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पैसा जीवन का केन्द्र बन चुका है और पैसा बनाने की तरकीबों की हम सबको ज़रूरत है :) पर हम सोचते रह जाते हैं और बनाने वाले पैसा बना ले जाते हैं । मिर्ची सेठ बता रहे है -देखो बडी बडी कंपनियाँ कैसे पैसा बनाती हैं
पिछली अगस्त में टाटा वालों ने अपनी दूकान का सामान बढ़ाने के लिए यही कुछ 677 मिलियन डालर (2700 करोड़ रुपए से भी ज्यादा) में यहाँ अमरीका की ग्लेस्यू एक रसीला (विटामिन वाला) पानी बनाने वाली कम्पनी का करीब एक तिहाई हिस्सा खरीद लिया था। टाटा वालों का मानना था कि इस से एक तो दूकान का सामान बढ़ेगा व यह खरीद लम्बी दौड़ का घोड़ा साबित होगा।
दूसरी ओर बाल मन इस मया से अनजान अपनी अपनी जुगाड में लगे हैं । चाहे चोरी ही करनी पडे । माखनचोर की तरह ।श्री कृष्णम !
यार कोई तरक़ीब बतासभी सडकें अब गाँव से शहर की ओर भागती है पर अब कोई सडक गाँव की ओर लौटती नही है। सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव बता रहे हैं उस युवा की व्यथा जो अपने गाँव- घर से दूर शहर में है ।
तरक़ीब बता,
पच्चीस पैसे की जुगाड़ की।
वो वाले पच्चीस पैसे,
जिसकी चार संतरे वाली गोलियाँ आती थीं।
तरक़ीब बता,
चोरी करनी है!
अपने ही घर में कटोरी भर अनाज की...।
आज सपने में भोंपू वाली बर्फ़ बिकी थी!
वैसे सच तो यह है मां
कि
शहर
अब आदमी के रहने लायक नहीं रहा
सोचता हूं
गांव वापस लौट आऊं।
मस्तराम की आवारा डायरी से विरह और इंतज़ार की अभिव्यक्ति । फुर्सत से । आजकल वे भी फुरसतिया हैं । अजीब है विरह भी फुरसत वाले ही मना सकते हैं ।राह में बरसों खडे रहने के लिये वक्त चाहिये भाई :) :)--
बरसों से खडे हैं हमबाब नागर्जुन की कविता खिचडी विप्लव देखा हमनें से विप्लव का वास्तविक अर्थ समझकर शिवराम कारंत के एक उपन्यास - मूकज्जी। पर बात हुई है मोहल्ला में ।
राह पर उनके इन्तजार में
उम्मीद है वह कभी आएंगे
हमारा काम है इन्तजार करना
तय उनको करना है कि
कब हमारे यहां आएंगे
उपन्यास के इस प्रसंग को सुनाने का मतलब यही है कि बहुतों के लिए यथार्थ का होना कोई मतलब नहीं रखता। उड़ीसा, संतालपरगना, छत्तीसगढ़ या गुजरात के गांवों का सच अपनी जगह है, लेकिन अगर उस सच का हमारे जीवन से कोई तार नहीं है, तो उसकी बात नहीं करेंगे। हमारे मन में जो इन भूगोलों की कल्पना है, उसके अलावा वो बेचैनियां हमारे लिए ज़रूरी हैं, जिनका वास्ता हमारे एकदम पड़ोस से होता है।
तो शिल्पा शर्मा बाबा के एक अन्य कविता -कम्यूनिज़्म के पंडे ले आयी हैं-
आ गये दिन एश के!
मार्क्स तेरी दाड़ी में जूं ने दिये होंगे अंडे
निकले हैं, उन्हीं में से कम्युनिज्म के चीनी पंडे
जब बुद्धिजीवी कहलाने वाला व्यक्ति अन्ध समर्थन करने तैयार रहेगा , बुद्धि को ताक पर रख कर तो ऐसी ही स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं ।संजय बेंगाणी पडताल कर रहे हैं --
मल्लिका साराभाई जैसे बुद्धिजीवी लोग जैन की पेंटिंग हटाने के विरूद्ध विरोध प्रदर्शन के लिए आये हुए थे. मीडियाकर्मी ने उनसे पूछा,”क्या आपने पेंटींगे देखी है?”. जवाब था,”ना”. फिर दूसरे बुद्धिजीवी से यही सवाल पूछा,”क्या आपने पेंटींग देखी है?” उनका जवाब भी था, “ना”. पेंटींग देखी नहीं मगर समर्थन जरूर करना है. अंधे समर्थन में विरोध रेली निकाल कर पेज थ्री पर छप जाना है. प्रोफाइल बढ़ा लेनी है.और शूट आउट में मारा मारी के साथ साथ कम चीनी वाला फीका हेल्थ? कॉंशस रोमांस तारा रम पम पम बच्चों के हुडदंग --------अज़दक ..प्रमोद ...सिंह ... लोहा नहीं मिलता लोखंडवाला में. सभ्यता के कादो में फंसा छूटा रहा गया हो कोई इमारती बेड़ा जैसे.आतंकवादी है जाने कौन है, आंख खुलते बुदबुदाता है आदमी- ओ मां की आंख, एक सिगरेट पिलाना बे!
