आप में से जो लोग कविता पढ़ने (लिखने-भर नहीं) में रूचि रखते हैं उन्होंने गहरी संवेदनात्मक से लेकर विचार-प्रखर तक और आग लगा देने वाली से लेकर नथुने फड़काने वाली तक कई प्रकार की कविताएँ सुनी - पढ़ी होंगी। वैसे जो लोग साहित्य वालों को दोयम दर्जे का समझते हैं उन्होंने भी कम से कम अपने मिडिल स्कूल तक भाषा वाले विषयों में कविताएँ अवश्य पढ़ी ही होंगी। इन अर्थों में प्रत्येक मिडिल क्लास तक पढ़ा व्यक्ति भी उसकी शक्ति से परिचित होता है, उसकी धार से परिचित होता है उसके स्वरूप से परिचित होता ही है। और, एक मजे की बात और है कि युवावस्था के कच्चे प्रेम में पड़ कर लगभग सभी ने कविता का आश्रय लिया होगा, भले ही अपनी लिखी हों या किसी दूसरे की शायरी, कविताई या कलाम से काम चलाया होगा। यहाँ एक रोचक तथ्य और है ( लिंग विभाजन वाले माफ़ करें) कि आयु के उस दौर में श्रृंगाररस ( संयोग और वियोग दोनों ही) में डूबे लोगों का यदि सर्वेक्षण किया जाए तो युवतियों से अधिक युवक कविताई का सहारा लेते हैं, भले ही राज-ए-दिल बयान करना हो या दर्द-ए-दिल।दिल के टुकड़े दिखाने हों या चाक-ए-जिगर। यह तथ्य जाने किस इंगित की ओर इशारा करता है कि लड़कियों की अपेक्षा ऐसी स्थिति में अकवि से अकवि युवक अधिक संख्या में कविताई को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में प्रयोग करते है।
यह तो रही प्रस्तावना, मुद्दा यह है कि आख़िर कविता की आवश्यकता है क्यों, क्या करती है कविता, कैसी होती है या क्या छिपा रहता है उसमें कि हर देश, हर भाषा में कवि को अत्यन्त श्रेष्ठ स्थान प्राप्त होता है, ...और भी सम्बद्ध कई तथ्य। न, न ! आप भारत में हिन्दी के कवि की स्थिति का उदाहरण देकर मेरी बात काटने की दिशा में मत जाइए क्योंकि जो तर्क आप देने जा रहे हैं वही तर्क इसे प्रमाणित करता है कि हिन्दी के कवि की दुर्गत जैसी स्थिति के बावजूद भी यहाँ कवि वर्षा में कुकुरमुत्तों की मानिंद क्षण- क्षण और- और प्रकट होते रहते हैं, कुछ भी लिख कर कवि कहलाने के लोभ में त्रस्त होने ( `करने' पढ़ा जाए) की सीमा तक व्यस्त रहते हैं और दूसरों की रचनाओं पर हाथ साफ़ करने तक का परहेज भी वे नहीं मानते| ये सब तथ्य इसी बात का तो प्रमाण हैं कि कवि होना कोई बहुत ही बड़ी उपलब्धि की बात है, और कविता, वह कोई अत्यन्त विशिष्ट कौशल। बात वहीं आती है कि कविता की आवश्यकता ही न रहे तो ये सारे जंजाल मिटें। नित नए नए ज्ञान-विज्ञान के युग में क्या जरूरत है इसकी ?
झंडा और डंडा उठाने वाले लोग मेरी ओर लपकने को तैयार हो रहे होंगे कि अरे हमारी कुछ प्रविष्टियों को लिंकित करो और जाओ यहाँ से। लिंक को हायपर लिंक बना उसको दुहराते दिखाना भर ही तो चर्चाकार का काम है, इस से आगे वह यहाँ क्यों लिखने लगे हैं ? अपने मत देने का आपका अधिकार है, पर हमारा उस से विमत होने का भी अधिकार बना रहने की स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए मुझे आगे बढ़ना होगा।
तो, फिर आते हैं कविता पर। मुझे लगभग वर्ष -भर पूर्व कि एक घटना याद आ रही ही । श्री उदय प्रताप सिंह, (वरिष्ठ साहित्यकार एवं राजनेता) के सान्निध्य में एक कवि गोष्ठी हुई, उनके साथ कुछ अरब देश के अधिकारी भी थे तो उर्दू व हिन्दी के गिने - चुने कवियों को आमंत्रित किया गया था काव्यपाठ के लिए। संभवतः मैं अकेली महिला रचनाकार रही हूँगी। उर्दू के कई बड़े शायर मुम्बई से भी आए थे। मैंने उस दिन रिश्तों पर अपनी २ गज़लें पढीं। कार्यक्रम के अंत में जब उन राजनयिक के वक्तव्य का समय आया तो उन्होंने एक बहुत मार्के की बात की, जिस से कविता की आवश्यकता का सही सही अनुमान हो जाता है। उन्होंने कहा कि सायंस, गणित, भौतिकी, रसायन या अभियांत्रिकी के किसी भी विद्यार्थी को सारा ज्ञान -विज्ञान पा लेने के बाद भी साहित्य के अतिरिक्त कोई विषय ऐसा नहीं जो यह बताता हो कि, भले मानुष ! संसार में सम्बन्धों और रिश्तों की क्या जरूरत है। मनुष्य से मनुष्य के सम्बन्ध की सीख कोई नहीं देता, न दे सकता। रिश्ते वाली ग़ज़लों का उदाहरण देकर उन्होंने इसे इतने पारदर्शी तरीके से बताया कि रिश्तों की यह समझ और उनकी जरूरत केवल काव्य और साहित्य ही बयान कर सकता है, सिखला सकता है, समझा सकता है। साहित्य में स्नातकोत्तर और उस से आगे शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों को भारतीय व पाश्चात्य काव्यशास्त्र ( पोएटिक्स ) भी पढ़ाया जाता है। उसमें आरंभिक स्तर पर काव्य के तत्व से लेकर काव्य के प्रयोजन भी सम्मिलित होते हैं। मुझे कई बार लगता है कि नैसर्गिक प्रतिभा से इतर कवि बनने के अभ्यासियों को कम से कम इतना तो अवश्य पढ़ना चाहिए। ताकि वे अपनी कविताओं का मूल्यांकन कर सकें और बेहतर योगदान दे सकें।
