नमस्कार मित्रों!
मैं मनोज कुमार एक बा फिर हाज़िर हूं शनिवार की चर्चा के साथ।
मंगलवार को चर्चा मंच पर एक पोस्ट आई। प्रस्तुत किया था संगीता स्वरूप जी ने। वो सप्ताह भर की कविताओं से सजी पोस्ट थी। इसने मुझे भी प्रेरित किया एक कविताओं से सजी पोस्ट तैयार करने के लिए। तो आज पेश है कुछ पोस्ट कविताओं के।
कवि अपनी बाते शब्दों में कहता है। शब्द और अर्थ जब मिलते हैं तो काव्य का सृजन होता है। यों कहें कि हमारी सृजनात्मक अभिव्यक्ति का आरंभ काव्य के रूप में ही हुआ तो ग़लत नहीं होगा। आदि काल से ही हमारे सुख-दुख के मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम कविता ही बनी रही। कवि-कर्म एक शाब्दिक निर्मिति है। कवि शब्द ’कु’ धातु में अच प्रत्यय (इ) जोड़कर बना है। ’कु’ का अर्थ है व्याप्ति, सर्वज्ञता। यानी कवि द्रष्टा है, स्रष्टा है, संपूर्ण है, सर्वज्ञ है। जहां न पहँचे रवि, वहां पहुँचे कवि। ऐसा व्यक्ति अपनी अनुभूति में सब कुछ समेटने की क्षमता रखता है। कवि द्वारा जो सृजन होता है उसके मूल में मनवीय संवेदना सक्रिय तो रहेगी ही। ये विचार राजभाषा ब्लॉग पर व्यक्त किए गये हैं कविता क्या है शीर्षक आलेख में।
कवि वही बड़ा होता है जो सामान्य भाषा की शक्ति-सामर्थ्य को कई गुना बढ़ा सकता है, जहां उसकी भाषा ही काव्य हो जाती है। उसका गद्यात्मक संगठन भी कवितापन से सिक्त हो जाता है। कविता में मार्मिक स्पर्श उसकी बुनावट में चार-चांद लगा देते हैं।
न दैन्यं न पलायनम् पर प्रवीण पाण्डेय जी की पोस्ट 28 घंटे पढ़कर ज्ञानदत्त पांडेय जी कहते हैं
यह पोस्ट पढ़ कर मुझे लगा जैसे नव विवाहित कवि हृदय गद्य में कविता लिख रहा हो!!
और ज्ञान जी सही भी हैं, देखिए ना इन पंक्तियों को पढकर लगता नहीं कि यह एक कविता की पंक्तियां हैं
आज तुमने अपनी यात्रा छोटी कर ली है । तुम्हे मंजिल पाने की शीघ्रता है । तुम्हारा निर्णय था हवाई यात्रा का । तुम हवाई जहाज की तरह उड़ान भरना चाहती हो, मैं ट्रेन की दो पटरियों के बीच दौड़ता, लगातार, स्टेशन दर स्टेशन । मेरे टिकट पर एक और सीट तुम्हारी राह देखती रही पूरे 28 घंटे ।
आज तुमने अपनी यात्रा छोटी कर ली है
तुम्हे मंजिल पाने की शीघ्रता है
तुम्हारा निर्णय था
हवाई यात्रा का
तुम हवाई जहाज की तरह
उड़ान भरना चाहती हो,
मैं ट्रेन की दो पटरियों के बीच दौड़ता,
लगातार,
स्टेशन दर स्टेशन
मेरे टिकट पर एक और सीट
तुम्हारी राह देखती रही
पूरे 28 घंटे।
आइए अब चर्चा शुरु करें
अविनाश चंद्र की, चाहे कविता लंबी हो या छोटी, एक अलग शैली है। विषय कहने में वे अनूठे हैं। और सबसे बड़ी बात कि वो दूसरों से भिन्न फॉर्मेट अपनाते हैं, । कविता का सलीका, तरीक़ा, रखरखाव, उनका अपना है। नई विधि-प्रविधि, व्याकरण की शैली जिसमें उनका चरित्र झांकता है। यह कविताकार मौलिक सर्जक है। अपूर्ण अनुच्छेद... जो .....मेरी कलम से..... पर प्रस्तुत उनकी कविता इसका प्रमाण है।
शलभ समान अक्षर,
जो थे सने-नहाए,
धूसरित धूल में.
