शनिवार, जुलाई 03, 2010

शनिवार (03.07.2010) की चर्चा

 

 

My Photoओढ़कर छतरी चला था
मोह में मैं पड़ा था
मुझसे मेरा मैं बड़ा था
मैं न भीगा .... मैं न भीगा .... मैं न भीगा।

ये बेचैन आत्मा की छटपटाहट है जो जीवन के भोगे हुए यथार्थ को शब्दों में पिरो कर जीवन दर्शन का एक सुन्दर चित्रण प्रस्तुत कर रहा हैं।

इक समुंदर बह रहा था
एक कतरा पी न पाया
उम्र लम्बी चाहता था
एक लम्हा जी न पाया

आदमी खामख्वाह तरह तरह के बंधनों में बंधा रहता है। बेबसी , मजबूरी और सीमाएं हाथ रोक देती हैं, पैरों को पकड़ लेती हैं, आगे बढने से। झूठे अहंकार में दबा रहता है इन्सान। भूल जाता है कि दुनिया कितनी खूबसूरत भी है।

तोड़ लाऊँ
एक बादल
औ. निचोड़ूँ सर पे अपने
भीग जाऊँ
डूब जाऊँ....
हाय लेकिन मैं न भीगा !
बहुत सुन्दर बिम्ब दिया है! एक सच्चे, ईमानदार कवि के मनोभावों का वर्णन।

सोचता ही रह गया
देखता ही रह गया
फेंकनी थी छतरिया
ओढ़ता ही रह गया

इस कविता के भाव इतने स्पष्ट हैं कि वे कल्पना के अनंत गर्भ में लीन हो गये हैं। आपकी इस रचना में मानव / प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाप है। अपने मन की सच्ची बातें कवि सीधे-सीधे अपने ही मुख से उत्तम पुरुष में कह रहा है और पाठक को इस तरह उन भावों के साथ तादातम्य अनुभव करने में बड़ी सुगमता होती है।

तेरा ख्याल .......

My Photoहरकीरत ' हीर' कहती हैं कि वो हैरान थी ....रंगों ने पानी में कई सारी चूड़ियां सी बना रखी थीं ....उन्होंने छुआ तो हाथों को राह मिल गई ....ख्यालों ने रंगों की चूड़ियां पहनी और बदन खिल उठा ....उन्होंने ऊपर देखा ....सामने वही परिंदा था जिसे रात उन्होंने मुक्त किया था .....उन्हें देख मुस्कुराने लगा....उन्होंने उसे कलाइयों की चूड़ियां दिखलायीं ....वह चहकने लगा ....ख्वाबों ने कई साज़ तरन्नुम भरे छेड़ दिए .....रब्ब ने इक खामोशनदी में मोहब्बत का पत्थर फेंका .....इश्क़ ने धड़कना सीख लिया ...बस ये ख्याल थे जो एक-एक कर सामने आते रहे ...... और क्षणिकाओं में इन्हीं ख़्यालों को उन्होंने पिरो दिया।
तेरा ख्याल
कभी रुकता नहीं
मानसून के मिजाज़ सा
वक़्त बे वक़्त बेखौफ
भिगोने चला आता है
तेरा ख्याल .....!!

(२)

सड़क के किनारे लगे
बैनर , पोस्टरों से
इशारे करता है तेरा ख्याल
झिड़क देती हूँ तो
बड़ा मासूम सा .....
किसी लैम्प पोस्ट के नीचे
जा खड़ा होता है
तेरा ख्याल .......!!

(३)

बिखरे हुए शब्दों से
अभी-अभी नज़्म बन
उतर आया है तेरा ख्याल
जरा सा छूती हूँ तो ....
गीत बन गुनगुनाने लगता है
तेरा ख्याल .......!!

शब्दहीन कर दिया है आपकी इस बेहतरीन रचना ने...ख्याल आने के एक से बेहतर एक मंज़र खींचे हैं आपने!

अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक – सस्ती कार बनाम महंगी दाल

सम्वेदना के स्वर पर यह आलेख पढकर मुझे लगा आज इनका स्वर कुछ बदला-बदला सा है। पहला परिवर्तन तो फोटो में था। अब और पहले की तस्वीर नीचे है।

My Photo

फिर रचना के तेवर पर ध्यान गया। ये स्वर कहते हैं इतिहास गवाह है कि इस धर्म-निरपेक्ष भारत में कथित आज़ादी के बाद से ही धार्मिक अल्प-संख्यक और बहु-संख्यक का एक छद्म युध्द जारी है. छद्म इसलिये कि इसकी आड़ में देश के असली अल्प-संख्यक और बहु-संख्यक पार्श्व में चले जाते हैं और मंच पर धर्मान्धता का राजनैतिक खेल चलता रहता है. हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान भारत और इण्डिया दिखाई देते हैं। ये विभाजन अमीर से और अमीर तथा गरीब से और ग़रीब होने वाले समाज का विभाजन है। जहाँ इंडिया के लिए बनी कार सस्ती होकर लखटकिया भर रह गई है, वहीं दाल रु.100 प्रति किलो होकर भारत के मुँह से निवाला छीन रही है। विकास और महंगाई की इस दौड़ में, विकास का मजा अल्पसंख्यक इंडिया ले रहा है और महंगाई की मार बेचारा बहुसंख्यक भारत झेल रहा है।

इसको पढ़ने के बाद लगा क कुछ चिनगारियां निकलीं और उत्तेजित करके चली गईं। इस आलेख में वर्तमान व्यवस्था के प्रति लेखक की बेचैनियां और राजनीतिक वर्चस्वों के प्रति गुस्सा, क्षोभ और असहमति का इज़हार बड़ी सशक्तता के साथ प्रकट होता है।

जीवन............

My PhotoRhythm of words... पर Parul की प्रस्तुति मुझे यह कहने पर विवश कर गई कि संवेदना की भाषा और अभिव्यक्ति की भाषा के बीच एक अन्तराल है। संवेदना के स्तर पर जी लेने के बाद ही लिखने की बारी आती है, पहले नहीं। लिखने के लिए थोड़ा पीछे मुड़ना पड़ता है। और पीछे मुड़्ने पर पारुल को बचपन याद आता है, और वो दिन याद आते हैं

बस आज फिर यूँ ही वो बचपन याद आया
किसी मासूम सी जिद पे सिसकता मन याद आया!!
कैसे जिए वो पल अपने ही ढंग में
रंग लिया था जिन्दगी को जैसे अपने ही रंग में
आज देखा जो खुद को, वो सब याद करके
ऐसा लगा कोई भूला सा दर्पण याद आया!!
वो रंग-बिरंगी सी सपनों की किश्ती
वो भूली सी रिमझिम की भोली सी मस्ती
कहाँ छोड़ आया वो मिटटी के खिलोने
परियों की कहानियों से अपनापन याद आया!!
पलता हर पन्ना, जिंदगी थी कोरी
मन की कडवाहट में गुपचुप थी लोरी
मैं खोज रहा था जब अपने जीवन का आकार
तो मुझको बस वो हाथ का 'कंगन' याद आया!!

मानवीय संवेदना की आंध में सिंधी हुई ये कविता हमें मानवीय रिश्ते की गर्माहट प्रदान करती है।

नारद मुनि

मेरा फोटोधर्म संसार पर Nilabh Verma की गहरे विचारों से परिपूर्ण यह प्रस्तुति हमें बताती है कि नारद मुनि, हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रो मे से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों मे से एक माने जाते है।

किंतु साथ ही वे यह भी बताते हैं कि आजकल धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारदजी का जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि की महानता के सामने एकदम बौना है। नारदजी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है।

नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारदजी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं।

चरमराकर गिरते हुए पेड़ों को देख कर अचानक यूँ महसूस हुआ मानो किसी ने ज़मीन का ज़बरन गर्भपात करवा दिया हो-क्या इनमें भी कन्या भ्रूण-हत्या का चलन है या हिन्दू के हाथ से बोये पौधे ने किसी मुस्लिम के हाथ से बोये पेड़ को नफ़रत की बलि चढ़ा दिया है?
इन पंक्तियों ने मुझे रुककर इस आलेख को पढने पर, बार-बार पढने पर मज़बूर किया।

