बुधवार, जून 09, 2010

भोपाल गैस त्रासदी- कौड़िल्ला छाप न्याय

परसों भोपाल गैस त्रासदी मामले में अदालत ने निर्णय सुनाया। जितने लोग इस दुर्घटना में हताहत हुये थे उसके मुकाबले में सजा बहुत कम थी। ऐसा लगा कि मुकदमा कानून की पिलपिली धारायें लगाकर लड़ा गया। रागदरबारी की भाषा में कहें तो यह एक कौड़िल्ला छाप न्याय है।

भोपाल गैस त्रासदी पर अदालत के फ़ैसले को लेकर कई लोगों ने पोस्टें लिखीं।

विनीत कुमार ने इस मसले पर टेलिविजन की भूमिका की विस्तार से चर्चाकी है। इस चर्चा में उनकी नजर भी है और नजरिया भी। वाह-वाहिस भी है और समझाइस भी। वे जहां एक तरफ़ सारे चैनलों के एक से आक्रोश राग में आने की तारीफ़ करते हैं वहीं इस मसले पर चैनलों के पूरे मामले को कानूनी नजर से न परखने की कमी की ओर इशारा भी करते हैं। विनीत लिखते हैं:
कल अगर आपने शाम/रात तीन-चार घंटे तक न्यूज चैनल देखें होंगे तो आपको अंदाजा लग गया होगा कि कैसे एक-एक करके सारे चैनल भोपाल गैसकांड में आए फैसले को लेकर विरोध में चले गए। मैं अगर इसे एक जार्गन का सहारा लेते हुए कहूं कि कल लगभग सभी चैनलों में एस.पी.सिंह की आत्मा घुस गयी थी तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि चैनल किस हद तक पीड़ितों के पक्ष में थे।


प्रख्यात फ़ोटोग्राफ़र रघु राय (जिनकी फोटोग्राफी से पूरी दुनिया ने इस भोपाल गैसकांड की हकीकत को समझा) ने अपनी राय जाहिर करते हुये एक चैनेल में कहा:
हम पैनल डिशक्शन में आते हैं और समझिए कि कुछ नहीं करते,सिर पीट कर चले जाते हैं। कहीं कुछ नहीं होता। आप सोचिए न इस देश मे जो न्याय व्यवस्था है उसे देखकर तो लगता है कि गरीबों का कहीं कुछ होनेवाला ही नहीं है। सब जैसे-तैसे चल रहा है। हम इसे मेरा देश महान कहते हैं,देखिए आप हालात। सबकुछ ऐसा है कि लगता ही नहीं कि ये देश संभल पाएगा।


सभी चैनलों के एक सुर में आने की वजह बताते हुये विनीत लिखते हैं:
इसका एक सिरा इस बात से भी जुड़ता है कि इस फैसले को लेकर आमलागों के बीच जो असंतोष और गुस्से का भड़कना था औऱ जो एक हद तक भड़का,चैनल ने उसका समर्थन करके,आमलोगों की भावनाओं के साथ अपनी आवाज शामिल करके सरकार को किसी न किसी रुप में राहत देने का काम किया। लोगों का सारा गुस्सा चैनल और पिक्चर ट्यूब के रास्त बहा ले जाने की कोशिश की।

मीडिया चैनलों द्वारा इस मसले को पेश करने में हुई चूक की तरफ़ इशारा करते हुये विनीत लिखते हैं:
खबर की भाषा में जो तल्खी होती है,जो ऑब्जेक्टिविटी होती है,वो लगभग गायब रही। ले देकर वही हायपर इमोशन का तड़का, एंकर के चेहरे पर वही बरगला ले जानेवाली भंगिमा। अधिकांश चैनलों ने फैसले की पेंच को लेकर कोई गंभीर रिसर्च वर्क नहीं किया। इसलिए ये सारी स्टोरी उपरी तौर पर पीड़ितों के पक्ष में दिखती नजर आने के वाबजूद भी सरोगेट तौर पर सरकार की सेफ्टी में काम करती है। फीचर के आगे खबर का असर कम कर दिया गया।

