कल फ़ादर्स डे के मौके पर लोगों ने पिता से जुड़ी अपनी यादें ताजा की। पिताओं की खूबियों को याद किया। इनमें से कुछ पोस्टों को पढ़कर तो पाठकों को अपने-अपने पिता याद आ गये। देखिये उनमें से कुछ पोस्टें:
डॉ आराधना चतुर्वेदी ने अपने पिता को याद करते हुये उनके बुजुर्ग हो जाने पर उनको देखने के बाद की अपनी मन:स्थिति बताते हुये
लिखा:
सबका जाना और हमदोनों का रह जाना, सब बर्दाश्त कर लिया. पर सच, अपने पिता को बुढाते देखना ज़िंदगी का सबसे बुरा अनुभव होता है. जिन उँगलियों ने आपको पकडकर चलना सिखाया वो अब अखबार पढते हुए कांपती हैं… जिन हाथों ने हमें सहारा दिया, अब उनमे एक सोंटा होता है… छह फिट लंबा भारी-भरकम शरीर सिकुड़कर आधा हो गया है… गोरे-चिट्टे लाल चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी हैं…
डॉ आराधना की इस पोस्ट पर कई लोगों ने अपने मां-पिता को याद किया। उन्होंने पहले भी अपने मां-पिताजी के बारे में मार्मिक और सहज संस्मरण लिखे हैं। उनके लेखन का अंदाज इतना सहज है कि कहीं से यह नहीं लगता कि अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिये उन्होंने कुछ अतिरिक्त प्रयास किये हों। ऐसे ही एक संस्मरण में आराधना ने अपने पिताजी के
बचपन के किस्से लिखते हुये बताया था कि कैसे वे अपने बच्चों के लिये हर संभव सुख-सुविधा जुटाते हुये यह भी प्रयास करते थे कि बच्चे सुविधाओं के आदी न हों जायें:
पिताजी ने हमलोगों को जितना हो सका, कठोर परिस्थितियों को झेलने के लिये तैयार किया. उन्होंने बचपन में जिन चीज़ों की कमी झेली थी, हमें कभी भी नहीं होने दी. पर उन्होंने हमें जानबूझकर सुख-सुविधाओं की आदत नहीं लगने दी. वे ऐसे व्यक्ति थे कि कूलर इसलिये नहीं लिया कि हम इतने सुविधाभोगी न हो जायें कि गाँव में न रह पायें. फ़्रिज़ इसलिये नहीं लिया कि हमें ताज़ी सब्ज़ियाँ खाने की आदत रहे और खुद बाज़ार से जाकर रोज़ हरी सब्ज़ी ले आते थे. पर हमारे खाने-पीने, पढ़ाई और अतिरिक्त गतिविधियों के लिये उनका हाथ हमेशा खुला रहता था. पिताजी ने अपने बचपन में परीक्षा के लिये कभी पढ़ाई नहीं की और इसीलिये हमलोगों पर कभी परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने के लिये दबाव नहीं डाला. ये बात अलग है कि कोई दबाव न होने पर भी मैं हमेशा टॉपर रही.
आराधना का संस्मरण पढ़ते हुये प्रत्यक्षाजी का अपने पिताजी को याद करते हुये लिखा गया एक संस्मरण याद आया। चार साल पहले अपनी एक पोस्ट में अपने पापा को याद करते हुये प्रत्यक्षा ने
लिखा था :
ये पैकेट जब खोला , तस्वीरें देखीं तो आँखें भर आईं. बस आँसू उमडते गये. बच्चे परेशान हैरान. संतोष उस वक्त घर पर नहीं थे, वरना मुझे संभाल लेते. खूब रोयी उस दिन. पता नहीं क्या लग रहा था . कुछ छूटने का सा एहसास था, कुछ पाने का सा एहसास था, एक मीठी उदास सी टीस थी. फ़िर कुछ देर बाद जी हल्का हुआ. रात में संतोष ने उन्हें फ़ोन किया और हँसते हुये मेरे रोने के बारे में बताया. मैं क्यों रोई ये मैं उन्हें क्या बताती पर शायद उन्हें पता होगा .
पापा ने उन तस्वीरों के साथ एक पत्र भी भेजा था,
इन फ़ोटुओं में से एक यहां मौजूद है। प्रत्यक्षा द्वारा लिखे संस्मरण पढ़कर उनके पिताजी ने अपनी प्रतिक्रिया लिखते हुये लिखा:
" संस्मरण पढ कर मज़ा आया.कविताओं को धीरे धीरे (अपनी कुछ कवितायें भी उन्हें भेजी थीं ) जुगाली करते हुये पढता हूँ . वैसे खामोश चुप सी लडकी बहुत अच्छी लगी .दुबारा तिबारा पढने की कोशिश करता हूँ.
