शनिवार, मई 05, 2007

मोबाइल का नया रिंगटोन और जलोटा जी के जालिम भजन

आज मन बड़ा प्रसन्न है। बड़े दिनों बाद पेट भर चिटठे पढ़े। रूखे सूखे नहीं, बेहद लज़ीज़। हर दिन ऐसे पकवान नसीब नहीं होते या फिर शायद अपनेराम ही टेबल पर ध्यान न देते हों। तो देर किस बात की? चलिये मेरे साथ चिटठों के रोचक सफ़र पर।

पांडेय जी की रेलगाड़ी हसन जमाल के लेख के विवादास्पद प्लेटफॉर्म पर उतरी, उतरते ही उन्होंने पाया कि हसन मुसलमान हैं, फिर उन्होंने पाया कि जमाल साहब को इंटरनेटोफोबिया है और इस पर बात करने की बजाय वे बात कर बैठे इंटरनेट के प्रति बढ़ते आब्शेसन की। ख़ैर, जब लिखने बैठे हों, बीवी चित्कार कर रही हो की फ्रिज में एक भी सब्जी नहीं है दोपहर को क्या तुम्हारा भेजा परोसूं, चेयर पर टिक कर बच्चा छिली हुई पेंसिल को लगातार छिलते हुये लगातार पूछ रहा हो, "ये क्या है डैडी?" और दरवाज़े पर पेपरवाला छुट्टी के दिन साहब से पैसे की उम्मीद में खड़ा हो तो विषय से भटकाव अवश्यमभावी है। लो अपन भी चल पड़े पटरी बदलने। बहरहाल अपन न हसन जमाल के पक्ष में हैं न विपक्ष में, कभी कभी बेपेंदी का होना अच्छा लगता है।

जगदीश ने इंटरनेट से कमाई के मैगजिनाई लेख की चर्चा की तो पंगेबाज ने चिट्ठाकारों को कमाई करने के न केवल अभिनव तरीका सुझा दिया बल्कि एक प्रभावशाली परियोजना की प्रोजेक्ट रिपोर्ट भी बना डाली।

यह सारी अथाह धनराशि भैस बाईसा के दम पर भूसे और उसके उत्पाद दूध, घी, दही, छाछ, पनीर तथा उसके अनन्य उत्पाद उपले, खाद, गौमूत्र की कमाई है। अब जाकर पता चला कि चल सम्पत्ती किसे कहते हैं? ...वो जमाने हवा हुये जब चाणक्य ने नन्द वंश की जड़ों में मट्ठा डाला और नन्द वंश समाप्त, अब तो लालूजी ने भारतीय रेल यात्रियो को मट्ठा पिला पिला कर भारतीय रेल को फ़ायदे में पहुचा दिया है। पता चला है कि मुलायम जी की भी सारी की सारी कमाई भैंसबाइसा ने कमा कर दी है।

कमाई की बात सुनी नहीं कि बिहारी बाबू निकल पड़े चंदा करने, विज्ञापनी आय से मरहूम खिलाड़ियों के लिये एक ठो "किरकेटर आपदा कोष" बनाने की सिफ़ारिश लेकर।

प्रमोद चिट्ठों में प्रयुक्त हिन्दी की गुणवत्ता से हलकान हैं। नसीहत के तौर पर कहते हैं,

"बुरी हिंदी दुरुस्त करने के लिए...एक छोटा, टिकाऊ, मजबूत नोटबुक खरीदें। वो सारे शब्द जो अलग-अलग मौकों पर आपमें भय जगाते रहे हैं, मसलन- ‘अकिंचन’, ‘शब्दाहत’, ‘निस्त्राण’, ‘अनिमेष’- इनकी एक विस्तृत सूची बना लें, और लिखने के दरमियान जब उलझन हो, वाक्य में ऐसा एक शब्द गूंथ दें। देखियेगा भाव की मार्मिकता कैसे तत्क्षण सप्राण हो उठेगी! इसके साथ-साथ यह भी कर सकते हैं कि हर पैरा के अंत में दोहा-ग़ज़ल की दो लाइनें ठेल दें। ज्यादा अच्छा हो ऐसी ज़बान से टीपी गई हो जो आपकी अपनी न हो! इससे एक सीधा फ़ायदा यह होगा कि भाव का सामंजस्य बैठ रहा है कि नहीं सोचते हुए आप माथाफोड़ी नहीं करेंगे। बुरी हिंदी लिखना शुरु करेंगे और दौड़ते हुए सबसे आगे निकल जाएंगे!"