बहुत मन से लिखे इस आलेख के आखीर में अपने मन की बात कहते हुये विनीत लिखते हैं:
इंसाफ की लड़ाई घंटों में नहीं जीती जा सकती। जिन चैनलों को देखते हुए मेरे सहित देश की करोड़ों जनता ने आंसू बहाए,भावुक हुए,अपना समझा,वो चैनल ऐसी घटनाएं बार-बार न हो इसके लिए कितना और किस हद तक दबाब बनाए रखती है,असल सवाल ये है। पीड़ितों का दर्द उनसे सटकर पीटीसी करने से कम नहीं होता,लगातार उनके साथ खड़े होने से होता है जिसके लिए ये चैनल शायद ही अपने को तैयार कर पाए हैं। नहीं तो बाकी मीडिया रुटीन इंवेट का हिस्सा तो है ही।

इस मसले पर अपने विचार रखते हुये डा.आशुतोष शुक्ल कहते हैं:
अच्छा हो कि अब हम चेत जाएँ और दूसरों के हाथों में कठपुतली बनने के स्थान पर स्वयं अपने बल बूते पर इतना कुछ कर लें कि देश को किसी भोपाल कांड के आरोपी को सुरक्षित जाते हुए न देखना पड़े .....


भोपाल के इंसाफ ने राज्य के चरित्र को फिर से उघाड़ दिया है में बजरिये भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसरवानी इस हादसे की बारे में बताते हुये दिनेश राय द्विवेदी जी राज्य के चरित्र के बारे में अपनी राय जाहिर करते हैं:
यह हमारे राज्य का चरित्र है। राज्य का यह चरित्र उन चुनावों के जरिए नहीं बदल सकता जिस में सरपंच का उम्मीदवार एक करोड़ से अधिक खर्च कर रहा हो और उस के इस खर्चे को वसूल करने के लिए देश की सरकार नरेगा जैसी आकर्षक योजना चलाती हो। जनता को सोचना होगा कि इस राज्य के चरित्र को कैसे बदला जा सकता है। इस तरह के हादसे और बढ़ने वाले हैं। ये सदमे उसे इस दिशा में सोचने को हर बार विवश करते रहेंगे।
इस पोस्ट पर टिप्पणी करते हुये डा.अमर कुमार ने लिखा:
यदि यूनियन कार्बाइड के कानूनी दायित्व निर्धारित ही हुये (नहीं ?) हों, तो उसे न्याय-प्रक्रिया में घसीटने का औचित्य ही क्या रहा ?
मुझे तो शुरु से ही जुडिशियरी की मँशा पर सँदेह बना रहा । इस प्रकरण में एक पूँजीवादी मुर्गा फँसा था, उसने तो 50-60 करोड़ डालर पर समझौता करने की पेशकश की, दूसरी ओर एक अमेरीकी अदालत से अपने ऊपर मुकदमा दायर करने के निर्देश पारित करवा लिये । तात्कालिक रूप से वह अपनी ज़ेब ढीली करने से बच गया, क्योंकि उसे भारतीय लचर न्याय व्यवस्था पर पूरा भरोसा था ।


इस मसले पर अपना आक्रोश व्यक्त करते निखिल आनन्द गिरि लिखते हैं:
  • ये सिर्फ हिंदुस्तान में ही मुमकिन है कि एक कंपनी पूरे शहर को तबाह कर दे और कंपनी का गुनाह तय कर पाने में 25 साल गुज़र जाएं....इस पूरे मामले ने 19 जज देखे, करोड़ों रुपए बर्बाद हुए और फैसला क्या आया.....दो साल की सज़ा वो भी ज़मानत पर रिहाई के साथ.....

  • वॉरेन एंडरसन 89 साल की उम्र में अमेरिका में मज़े ले रहा है और यहां उसकी लापरवाही की सज़ा भुगत रहे बेगुनाह अपने मुआवाज़े की रकम के लिए दर-दर भटक रहे हैं....मुमकिन है कि उनके मुआवज़े की रकम दलाल खा गए और अपने-अपने बंगले बनवा लिए.....

  • कानून अंधा होता है, झूठी बात है...कानून देखता है कि फैसला किसके खिलाफ लेना है, ये देखने के बाद अंधा होने का ढोंग करता है.....

  • भोपाल में फैक्ट्री लगाए जाने के वक्त जब भारत ने अमेरिका से नुकसान के बारे में रिपोर्ट मांगी गई थी तो लिखा आया था कि भोपाल के उस इलाके में फैक्ट्री लगाना उतना ही नुकसानरहित है जितना चॉकलेट की फैक्ट्री लगाना....