मेरे पड़ौसी - पेड़, परिंदे और पुलिस

My Photo' हया ' पर लता 'हया' बता रही हैं कि मेरे घर के ठीक सामने अनगिनत हरे-भरे पेड़ों का झुरमुट है. ख़ाली पड़ी ज़मीन पर क़ब्ज़ा जमाये ये पेड़ पिछले दस सालों में मेरी आँखों के सामने जवान हुए हैं. पर उसकी आज की हक़ीक़त बताते हुए कहती हैं कि धू-धू जलते हुए उन पेड़ों के शवों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे किसी नव यौवना को दहेज की आग में जला दिया गया हो. सच है ये जो इंसानियत का पेड़ कटता जा रहा है ; मोहब्बत के परिंदे छटपटा रहे हैं-रिश्तों का पर्यावरण ही प्रदूषित होता जा रहा है-उसको रोकने का कोई उपाय है हमारे पास? बात को ग़ज़ल के ज़रिए वो और स्पष्ट करती हैं।

क्यूँ बुलडोज़र मंगाए जा रहे हैं

शजर क्यूँ फिर गिराए जा रहे हैं

इन्हें कटता हुआ यूँ देख कर के

परिंदे तिलमिलाए जा रहे हैं

एक सच्चा फ़नकार कितना संवेदनशील होता है, यह आपकी इस ग़ज़ल से साबित हो रहा है। प्रकृति और पर्यावरण के प्रति जागरुकता के साथ आपकी संवेदनाएं सहज ही प्रभावित करने वाली हैं।

दिन हरजाई

My Photoकुछ कहानियाँ,कुछ नज्में पर Sonal Rastogi

कुछ तन्हाई
एक रजाई
बदन तोडती
एक अंगडाई
ठन्डे हाँथ
तपती साँसे
अंगीठी से
गायब गरमाई
मौन मुखर
मुखरित आँखे
मौन अधर
मुखरित जम्हाई
सहज नेह
असहज हो तुम
असहजता को
दे आज बिदाई
रात ढली
तुम आये
जल्दी ढलता
दिन हरजाई

शब्दों में बेहतरीन प्रवाह..इस कविता की अलग मुद्रा है, अलग तरह का संगीत, जिसमें कविता की लय तानपुरा की तरह लगातार बजती रहती है । अद्भुत मुग्ध करने वाली, विस्मयकारी।

'आवारागर्द' है....................... पंकज तिवारी

हिन्दी साहित्य मंच पर प्रस्तुत करते है एक बेहतरीन ग़ज़ल।

ये हँसी नहीं मेरे दिल का दर्द है।
हर एक साँस मेरी आज सर्द है।।
छुपाया है हर एक आँसू आँखों में,
न देख पाये ज़माना बड़ा बेदर्द है।
है साफ आइने सा आज भी दिल,
कतरा तलक जम न सकी गर्द है।

अपने मोहल्ले की लड़कियों के बारे में

My Photoबिगुल पर बता रहे हैं राजकुमार सोनी जी कहते हैं लगता है कि मैं एक बार फिर कविताओं की ओर लौटने लगा हूं।  जो लोग कविता लिखते हैं वे मेरे बारे में अपनी यह राय जरूर कायम कर सकते हैं कि एक बेवकूफ था जो इधर-उधर अपनी फजीहत करवाने के बाद घर लौटकर आ गया है।

अपने मोहल्ले की लड़कियों के बारे में

एक लड़की
सीखने जाती है
सिलाई मशीन से

घर चलाने का तरीका



एक लड़की
दिनभर सुनती है
लता मंगेशकर का गाना


एक लड़की
सुबह  भाई को
स्कूल छोड़ती है
और.. पिता को अस्पताल

बदले रूख

मेरा फोटोमेरी भावनायें... पर रश्मि प्रभा जी बदले रुख़ लेकर आई हैं। कहती हैं

मेरे नए पंख मुझसे कह रहे हैं

'एक लम्बी उड़ान

आज तुम्हारे हाथ है'