फ़ोटोग्राफ़ भी भेज रहा हूँ. आम छाप (इस तस्वीर में उनकी शर्ट पर आम के मोटिफ़ बने हुये थे और हम हमेशा इस तस्वीर को आमछाप तस्वीर बोलते ) और ७२ का जोडा भी ( ये तस्वीर उनके जवानी के दिनों की है )
'जूते की चमक ' वाला फ़ोटो ( ये उनके बचपन की तस्वीर ) बडा एनलार्ज नहीं हो सका . फ़ोटो तब की है जब मैं ६-७ साल का था. मैं अब 'नितांत अकेला ' सर्वाइवर हूं "
मेरे पापा को तो बर्दाश्त करना मुश्किल होता जा रहा है! में देखिये कुछ बच्चे अपने पिता के बारे में उम्र के हिसाब से कैसा सोचते हैं।
नरेश चन्द्र बोहरा ने इस मौके पर अपने दिवंगत पिता को याद करते हुये
उनको नमन किया वंदन किया। यशवन्त मेहता ने सौवें फ़ादर्स डे पर
सौंवी पोस्टपेश की और डबल सैंचुरी मारी। बधाई!
खुशदीप ने फ़ादर्स डे का इतिहास बताते हुये अपने
मन की बात कही:
लेकिन ये सब उस युग की देन है जहां माता-पिता के लिए वक्त ही नहीं होता...सिर्फ एक दिन फादर्स या मदर्स डे मनाकर और कोई गिफ्ट देकर उन्हें खुश करने की कोशिश की जाती है...लेकिन ये भूल जाते हैं कि मां के दूध का कर्ज या बाप के फ़र्ज का हिसाब कुछ भी कर लो नहीं चुकाया जा सकता...ये फादर्स डे या मदर्स डे के चोंचले छोड़कर बस इतनी कोशिश की जाए कि दिन में सिर्फ पांच-दस मिनट ही बुज़ुर्गों के साथ अच्छी तरह हंस-बोल लिया जाए...यकीन मानिए इससे ज़्यादा और उन्हें कुछ चाहिए भी नहीं...
मां की जगह बाप ले नहीं सकता, लोरी दे नहीं सकता गाना उनकी पोस्ट पर सुनिये। लेकिन इस शीर्षक को पढ़कर यह भी लगा कि किसी को याद करने के लिये उसके द्वारा न किये जा सकने वाले काम करने की बात करना कौन सा चोचला है भाईजी !!! वैसे बाप लोगों ने भी बहुत गाने/लोरियां बच्चों को सुनाई होंगी। वो कौन सी पिक्चर का गाना है जी-
तुझे सूरज कहूं या चन्दा, तुझे दीप कहूं या तारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा।
अपनी पोस्टों में अक्सर अपने मां-पिताजी के कम उमर में चले जाने के कारण उनकी सेवा करने से सुख से वंचित रह जाने के अफ़सोस को सतीश सक्सेनाजी अपनी पोस्टों में अक्सर व्यक्त करते रहते हैं। कई जगह बुजुर्गों को देखकर उनको अपने मां-पिता याद आ जाते रहे हैं। कल उन्होंने अपने पिताजी को याद करते हुये
लिखा-
मेरे भविष्य के लिए पिता ने अपना इलाज नहीं करायाजादू ने अपने पिताजी को
हैप्पी फ़ादर्स डे कहा लेकिन उनके पिताजी ने जादू को शुक्रिया बोलने में पूरे नौ घंटे लगा दिये।
पाखी ने भी
अपने पापा को याद किया अपनी कविता के द्वारा। फ़ोटो में पापा साथ में हैं:
पापा मेरे सबसे प्यारे
मुझको खूब घुमाते हैं
मैं जब करूँ शरारतें
प्यार से समझाते हैं।
मुझको स्कूल छोड़ने जाते
होमवर्क भी करवाते हैं
उनकी पीठ पर करूँ सवारी
हाथी-घोड़ा बन जाते हैं।
आफिस से जब आते पापा
मुझको खूब दुलराते हैं
चाकलेट, फल, मिठाई लाते
हमको खूब हँसाते हैं।
आदित्य फ़ादर्स डे के दिन भी सिर्फ़ मां का राजदुलारा बना है।
फ़ोटो देखें।पुराने संस्मरणों में
विनीत कुमार की पोस्ट का जिक्र फ़िर से जिसमें वे अपने पापा की याद करते हुये अपने मन की बात करते हैं:
फिलहाल तो मन कर रहा है- इस्किया की सीडी या डीवीडी खरीदूं,लिफाफे में बंद करुं और उस पर लिखकर- पापा तुस्सी ग्रेट हो उनके पते पर स्पीड पोस्ट कर दूं।..