  • हमारे इस लेख से भी क्या हो जाएगा....हम तो आज भी चैन की नींद सो ही लेंगे, भोपाल की आंखों में 25 सालों से नींद नहीं है....वो जाग रहा है क्योंकि उसकी पहचान पर अमेरिका के कुछ दलालों ने गैस की कालिख पोत दी है....


  • एस.एन.विनोद का मानना है देशद्रोही हैं एंडरसन को बचाने वाले!
    अपने मन के भाव व्यक्त करते हुये वृंदा लिखती हैं:
    उन आंसुओं को देख , मन सोचता है ,
    आकर कोई अमन भरा संसार बसा दे ,
    अगर असंभव सा लगता है यह कार्य ,
    आकर गुनेह्गारों को सजा दिलवादे ,


    संतोष कुमार इस मसले पर कुछ सवाल उठाते हैं:
    अपने विधि मंत्री वीरप्पा मोइली अब फैसले को इंसाफ का दफन होना करार दे रहे। कानून में बदलाव से लेकर फास्ट ट्रेक कोर्ट की पैरवी कर रहे। पर पिछले 26 साल में कभी ऐसा ख्याल क्यों नहीं आया? अदालत में सीबीआई ने जिस धारा के तहत चार्जशीट दाखिल की, उसमें अधिकतम सजा दो साल की। वह भी 1987 में दाखिल की। फिर सितंबर 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कोई बड़ा करिश्मा नहीं किया। अलबत्ता कमजोर धारा में ही केस दर्ज करने का फैसला सुना दिया।


    एंडरसन भारत क्यों नहीं आ सका ? सी बी आई के पूर्व अधिकारी का खुलासा देखिये आर्यावर्त पर।

    लिमिटी खरे त्रासदी से बड़ी फैसले की त्रासदी में कहते हैं:
    विश्व के इस सबसे बडे औद्योगिक हादसे का फैसला इस तरह का आया मानो किसी आम सडक या रेल दुर्घटना का फैसला सुनाया जा रहा हो। इस मामले में प्रमुख दोषी यूनियन कार्बाईड के तत्कालीन सर्वेसर्वा वारेन एंडरसन के बारे में एक शब्द भी न लिखा जाना निश्चित तौर पर आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। यह सब तब हुआ जब इस घटना के घटने के महज तीन दिन बाद ही मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया गया हो। सीबीआई पर लोगों का विश्वास आज भी कायम है। इस जांच एजेंसी के बारे में लोगों का मानना है कि यह भले ही सरकार के दबाव में काम करे पर इसमें पारदर्शिता कुछ हद तक तो होती है। इस फैसले के बाद से लोगों का भरोसा सीबीआई से उठना स्वाभाविक ही है। इस पूरे मामले ने भारत के ‘‘तंत्र‘‘ को ही बेनकाब कर दिया है। क्या कार्यपलिका, क्या न्यायपालिक और क्या विधायिका। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि प्रजातंत्र के ये तीनों स्तंभ सिर्फ और सिर्फ बलशाली, बाहुबली, धनबली विशेष तबके की ‘‘लौंडी‘‘ बनकर रह गए हैं।


    भोपाल पर फैसले से उबल पड़ी ऑनलाइन दुनिया देखिये।

    हर्षवर्धन त्रिपाठी का कहना है सजा देनी है तो संविधान बदलो

    भोपाल गैस कांड फैसले पर विष्णुगुप्त का सवाल है न्याय की हत्या, दोषी सरकारी-न्यायिक प्रक्रिया ? वारेन एडरसन पर मेहरबानी क्यों?

    आचार्यजी का कहना है-
    25 साल के आंसूओं की कीमत 25 हजार,


    न्याय और न्यायालय की बात चल रही है तो लगे हाथ जमानत की बात भी कर ली जाये। शिवकुमार मिश्र हरियाणा के भूतपूर्व डीजीपी राठौरजी की जमामत के मसले पर विचार करते हुये फ़रमाते हैं:
    राठौर साहब की जमानत अर्जी खारिज हो गई. कभी-कभी खारिज भी हो जाती है. जब देश की अदालतों में कुछ बड़े लोगों की जमानत की अर्जी खारिज होती है तो उसे न्याय व्यवस्था में क्रांति कहते हैं. ऐसी घटनाओं की वजह से जनता का विश्वास न्याय व्यवस्था में पुनः स्थापित हो जाता है और वह दाल-रोटी खाओ अदालत के गुन गाओ नामक गाना गुनगुनाने लगते हैं.