सम्पूर्ण आकाश, चाँद

आज फिर मेरे दोस्त हैं

आज फिर

मेरी आँखों के झील में

मासूम नन्हें नन्हें ख्याल हैं

किसी बच्चे के हाथों बनी

कागज़ की नाव जैसे

आज

इस नाव के डूबने का कोई खतरा नहीं

आस्था और आशावादिता से भरपूर स्वर इस कविता में मुखरित हुए हैं। जो स्‍वयं को हर परिस्थितियों के अनुसार ढालना जानता है, उसे जीवन जीने की कला आ जाती है।

एहसास (क्षणिकाएँ..)

My Photo.....मेरी कलम से..... पर Avinash Chandra जी की क्षणिकाएं हमें जीवन के कई अनुभवों का एहसास कराती हैं।

शिकायती लिबास...
कभी मैं सुखाता हूँ,
कभी तुम.
ना ख़त्म होते हैं,
हमारी शिकायतों के,
गीले लिबास.
न उतर पाती है,
अपने दरम्यान की,
कसैली अलगनी.

और भी कई क्षणिकाएं हैं। इन क्षणिकाओं पर कोई टीका नहीं लिखी जा सकती। सिर्फ महसूस की जा सकती है। आप भी पढिए और महसूस कीजिए।

हमारी जान लेने के नए-नए तरीके...

मेरा फोटोभड़ास blog , जुगाली और नुक्कड़ पर संजीव शर्मा जी कुव्यवस्था के प्रति अपनी भड़ास निकालते हुए कह रहे हैं कि आप भले ही सुबह पांच बजे से उठकर पार्क के कई चक्कर लगते हों या फिर बाबा रामदेव के कहने पर सुबह से शाम तक कपालभाती और अनुलोम-विलोम करते हुए बिताते हों या फिर किसी जिम में जाकर घंटों पसीना बहाते हों लेकिन इन तमाम कोशिशों का आपको उतना फायदा नहीं मिल पायेगा जितना कि आप मानकर चल रहे हैं. बताते हैं कि हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि टमाटर सूप के नाम पर लोगों को ज़हर दिया जा रहा है।

बात सूप की नहीं, बल्कि विश्वास की है क्योंकि किसी भी कंपनी ने यह बताने कि जहमत नहीं उठाई कि वह टमाटर के नाम पर उसका रंग भर दे रही है और उसका सेहत से कई लेना-देना नहीं है?

स्व अस्तित्व

My Photoगीत............... पर संगीता स्वरुप ( गीत ) की एकदम सच्ची अभिव्यक्ति पढिए जो यह संदेश दे रही है कि खुद पर विश्वास कर हमें खुद ही हिम्मत जुटानी पड़ती है।
बोली के दंशों में

कितना विष रखते हो

ज़ेहन के हर कोने में

गरल  पैबस्त करते हो .

क्यों नहीं सीखते तुम

कुछ गुड़ की सी बातें करना

आसान हो जाता फिर

इस कड़वाहट  को पीना .

सर्वोत्तम मानव मस्तिष्क की पहचान है , किन्हीं दो पूर्णतः विपरीत विचार धाराऒं को साथ- साथ ध्यान में रखते हुए भी स्वतंत्र रूप से कार्य करने की क्षमता का होना।

बस मूँद  कर

मैं पलकों को

स्व - अस्तित्व   

एकत्र  करती हूँ

और फिर से मैं इस

मैदान ऐ जिंदगी  में

उतर पड़ती हूँ .

मानसिक शान्ति का आनन्‍द प्राप्‍त करने के लिए हमें मन को व्‍यर्थ की उलझनों में फँसने नहीं देना चाहिए।

भगवान ने चाहा - इंशा अल्लाह!!