पुलकित हुए देख,
तुम्हे ज्योतिशिखा.
***
फिर कहीं से आई,
भौतिकता की वल्लरी.
लपेटती रही-नापती रही,
समास-संधि-क्रिया.
जिस मनुज ने नेह का व्याकरण कंठस्थ कर रखा हो, उसे यह संज्ञा से अव्यय तक के व्याकरण कहाँ लुभा सकते हैं... सब विस्मृत हो जाता है जब प्रेम का प्रत्यय या उपसर्ग लग जाता है जीवन के साथ, एक अविभाज्य अंग बनकर, जिसे “ सिर दे सो लो ले जाई” के मंत्र को सिद्ध करने वाला ही अनुभव कर सकता है...!!!
धरती शीर्षक कविता स्वप्न मेरे ................ पर दिगम्बर नासवा जी प्रस्तुत करते हुए कहते हैं
ना चाहते हुवे
कायर आवारा बीज को
पनाह की मजबूरी
अनवरत सींचने की कुंठा
निर्माण का बोझ
पालने का त्रास
इसमें वर्णन और विवरण का आकाश नहीं वरन् विश्लेषण, संकेत और व्यंजना से काम चलाया गया है। प्रयुक्त प्रतीक व उपमाएं नए हैं और सटीक भी। आपकी इस कविता में निराधार स्वप्नशीलता और हवाई उत्साह न होकर सामाजिक बेचैनियां और सामाजिक वर्चस्वों के प्रति गुस्सा, क्षोभ और असहमति का इज़हार बड़ी सशक्तता के साथ प्रकट होता है। तभी तो कवि कहता है
अथाह पीड़ा में
जन्म देने की लाचारी
अनचाही श्रीष्टि का निर्माण
आजन्म यंत्रणा का अभिशाप
ये कैसा न्याय कैसा स्रजन
प्राकृति का कैसा खेल
धरती का कैसा धर्म ....
नासवा जी, अपकी कविता ने फ़ादर माल्थस की याद दिला दी... कहीं कोई हल नहीं!! धरा की यह व्यथा यह कराह कौन सुनता है. धरती का एक नाम क्षमा भी है ! यह इसकी क्षमाशीलता है ! अब तक की सबसे बड़ी साक्षी यही है न !
मंजरियाँ शीर्षक कविता मेरे भाव पर मेरे भाव की प्रस्तुति है। इनकी कविता पढ़ने पर लू में शीतल छाया की सुखद अनुभूति मिलती है।
आम्र पर बौर आये हैं
लगता वसंत की अगुवाई है
कोकिल ने छेड़ी मधुर तान
बजी ऋतुओं की शहनाई है ।
रवानी में अज़दक पर प्रमोद सिंह कहते हैं
रवानी में बसे-धंसे बाबू बहे चलो
मगर यह लरबोर बुझायेगा साथी, सुझायेगा?
नीले आसमान के नीचे तिरी दुनिया
ढीठ समय के सात सुर, हाथ आयेंगे?
उनकी इस कविता में अज्ञात की जिज्ञासा, चित्रण की सूक्ष्मता और रूढ़ियों से मुक्ति की अकांक्षा परिलक्षित होती है।
गोड़ की डोरी और ख़यालों की लोरी
गुड़ुप, पानी में सर डुबाये
कलेजे में तीली जलाये
भाषा की धधकती चिमनियों के पार
कहीं पहुंचाएंगे?
जाएंगे जाएंगे बाबू, आंख खुली रखो
लरबोरी के पार सुर-सुधा बनायेंगे.
