शनिवार, जून 26, 2010

शनिवार (25/06/2010) की चर्चा

नमस्कार मित्रों!

मैं मनोज कुमार एक बार फिर हाज़िर हूं शनिवार की चिट्ठा चर्चा के साथ।

तो चलिए अब चर्चा शुरु करते हैं।

आलेख

कारोबारी हितों के नीचे दबा है मीडिया बता रहे है भड़ास blog पर V I C H I T R A। स्रोत हैं आर वैद्यनाथन, साभार:- बिजनेस भास्कर। बताते हैं कि 500 स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित करते वक़्त जब उनसे जब यह पूछा गया कि उनमें से कितने मीडिया (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) का भरोसा करते हैं। इस जवाब में दस से भी कम हाथ उठे। आज की तारीख में सकरुलेशन बढ़ी और अखबारों की बिक्री भी। लेकिन क्या पठनीयता भी बढ़ी है? बहुत से लोग अखबार खरीदते हैं लेकिन हमेशा पढ़ते नहीं। इसकी दो वजहें है। पहली- निजी सौदेबाजी और दूसरा पेड न्यूज।

कोई मीडिया हाउस उस कंपनी में हिस्सेदारी खरीदता है जो शेयर मार्केट में पहले से सूचीबद्ध है या सूचीबद्ध होने जा रही है। बदले में मीडिया हाउस कंपनी के पक्ष में कवरज करता है। कंपनी के बार में नकारात्मक खबरों को दरकिनार कर दिया जाता है। करोड़ों में खेलने वाली सैकड़ों कंपनियां आजकल मीडिया फ्रैंडली बनी हुई हैं। मीडिया ने भी समझौतावादी रुख अपना लिया है। महाराष्ट्र में हाल में हुए चुनाव में पेड न्यूज के कई उदाहरण दिखे।

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डा. महाराज सिंह परिहारशब्दों की आक्रामकता का विचार-बिगुल बजा रहे हैं डा. महाराज सिंह परिहार। कहते हैं कि ब्लॉग दुनिया अब इतनी विस्त्रित हो गई है कि उसमें तीखे स्वर भी शब्दायित हो रहे हैं। किसी भी मुद्दे पर ब्लॉगर की सपाटबयानी से संप्रेषणीयता सहज हो रही है। शब्दों के मकड़जाल वाले ब्लाग अब कम पसंद किए जा रहे हैं। इनमें रचनाधर्मिता के साथ ही समसामयिक संदर्भों को भी प्रभावशाली तरीके से उकेरा जा रहा है। जीवन के विविध रंगों की झलक इनमें साफ देखी जा रही है। परिवर्तन के स्वर भी यदा-कदा प्रतिबिम्बित होते हैं।

अपनी पसंद के कुछ ब्लॉग की विस्तृत समीक्षा करते हुए वे इसके विभिन्न पहलुओं से हमें अवगत कराते हैं।

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My Photoदेवदास बंजारे के साथ बिगुल पर राजकुमार सोनी जी हमें कुछ पल बिताने को आमंत्रित कर रहे हैं। कहते हैं देश में पंथी नृत्य को खास पहचान दिलाने वाले देवदास बंजारे भले ही अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन आज भी जब लोग किसी पंथी दल का कार्यक्रम देखते हैं तो उन्हें बरबस ही देवदास बंजारे की याद आ जाती है।
1 जनवरी 1947 को धमतरी जिले के गांव सांकरा में जन्मे देवदास बंजारे ने कभी जीवन में नहीं सोचा था कि वे पंथी नृत्य करेंगे लेकिन शायद किस्मत को यही मंजूर था। देवदास के घर का नाम जेठू था। एक बार जब जेठू गंभीर तौर पर बीमार हुआ तो उनकी माता ने उसके खुशहाल स्वास्थ्य के लिए देवताओं से मनौती मांगी। ढेर सारे लोगों की जरूरी प्रार्थनाओं के बीच जब देवताओं ने एक मां की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया तो जेठू का नाम भी देवदास हो गया। देवदास यानी देवताओं का भक्त.. दास।

अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लगभग सौ से ज्यादा प्रस्तुतियां दे चुके देवदास बंजारे कभी हबीब तनवीर के ग्रुप से भी जुड़े हुए थे। जब-जब नाटकों को गति देने के लिए पंथी का उपयोग होता था दर्शक झूम उठते थे। कई बार तो इतने मंत्र मुग्ध हो जाते थे कि वंस मोर.. वंस मोर की आवाजें आने लगती थी। हबीब तनवीर को कला का मालिक और स्वयं को मजदूर मानने वाले श्री बंजारे जब तक जीवित रहे तब तक यह बात बड़े गर्व के साथ कहते रहे कि गांव के एक सीधे-सादे लड़के को दुनिया दिखाने वाले हबीब तनवीर उनके खेवनहार थे।

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My Photoसाहित्य में फिक्सिंग पर प्रकाश डाला जा रहा है संवादघर में संजय ग्रोवर जी द्वारा। बताते हैं कि साहित्य में फिक्सिंग अभी उस स्तर तक नहीं पहुंची जिस स्तर तक क्रिकेट में पहुंच गयी लगती है। यहां मामला कुछ अलग सा है। किसी नवोत्सुक उदीयमान लेखक को उठने के लिए विधा-विशेष के आलोचकों, वरिष्ठों, दोस्तों आदि को फिक्स करना पड़ता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसके उदीयमान लेखक होने की संभावनाएं अत्यंत क्षीण हो जाती हैं। यहां तक कि उसे समाज से कटा हुआ, जड़ों से उखड़ा हुआ, जबरदस्ती साहित्य में घुस आया लेखक करार दिया जा सकता है।

शायद क्रिकेट में भी खिलाड़ी से कप्तान बने व्यक्ति के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही होता हो। मगर क्रिकेट में जैसे ही राज़ खुलने लगते हैं तो कुछ दिन तो खिलाड़ियों को जनता को मुंह दिखाना मुश्किल हो जाता है। मगर साहित्य में ऐसा कुछ नहीं है। जो जितना ज्यादा विवादास्पद है उतना ही ज्यादा मशहूर है। तिस पर साहित्य में न तो अम्पायर होते हैं न कंट्रोल बोर्ड। अगर आलोचक को हम अम्पायर मानें तो मानना होगा कि फिक्सिंग साहित्य के खेल का एक अनिवार्य तत्व है।

क्या बात है………………यहाँ भी फ़िक्सिंग ? जायें तो जायें कहाँ समझेगा कौन यहाँ दर्द भरे साहित्यकार की जुबाँ………।

सोना बनाने की रहस्यमय विद्या। के बारे में जानना चाहते हैं तो TSALIIM पर जाकर प्ढिए ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ का आलेख। बताते हैं कि सोना आखिर सोना होता है। वह सिर्फ महिलाओं को ही नहीं, आदिकाल से पुरूषों को भी आकर्षित करता रहा है। यही कारण है कि प्राचीन काल से सोना बनाने के लिए लोगों के द्वारा अनेकानेक प्रयोग किये जाते रहे हैं। ऐसे ही कुछ प्रयोगों और विधियों के बारे में बात कर रहे हैं इस बार।

सोना बनाने के जितने भी किस्से और विधाएँ सुनने में आती हैं, वे सभी तर्कहीन और मानव मन की उड़ान ही हैं। इसके पीछे कारण सिर्फ इतना है कि सोना हर काल, हर समय में बहुमूल्य धातु रही है और अधिकाँश मनुष्य बिना कुछ किए बहुत कुछ पाने की इच्छा रखते हैं। मनुष्यों की इसी कमज़ोरी का फायदा उठाकर चालाक और धूर्त लोग 'पारस पत्थर' और 'रहस्यमयी विद्या' के नाम पर आम जनता को बेवकूफ बनाते रहे हैं। जबकि सच सभी लोग जानते हैं कि न तो ऐसी कोई वस्तु कभी कहीं अगर पाई गयी है, तो वह सिर्फ कल्पना और किस्सों में ही।

मेरा फोटोनदिया के पार , एक जीवन को जीती पिक्चर , चंद जुडी यादें ..... लेकर आए हैं कुछ भी...कभी भी.. पर अजय कुमार झा जी। इस फ़िल्म के साथ हम लोगों ने सहीं मायनों में एक जीवन जिया था। उस समय की बड़ी हिट फ़िल्मों को टक्कड़ दी थी इस फ़िल्म ने।