मेरा फोटोचला बिहारी ब्लॉगर बनने पर चला बिहारी ब्लॉगर बनने बता रहे हैं कि ऊ त कभी सोचबो नहीं किए थे कि देस छोड़कर बिदेस में नौकरी करने का मौका मिलेगा. अऊर जब मौका मिला त उनके घर में मातम छा गया। कुछ चुना हुआ लोग को हर साल उनका ऑफिस बिदेस में पोस्टिंग करता था।. गलती से उनको भी चुन लिया गया अऊर शारजाह भेजने का खबर आ गया. पटना फोन करके खुसखबरी दिए त मातम छा गया घर में. एक त एतना दिन के लिए बाहर अऊर दोसरा इस्लामी देस में रहना, ऊ भी उनके जैसन ठेठ साकाहारी आदमी के लिए।

लेकिन जैसे तैसे पहुंच ही गए शारजाह और ऊहां उनका और हुनकर सिरीमती जी का दोस्ती एगो पाकिस्तानी परिवार से हो गया। आ जब लौट कर भारत आए, त अईसा लगा कि पूरा परिवार छोड़कर आ रहे हैं. जावेद भाई और शह्ज़ादी भाभी, आज भी फोन करते हैं. लेकिन पाँच मिनट के कॉल में आज भी दू मिनट त ऊ दुनो औरत लोग के रोने में निकल जाता है. आज भी ऊ लोग एक्के बात बोलता हैं, “भाई जान! अगर हालात सुधर जाएँ, तो एक बार हमारे यहाँ आप ज़रूर तशरीफ़ लाना." इनका जवाब होता है, " इंशा अल्लाह!” मगर जब तक ऐसा नहीं होता तब तक तो बस अमन का आसा लिए बैठे हैं,  अऊर मुनव्वर राना साहब का सेर पर बिचार कर रहे हैं:

              सियासत नफ़रतों का ज़ख़्म भरने ही नहीं देती
              जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है.

सियासत के बात किए त एकठो सेर हमहूं मारिए देते हैं

मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है,

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है।

संवेदना को छूने वाली पोस्ट! सारा खेल ह्रदय से जीने और दिमाग से जीने के बीच ही है!! दिल के सामने देश, जात, धर्म आदि का कोई गणित नहीं होता है! मुस्कुराहट आमंत्रण है और आँसू प्रार्थना!!

कल है ग्रहों का खास गत्‍यात्‍मक योग .. क्‍या पडेगा आपपर प्रभाव ??

मेरा फोटोगत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष पर संगीता पुरी जी कह रही हैं गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिषीय दृष्टि से कल यानि 3 जुलाई का दिन खास है, क्‍यूंकि बृ‍हस्‍पति और चंद्र को केन्‍द्रगत करते हुए आसमान में बाकी ग्रहों की स्थिति के संयोग से एक खास प्रकार का योग तैयार हो रहा है। यह योग 3 जुलाई को 11 बजे से 12 बजे के लगभग मध्‍य रात्रि को उपस्थित होगा। इस योग का प्रभाव विश्‍व के अधिकांश हिस्‍सों में सुखद ही रहना चाहिए , इस कारण भीषण गर्मी वाले क्षेत्रों में दो दिनों तक घने बादल बने रहने और यत्र तत्र बारिश होते रहने की संभावना है। पृथ्‍वी के जिस क्षेत्र में यह योग अधिक प्रभावी होगा , वहां कुछ अनिष्‍ट की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता, खासकर बाढ , तूफान या भूकम्‍प की।

ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' की नई ब्लॉग-वसीयत

शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग पर Shiv प्रस्तुत कर रहे हैं। अप्रैल २००८ में अपने हलकान भाई, यानि ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' ने अपनी ब्लॉग-वसीयत लिखी थी. पिछले हफ्ते हलकान भाई ने अपनी ब्लॉग वसीयत में बदलाव किया। हलकान भाई की नई वसीयत पडिए जिसमें वे कहते हैं कि