ऐसा सामर्थ्य कम कवियों के पास होता है और जिन के पास होता है वे ही दिदावर कहलाते हैं। कहना होगा कि प्रमोद सिंह ऐसे ही कवि हैं।
सांवर दइया की हिंदी कविताएं आखर कलश पर नरेन्द्र व्यास जी प्रस्तुत कर रहे हैं। साँवर दइया आधुनिक राजस्थानी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। हां वही सुख, यह देह ही, नए साल की सुबह : एक चित्र, सपना संजो रहे, अपने ही रचे को , रचता हुआ मिटता, सुनो मां !, सच बता…. कविताएं इस बात का सबूत हैं कि कवि की निगहबान आंखों न तो जीवन के उत्सव और उल्लास ओझल हैं और न ही जीवन के खुरदुरे यथार्थ। बदली हुई आवाज़ों के बरक्स अपनी आवज़ के जादू के साथ सन्नाटों के कई रंग इन कविताओं में मौज़ूद हैं।
कितना अच्छा था वह दिन
भले ही अनजाने में लिखे थे
और अक्षर भी ढाई थे
लेकिन उनमें समाई दिखते थी
पूरी दुनिया
और आज
कितना स-तर्क होकर
रच रहा हूं पोथे पर पोथे
झलकता तक नहीं जिसमें
मन का कोई कोना
सच बता यार !
ऐसे में क्या जरूरी है मेरा कवि होना ?
इनकी कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों और व्यंजक मुहावरे से निर्मित हैं। ये कवितएं एक विलुप्त होती कला की केवल पहचान दर्ज़ करने की कोशिश नहीं बल्कि क्षरणशील एवं छीजती संवेदनशीलता की शिनाख़्त हैं।
यह अकारण नहीं है कि मुहब्बत में फ़िदा होने वाली ज़िन्दगियों की दास्तान के साथ कवयित्री को याद आता है कि किसी का साथ पाने की उद्विग्नता याद दिलती है उनके अधूरेपन का। निर्वाण अनामिका की सदाये... पर अनामिका की सदाये...... कुछ इसी तरह ख़्यालात लेकर आई हैं।
तुम्हारा साथ पाने की
उद्विग्नता ...
हड्डियों के ढांचे से
चिपके मांस में
छिपी रक्त धमनियों को
उकसा देती है .
चाहतें परछाइयाँ बन कर
पीछा नहीं छोडती...
मानो तिल की तरह
शरीर पर पड कर
याद दिलाती रहती हैं...
अपने अधूरेपन का.
आख़िरी कुछ पंक्तियां बरक्स ध्यान खींचती हैं।
आज मैं ..
पागल व्यक्ति की तरह
विस्मृतियों में जाकर
खुद को
भुला देना चाहती हूँ.
मैं भी योगियों की तरह
समाधि की तरफ
अग्रसर हो....
सांसारिक कर्मों और
योनियों के
आवरणों से विरत हो ..
निर्वाण पा लेना चाहती हूँ.
इस असार संसार का बोध, निर्वाण और समाधि की अवस्था...प्रश्न सुख की कामना न होने से दुःख का अनुभव न होना नहीं, एक ऐसी अवस्था प्राप्त करना है जहाँ सुःख क्या और दुःख क्या का भेद ही समाप्त हो जाता है... सच कहा है आपने ऐसी स्थिति सिर्फ पागल ही होकर पाई जा सकती है... उस प्रियतम को पा लेने का पागलपन...बहुर सुंदर रचना, बहुत सुंदर भाव!
औघट घाट पर नवीन रांगियाल की कविता चाय के दो कप को पढकर यह जाना जा सकता है कि लोक संवेदना की प्रस्तुति ही इसकी प्रमुख विशेषता है।
केबिन मै चाय के दो कप
आज सुबह केबिन में
एक जिन्दगी
अचानक घुस आई.
कुछ पल ठहरीं
और एक युग रिस गया.