अभिषेक अपने चिट्ठे में चिट्ठियों के बारे में nostalgic हो गये, पत्रों को miss किया पर अंत में disclaimer लिख गये, "कृपया इसके लिए मुझे पुरानी विचाराधारा का ना समझें... वैसे तो मैं बहुत प्रगतिशील सोच रखता हूँ"। अभय ने खिंचाई का मौका न गंवाते हुये टिपिया दिया, "चिट्ठियों की बात अलग थी...फोन तो प्रेत- का रूप है...वैसे आप प्रगतिशील होने से ब‌चें, पतनशील होने के बारे में सोचें"।

अतुल अरोरा बड़े दिनों बाद मैदान में उतरे, पर लगता है कलम की धार फिर तेज़ करनी होगी। चुटकाला सुनाया, विडियो दिखाया फिर भी लोगों ने गणितीय त्रुटि पर आपत्ति दर्ज कर दी। इधर कमल को देखो, न केवल बाबू भाई कटारा से मिल आये वरन उनसे एक प्रतिज्ञापत्र भी लिखवा लाये।

भुवनेश ने चिट्ठा लिखा, पर शीर्षक में चूक कर बैठे। फिर रायटर की खबरों की तरह संशोधित शीर्षक से लेख लिखा। पर कमल ऐसे सभी चिट्ठों से तंग आ चुके हैं

पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूं कि हिंदी के ब्लॉग लेखक हिंदू, मुस्लिम और ईसाई की लड़ाइयां लड़ रहे हैं। कोई कह रहा है कि फलां ब्लॉग वाला मुस्लिमों के लिए लिख रहा है और हिंदू के खिलाफ जहर उगल रहा है। कोई ब्लॉग कह रहा है कि हिंदू अच्छे हैं और मुस्लिम लड़ाकू...यह अच्छा नहीं हैं कि हम एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाएं और लड़े। लड़ना है तो देश के आर्थिक विकास के लिए लड़ो....समाज की बेहतरी के लिए लड़ो...बेहतर स्वासथ्य सुविधाएं और शिक्षा के लिए लड़ो...हमारा देश जब आर्थिक प्रगति की ओर तेजी से बढ़ रहा है तब हमें जाति, धर्म और संप्रदाय के विवाद खड़े करना शोभा नहीं देता।

अनामदास ने अपने चिट्ठे में पुनः सही नब्ज़ पकड़ी है। देशभक्ति और देशप्रेम में फ़र्क बताते हुये लिखते हैं

सबसे ख़तरनाक बात जो देशभक्त बार-बार कहते हैं-"देश इंसान से बड़ा है"। यह सरासर ग़लत बात है कि देश इंसान से बड़ा है, कोई भी व्यवस्था किसी जीवित इंसान (से) बड़ी नहीं हो सकती। देश एक व्यवस्था है जिसे इंसान ने ही बनाया है, इसमें व्यापक हित दिखता है कि व्यवस्था बनी रहे इसलिए कोई भी व्यवस्थावादी यही कहेगा कि देश बड़ा है लेकिन कोई सच्चा मानवतावादी इसे स्वीकार नहीं कर सकता।

चिट्ठे की भावना से सहमत हूँ पर अपनराम को लगता है कि दोनों शब्दों में बाल बराबर ही फ़र्क है। और यह भी लगता है कि ये उद्गार शायद किसी अनिवासी भारतीय के ही हो सकते हैं, वजह शायद हैं परदेश की मिट्टी के संपर्क होते ही "भारत एक बेहतरीन देश है", यह मानते रहने की बाध्यता से मुक्ति और सरकारी भोंपूओं पर बजते वृंदगान के माध्यम से होते इनडॉक्ट्रिनेशन से सांस्कृतिक इंसूलेशन। यह फर्क शायद वैसा ही है जैसा कि अमित ने अपने अंग्रेज़ी चिट्ठे में लिखा है,

In USA you can kiss in public places but cannot shit; in India you can shit in public places but cannot kiss.

रचनाकार में असग़र वजाहत का संस्मरण छपा है, ईरान में "भारतीय होने का महत्व"

बदलते समाज में युवा सभी वर्जनाओं से मुक्ति पा रहे हैं। संस्कृति और इतिहास भी वर्जनायें ही बनी हैं। सुनील असमंजस में हैं कि पुरानी पीढ़ी के लोग फिर भी क्यों आस लगाये बैठे हैं।

