यह चिट्ठा है सिद्दार्थजी का और इनके चिट्ठे का नाम है सत्यार्थ मित्र..
इस पोस्ट में सिद्दार्थ एक "वयो"वृद्ध ( मनोवृद्ध नहीं) श्री आदित्य प्रकाश जी के बारे में बताते हुए लिखते हैं...
मेरे ऑफिस में स्वयं चल कर आने वाले पेन्शनभोगियों में सबसे अधिक उम्र का होते हुए भी इनके हाथ में न तो छड़ी थी, न नाक पर चश्मा था, और न ही सहारा देने के लिए कोई परिजन। …बुज़ुर्गियत पर सहानुभूति पाने के लिए कोई आग्रह भी नहीं था। इसीलिए मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी और दो-चार बातें आपसे बाँटने के लिए नोट कर लाया….
सिद्दार्थजी की यह पोस्ट बढ़िया लगी तो झट से older post पर क्लिक कर दिया.. और यह क्या यहाँ तो एक और लाजवाब पोस्ट मेरा इन्तजार कर रही थी.. इस पोस्ट में लेखक अपने डेढ़ साला सुपुत्र सत्यार्थ की और अपनी परेशानी का जिक्र करते हुए लिखते हैं
..सत्यार्थ मेरी ऊपर की जेब से एक-एक कर कलम, चश्मा, मोबाइल और कागज वगैरह निकालने की कोशिश करता है…मैं उसे रोकने की असफल कोशिश करता हूँ। कैसे रुला दूँ उसे? उसे दुनिया के किसी भी खिलौने से बेहतर मेरी ये चीजें लगती हैं। …चश्मा दो बार टूट चुका है, मोबाइल रोज ही पटका जाता है…इसपर चोट के स्थाई निशान पड़ गये हैं। …फिर भी कोई विकल्प नहीं है…उसका गोद में बैठकर मस्ती में मेरा चश्मा लगाना, मोबाइल पर बूआ, दादी, बाबाजी, चाचा, दीदी, डैडी आदि से बात करने का अभिनय देखकर सारी थकान मिटती सी लगती है।
इस पोस्ट का अन्तिम पैरा सोचने पर मजबूर कर देता है; विचलित कर देता है
…वह चुपचाप सुनती हैं। बीच में कोई प्रतिक्रिया नहीं देती। मेरी उलझन कुछ बढ़ सी जाती है…। मैं कुरेदता हूँ। उन्होंने चेहरा छिपा लिया है…। मैं चेहरे को दोनो हाथोंसे पकड़कर अपनी ओर करता हूँ… दो बड़ी-बड़ी बूँदें टप्प से मेरे आगे गिरती हैं… क्या आपकी इस उलझन भरी दिनचर्या में मेरे हिस्से का कुछ भी नहीं है? …मैं सन्न रह जाता हूँ
…मेरे पास कोई जवाब नहीं है। …है तो बस एक अपराध-बोध… …
और इस पोस्ट का लिंक है
समय कम पड़ने लगा है ..
सागर चन्द नाहर
॥दस्तक॥ , गीतों की महफिल , तकनीकी दस्तक
सिद्धार्थ जी में उत्कृष्टतम ब्लॉगर बनने का पूरा रॉ-मटीरियल है।
जवाब देंहटाएंसागर चन्द नाहर जी, सत्यार्थमित्र पर आने और पोस्ट पसंद करने का शुक्रिया। आपने हमें इतना मान दिया इसके लिए हम हृदय से आभारी हैं। मेरी कोशिश को नया उत्साह मिल गया। धन्यवाद।
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