रविवार, जुलाई 22, 2007

जहां गद्य ललित है कोमल है

प्रत्‍यक्षा जी की ने अपने चिरपरिचित काव्यमय गद्य शैली में रात पाली में काम करने वाले मेहनत कशों की जिंदगी को उकेरा है! यहां श्रम से संवेदना के बोझिल होते मन की कथा बखूबी कही गई है श्रम जो है पुरुष का

रेले का रेला , हुजूम का हुजूम विशाल गेट के मुहाने से अजबजाये बाढ की तरह बह आता । साथ साथ आती पसीने ,थकन और ग्रीज़ की खट्टी बिसाई महक । कुछ भीड छिटक कर गुमटी की तरफ सरक आती । कुछ और आगे की टीन टप्पर की दो बेंच वाली चाय दुकान पर जमक जाती । रात पाली के बाद की रुकी ठहरी भीड बडी छेहर सी होती ।

और साथ ही श्रम जो है स्‍त्री का अनचीन्‍हा, अनगिना-

औरत निंदायी निंदायी पानी का ग्लास थामे निढाल आती है बिस्तर पर । रसोई समेटना बाकी है अभी , दही जमाना बाकी है अभी , मुन्नु की आखिरी बोतल बनाना बाकी है अभी । गँधाते फलियों और कपडों के ढेर को सरका कर जगह बनाते औरत सोचती है उसकी रात पाली कब खत्म होगी

हमारी एक और प्रिय गद्यकार बेजी ने कहानी लिखने का पहला प्रयास किया है, अपनी कहानी स्‍मृति की छवि में, कहानी के विषय में कामगार श्रमिक महोदय ने सही ही कहा कि कहानी में ठहराव नहीं है। नारूिकी समख्‍ति की ही तरह कहानी फिसल फिसल बहती है रिदम के साथ-

अपने आप में कोई ऐसे भी खोता है पर स्मृति को किसी चीज़ की परवाह नहीं थी। मस्त और खुश। ना तो उसे बाकी लड़कियों की तरह मेहंदी लगाते, सिलाई बुनाई करते देखा...ना खुद को घंटों शीशा निहारते। कहीं कोई अच्छा गाना सुनती तो थिरकने लगती...हर छोटी बड़ी बात पर खिलखिला कर हँसती....और कभी घंटों खिड़की पर बैठी रहती।

तो ये थी आज की गद्य पोस्‍टों से हमारा चुनी हुई दो पोस्‍टें। वापस मूल चर्चा पर जाने के लिए क्लिक करें।

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1 टिप्पणी:

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