शायद यह मानव प्रवृति है कि अपनी यादों को बना कर रखे और जब नयी पीढ़ी उन यादों का महत्व न समझे तो गुस्सा करे...यह समय का अनवरत चक्र है जो नयी बरसियाँ, समारोह बनाता रहता है। साइकल पर घूमने निकला...एक चौराहे पर...रुक गया। माईक्रोफोन लगे थे, सूट टाई पहन कर नगरपालिका के एक विधायक खड़े थे, कुछ अन्य लोग "संघर्ष समिति" के थे। वे सब लोग भाषण दे रहे थे। नवंबर 1944 को वहाँ बड़ी लड़ाई हुई थी जिसमें संघर्षवादियों ने जान खोयी थी। उनके बलिदान की बातें की गयीं...थोड़े से लोग आसपास खड़े थे उन्होंने तालियाँ बजायीं...पर शहर के पास इन सब बातों के लिए समय नहीं था। चौराहे पर यातायात तीव्र था, गुजरते हुए कुछ लोग कार से देखते और अपनी राह बढ़ जाते। पीछे बास्केट बाल के मैदान में लड़के चिल्ला रहे थे, अपने खेल में मस्त।

नीरज ने लड़कियों पर किया अपना शोध प्रबंध सार्वजनिक किया, कई "पर्ल्स आफ विज़डम" प्रस्तुत किये, बानगी देखिये

  • लड़के जिनकी गर्ल फ्रेंड होती है और जिनकी नहीं होती है, में केवल एक फर्क होता है, पहले वाले लोग "लड़कियों से बात करते हैं" और दूसरे वाले "लड़कियों के बारे में बात करते हैं"।
  • आपके मित्र कभी नहीं चाहते कि आपकी कोई गर्ल फ्रेंड बने, वरना वो कैंटीन में किसके साथ बैठ कर मौज करेंगे।
  • लड़कियों के हर सवाल के जवाब का अंत एक सवाल से करें।
  • ज्यादा से ज्यादा लड़की आपको शालीनता से मना कर सकती है, लेकिन इस प्रकार की कई असफलताओं के बाद ही व्यक्ति सफल होता है।
  • इस पर समीर कहाँ मौका चूकने वाले थे, तपाक से बोले, "खूब शोध चल रहा है। वैसे मैने देखा है, रॉकेट पर शोध कोई करता है और उड़ाता कोई और है"।

    "हिंदी फ़िल्मों और क्रिकेट से बरबाद हुये" सुरेश हिन्दी फिल्मों में मराठी पात्रों के चरित्रिकरण से ख़फा हैं। ख़फा मोहिंदर भी हैं, कहीं कवि के झोले में आय से ज़्यादा संपत्ति होने से तो नहीं? कविताओं की ही बात चली तो अभय ने प्रकाशित की हैं केदारनाथ अग्रवाल की कुछ सुंदर कवितायें, मुझे तो ये बड़ी जंची

    मैंने उसको
    जब जब देखा
    लोहा देखा।
    लोहे जैसा
    तपते देखा,
    गलते देखा,
    ढलते देखा,
    मैंने उसको
    गोली जैसा
    चलते देखा!
    आज का चित्र

    सुरेश के चिट्ठे से

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    5 टिप्‍पणियां:

    1. भाइ देबाशीश जी चिट्ठा चर्चा के बाद जरा सा वक्त निकाल कर पैसा भी जमा करादे और बाकीलोग भी आपको ढूढ रहे है पैसा लिये उनसे भी लेले अब अगर आप ही गंभीर नही होगे तो कैसे काम चलेगा पुरे भारतीय बाजार को आप ही ने तो देखना है :)

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    2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    3. अफसोस, हमने भी लिखा होता तो चर्चा में शामिल किये जाते :(

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    4. हम तो जिस दिन लिख दें उसके अगले दिन चिट्ठाचर्चा का अवकाश रहता है...हाय री किस्मत!!

      इसीलिये रोज नहीं लिखता कि चर्चा ही न बंद हो जाये.

      देबाशीष:

      कभी कभी बेपेंदी का होना अच्छा लगता है।

      -इस की जगह सजा के डर से तो तटस्थ का इस्तेमाल करने से तो नहीं किनारा किया? कहते हैं (जिस मकसद से आपने बेपेंदी को गलत इस्तेमाल कर लिया है, बेपेंदी तो वजनदार साईड पलटी खाता रहता है, बिना सोचे)-तटस्थ को वक्त सजा देगा, तैयार रहना!! :)

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    5. एकही दिन में दु दु चर्चा। शनिदेव देव की क्‍या किस्‍मत है।
      वाह वाह
      भली चर्चा की है।

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    चिट्ठा चर्चा हिन्दी चिट्ठामंडल का अपना मंच है। कृपया अपनी प्रतिक्रिया देते समय इसका मान रखें। असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप करने वाली टिप्पणियाँ हटा दी जायेंगी।

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