जो लोग पाठकीय रुचि वाले कभी नहीं रहे, ब्लॉग प्रणाली ने उन्हें कुछ न कुछ पढ़ने को विवश कर दिया है, भले ही इसलिए कि दूसरों का पढ़ कर टिप्पणी करेंगे तो बदले में टिप्पणी आएगी भी। और साथ ही, पुस्तक को खरीद कर पढ़ना सभी के लिए उतना सुगम नहीं है, जितना नेट ने तात्क्षणिकता व सुगमता से पाठकीयता को प्रसरित किया है। नेट पर कविताओं की संख्या में दिनों दिन, दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हो रही है। बहुत अच्छी कविताएँ भी देखने पढ़ने को उपलब्ध हो रही हैं और बहुत दोयम दर्जे की भी। मुझे याद है, अपने विद्यार्थी जीवन के वे दिन जब एक कविता को इसलिए पढाया जाता था कि विद्यार्थियों को उदाहरण दिया जा सके कि ऐसी निरर्थक कविता भी क्या कविता। उस कविता को वर्षों पुरानी स्मृति से छाँट कर याद करुँ तो एकाध पंक्ति याद है -
इसी प्रकार का एक उदाहरण है, जहाँ एक ख्यातनाम व अच्छा लिखने वाले कवि ने अपनी माँ पर केंद्रित कविता में काफ़िया मिलाने के चक्कर में कमाल कर दिया। यह पूरी रचना भी मुझे स्मरण नहीं, किंतु उसमें संभवत: जीवन के द्वंद्वों की डोर पर संतुलन साधे चलने वाली माँ बताते हुए `नटनी' का काफ़िया प्रयोग किया गया था - "नटनी जैसी माँ" । इतने तक तो ठीक था, अब उसके आगे की पंक्ति में माँ की उपमा रोटी पर " चटनी जैसी माँ" कह कर बयान कर दी गयी। हद्द हो गयी भई यह तो। काव्यभाषा का संस्कार कहाँ से लाइयेगा?
माँ पर ऐसी ऐसी मार्मिक कवितायेँ लिखी गयी हैं कि संवेदना और श्रेष्ठता की दृष्टि से हिन्दी में इनका आँकड़ा सर्वाधिक होगा, इससे अगला स्थान संभवतः बेटियों पर केंद्रित कविताओं का निकलेगा। तो, सर्वाधिक सबल सम्बन्ध पर ऐसे चलताऊ ढंग से लिखना कभी कभी कितना घातक हो सकता है। यह ध्यान देने की बात है।अस्तु !
आज हिन्दी ब्लॉग जगत में इधर पढने को मिलीं माँ पर केंद्रित कविताओं में से कुछ को इस बार बाँटा जाए |
गत दिनों बोधिसत्व जी की माँ पर केंद्रित कविता माँ का नाच पढ़ने को मिली थी, कविता में माँ की पीड़ा का चित्र देखिए -
आप ने किसी एक फ़िल्म के `मेरे पास माँ है' वाले संवाद की तो खूब चर्चा सुनी होगी, अब ज़रा इन पंक्तियों पर ध्यान दें -
माँ के जीवन क्रम का एक चित्र यह, यहाँ भी देखें
माँ की डिग्रियों वाली कविता के बरक्स इस कविता को भी रख कर देखें कि माँ का मातृत्व इन औपचारिकताओं से कहीं परे की चीज है -" काश अगर मैं तोता होतातो अच्छी कविताओं और काव्य-भ्रष्ट कविताओं का अम्बार हिन्दी के सौभाग्य व दुर्भाग्य दोनों की कहानी कहता है। लोगों को यही नहीं पता कि कविता होती क्या है, उसके तत्त्व क्या हैं। उसकी देह क्या है व आत्मा क्या है। किसी ने देह को साध लिया तो किसी ने उसे भी साधने की जरूरत न समझी और अपने को कविराज मानते-मनवाते रहे।
तोता होता तो क्या होता
........
.......
........
तो-तो-तो-तो
ता-ता-ता-ता
तोता होता
तो क्या होता "
इसी प्रकार का एक उदाहरण है, जहाँ एक ख्यातनाम व अच्छा लिखने वाले कवि ने अपनी माँ पर केंद्रित कविता में काफ़िया मिलाने के चक्कर में कमाल कर दिया। यह पूरी रचना भी मुझे स्मरण नहीं, किंतु उसमें संभवत: जीवन के द्वंद्वों की डोर पर संतुलन साधे चलने वाली माँ बताते हुए `नटनी' का काफ़िया प्रयोग किया गया था - "नटनी जैसी माँ" । इतने तक तो ठीक था, अब उसके आगे की पंक्ति में माँ की उपमा रोटी पर " चटनी जैसी माँ" कह कर बयान कर दी गयी। हद्द हो गयी भई यह तो। काव्यभाषा का संस्कार कहाँ से लाइयेगा?
माँ पर ऐसी ऐसी मार्मिक कवितायेँ लिखी गयी हैं कि संवेदना और श्रेष्ठता की दृष्टि से हिन्दी में इनका आँकड़ा सर्वाधिक होगा, इससे अगला स्थान संभवतः बेटियों पर केंद्रित कविताओं का निकलेगा। तो, सर्वाधिक सबल सम्बन्ध पर ऐसे चलताऊ ढंग से लिखना कभी कभी कितना घातक हो सकता है। यह ध्यान देने की बात है।अस्तु !