एक कार्टून है 'शिनचैन', बच्चा है हमारे बच्चों जैसा ,जिसे बिलकुल चैन नही । वह गाता है " जब भूख सताने लगे नाचो नाचो नाचो .... बस हम कह रहे हैं जब भूख सताने लगे स्पाइसी आइस देखो देखो देखो और फुँको फुँको फुँको ,क्योंकि सिर्फ देख पाओगे बच्चा!चाइनीज़ खाओगे ?
और इंतज़ार की चिंचिन चू भी सुनिये :) नही सुन पाए तो असुविधा के लिए खेद है :(
यहाँ हमे कई जगह " असुविधा के लिए खेद है" लिखा मिला। हालाकि ये असुविधा हमारी सुविधा के लिए थी। लेकिन गम्भीरता से सोचा जाये तो हिमाचल प्रदेश मे विकास के नाम पर paharo के सिने पर बारूद से विस्फोट करना कहा तक सही है। हमारे विकास कि गरमी से जहा एक तरफ हिमशिखर पानी बन बहते जा रहे है। वही दुसरी तरफ सुविधा के नाम पर "असुविधा के लिए खेद है" का खेल बचे खुचे हिमशिखर को भी लील जाएगा।
इंटरनेट सेंसर्शिप के मसले पर लेख पढिये समाजवादी परिषद में। खुले विश्व के बन्द होते दरवाज़े ।
एक लक्ष्य था कि इससे अधिक से अधिक व्यक्ति और समूह अपने विचार और सृजन को प्रकट कर सकेंगे ।विश्व के एक कोने में कम्प्यूटर के एक ‘क्लिक’ से दूसरे कोने में सृजित वेबसाइट का सम्पर्क स्थापित हो जाएगा , निर्विघ्न और निष्पक्ष सूचना के आदान - प्रदान हेतु । इन आदर्शों को क्रान्तिकारी माना जा सकता है ।फिलहाल इन महान आदर्शों की पूर्ति में कई किस्म की प्रतिक्रांतिकारी वर्जनाएं रोड़ा बनी हुईं हैं । ये वर्जनाएं भाषा , वित्त और तकनीकी संबधी तो हैं ही , सेंसरशिप के कारण भी हैं ।
चलते तो अच्छा था - असग़र वजाहत के ----ईरान और आज़रबाईजान के यात्रा संस्मरण पढिये रचनाकार में । अगर आप यह चिट्ठाचर्चा पढते - पढते यहां तक पहुंच ही चुके हैं तो आपसे इतनी गुजारिश का तो हक बनता ही है कि एक छोटी या मोटी सी टिप्पणी करते जाइए और बिना टिपाए तो चरचा चलिबे की चलाइए न ! ;)
कोई भी चिट्ठाकार सरल शब्दो मे चर्चा क्यो नही करता जिससे कि वह ज्याद पाठ्को के समझ आ सके ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा, बधाई.
जवाब देंहटाएंअच्छा है, बहुत अच्छा है। लेकिन मेरा ई पन्ना भैया की शिकायत पर तव्ज्जो दिया जाये। क्या सच में चर्चा कठिन है। :) मुझे तो नहीं लगी फिर भी पाठक का बयान सर-माथे।
जवाब देंहटाएंशायद शीर्षक जो पता नहीं कौन-सी हिन्दी में है को लेकर मेरा ई-पन्ना को शिकायत रही हो.
जवाब देंहटाएंभाई हम जैसे असाहित्यिक लोगो का खयाल रखा जाय. :)
बाकि चर्चाने के लिए साधूवाद. वरना इतना समय कौन निकाल पा रहा है?
अच्छी चर्चा.