झा जी कहते हैं पिक्चर देखते जा रहे थे और उन लम्हों को जीते जा रहे थे । याद आ गया वो जमाना , रेल की बिना आरक्षण वाली यात्राएं , और तब सफ़र में सुराहियां चलती थीं जी । अजी लाख ये कूलकिंग के मयूर जग और बिसलेरी की बोतलें चलें मगर सुराही और छागल के ठंडे मीठे पानी का तो कोई जवाब ही नहीं था । थकान भरी यात्रा के बाद सुबह सुबह ही स्टेशन पर उतरना और फ़िर वहां से तांगे पर निकलती थी सवारी ।

मैं सबसे बेखबर ....एक जीवन को जीने में लगा होता हूं ....क्योंकि जानता हूं कि ....अब शायद उस गुजरे हुए जीवन को फ़िर दोबारा उस तरह तो नहीं ही जी पाऊंगा ।

कविताएं

My Photoछज्जा... शीर्षक कविता .....मेरी कलम से..... पर प्रस्तुत करते हुए Avinash Chandra जी कहते हैं

मेरे पुराने टूटे,
जीर्ण नहीं कहता.
बाबू जी के स्नेह,
माँ के चावलों,
संग रहा है,
जीर्ण कैसे हो?
हाँ टूटा है,
मेरी धमाचौकड़ी से.
उसी टूटे छज्जे,
पर आज भी.
आ बैठती है,
आरव आरुषी नित्य.

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उसी छज्जे पर,
माँ के चावलों,
का मूल्य लौटाने,
कोई चोखी चिड़िया.
संवेदना भरे सुदूर,
निकुंज से ले आई,
पीपल के बीज.
नासपीटे वृंत ने,
न दिए होंगे,
पुष्प-पराग कण.
लो!
मरने से पहले,
काई ने भी,
पुत्र मान सारी,
आद्रता कर दी,
उस बीज के नाम.
श्रेयस, अर्ध-मुखरित,
नव पल्लव आये हैं,
पीले-भूरे जैसे,
बछिया के कान हों.
और दी ले आयीं,
एक उथला कटोरा,
पानी का, जून है,
भन्नाया सा.
क्रंदन-कलरव-कोलाहल.
लो पूरा हुआ,
मेरे छज्जे का,
लयबद्ध-सुरमयी कानन.

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My Photoइश्क पर लिखूंगी कुछ कहानियाँ,कुछ नज्में पर Sonal Rastogi का कहना है।

इश्क पर लिखूंगी ,
हुस्न पर लिखूंगी
दिलों के होने वाले,
हर जश्न पर लिखूंगी

इस कविता (नज़्म) में भावावेग की स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वाभाविक परिणति दीखती है। देखिए

खिड़की पर लिखूंगी
मैं झलक पर लिखूंगी
रात भर ना सोई
उस पलक पर लिखूंगी
जब तक है धड़कन
और गर्म है साँसे
मोहब्बत मोहब्बत
दिन रात मैं लिखूंगी

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शार्टकट : दानवता सत्तासीन यह कविता प्रस्तुत की गई है चरैवेति चरैवेति पर अरुणेश मिश्र जी द्वारा। कहते हैं --

ओ मेरे मन !
कोई शार्टकट मारो ।
किसी महापुरुष की
आरती उतारो ।

किसी महापुरुष की आरती उतारने का नेक ख़्याल उन्हें किस्लिए आया है वह भी बयान कर रहे हैं -

औपचारिकता
घर घर आसीन ।
कृत्रिमता पदासीन ।
मानवता उदासीन ।
दानवता सत्तासीन ।

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मेरा फोटोचलो भाई
बड़े हो गए हैं
हम
अब कर लेते हैं
बटवारा

कविता की इन चंद पंक्तियों ने ही लगा जैसे नश्तर चुभो दिया हो छाती में। पर सच तो यही है। और इस सच से हमें रू ब रू करा रहे हैं बंटवारा शिर्षक कविता के द्वारा sarokaar पर arun c roy जी। बात को आगे बढाते कहते हैं

माँ के दूध का
हिसाब लगा लेते हैं
बड़े ने कितना पिया
मंझले ने कितना पिया
और छुटकी को
कितना पिलाया माँ ने दूध