आज हिन्दी ब्लॉग जगत में इधर पढने को मिलीं माँ पर केंद्रित कविताओं में से कुछ को इस बार बाँटा जाए |
गत दिनों बोधिसत्व जी की माँ पर केंद्रित कविता माँ का नाच पढ़ने को मिली थी, कविता में माँ की पीड़ा का चित्र देखिए -
मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ
पैरों में बिवाइयां थीं गहरे तक फटी
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर
पर जैसे भंवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है
नाच रही थी माँ
आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में
अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि परबस
घुमती जा रही थी
फिर गाने कि जगह उठा
विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान
वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे थे उसकी नाच की धमक से
सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गान ।
आप ने किसी एक फ़िल्म के `मेरे पास माँ है' वाले संवाद की तो खूब चर्चा सुनी होगी, अब ज़रा इन पंक्तियों पर ध्यान दें -
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई,
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई ।
माँ के जीवन क्रम का एक चित्र यह, यहाँ भी देखें
माँ की डिग्रियाँ
घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीजों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
माँ की डिग्रियों का एक पुलिन्दा
बचपन में अक्सर देखा है माँ को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिंदा
अनपढ़ माँ
चूल्हे-चौके में व्यस्त
और पाठशाला से
दूर रही माँ
नहीं बता सकती
कि ''नौ बाई चार'' की
कितनी ईंटें लगेंगी
दस फीट ऊँची दीवार में
...लेकिन अच्छी तरह जानती है
कि कब, कितना प्यार ज़रूरी है
एक हँसते-खेलते परिवार में।
त्रिभुज का क्षेत्रफल
और घन का घनत्व मापना
उसके लिए स्यापा है
...क्योंकि उसने मेरी छाती को
ऊनी धागे के फन्दों
और सिलाइयों की
मोटाई से नापा है
वह नहीं समझ सकती
कि 'ए' को 'सी' बनाने के लिए
क्या जोड़ना या घटाना होता है
...लेकिन अच्छी तरह समझती है
कि भाजी वाले से
आलू के दाम कम करवाने के लिए
कौन-सा फॉर्मूला अपनाना होता है।
मुद्दतों से खाना बनाती आई माँ ने
कभी पदार्थों का तापमान नहीं मापा
तरकारी के लिए सब्ज़ियाँ नहीं तौलीं
और नाप-तौल कर
ईंधन नहीं झोंका
चूल्हे या सिगड़ी में
...उसने तो बस ख़ुशबू सूंघकर बता दिया
कि कितनी क़सर बाकी है
बाजरे की खिचड़ी में।
घर की
कुल आमदनी के हिसाब से
उसने हर महीने राशन की लिस्ट बनाई है
ख़र्च और बचत के अनुपात निकाले हैं
रसोईघर के डिब्बों,
घर की आमदनी
और पन्सारी की रेट-लिस्ट में
हमेशा सामन्जस्य बैठाया है
...लेकिन अर्थशास्त्र का एक भी सिध्दान्त
कभी उसकी समझ में नहीं आया है।
वह नहीं जानती
सुर-ताल का संगम
कर्कश, मृदु और पंचम
सरगम के सात स्वर
स्थाई और अन्तरे का अन्तर
....स्वर साधना के लिए
वह संगीत का
कोई शास्त्री भी नहीं बुलाती थी
...लेकिन फिर भी मुझे
उसकी लल्ला-लल्ला लोरी सुनकर
बड़ी मीठी नींद आती थी।
नहीं मालूम उसे
कि भारत पर कब, किसने आक्रमण किया,
और कैसे ज़ुल्म ढाए थे
आर्य, मुगल और मंगोल कौन थे,
कहाँ से आए थे?
उसने नहीं जाना
कि कौन-सी जाति
भारत में अपने साथ क्या लाई थी
लेकिन हमेशा याद रखती है
कि नागपुर वाली बुआ
हमारे यहाँ कितना ख़र्चा करके आई थी।
वह कभी नहीं समझ पाई
कि चुनाव में
किस पार्टी के निशान पर मुहर लगानी है
लेकिन इसका निर्णय हमेशा वही करती है
कि जोधपुर वाली दीदी के यहाँ
दीवाली पर कौन-सी साड़ी जानी है।
मेरी अनपढ़ माँ
वास्तव में अनपढ़ नहीं है
वह बातचीत के दौरान
पिताजी का चेहरा पढ़ लेती है
झगड़े की सम्भावनाओं को भाँप कर
बात की दिशा मोड़ सकती है
काल-पात्र-स्थान के अनुरूप
कोई भी बात
ख़ूबसूरत मोड़ पर लाकर छोड़ सकती है
दर्द होने पर
हल्दी के साथ दूध पिला
पूरे देह का पीड़ा को मार देती है
और नज़र लगने पर
सरसों के तेल में
रूई की बाती भिगो
नज़र भी उतार देती है
अगरबत्ती की ख़ुशबू से
सुबह-शाम सारा घर महकाती है
बिना काम किए भी
परिवार तो रात को
थक कर सो जाता है
लेकिन वो सारा दिन काम करके भी
परिवार की चिन्ता में
सो नहीं पाती है।
सच!
कोई भी माँ अनपढ़ नहीं होती
सयानी होती है
क्योंकि
कई-कई डिग्रियाँ बटोरने के बावजूद
बेटियों को उसी से सीखना पड़ता है
कि गृहस्थी कैसे चलानी होती है।
माँ को तलाशती रतन चौहान की एक छोटी-सी कविता के मर्म तक पहुँच कर मौन के सिवा कुछ नहीं सूझेगा -
माँ के लगाए गए सहजन में
फूल आ गए हैं
उसकी नर्म टहनियाँ
वसन्त हो गई हैं
अब अब कुछ ज़्यादा काँपने
लग गए माँ के हाथों ने
इसे अपनी सहोदर धरती
की कोख में रोपा था दो एक ऋतु पहले
झुर्रियों से भरी माँ की उंगलियों को छूकर
धरती आर्द्र हो गई थी
सहजन बूढ़ी माँ का बेटा
है
ग्रीष्म की लू लपट में
माँ की स्मृतियों को छाँह देता हुआ
सहजन में फूल आ गए हैं
माँ नहीं है
समीरलाल जी की इस कविता में निहित वेदना को भी गत दिनों आप ने अवश्य अनुभव किया होगा -
मेरी माँ लुटेरी थी...
माँ!!