मैं ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' , ब्रह्माण्ड का सबसे धाँसू हिन्दी ब्लॉगर, अपने पूरे होश-ओ-हवाश में ये ब्लॉग-वसीयत लिख रहा हूँ. कल तक मैं समझता था कि वसीयत केवल घर-बार, जमीन-जायदाद, बैंक लॉकर, सोना-चाँदी वगैरह के भविष्य में होने वाले बँटवारे के लिए लिखी जाती है. लेकिन जब से एक साईट ने मेरे ब्लॉग की कीमत दस लाख डॉलर से ज्यादा आंकी है, तबसे ये ब्लॉग ही मेरी सबसे अमूल्य निधि बन बैठा है. रूपये-पैसे, सोना-चाँदी वगैरह की कीमत मेरे लिए दो कौड़ी की भी नहीं रही. इसलिए ये ब्लॉग-वसीयत लिखना मेरे लिए मजबूरी हो चुकी है.

इसे शिव जी ने पोस्ट कर दिया अपने ब्लॉग पर। इस पर हलकान भाई का कहना है

आप मेरी वसीयत को और भी दस बारह ब्लाग पर छपाने का इन्तजाम कीजिये ना भाई!

शिव जी ने हाथ करते हुए ऐलान कर दिया

१२-१३ ब्लॉग पर आपकी वसीयत पब्लिश कैसे करें? मेरा तो एक ही ब्लॉग है!

इस मंच से मैं निवेदन करता हूं आपसे कि आप यदि हलकान भाई की इच्छा पुरी कर सकें तो कर दें।

चलने से पहले इस फोटॊ और इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख का मज़ा लीजिए।

अनूप जी को तो कुश की प्रस्तुति इतनी पसंद आई कि उन्होने एक बार पलक झपकाये बिना पूरा मंचन देखा

जी लिंक…..?

ओह! ये है

कुश और नाटक भारत की तक़दीर, पढ़िये नवोन्मेष महोत्सव-२०१० भाग-१

My Photoहृदय गवाक्ष पर कंचन सिंह चौहान की प्रस्तुति!

अब मैं भी चला। रात के १२ बज रहे हैं। विश्‍व कप फुट्बॉल का दूसरा क्वार्टर फाइनल मैच शुरु हो रहा है। मैं भी अनूप जी की तरह बिना पलक झपकाए मैच देखूंगा।

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25 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस उम्दा चिटठा चर्चा को पढ़ते हुए पलक तो हमारी भी नहीं झपकी !! आभार !

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  2. कुछ नए लिनक्स मिले ..मेरी रचना को शामिल करने के लिए धन्यवाद

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  3. बहुत अच्छी चर्चा! बेचैन जी बहुत ही ईमानदार कवी हैं...दिल से लिखते हैं...सीधा और सरल लिखते हैं...सहजता से गहरी बात कह जाते हैं. हरकीरत जी की तो बात ही निराली है...सोनल जी को अक्सर पढ़ती हूँ...पर टिप्पणी नहीं करती... संगीता जी की कविताओं पर कुछ कहा ही नहीं जा सकता... उसे बस स्वादिष्ट शरबत की तरह घूंट-घूंट पिया जाता है...
    अनूप जी को देखकर लगा कि उन्हें सर्वश्रेष्ट दर्शक का सम्मान देना चाहिए... भला पलक झपकाए कुछ भी देखना मजाक बात है क्या?? :-)

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  4. ववाह कुर्सियों पर यूं घुड़ाकने का मज़ा ही कुछ और है...फलाना गुटखा खाने वालों की ही तरह

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  5. बहुत ही बढ़िया चर्चा!
    --
    अच्छे लिंक संजोए हैं!

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  6. सुन्दर है लेकिन अब जब इसे आंख खोलकर बांच रहे हैं तो कौनौ फ़ोटो नहीं ले रहा है :)

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  7. बढ़िया चर्चा....साथ ही जो थोड़ी सी समीक्षा की है वो बहुत अच्छी लगी....आभार

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  8. हमेशा की तरह शानदार और सफल चर्चा के लिए आदरणीय मनोज जी का साधुवाद !

