeye ..... hum galion me ghoom
    aayenge.....

    abhi aapke dwara padha aage khud unko padhunga....

    aapke shaili par man bharbhra ke rah jata hai...

    aapko aur beji mam ko pranam.

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  15. बेजी बहुत दिनों बाद फोटो सहित दिखी अच्छा लगा... इनकी सहज लेखनी हमेशा ही पंसद आती है.

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  16. जिस तरह बेजी अपनी उपस्थिति दर्ज़ होने ना होने की चिंता से परे सहज रूप से लिखती हैं उसी तरह उन्हे पढ़ती भी हूँ मैं। कभी उपस्थिति दर्ज़ कराई, कभी नही। पर पढ़ा लगभग हमेशा है। और जैसा कि हर भला लिखने वाले के साथ होता है कि आप उसे पढ़ने के बाद बस विचार में डूब जाते हैं, कहने को कुछ खास होता नही। यही बेजी के साथ मेरी स्थिति ८० प्रतिशत यही होती है....!!

    आगे भी ऐसी ही हस्तियों पर लेख की उम्मीद है....!!

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