हिंदी ब्लाग
चिट्ठाचर्चा मुझे लगता है कि रोज होनी चाहिये। रोज क्या बल्कि दिन में कई बार होनी चाहिये। बीच में होती भी थी। दायीं ओर के जित्ते लोग हैं सब कभी न कभी इसमें शिरकत कर चुके हैं। हमें हर चर्चा के बाद नियमित लिखते रहिये उकसाने वाले समीरलालजी भी इसके चर्चाकार थे। समय के साथ व्यस्तता बढ़ी तो लोगों का लिखना कम होता गया। बहरहाल!
रचनाजी ऐसी ब्लागर हैं जो महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर अपने विचार रखती हैं। उनके लेखन की सबसे अच्छी बात मुझे यह लगती है कि उनको जो सही समझ में आता है वे उसे पूरी ताकत से सामने रखती हैं। वे मुंहदेखी बात नहीं करती। यह अपने आप में बड़ी बात है। उन्होंने इसलिये मुझे फक्र है कि मै दूसरी औरत हूँ शीर्षक कविता लिखी जिस पर सहमतियां असहमतियां हैं । इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुये मनविन्दरजी ने भी अपनी बात रखी और रचनाजी के बोल्ड लेखन का समर्थन किया।
प्रमोदजी जितने सम्वेदनशील हैं उतने माने नहीं जाते। सम्वेदनशील माने जाने के लिये वे कोई मेहनत भी नहीं करते।उल्टे सारी ताकत अपने को पतनशील कहलाने में लगा देते हैं। आज प्रमोदजी के ब्लाग पर पिछली कई पोस्टें एक साथ बांची। आप भी बांचिये ये वाली । मन खुश हुआ अपना तो:
कंचन उत्साह से उनको आंगन लिवाकर गयी, दीवार पर बांस से चढ़ायी लता में सेम की ताज़ा-ताज़ा निकली फलियां दिखायीं तो पत्नी के साथ-साथ रुपेश प्रसाद भी एकदम से मुस्कराकर खुशियाने लगे थे, बबुनी भी उनकी गोद में हाथ बजा-बजाकर चहकती रही थी! ओह, ऐसा नहीं कि जीवन में सुख के अवसर नहीं आते, रोज़-रोज़ आते हैं..
अजित वड्नेरकरजी के अगले मेहमान हैं प्रभाकर पाण्डेय। उनका बकलमखुद आप खुदै पढौ!
आलोक पुराणिक ने आज डाकू पर्यटन की थीम सजाई है।
वैसे अपना सजेशन यह है कि डाकू टूरिज्म के अंतिम चरण में टूरिस्टों को चुनिंदा नेताओँ से मिलवाना चाहिए। इसलिए कि छोटे मोटे डाकू तो आत्मसमर्पण करके प्रापर्टी डीलिंग करने लगते हैं या सिक्योरिटी सर्विसेज चलाने लगते हैं। विकट और सुपर डाकू आत्मसमर्पण नहीं करते। वो राष्ट्र सेवा करते हुए पालिटिक्स में जाकर महान नेता बन जाते हैं। नेताओँ के बगैर डाकू पैकेज अधूरा है।
इस थीम का शायद पंगेबाज को पहले से ही अंदाज था। वे देश को खड्डे में डालकर कुश के यहां काफ़ी पीने चले गये। यह पंगेबाज पर्यटन के दिन हैं।
ई-स्वामी फ़िर से सक्रिय हुये हैं। हिंदीब्लाग जगत के बारे में उनके विचार देखिये:
जब इन सभी कडे पैमानों पर एक साथ तौले जाएं तो हिंदी के ब्लाग्स अधिकतम रूप से अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के ब्लाग्स के आगे कमजोर और बौने पड जाएंगे - चूंकी आधारभूत योजना और तैयारी के बगैर एकाधिक पक्ष चूके रह जाते हैं और अधिकतर ब्लाग्स कहीं ना कहीं मार खा जा रहे हैं. मात्र ट्राई मारने या प्रयोग करने से अधिक मेहनत की जरूरत होगी और ब्लागिंग बहुत समय खाऊ शौक है - मात्र लेखन से अधिक काम करना पडता है. उदाहरण के लिये हमारे पास कोई बोईंग-बोईंग.नेट या जीनॉम, ऑटो-ब्लाग नहीं है. हां, कवि जरूर हैं ढेरों सारे, यूट्यूब पर डाले गए सुरीले गानों की कडियाँ जरूर हैं - देसीकरण इन देसी स्टाईल.. सेलिब्रेटिंग दी गोल्डन एरा स्लोली-स्लोली!