तेरा
सब कुछ तो दे दिया था तुझे
विदा करते वक्त
तेरा
शादी का जोड़ा
तेरे सब जेवर
कुंकुम,मेंहदी,सिन्दूर
ओढ़नी
नई
दुल्हन की तरह
साजो
सामान के साथ
बिदा
किया था...
और हाँ
तेरी छड़ी
तेरी एनक,
तेरे नकली दांत
पिता
जी ने
सब कुछ ही तो
रख दिये थे
अपने हाथों...
तेरी
चिता में
लेकिन
फिर भी
जब से लौटा हूँ घर
बिठा कर तुझे
अग्नि रथ पर
तेरी छाप क्यों नजर आती है?
वह धागा
जिसे तूने मंत्र फूंक
कर दिया था जादुई
और बांध दिया था
घर
मोहल्ला,
बस्ती
सभी को एक सूत्र में
आज
अचानक लगने लगा है
जैसे टूट गया वह धागा
सब कुछ
वही तो है
घर
मोहल्ला
बस्ती
और वही लोग
पर घर की छत
मोहल्ले का जुड़ाव
और
बस्ती का सम्बन्ध
कुछ ही तो नहीं
सब कुछ लुट गया है न!!
हाँ माँ!
सब कुछ
और ये सब कुछ
तू ही तो ले गई है लूट कर
मुझे पता है
जानता हूं न बचपन से
तेरा लुटेरा पन.
तू ही तो लूटा करती थी
मेरी पीड़ा
मेरे दुख
मेरे सर की धूप
और छोड़ जाती थी
अपनी लूट की निशानी
एक मुस्कान
एक रस भीगा स्पर्श
और स्नेह की फुहार
अब सब कुछ लुट गया है!!
स्तम्भित हैं
पिताजी तो
यह भी नहीं बताते
आखिर
कहां लिखवाऊँ
रपट अपने लुटने की
घर के लुटने की
बस्ती और मोहल्ले के लुटने की
और सबसे अधिक
अपने समय के लुट जाने की....
ऐसे ही माँ की कमी महसूसती एक पुकार यहाँ भी है -
माँ
माँ !
तुम्हारी लोरी नहीं सुनी मैंने,
कभी गाई होगी
याद नहीं
फिर भी जाने कैसे
मेरे कंठ से
तुम झरती हो।
तुम्हारी बंद आँखों के सपने
क्या रहे होंगे
नहीं पता
किंतु मैं
खुली आँखों
उन्हें देखती हूँ ।
मेरा मस्तक
सूँघा अवश्य होगा तुमने
मेरी माँ !
ध्यान नहीं पड़ता
परंतु
मेरे रोम- रोम से
तुम्हारी कस्तूरी फूटती है ।
तुम्हारा ममत्व
भरा होगा लबालब
मोह से,
मेरी जीवनासक्ति
यही बताती है ।
और
माँ !
तुमने कई बार छुपा-छुपी में
ढूँढ निकाला होगा मुझे
पर मुझे
सदा की
तुम्हारी छुपा-छुपी
बहुत रुलाती है;
बहुत-बहुत रुलाती है ;
माँ !!!
माँ की स्मृति में ऋषभदेव जी की लिखी इस कविता में संबंधों कि तरलता के साथ लोक में रमे माँ के चित्र विभोर कर देते हैं -
बनाया था माँ ने वह चूल्हा.
चिकनी पीली मिट्टी को
कुएँ के मीठे पानी में गूँथ कर
बनाया था माँ ने वह चूल्हा
और पूरे पंद्रह दिन तक
तपाया था जेठ की धूप में
दिन - दिन भर
उस दिन
आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,
हमारे घर का बगड़
बूँदों में नहा कर महक उठा था,
रसोई भी महक उठी थी -
नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था.
गाय के गोबर में
गेहूँ का भुस गूँथ कर
उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से
और आषाढ़ के पहले
बिटौड़े में सजाती थी उन्हें
बड़ी सावधानी से .
बूँदाबाँदी के बीच बिटौड़े में से
बिना भिगोए उपले लाने में
जो सुख मिलता था ,
आज लॉकर से गहने लाने में भी नहीं मिलता.
सूखे उपले
भक्क से पकड़ लेते थे आग
और
उँगलियों को लपटों से बचाती माँ
गही में सेंकती थी हमारे लिए रोटी
- फूले फूले फुलके.
गेहूँ की रोटी सिंकने की गंध
बैठक तक ही नहीं , गली तक जाती थी.
हम सब खिंचे चले आते थे
रसोई की ओर.
जब महकता था बारिश में बगड़
और महमहाती थी गेहूँ की गंध से रसोई -
माँ गुनगुना उठती थी
कोई लोकगीत - पीहर की याद का.
माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.
बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं.
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न !
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.
आग बढ़ती है
तो रोटी जलने लगती है.
तेरे बहनोई को जली रोटी पसंद नहीं रे!
रोटी को बचाती हूँ तो उँगली जल जाती है.
माँ की उँगलियाँ छालों से भर जाती थीं
पर पिताजी की रोटी पर एक भी काला निशान कभी नहीं दिखा!
माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.
बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं.
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न !
बड़े बदमाश हैं ये झोंके ,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.
आग बुझती है
तो रोटी फूलती नहीं
तेरा भानजा अधफूली रोटी नहीं खाता रे!
बुझी आग जलाती हूँ तो आँखें धुएँ से भर जाती हैं.
माँ की आँखों में मोतियांबिंद उतर आया
पर मेरी थाली में कभी अधफूली रोटी नहीं आई!
माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.
रोटी बनाना सीखती मेरी बेटी
जब तवे पर हाथ जला लेती है,
आँखें मसलती
रसोई से निकलती है.
तो लगता है
माँ आज भी गुनगुना रही है .
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न!
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.
माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी
गत दिनों आई माँ पर केंद्रित इन कुछ कविताओं के क्रम को विराम देते हुए मैं चर्चा परिवार की ओर से योगेन्द्र कृष्ण जी की माँ को भावांजली देती हूँ व उनकी आत्मा की सद्गति की प्रार्थना करती हूँ.