    आगे जो सबसे मजे की होने के साथ सटीक बात मिसिरजी कह गये हैं वह इधर छिपी है:
    दूसरी तरफ अपराधी कहता है ; "मुझे देश की न्याय-व्यवस्था में पूरा विश्वास है"; इतना कहकर वह कैमरे के सामने मुस्कुरा देता है. उसकी बेशर्मी देखकर कैमरा खुद शरमा लेता है. अपने देश की न्याय-व्यवस्था पर सबसे ज्यादा विश्वास अपराधियों को ही है.


    राजकुमार सोनी का एक बहादुर लड़की के बारे में बताते हुये लिखते हैं:


    एक लड़की जो
    प्रेम के पचड़ों से
    जानती है बचना
    इंच-इंच भर बढ़ते हुए
    क्या ऐसी किसी लड़की के लिए
    कभी कोई कविता नहीं लिखी जाएगी


    मैंने तो लिख दी है
    शीर्षक है-शाबाश लड़की


    शिखा वार्ष्णेय लिखती हैं:
    मैं एक कविता बस छोटी सी
    हर दिल की तह में रहती हूँ.

    भावो से खिल जाऊं मैं
    शब्दों से निखर जाऊं मैं
    मन के अंतस से जो उपजे
    मोती सी यूँ रच उठती हूँ.
    मैं एक कविता बस छोटी सी
    हर दिल की तह में रहती हूँ.


    नींद क्यों रात भर नहीं आती... कैम्पस में आखिरी रात, आखिरी पोस्ट में कार्तिकेय मिश्र ने अपने हास्टल छोड़ने के पहले के मन के भाव पेश किये हैं। जबरदस्त नास्टेल्जिया। जबरदस्त पोस्ट।

    रात बीत रही है। ज़िन्दगी में पहली बार ऐसा हो रहा है कि बीतती हुई रात अच्छी नहीं लग रही। रात के ढाई बजे बालकनी में खड़े हुए जी में बस ये आ रहा है कि सॉफ्टपीडिया सर्च करूँ, शायद कोई ऐसा सॉफ्टवेयर मिल जाये जो इस बेरहम रात को बीतने से रोक ले, या कम से कम धीमा तो कर ही दे,,


    पूरी की पोस्ट पठनीय है। मजेदार है देखिये। कार्तिकेय को आगे के जीवन के लिये मंगलकामनायें देते हुये हम फ़ोटों में जागृति को खोज रहे हैं जिनके लिये उन्होंने लिखा-

    "थैंक-यू" जागृति, इस पूरे 4 सालx365 दिनx24 घंटे मेरा साथ देने मौजूद रहने के लिये।



    भोपाल गैस त्रासदी के कुछ फोटो:










    और अंत में


    फ़िलहाल इतना ही। अब यह पोस्ट पाठकों और प्रूफ़रीडरों के हवाले करता हूं। आपका दिन शुभ हो।

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    18 टिप्‍पणियां:

    1. सब कुछ समेटते हुए चर्चा की गई है।

      एकदम बढ़िया। विनीत जी की बातों से पूर्णत सहमत हूँ।

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    2. काफी कुछ समेत लिया..बहुत अच्छी चर्चा.

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    3. न्यायिक त्रासदी है.....पर चैनलों के तमाम शोर के बाद भी मै इसमें पोजिटिव पक्ष देखता हूँ क्यूंकि इस देश का एक बड़ा हिस्सा .बड़ा तबका इस घटना से अनजान है ....कमसे कम किसी बहाने पुराने रजिस्टर तो खोले जायेगे ....कुछ जमीरो को तो टटोला जायेगा ......

      एंडरसन को तो आपने २६ साल दे दिए

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    4. प्रूफ़रीडरों के ?
      कभी तो बाज आइये..
      सँदर्भ पिछली तारीख की चर्चा का तो नहीं ?
      तो आत्मा को पकड़िये ज़नाब, क्यों शरीर टटोलने में लगे हैं ?
      देह ढकने की सिफ़ारिश तलक तो ठीक है, ग़र जाती मँसूबे उसे तार तार करने के न हों ।
      खैर छोड़िये, विषयाँतर हो रहा है, अब अर्ज़ यह है कि इतनी सुघड़ चर्चा को पाठकों और प्रूफ़रीडरों में तक्सीम न करें, ज़नाब.. इसे हम पाठकों तक ही रहने दें ।

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    5. अरे, हाँ ! शिव भाई का फ़ैन तो मैं पहले से ही था, अब उनका टरबाइन बन गया हूँ !