ई-स्वामी की जिस औघड़ भाषा की सबसे पहले मुलाकात हुई थी उसका नमूना भी देखिये:
जब सारी दुनिया हिन्दी पेल रही थी इन्टर्नेट पे मैं कहां था? मैं नाराज़ था - फोनेटिक तरीके से लिखने के लिये हर एक अपनी अपनी फोन्ट लिए चला आ रहा है. भला उस्की फ़ोन्ट मेरी फ़ोन्ट से सजीली कैसे? फ़िर युनीकोड आया पर दुनिया के जिस हिस्से में मै रहता हूं वहां ब्लोगिन्ग को हस्तमैथून के बराबर रखते हैं और चेट फ़ोरम हरम क पर्याय है. हरम मैं सब नंगे होते है हमने भी करी फोनेटिक नंगई!
पल्लवीजी ने लेख के बाद संवेदनशील कवितायें /गजल लिखने की शुरुआत की है। आप नमूना देखिये:
उन छोटे से बच्चे की गैरत को है सलाम
अभी अभी जो भीख को ठुकरा के आया है
धरती का बिछौना ,अम्बर की है चादर
थक हार कर कुदरत की गोद में समाया है
जितने ब्लाग का जिक्र कर पाया उससे ज्यादा छूट गये। लेकिन उनके बारे में फ़िर कभी। चलें। आखिर हम भी कोल्हू के बैल हैं।
मेरी पसन्द
आज फिर जम के बारिश हुई
बगीचे के धूल चढ़े पेड़ पत्तियाँ
कैसे निखर गए हैं नहाकर
काली सड़कें भी चमक उठी हैं!
बह गए है टायरों के
धूल,मिटटी भरे निशान
और पता है...
इस बारिश के साथ
तुम्हारी यादें भी बरसी हैं रातभर
तुम्हारी तस्वीर पर जमी वक़्त की गर्द
धुल गयी है और
मेरे जेहन में तुम मुस्कुरा रहे हो
एकदम उजले होकर....
पल्लवी त्रिवेदी
ब्लॉग जगत बड़ा हो रहा हैं और समय हैं जब हम सब पुरी निष्ठां से न केवल हिन्दी लेखन को आगे लाये वरन हर उस बात को सचाई से स्वीकारे जिसे हम आज तक नकारते आए हैं . मुझे अपने बारे मे आप की इस चर्चा मे लिखा देख कोई खास फरक नहीं पडा पर बहुत फरक पडा था जब आप की एक टिपण्णी मेने सिद्दार्थ के सम्बन्ध मे देखी जहाँ आप नए महसूस किया की ग्रुप ब्लोगिंग से ऊपर भी एक दुनिया हैं जिस मे आप नहीं जा पाये हैं . ज्ञान के ब्लॉग पर जो आपसी नोक झोक रही उस से भी अनभिज्ञ नहीं हूँ इस लिये मन मे संशय जरुर हैं की कही ये ग्रुप से भार के ब्लॉगर पर चर्चा केवल उसका रीअक्शन तो नहीं हैं . हेडिंग मे नाम देकर अपनी तरफ ट्रैफिक लाना किसी के नाम को कैश करना ही हैं और ये बंद हो जाए तो बहुत से नय ब्लॉगर जो बिना पढे रह जाते हैं उनको भी पढा जायेगा
जवाब देंहटाएंआप कह देते हैं कि रोज होनी चाहिए, पर करते नहीं ना हैं।
जवाब देंहटाएंकनपुरिये आलसी ना हुए, तो क्या कनपुरिये हुए। इसलिए जब रोज नहीं करते, तो आश्वस्ति रहती हैं कि आप कनपुरिये ही हैं। चिट्ठ
चर्चा नियमित कर दी, तो बहुतों का विश्वास टूट जायेगा। जमाये रहियेजी।
समझने की कोशिश कर रहे हैं कि ये कुकुरमुत्ते का चित्र इस पोस्ट में क्या कह रहा है.