३ माह पूर्व एक संगोष्ठी में पटना जाने पर भाई योगेन्द्र कृष्ण से सपत्नीक मिलने का अवसर मिला। उनके सौजन्य ने प्रभावित किया। गत दिनों उनकी माता जी का स्वर्गवास हो गया उन्होंने अपनी पीड़ा को सबसे बाँटते हुए जो लिखा उसके बाद कुछ कहने को नहीं रह जाता
श्मशान में माँ
30 मार्च को मेरी माँ का निधन हो गया। दुःख इसलिए भी अधिक है कि माँ बहुत लंबे समय तक हमारे साथ रहीं और कभी यह मह्सूस करने का शायद अवसर ही नहीं दिया कि वे हमें छोड़कर चली भी जायेंगी। जबकि वे हम पांच भाइयों, एक बहन और दर्जनों पोता-पोतियों, नाती-नातिनों के बीच अंतिम समय तक अपने स्नेह और प्यार में बंटती रहीं। मृत्यु के समय उनकी आयु लगभग 95 वर्ष थी।उसी दिन रात्रि में पटना के गुलबी घाट में उनका दाह-संस्कार कर दिया गया।
गंगा के इस श्मशान घाट के अपने कुछ ताज़ा ग़मग़ीन अनुभवों को भी आपसे साझा करने का मन है।
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उनका भी निष्काम देखो
जो तुम्हें नहीं जानतीं
फिर भी तुम्हारे लिए
तुम्हारे साथ जलकर राख हो रही हैं
वे ढेर सारी लकड़ियां
अंत तक तुम्हारी देह से
मिलकर एक हो रही हैं
राख में राख
क्या अलग कर पाएंगे हम
लकड़ी और देह की राख
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धू-धू कर जलती चिताएं हैं
आकाश में उठता काला धुआं
और रात्रि की भयावह नीरवता
को चीरती घाट की सीढियों से
नीचे उतरतीं कुछ आवाज़ें हैं
असमय एक युवा देह को
तलाश है मिट्टी की…
और फिर
सफ़ेद कपड़े में लपेटे
एक शिशु को दोनो हाथों मे उठाए
उतरता है एक युवक
साथ में और भी कई लोग
पर उतने भी नहीं
जितने कि होने चाहिए
दुःख की इस बीहड़ घड़ी में
और घाट की सीढियों से
उतरता है पीछे-पीछे
भारी पत्थर का एक बड़ा-सा टुकड़ा
बिलकुल अंधेरे में
गंगा तट की तरफ़…
पानी के बड़े बुलबुले छूटने-सी आवाज़
अर्द्ध-रात्रि की बीहड़ बेबस खामोशी को
हल्के से हिलाती है…
छोड़ दिए गए हैं
पत्थर और शिशु देह
कुछ दिनों के लिए
एक दूसरे के साथ
निबद्ध रहने के करार पर…
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श्मशान घाट तक आने में
कितना वजन था
हमारे कंधों पर
लेकिन नहीं था
फिर भी कोई भार
और अब जबकि लौट रहा हूं
लेकर मुट्ठी भर तुम्हारी राख
क्यों दब रहा है मन इसके भार से…
जैसे कि पत्थर हो कोई
बंधा हुआ मेरी ही देह से…
कल कई दिन बाद उन्होंने लिखा -
बारह दिनों के बाद आज ही सारे अनुष्ठान संपन्न कर वापस घर लौटा हूं। फ़र्श पर और सभी जगह धूल की मोटी परतें हैं पर उन परतों पर नहीं हैं कहीं अब उन नंगे पैरों के निशान……
और अंत में एक बात -
माँ के प्रति इतनी गहरी व इतनी सारी संवेदनाएँ हमारे भीतर विद्यमान रहती हैं, यदि ये संवेदनाएँ किसी भी जीवित माँ का वार्धक्य और जीवन संवार सकने में सफल हो जाएँ तो जाने कितनी माँओं को इन संवेदनाओं की पहुँच सुख दे सकती है। वरना तो ये कागद के लेखे बन कर रह जाती हैं बस.......
हाँ सुना है मैंने,
जवाब देंहटाएं“वो नही रही” मेरे बचपन से
पर सरल नही है यूँ समझाना
उसको जिसका दूध छिना हो.
यदि आप थोडा और लिखती तो शायद मैं रो रहा होता.
बहुत ही प्यारी, मर्मिम और सार्थक चर्चा. --कौतुक
बहुत शानदार चर्चा. चर्चा का आखिरी पैराग्राफ हमेशा याद रहेगा.
जवाब देंहटाएंआज तो क्या कहूं? आपने कविता पर बात शुरु करते हुये मां को इस तरह याद दिला दिया कि आंखों मे आंसू हैं. आपकी लेखनी का कमाल है.
जवाब देंहटाएंऔर यह भी सही कि मरने के बजाय जिंदा मां को इस शिद्दत से याद किया जाये तो कई माओं को इन संवेदनाओं का सुख दे सकती हैं. बेहद भावुक और मार्मिक एवम मानवीय मुल्यों से ओतप्रोत चर्चा.
समीर जी की लिखी " मेरी मां लुटेरी थी" मेरे द्वारा मां पर पढी गई एक सुंदरतम रचना है.
रामराम.