यह चर्चा पोस्ट करते हुये मुझे प्रशान्त की लिखी तमाम पोस्टें याद आ रही हैं जिनमें उन्होंने अपने मम्मी-पापा को बड़ी शिद्दत से याद किया है। बेहतरीन संस्मरण लिखे हैं पीडी ने अपने मम्मी-पापा के बहाने अपने बारे में भी लिखते हुये। उनके दो बजिया वैराग्य में ये सब आते रहे हैं। ऐसे ही एक वैराग्य मोड में वे
लिखते हैं:
पापाजी की समझ में जब से मुझे(हमें) अच्छे-बुरे का ज्ञान हुआ तब से उन्होंने कुछ कहना छोड़ दिया.. बस समय आने पर कम शब्दों में मुझे समझा दिया करते हैं.. कक्षा आठवीं की बात याद है मुझे, जब मैंने परिक्षा में चोरी की थी और पापाजी को बहुत बाद में पता चला था.. उस समय भी उन्होंने कुछ नहीं कहा, और तब भी उन्होंने कुछ नहीं कहा जब उन्हें पता चला कि मैं चेन स्मोकर हो गया हूं.. उन्हें मेरी इन बुरी बातों का ज्ञान है बस इतना ही काफी होता था मुझे अपने भीतर आत्मग्लानी जगाने के लिये..
कभी-कभी पापाजी मुझे धिरोदात्त नायक भी कहा करते हैं.. मुझे बहुत आश्चर्य भी होता है उनकी इस बात पर.. मेरे मुताबिक तो मैं नायक कहलाने के भी लायक नहीं हूं.. फिर धिरोदात्त नायक तो बहुत दूर की कौड़ी है.. शायद यह इस कारण से होगा कि सभी मां-बाप अपने बच्चों को सबसे बढ़िया समझते हैं.. उनकी नजर में उनके बच्चे सबसे अच्छे होते हैं, सच्चाई चाहे कुछ और ही क्यों ना हो..
इस मौके पर अपने बेटे का मां-पिताजी के बारे में लिखा लेख
याद आयाहै जिसमें उसने लिखा था:
माता-पिता का हमारे जीवन में भगवान समान स्थान है। माता-पिता हमारे लिये सब कुछ होते हैं। अगर वो न होते तो हम न होते। मुसीबत के वक्त वह हमेशा हमारी मदद के लिये होते हैं। वह बहुत मेहनत करके कमाते हैं सिर्फ़ हमारी खुशी के लिये। वह हमें बहुत प्यार करते हैं और कभी हमें निराश नहीं देखना चाहते हैं। अगर हम किसी भी चीज के लिये हिम्मत हार जाते हैं तो वह हमारे अंदर जीतने का भरोसा जताते हैं।
पिताजी ब्लॉग पर लोगों ने समय-समय अपने पिताजी से जुड़े संस्मरण लिखे हैं।
मेरी पसंद
पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।
वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
किराने की दुकान पर।
उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।
माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।
1997 में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ......
बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।
पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।
इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ....अधूरे....
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।
रचना तिथि- १३ अक्टूबर २००७
बोधिसत्वऔर अंत में
ब्लॉगवाणी पर पोस्टें फ़िलहाल अपडेट नहीं हो रही है। कुछ तकनीकी समस्या होगी। सिरिल बाहर हैं। जल्द ही लौटकर वे शायद इसे सही कर सकेंगे।
मौके के हिसाब से तमाम लोगों ने पोस्टें भी लिखीं इस बारे में। मुझे अच्छी तरह याद है लोगों ने जिद करके पसंदगी का जुगाड़ लगवाया इसमें। इसके बाद खास तरह की पोस्टें जब ऊपर जाने लगीं तो नापसंदगी का बटन जुड़वाया। अब उससे दुखी होकर उसको हटवाने के लिये हलकान हैं लोग। इससे एक बार फ़िर लगा कि मनुष्य बड़ी खोजी प्रवृत्ति का होता है , अपने दुखी होने के कारण तलाश ही लेता है और दुखी हो ही लेता है।
महीने-दो महीने संकलक देखने पर पोस्टों के बारे में समझने का सलीका आ जाता है। इसके बाद लेखक के अन्दाज से पता चल जाता है। एक ब्लॉग संकलक सिर्फ़ पोस्टों के लिंक दे सकता है आपको। इसके अलावा उसको पढ़ने न पढ़ने और उसके बारे में आगे राय बनाने का काम तो पाठक को करना होता है।
एक संकलक से यह आशा करना कि वह आपके दिमाग में सब कुछ आपकी मर्जी के हिसाब से सहेज सकेगा उसके साथ नाइंसाफ़ी तो है ही आपके अपने हित में भी नहीं है।
जब तक ब्लॉगवाणी की सेवायें चालू नहीं होती तब तक दूसरे
संकलकों से काम चलाइये। मस्त रहिये, मुस्कराये। चटका लगाने के लिये तैयार करने के लिये उंगलियां चटकाइये।
फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी।
पुनश्च: नीचे कुछ फोटो इस मौके पर देखिये इसके पहले पिताजी से को स्मरण करती हुयी इन बेहतरीन पोस्टों को भी देखते चलें यह लिंक पंकज उपाध्याय के सौजन्य से मिले!
वो बरगद का पेड़ मुझे अब भी छाया देता हैहमारे पिताजी!!My Idol, My डैड:
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