जवाब देंहटाएं....
...
...
ह्म्म्म... समझ में आ गया.
मुझे, यूं तो कुछ विशेष नहीं कहना था.
जवाब देंहटाएं( हां ,नियमित हो तो अच्छा ही है). किंतु आलोक पुराणिक जी के कथन पर आपत्ति है.
भैया जी, कनपुरियों को यूं न गरियाइये, बुरा भी बडी जल्दी मान जाते हैं और पूछते है "नवा है का बे ?"
हिन्दी ब्लौग जगत को चमकाने में कनपुरियों का बहुत भारी योगदान है भैया जी.
जै कानपुर , जै ऊ पी, जै भारत .
प्रतिदिन चिट्ठाचर्चा हो मगर करे कौन?
जवाब देंहटाएंअगर आप रोज कर सके या दो दिन में तो बहुत बेहतर है पर शायद मुमकिन नही होगा....क्यूंकि मेरी राय में इसके लिए खासा वक़्त चाहिये लिखने के लिए नही पर बाकि ब्लोग्स पढने के लिये......कोई बात नही आप हफ्ते में भी करते रहे तो हमें कोई ऐतराज नही....
जवाब देंहटाएंरोज़ न सही, पर है कमाल का प्रयास !
जवाब देंहटाएंआपका यह चिट्ठा चर्चा का प्रयास साधुवादी है. आप इसे नित प्रतिदिन करने की सोचते हैँ, हर्ष का विषय है. संजय बेंगाणी जी कौन के बारे मेँ चिन्तित न होते हुए मध्यान चर्चा पूर्ववत प्रारम्भ करेँ और आप भी नियमित लिखते रहेँ. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐँ.
जवाब देंहटाएंस्वामी की जय हो,
जवाब देंहटाएंवाया चिट्ठाचर्चा
सत्य वचन स्वामी जी, जितेन्द्र का पन्ना देख कर हुलस कर मैं भी इस दुनिया में हुलस कर चला आया , लेकिन बाद में जैसे कचोट सी होनी लगी, “ये कहाँ आ गये हम-यूँ ही सर्फ़िंग करते करते ” गुनगुनाते हुये फिर भी लगा रहा और लगा हूँ, “वह सुबह ज़रूर आयेगी …सुबह का इंतेज़ार कर” और हिंदी माता की सेवा में लगा हुआ हूँ । कचोट की वज़ह, अंगेज़ी से यहाँ का कुल माहौल बिल्कुल अलग, कटेंट के प्रति उदासीनता तो इतनी की पूछो ही मत । घुमा-फिरा कर एडसेंस मुझे प्रेत की तरह हर जगह मौज़ूद दिखते हैं । यह एक अलग मुद्दा हो सकता है, अभी यहाँ नहीं और शायद कभी नहीं, क्योंकि बहुतों को तो यही बुरा लग रहा होगा ।
जैसे समीरलाल जी के २५-५० क्लोन हैं टिप्पणी करने को; वैसे फुरसतिया के २५-५० क्लोन चाहियें चिठ्ठाचर्चा को! :)
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