कविता ने चर्चा की कविता पर और फ़िर मोड़ ले गयी माँ पर्…आप ने कहा "उसमें आरंभिक स्तर पर काव्य के तत्व से लेकर काव्य के प्रयोजन भी सम्मिलित होते हैं। मुझे कई बार लगता है कि नैसर्गिक प्रतिभा से इतर कवि बनने के अभ्यासियों को कम से कम इतना तो अवश्य पढ़ना चाहिए। ताकि वे अपनी कविताओं का मूल्यांकन कर सकें और बेहतर योगदान दे सकें।" और मैने सोचा कि हालांकि अब मेरी कलम से कविता नहीं फ़ूटती पर फ़िर भी आप ने जो सुझाया है वो पढ़ना जरूरी है। उसका जुगाड़ कैसे हो वो भी आप सुझाइए…।:)
जवाब देंहटाएंआप की चर्चा से ही योगेन्द्र जी जी पीड़ा का पता चला और हम उनके इस दु:ख में शामिल हैं। माँ पर प्रस्तुत चिराग जैन की कविता, समीर जी की कविता और योगेन्द्र जी के उदगार रुला रहे हैं।
आप ने कहा आज की चर्चा जरा लंबी हो गयी है। नहीं कविता जी ये तो हमें बहुत छोटी लगी। हम तो एक सांस में पढ़ गये और अभी भी आप के मुंह की तरफ़ देख रहे हैं आप चुप क्युं हो गयीं, और कहिए न
कहने के लिये शब्द ही नही सूझ रहे हैं।
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा ने तो आँखें नम कर दी .....माँ और उसकी कवितायेँ ...दिल डूब सा गया
जवाब देंहटाएं...वैसे जो लोग साहित्य वालों को दोयम दर्जे का समझते हैं...----------
जवाब देंहटाएंसाहित्य जब जन्म लेता है तब वह अद्वितीय होता है। जब वह प्रोडक्शन लाइन का आउटपुट होता है तब ऐसा होता है।
बात कविता से होती हुई माँ पर जा पहुँची। अक्सर कविता अभाव, शोषण, अप्राप्य और कल्पना लोक में विचरते हुए की जाती है। माँ भी अब ऐसी ही है। टूटते परिवारों के बीच यदि आज कोई सवार्धिक टूटा है तो वह माँ है। सबसे अधिक उपेक्षित। मुझे सारे ही कविता के शब्द ढकोसले नजर आते हैं। मेरे आसपास और देश के करोड़ों घर मुझे दिखायी देते हैं जहाँ माँ का अस्तित्व नगण्य हो गया है। इसलिए मैंने लिखा था -
जवाब देंहटाएंलिख दी माँ पर, पोथी पर पोथी
क्या माँ ने भी कुछ शब्द लिखे?
अपना फर्ज निभाया, तू ने बेटा
क्या माँ ने भी ये जज्बात लिखे?
माँ पर तो तुम लिख दो कितना
तुम पर कैसे अब माँ भी लिखे?
सूने घर में बाट जोह रही
क्या आँखों के अपने दर्द लिखे?
अपनी अस्वस्थ ’ अम्मा ’ को लेकर जिस दौर से ग़ुज़र रहा हूँ,
जवाब देंहटाएंलग रहा कि केवल मेरे निमित्त ही रची गयी है, यह पोस्ट..
धन्यवाद !
पर यह भाई साहब तो यह सलाह दे रहे कि
" निकला न करो घर से अपने ऐ दोस्त " क्योंकि..
" मालूम है तुम्हे गोरैया नहीं देती अंडे पुराने घोंसलों में.
पर इंसान एक ही घर, एक ही जगह जिन्दगी देता है गुजार
सोच कर कि एक दिन सुनहरे हो जायेंगे इन घोंसलों के तिनके.
पर यह कुछ नया तो नहीं है.
एक हवा चली है शहर में आजकल
जो खींच कर तुम्हारे होश
फेंक देगी तुम्हे किसी बावली भीड़ में
और तू भी चला जायेगा नारे लगाते हुए.
फिर खेलेंगे वो तुम्हारे दिल से
किसी नरपिशाच की तरह.
तुम्हे याद न रहेगा कुछ और इस जहाँ में,
कभी कभी माँ याद आ जायेगी जब पाओगे खुद को नग्न "
आज की चर्चा ने एक कुलबुलाहट पैदा कर दी.. समझ में नहीं आ रहा है कि किस प्रकार कोई प्रतिक्रिया दू.. इतनी सारी तस्वीरे बन गयी दिमाग में कि क्या कहू? बहुत ही उम्दा चर्चा जो सिर्फ आप ही कर सकती है..
जवाब देंहटाएंआईला, ध्यान से दुबारा बाँचा..
जवाब देंहटाएंयहाँ तो मेरे " " मत मानो मेरा मत, पर यह मत कहना कि मत नहीं दिया था " का लिंक भी घुसा पड़ा है !
मैं अपने आलेख में ईमानदार हूँ, पँचों
सच्ची में , अउर आपौ हमसे विद्या माई कसम खवा लेयो.. कविता जी !
माँ के प्रति संवेदनाओं में कोई कमी नहीं। बेटियों के प्रति भी कोई कमी नहीं। पर जब बात इन से इतर शेष सारी औरतों की आती है तो संवेदना कहीं डूब जाती है। क्या वे औरतें माँ नहीं होतीं। कम से कम पत्नी तो संतानों की माँ होती ही है। फिर संवेदनाएँ क्यों डूब जाती हैं। पुरुषों को कविताओं की अधिक जरूरत होती है। नारी तो खुद एक कविता होती है।
जवाब देंहटाएंकविता को समझने के लिए एक अलग साहित्यिक दृष्टि चाहिए....पर साहित्य में आज भी वो आग हो ऐसा जरूरी नहीं ..हंस ,कथादेश ,पाखी ,पुनर्वा ,नया ज्ञानोदय में आने वाली हर कविता कुंवर नारायण की तरह प्रभावित नहीं करती ...कुछ सतही भी होती है ..उसके लिए तजुरबो की आग में तपना पड़ता है ...ओर शायद ऐसी कोई नैसर्गिक प्रतिभा जो हर भावः को शब्द दे सके...वैसे राजेंद्र यादव जैसे लोग कविता को साहित्य का अंग नहीं मानते ....
जवाब देंहटाएंअब मां पर ....मां पर ग्रन्थ लिखे जा सकते है .जा रहे है .....लिखे गए है..मुनव्वर राणा ने लगभग दो बार अलग से पूरी किताब लिखी है....
निसंदेह संवेदना पहली शर्त है....ओर इन्सान होना दूसरी अनिवार्य शर्त.