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  9. बिना पलक झपकाए इसे पढ गई। अच्छी और सफल चर्चा के लिए साधुवाद।

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  10. निर्निमेष पढने वाली चर्चा।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  11. चर्चा हो तो ऐसी……………काफ़ी लिंक्स मिले………आभार्।

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  12. सुन्दर चर्चा. अच्छे लिंक्स मिले.
    हलकान भाई की वसीयत को ब्लॉगर साथियों के बीच लाने के लिए आपको धन्यवाद.

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  13. आपने मेरी पोस्ट को चर्चा में शामिल किया उसके लिए आपको धन्यवाद.. लेकिन सारी लिंक भी बहुत जानदार है।

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  14. अच्‍छे लिंकों से सजी खूबसूरत चिट्ठा चर्चा .. आपक आभार !!

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  15. computer kharab tha ..abhi dekh pa raha hoon farmeting men mera hindi typing toos bhii gayab ho gaya hai.Snder charcha. meri post ko samil karne ke liye aabhar.

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  16. bahut kuch ek hi jagah mil geya, woh bhee behtareen andaaz main..

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  17. अरे मनोज बिटवा, हमेशा की तरह चर्चा त बहुते नीक किये हो. अम्माजी खुश हुई पर हमका ई समझ नाही आवा की ई नालायक अनूपवा को काहे लाके बिठाय दिये हो? अऊर ऊपर से उसका गुणगान किये हो कि बिना पलक झपकाये नाटकवा देखा रहा? अरे हम पूछती हैं कि दुनिया क्या अंधी है? साफ़ दिखाई दे रहा है कि अनूपवा वहां सो रहे हैं अऊर सुनल्यो....ई नालायक ने ब्लाग जगत का तो भट्टा बिठाय ही दिया है अऊर अब ई नाटक पर्पंच करने वाले लोगों का अऊर भट्टा बिठाय देगा. काहे से की अब इनके चरण ऊंहा भी पड गये हैं.

    हम तौका कहे देत हैं कि अगर तुमने ई नालायक का नाम भी लिया त अम्माजी तुमसे भी नाराज हो जायेंगी.

    सबकी अम्माजी.

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  18. अऊर आज डागदर साहब ने कछु नाही बोला? सिर्फ़ हम्म कहके रह गये? लगत है कि डागदर साहब भी अब ऊ नालायक का चाल चलन समझ गये हैं? बहुत देर करदी डागदर साहब आपने. खैर हम कहा चाहती हैं कि देर आयद दुरुस्त आये.

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  19. मनोज बाबू त हफ्ता भर में देस दुनिया का फोटो देखाकर बता देते हैं कि दुनिया की सैर कर लो, अईसा लगता है कि एगो कैप्सूल में भर कर सारा ब्लॉग का मजा एक्के जगह दे देते हैं. हमरे बाबूजी कहा करते थे कि कुछ भी कहीं भी पढने को मिले तो जरूर पढो, अगर ऊ पढा हुआ है त दोहरा जाएगा, अऊर नहीं पढा हुआ है त नया बात पता चलेगा. ई मंच पर दुनों तरह का आनंद मिल जाता है. एतना गुनी लोग के लोग के बीच अपने आप को देखकर संकोच होता है. धन्यवाद मनोज जी!!

    जवाब देंहटाएं
  20. मनोज जी,
    अच्छा लगा पुनः स्वयम् को यहाँ देखकर, और इससे अधिक प्रसन्नता इस बात की कि कई मनीषी लोगों के बीच हमें भी जगह मिली. एक और बात कि आपने हमारी बदली तस्वीर के बारे में लिखा. पहली तस्वीर आम आदमी की पहचान थी, आम फल के ऊपर हम दोनों के चेहरे बने थे. ख़ैर हम तो अपनी तस्वीर से अधिक देश की तस्वीर को लेकर चिंतित रहते हैं. और लोग जो भी कहें, हम दुष्यंत कुमार के अनुयाई हैं कि
    सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
    मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चहिए!

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  21. इस बार की चर्चा पर आपकी प्रतिक्रियाओं से अबतक की गई मेरे द्वारा की गई चर्चाओं में से सबसे ज़्यादा संतुष्टि मिली।
    आप सबों का आभार।

    जवाब देंहटाएं

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