और अगर न चर्चा हो तो कोई शोर नहीं होता है
फिर फिर कर यह प्रश्न उठा जब मैं चर्चा करने बैठा हूँ
क्यों मैं जाग जाग लिखता हूँ, जब सारा आलम सोता है
आठ दिनों में चार बार ही हो पाईं चिट्ठों की चर्चा
चर्चा की खातिर चिट्ठों में कोई बात नहीं है शायद
इधर उधर की छेड़ाखानी, कुछ शिकायतें, कुछ हंगामे
चिट्ठाकारी की लगता है सचमुच में हो रही कवायद
लिखा कभी था गया प्रशंसा कैसे चिट्ठों की होती है
वही चित्र दिख रहा आजकल, केवल झूठी तारीफ़ों का
बात बेतुकी गज़ल कहाती, आडंबर कहलाता चिन्तन
पत्ता भी जो देख न पाये, ज़िक्र किया करते शाखों का
पंकज ने नकाब उलटा है, देखो यहां असलियत कोई
दिल के दर्पण में दिखता है आंसू वाला गहरा रिश्ता
यौवन की अभिलाषा लेकर खड़े हुए हैं गीत सुनहरे
कठपुतली खुद एक पहेली और भला मैं क्या कह सकता
सभ्य आदमी और बहादुर भी ये रचनाकार बताये
गायत्री ने रिश्तों को दीवारों को रिसते देखा है
परमजीत को बस फ़रेब ही देते यहां मोहल्ले आये
विज का चित्र देखिये जाकर और बता आयें कैसा है
किससे वादा करती रचना, कौन राजधानी में आया
कितने गीत और लिखने हैं, प्रश्न एक फिर गया उठाया
हैं समीरजी, चाचाजी के साथ व्यस्त, बाकी सकुशल है
इसीलिये चर्चा का मैने आज यहाँ दायित्व निभाया
बहुत आभार और साधुवाद,राकेश भाई. बढ़िया चर्चा. आपकी चर्चा में प्रयुक्त मुखड़े के प्रसंग से मैं पूर्णतः सहमत हूँ. कई बार वाकई लगता है कि लोग चर्चा पढ़ते भी हैं कि नहीं. बिना टिप्पणियों के कैसे जान पायेंगे?
जवाब देंहटाएंबकिया करो ना करो, हमरा जरुर करना। नही तो आपके हस्पताल मे आकर हंगामा मचाएंगे। पूरी की पूरी सात सौ लेख, बाकायदा पढकर सुनाएंगे।
जवाब देंहटाएंचर्चा लोग पढ़ते हैं। टिप्पणी भले न करें। लिखते रहें। हम पढ़ते हैं आज टिपिया भी रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद!! बढ़िया चर्चा रही।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
आप की चर्चा पढ़ी । अपनी कविता का भी उलेख पाया । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंई लयो जी, हमहो भी टिप्पणी टिकाए देते हैं। ईब हमार ख्याल रखना, हर बार हमार बिलाग भी शामिल किए रखना!! ;) :D
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