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    6. i wish you would have included this as well . .

      http://meriawaaj-ramtyagi.blogspot.com/2010/05/blog-post_20.html

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    7. भोपाल गैस त्रासदी ने देश ही नही विदेश मे भी कई लोगों की नींद उडा दी थी...भयानक सपनों ने सोने नही दिया था...

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    8. विनीत का हर आलेख पढकर यही लगता है कि ’यही दुनिया है तो ऎसी ये दुनिया क्यू है? यही होता है तो आखिर यही होता क्यू है?’

      "हमारे इस लेख से भी क्या हो जाएगा....हम तो आज भी चैन की नींद सो ही लेंगे, भोपाल की आंखों में 25 सालों से नींद नहीं है....वो जाग रहा है क्योंकि उसकी पहचान पर अमेरिका के कुछ दलालों ने गैस की कालिख पोत दी है...."

      एकदम सही कहा आनन्द गिरि साहेब ने.. लिमटी जी के साथ साथ राम त्यागी जी ने भी काफ़ी चीज़ो को एक साथ समेटा है..

      भोपाल डाट नेट पर इस बारे मे सारी जानकारी उपलब्ध है..
      http://bhopal.net/2010dharna/blog/

      साथ मे चन्द सरवाईवर्स के साथ घटित कुछ दिल दहला देने वाली बाते है..

      http://bhopal.net/2010dharna/blog/?page_id=266
      http://bhopal.net/2010dharna/blog/?page_id=261
      http://bhopal.net/2010dharna/blog/?page_id=299

      और मुझे आज ही मालूम पडा कि UCIL का नया नाम ’एवरेडी’ है
      http://en.wikipedia.org/wiki/Union_Carbide_India_Limited

      ये सब देखकर यही लगता है कि आज के भौतिकतावादी दौर मे हम इन्सानियत भूल चुके है और जब भी कोई क्राईसिस आती है, ये छुपी हुयी इन्सानियत कही से भूले भटके आ जाती है... ये सब देखकर यही लगता है कि हमे एक बहुत बडी क्राईसिस की दरकार है... हमे चीज़ो को उनकी जरूरतो के अनुसार प्रायर्टाईज करना है.. आधे घन्टे मे पिज़्ज़ा आना जरूरी नही है जितना एक एम्बुलेन्स का आना... शाहरुख खान से ज्यादा ऊपर बिहार के आनन्द कुमार है.. डाक्टर, इन्जीनियर से बडा प्रोफ़ेशन शिक्षको का है... बहुत कुछ समझना है.. बहुत कुछ बदलना है... :( :(

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    9. सरोकारों को टटोलती हुई बेहतर चर्चा...

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    10. Jis desh ki janata sabr par sabr karati chali jaye use aisa hee nyay milata hai. Hum ye soch kar chup rahate hain ki ye trasdi to kisi aur kee hai. Jab bhi koi wideshi yahan factory lagaye ya karobar shuru kare to aisee situation ko soch kar nuksan bharpaee ke clause banane honge. waicharik manthan karwati charcha

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    11. नेता और अफसर तो बिके हैं ऐसा भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को पहले ही संदेह था, लेकिन क्या पीड़ितों के हमदर्द बनने वाले संगठन, जो उनकी लड़ाई लड़ रहे थे, वे भी बिके थे ? यदि नहीं तो उन्हें तभी आवाज़ उठानी चाहिए थी जब मुकदमा कमजोर धाराओं पर चलाया जा रहा था.

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    12. क्या लिखूं उस भयावह रात के लिये ... मौत नाचती रही अपने पूरे शबाब में... अर्जुन रोते बैठे एंडरसन की याद में... राजीव गए उसी मौत के दरबार में जहां ... मिल बैठ कर बतियाएंगे हजारों यार. .

      (लिखना केवल यह चाहता हूँ .. वो भूली दास्तां.. फिर याद आ गई ...नजर के सामने... आंसू की धार आ गई )

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    13. आपके इस महत्वपूर्ण ब्लाग तक पहुंचा भी तो इस त्रासद मौके पर। समझा नहीं आता कि क्या कहा जाए कि दिल का सही हाल जाहिर हो सके...

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    14. इस ब्लाग तक आना भी हुआ तो ऐसे त्रासद मौके पर ! समझ नहीं आता कि क्या कहा जाए जो दिल का सही हाल दिखा सके...

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