सिर्फ़ मां के दूध का बंटवारा नहीं पिता के प्यार का भी हिसाब किताब लगाया जा रहा है

पिता के
खेत खलिहान तो हैं नहीं
सो बांटने के लिए बस है
उनका प्यार
परवरिश
दिए हुए संस्कार

आगे जाकर और भी बातें संजीदा और संवेदनशील हो जाती है

बतकही और
बहसबाजी
बाँट लो उन पलों को
हंसी के ठहकाओं को
उनसे उपजी ख़ुशी को

जाते जाते कवी कवि अपनी दुर्बलताओं को खोल कर सामने रखता है तथा अपने प्रेम की पावनता को दृढ़ता के साथ प्रमाणित करता है।

अंतिम क्षणों में
बहुत रोये थे पिताजी
सब बेटो और बहुओं के लिए
कुछ आंसूं के बूँद
मोती बन गिरे थे
मेरे गमछे में
बस मैं नहीं बाँट सकता हूँ इन्हें

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कर्मफल प्रस्तुत कर रही हैं अनामिका की सदाये...



















आज अंतस के भीतर
कहीं गहरे में
झाँक कर देखती हूँ
और फिर
उस लौ तक पहुँचती हूँ
जो निरंतर जल रही है,
मुस्करा रही है,
अठखेलियाँ कर रही है ...
जीवन-पर्यंत मिलने वाले
क्षोभ में भी .
यह बात निर्विवाद सत्य है कि संतुष्टि ही हमें सच्ची प्रसन्नता देती है। जीवन एक नाटक है। यदि हम इसके कथानक को समझ लें तो सदैव प्रसन्‍न रह सकते हैं।


ग़ज़लें

My Photoनीरज गोस्वामी जी का थम सा गया है वक्त किसी के इन्तजार में! अब तो लगता है इंतहा हो गई इंतज़ार की, तभी तो कहते हैं

ये रहनुमा किस्मत बदल देंगे गरीब की
कितनों की उम्र कट गयी इस एतबार में

अब तो बस यादों का सहारा है! जब-जब यादो की पुरवाई चलती है देखिए क्या होता है …

जब भी तुम्हारी याद ने हौले से आ छुआ
कुछ राग छिड़ गये मेरे मन के सितार में

न सिर्फ़ इस ग़ज़ल के सारे शे'र एक से बढ़कर एक हैं बल्कि इन्होंने इसमें कुछ अछूते बिंबों का भी प्रयोग किया है। जैसे इस शे’र में है मछली बज़ार में इत्र की तलाश !

होगी तलाशे इत्र ये मछली बज़ार में
निकले तलाशने जो वफ़ा आप प्‍यार में

एक वो भी ज़मान था था जब लोग उम्र काट देते थे किसी की याद में। इश्क़ के लिये भी वक्त चाहिये वक्त बे वक्त इश्क़ नही फ़रमाया जा सकता और किसी की याद मे डूबने वाले ज़माने तो ना जाने कहाँ खो गये। कितनी बख़ूबी इस भाव को उन्होंने क़लमबंद किया है इस शे’र में

दुश्वारियां इस ज़िन्दगी की भूल भाल कर
मुमकिन नहीं है डूबना तेरे खुमार में

क्या एक-से-बढकर-एक मोतियों को पिरोया है आपने इस हार में। इतनी शानदार गजल पढ कर जो खुशी मिली, उसे बयाँ नहीं किया जा सकता।

My Photoझूठ का इक सूर्य बन कर ढल रहा है आदमी .... ग़ज़ल प्रस्तुत कर रही हैं काव्य मंजूषा पर 'अदा' जी।

ज़मीर का एक सलीब ढोए चल रहा है आदमी

ताबूत में हैवानियत के पल रहा है आदमी

हुस्न से यारी कभी, दौलत पर कभी है फ़िदा

और कभी ठोकर में इनकी पल रहा है आदमी

क्या रखा ग़ैरत में बोलो क्या बचा है उसूल में

हर घड़ी परमात्मा को छल रहा है आदमी

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एक और इम्तिहान है-गज़ल जो प्रस्तुत है ग़ज़ल के बहाने-gazal k bahane पर और प्रस्तुत कर्ता हैं श्याम सखा 'श्याम' जी।