सुन्दर! शानदार! कुंवर बेचैन जी की सबसे अच्छी कविताओं में से एक कविता मां पर लिखी गयी है:अभी उफनती हुई नदी हो,
जवाब देंहटाएंअभी नदी का उतार हो माँ,
रहो किसी भी दशा-दिशा में,
तुम अपने बच्चों का प्यार हो माँ।
नरम सी बाहों में खुद झुलाया,
सुना के लोरी हमें सुलाया ,
जो नींद भर कर कभी न सोई,
जनम-जनम की जगार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
भले ही कांटों भरी हों गलियाँ,
जो तुम मिलीं तो मिली हैं कलियाँ,
तुम्हारी ममतामयी अंगुलियाँ,
बता रहीं हैं बहार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
किसी भी मौसम ने जब सताया,
उढ़ा के आँचल हमें बचाया,
हो सख्त जाड़े में धूप तुम ही
तपन में ठँढी फुहार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
दिया जो तुमने वो तन लपेटे,
तुम्हारी बेटी, तुम्हारे बेटे,
सदा तुम्हारे ऋणी रहेंगे,
जनम-जनम का उधार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
तुम्हारे दिल को बहुत दुखाया,
खुशी तनिक दी बहुत रुलाया,
मगर हमेशा ही प्यार पाया,
कठोर को भी उदार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
बड़ों ने जो भी यहाँ कहा है,
‘कुंवर’उसे कुछ यों कह रहा है,
ये सारी दुनिया है एक कहानी,
तुम इस कहानी का सार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ,
रहो किसी भी दशा-दिशा में,
तुम अपने बच्चों का प्यार हो माँ।
बहुत ही सारगर्भित और मार्मिक चर्चा। माँ पर लिखी कविताएं निश्चित ही माँ को खोने के दर्द को पुनः जागृत कर दिया। कुछ लोग तो ‘मेरे पास माँ है’ कहने का गर्व तो कर सकते हैं पर वो अभागे क्या कहें जिनके पास यह कहने की सम्भावना से वंचित है- अनाथ हैं:(
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह कविताजी की चर्चा एक नया तेवर दिखाती है। चिट्ठाचर्चा को सार्र्थक करती चर्चा के लिए साधुवाद।
बहुत ही मार्मिक... निशब्द हूँ.....एक एक शब्द सार्थक.. जब भी दिल उदास होता है तो निदा फाजली साहब की ये नज़्म पढ़ लेता हूँ. दिल को सुकून मिलता है.
जवाब देंहटाएंमैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार
लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव
सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती मीर के संग श्याम
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम
सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़कीर
अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप
सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास
चाहे गीता बाचिये या पढ़िये क़ुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान
....यहाँ प्रस्तुत एक एक रचना संग्रहणीय है... धन्यवाद.
ॠषभ देव शर्मा की मेल से प्राप्त टिप्पणीपूरी तरह छुट्टी मनाने के विचार से शहर से बाहर निकला था .
जवाब देंहटाएंसोचा था, तीन दिन कंप्यूटर से परहेज बरतूँगा.
पर हो न सका.
आपकी चर्चा पढने का लोभ संवरण न कर सका.
पर पढ़ कर अच्छा लगा . सचमुच बहुत अच्छा.
सबकी अपनी अपनी पसंद हो सकती है / होती है.
मुझे यहाँ उद्धृत ''माँ'' पर केन्द्रित कविताओं में रतन चौहान की कविता कुछ अलग दिखी.
१९८० के बाद से हिंदी में माँ - विषयक कविताओं का दौर अभी तक लगातार चल रहा है.
बेहद संवेदनशील विषय होने के कारण पाठकीय भावुकता का शोषण-दोहन करने में कवियों ने कोई कोर-कसर नहीं छोडी है.
यही वजह है कि चटनी , नटनी , लुटेरी , हत्यारिन और बाप की औरत जैसे जाने क्या-क्या अभिधान और विशेषण माँ को प्रदान करने में कवि चुके नहीं हैं , भले ही ऐसे प्रयोग संवेदनशीलता की अपेक्षा चमत्कार और वाक्चातुर्य भर के साधक हों! ''कविता'' और ''कविताभास'' में यही फर्क है , जिसकी ओर आपने कविता विषयक आरंभिक चर्चा में संकेत किया है. फिर भी मेरा मानना है कि लिखने वाले को अपने मनोनुकूल लिखने की स्वतन्त्रता है - आलोचक को उसका मार्ग अवरुद्ध करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए. हाँ , पाठक के रूप में हमारा यह अधिकार है कि अपने मनोनुकूल का चयन करें और शेष को छोड़ कर आगे बढ़ जाएं.
एक और बात सूझ रही है . वह यह कि साहित्य की दुनिया में केवल महाप्राणता ही कालजयी सिद्ध होती आयी है . अब अगर संप्रेषण के माध्यम के लोकतंत्रीकरण के कारण अल्पप्राणता को अवसर मिल भी रहे हैं तो इसमें चिंता की कोई बात नहीं है. [ यह परंपरा चल रही यहाँ ,ठहरा जिसमें जितना बल है. -- कामायनी ].
शायद काफी अप्रासंगिक बातें कह गया हूँ. बड़बोलेपन के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ
कहना तो बस इतना था कि आज की चर्चा सहेज कर रखने योग्य ''महाप्राण'' चर्चा है जो चर्चाकार की विशेष रचना दृष्टि से निष्पन्न होने के कारण विचारोत्तेजक तो है ही कइयों को भावविगलित करने में भी समर्थ है.
चर्चाकार को बारम्बार बधाई!
पुनश्च -
''मैंने गई रात एक सपना देखा. हाथी का एक तुंरत जन्मा बच्चा घर में जैसे तैसे घुस आता है. दो तीन दिनों तक बच्चों से खेलने में बड़ा मज़ा आता है. पर इतने ही में वह इतना बड़ा हो जाता है कि बच्चे उसे बाहर निकाल कर एक चौडे मैदान में खेलना चाहते हैं .पर इस बीच वह बढ़ गया है , घर से बाहर निकलने का ऐसा कोई दरवाजा नहीं जिसमें से वह बाहर निकल सके. मुझे ऐसा लगता है कि साहित्य भी ऐसे ही संकट में फंस गया है. जहाँ फंसा हुआ है वहां उसके लिए खुराक नहीं है. साथ खेलने वाले बच्चे भी उससे अब डर रहे हैं क्योंकि लगता है वह उनकी औकात से अधिक ऊंचा और भारी हो गया है .ऐसे तकनीकी जादूघर के भीतर घुसने का कौतुक ही साहित्य का सबसे बड़ा संकट है. मैं ऐसे संकट के पहचान को वरदान मानता हूँ और मुझे लगता है यह सब संकट साहित्य की जिजीविषा 'मनेर मानुष' [ मन के मीत ] के कभी न कभी मिलने की आशा तथा उसके लिए उत्कंठा की ओर संकेत है. साहित्य की चिंता की चिंता है - यः बहुत बड़ा आश्वासन है.'' >विद्या निवास मिश्र , साहित्य के सरोकार,वाणी प्रकाशन , २००७ , पृष्ठ १३ .
[''नानू ! आपने अपना वायदा तोड़ दिया न. अब मैं आ रही हूँ कंप्यूटर तोड़ दूँगी.''-परी सचमुच शैतान की खाला की तरह चीख रही है. चलूँ, वरना यहाँ आ धमकी तो धमकी को चरितार्थ कर देगी.]
ॠषभ देव शर्मा </b
आज की चिटठा-चर्चा ऐसी थी दुबारा झाँकने का लोभ आ ही गया ...दरवाजा खोला ...निदा फाजिल साहब की उस नज़्म को जो मुझे बेहद पसंद है....अन्दर रख के जा रहा हूँ
जवाब देंहटाएंबेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ ।
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे ,
आधी सोई आधी जागी थकी दुपहरी जैसी माँ ।
चिड़ियों के चहकार में गूँजे राधा-मोहन अली-अली ,
मुर्गे की आवाज़ से खुलती, घर की कुंड़ी जैसी माँ ।
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में ,
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां ।
बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गई ,
फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी माँ ।
यह मात्र चर्चा नहीं एक बहुत ही उम्दा लेख है !
जवाब देंहटाएंसचमुच उम्दा !
यह तो कविता जी ने काफी शोध परक कार्य कर डाला है
जवाब देंहटाएंइसमें से कुछ कविताएँ मैं माँ वाले संकलन में भी ले सकता हूँ।
यहाँ कविता जी के लेख में अपनी कविता पाकर अच्छा लगा...
आपके शब्द विचार और लेखनी हमेशा चर्चा में एक नया रस घोलते हैं कविता जी....
जवाब देंहटाएंअद्भुत और अनोखी चर्चा
किंतु एक बात समझ में नहीं आयी कि आपने सीधे-सीधे निदा साब का नाम लेकर उद्धृत क्यों नहीं की अपनी बात?
चिठ्ठा चर्चा पर इतने विस्तार से माँ से जुड़ी कविताओं की चर्चा मन को गहरे तक भिंगो गयी। आपको हार्दिक बधाई और धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमित्रो! आपने अपने शब्दों से जिस प्रकार मन के उद्गार व्यक्त किए, उन से मन अभिभूत है। अतिशय धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं@ अमर जी,
आपकी ईमानदारी सन्देहोत्तर है।
@ अनीता जी,
आप इन्हें तो अवश्य पढ़ ही डालें-
१) चिन्तामणि ( भाग-१) - ( आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)
२) साहित्य सहचर - (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी)
३) साहित्य के सरोकार - (पं. विद्यानिवास मिश्र)
सद्भाव बनाए रखें।
पुन: धन्यवाद सहित।
bahut achchi si lagi hai aaj ki charcha ......bahut kuch yaad aa gya hai...man mai ubaal sa uth raha h ai ......kya tippni du ????
जवाब देंहटाएंकविता लिखने की प्रतिभा सबमें नहीं होती, पर ब्लॉग में सभी इसमें हाथ आजमा रहे हैं, पर कवि-हृदय तो सबके पास होना असंभव है, की-बोर्ड सबके पास जरूर है।
जवाब देंहटाएंआपने मॉं पर लिखी जिन कविताओं को प्रस्तुत किया, वह अपने-आप में महाकाव्य सरीखा है, मॉं से जुड़ी हर पहलू को संजीदगी से उठाती हुई।
सुन्दर और सार्थक रचनाऍं।
जवाब देंहटाएं-----------
तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
कविता जी आपने जो भी लिखा अक्षरश:सच -शुद्ध ...कविताओं का यही हाल हो गया है तुकबंदी मिलाने में....चटनी जैसी माँ" कह कर बयान कर दी गयी। हद्द हो गयी भई यह तो। काव्यभाषा का संस्कार कहाँ से लाइयेगा?पढ़ते-पढ़ते,मां के विषय में उठाये गए आपके अन्तिम सवाल को प्रणाम करती हूँ ...माँ के प्रति इतनी गहरी व इतनी सारी संवेदनाएँ हमारे भीतर विद्यमान रहती हैं, यदि ये संवेदनाएँ किसी भी जीवित माँ का वार्धक्य और जीवन संवार सकने में सफल हो जाएँ .
जवाब देंहटाएंमाँ की डिग्रियाँ...ये कविता किस की है जरूर बताये बेहद आत्मीयता और नाटकीयता से परे ये कविता मेरी डायरी में आ गई है ...इस पूरी पोस्ट में आपके जिम्मेदार लेखन को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है ..बधाई ..apni man ki phli punay thithi par ek gadhy kavitaa maine bhi likhi thi ...kabhi post karungi...
किसी मित्र ने बताया कि मेरी कविता का ज़िक्र यहां है तो देखने चला आया।
जवाब देंहटाएंकविता शामिल करने के लिये शुक्रिया।
भाई मां केवल बेटियों को घर चलाना ही नहीं सिखाना चाहती…हम उसे देवी बनाते हैं…इच्छाओं से भरी औरत के रूप में देखने से डरते हैं।
बहुत बहुत आभार इस अति उत्कृष्ट चर्चा के लिए..मज़ा आ गया इस तरह से सारे रचनाओं का संकलन देख. आपका आभार.
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