है जान तो जहान है

फ़िर काहे का गुमान है

क्या कर्बला के बाद भी

एक और इम्तिहान है

इतरा रहे हैं आप यूं

क्या वक्त मेहरबान है

हैं लूट राहबर रहे

जनता क्यों बेजुबान है

है ‘श्याम ’बेवफ़ा नहीं

हाँ इतना इत्मिनान है

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मेरा फोटोएक ग़ज़ल जंगल में गा रहे हैं कोना एक रुबाई का पर स्वप्निल कुमार 'आतिश'।

कुछ अफ़साने महक रहे हैं जंगल में
तितली तितली भटक रहे हैं जंगल में
सीधे सादे बाहर बाहर लगते हैं
सारे रस्ते बहक रहे हैं जंगल में
वो पेड़ों से लटक रहे हैं जंगल में
थोड़ी आँच ज़रा रौशनी और धुआँ भी
आतिश के संग भटक रहे हैं जंगल में

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बस आज इतना ही।

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15 टिप्‍पणियां:

  1. छुट्टी हो तो पढ़ने का मजा ही कुछ और होता है.

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  2. इतने बढ़िया लिनक्स के साथ ..हमारी रचना को भी स्थान मिला ..बहुत बहुत धन्यवाद

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  3. आज की चर्चा का अंदाज़ निराला लगा....सारे लिंक्स बहुत महत्त्वपूर्ण ..

    आभार

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  4. मनभावन चर्चा मनोज जी!!

    आभार्!

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  5. मेहनत से की गयी लाजवाब चर्चा....


    एक अनुरोध है चर्चा मंच से... चर्चा क्रम में जितने भी लिंक दिए जाते हैं, उन्हें खोलने पर उसी पेज में खुलता है और चिटठा चर्चा के पेज पर दिए दुसरे लिंक के लिए फिर से इसपर वापस आना पड़ता है....क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हर लिंक के लिए ऐसी व्यवस्था हो कि लिंक पर क्लिक करने पर यह एक अलग विंडो में खुले और चर्चा वाला पेज यथावत खुला रहे......

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  6. मेहनत से की गयी लाजवाब चर्चा!

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  7. जीयो मनोज बिटवा, बहुते सुंदर चर्चा किये हो. अम्माजी का दिल खुश होगया. ऐसन ही करते रहो. अम्माजी का आशीर्वाद पहुंचे.

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  8. गजब है भाई.. मैं तो आप लोगों की मेहनत देखकर ही दंग रह जाता हूं। आपने भी बढ़िया लिंक्स दिए हैं। सोनलजी, अजय जी, नीरज गोस्वामी जी के अलावा कुछ और महत्वपूर्ण लोगों के बीच रखकर आपने मुझे सम्मानित ही किया है। ये लोग बहुत शानदार लिखते हैं।

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  9. चर्चा बहुत ही बढ़िया रही!
    काफी लिंक मिल गये!

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  10. आप चर्चा प्रस्तुति में गज़ब की महनत करते हैं...
    पर श्रम के अनुरूप, साज-सज्जा का अंतिम प्रभाव नहीं बन पाता...

    कई जरूरी लिंक मिले...धन्यवाद आपका...

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  11. आदाब मिर्ज़ा साहब! बड़ी बेसब्री से इंतज़ार था आपकी गजलों से रूबरू होने का..आज मौका दिया...शुक्रिया ! एक-एक शेर सवा शेर. गज़ब के अश'आर. इतनी ख़ूबसूरत गज्लाल से रूबरू करवाकर आज का दिन ख़ूबसूरत बनाने के लिए आपका शुक्रिया जनाब ! एक-एक शेर, सवाशेर.
    हौसला तो है परिन्दे में बहुत सच मानिए
    कैसे पर जाए फ़लक पर, पर बिखर जाने के बाद
    कमाल की अश'आर..

    थम गया तूफ़ान शाहिद ये ख़बर किस काम की
    आशियाने का हर इक तिनका बिखर जाने के बाद
    गज़ब की अभिव्यक्ति...
    बस इतना ही कह पाऊंगा... शुभान अल्लाह...माशा अल्लाह !

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