यह कविता जीवन की हमारी बहुत सी जानी पहचानी, अति साधारण चीजों का संसार भी है। यह कविता उदात्ता को ही नहीं साधारण को भी ग्रहण करती दिखती है।
"जीवन की अभिव्यक्ति!” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’) उच्चारण पर डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक की एक ऐसी कविता है जिसके बारे में यह कह देना सर्वथा ज़रूरी है कि आज कविता में आए शुष्क एवं रुक्ष गद्य की बाढ़ के विरुद्ध ये कविता बेहद सुकून देती है।
क्या शायर की भक्ति यही है?
जीवन की अभिव्यक्ति यही है!
शब्द कोई व्यापार नही है,
तलवारों की धार नही है,
राजनीति परिवार नही है,
भाई-भाई में प्यार नही है,
क्या दुनिया की शक्ति यही है?
जीवन की अभिव्यक्ति यही है!
मौजूदा हालात को बयां करती है आपकी रचना बेहद शानदार है। ये केवल शब्द नहीं हैं, बल्कि पारस्परिकता की बुनियाद पर टिकी उस संस्कृति एवं सभ्यता का आईना है जहां राग और कर्म एक ही संधि स्थल पर खड़े दिखाई देते हैं।
यात्रा शीर्षक कविता के द्वारा sarokaar पर arun c roy कहते हैं
यात्रा
सब करते हैं
शब्द भी
तुम तक
जो शब्द पहुँचते हैं
उनकी यात्रा
रूमानी होती है
उन शब्दों के एहसास
मधुर होते हैं
आप इस कविता की भाषा की लहरों में जीवन की हलचल साफ देख सकते हैं।
शब्द और तुम
कर आओ ए़क यात्रा
मेरे ह्रदय की झील में
सच में, जब शब्द इन सुन्दर भावों को पिरोते हैं तो बड़े भाग्यशाली होते हैं। शब्दों का सफ़र लाजवाब है ... बिन कहे यहाँ से वहाँ शब्द ही पहुँचते हैं !
संगीता सेठी की बैठक बन्द रहती है मिट्टी के डर से कविता हिन्द युग्म प्रकाशित हुई है। अपनी इस कविता के लिए वो किसी भारी-भरकम कथ्य को नहीं उठाती, फिर भी अपने काव्यलोक की यात्रा करते हुए कुछ ऐसा अवश्य कह गयी हैं, जिसे नया न कहते हुए भी हल्का नहीं कहा जा सकता।
नहीं आता है अब
कोई मेहमान
समय की कमी के कारण
कोई आता भी है जल्दी में
तो बैठा दिया जाता है
दालान में...आहाते में
या खड़े-खड़े ही
विदा कर दिया जाता है
महल जैसी बैठक में
बैठने के
नियम तय किए हैं
हर कोई तो
नही बैठाया जाता
उन गद्देदार सोफों पर
इसलिए
ना सजते हैं काजू प्लेटों में
ना बादाम-शेक परोस पाती हूँ
महँगी क्रॉकरी
शो-केस में सजी रहती है
और बैठक बन्द रहती है
मिट्टी के डर से
समय कोई भी हो, कविता उसमें मौज़ूद जीवन स्थितियों से संभव होती है। वही जीवन- स्थितियां, जिनसे हम रोज़ गुज़रते हैं। संगीता जी की यह रचना इसी के चलते हमें अपनी जैसी लगती है। इसमें निहित यथार्थ जैसे हमारे आसपास के जीवन को दोबारा रचता है।
आजकल की कविता की एक और पहचान है – संवादधर्मिता, कथ्य और रूप दोनों स्तरों पर। कवयित्री कहीं स्वयं से संवाद करती है, कहीं दूसरों से। यों ये दोनों स्थितियां परस्पर पूरक ही कही जाएंगी। कुछ तो है मेरी भावनायें... पर रश्मि प्रभा... जी की रचना इसी का मिसाल है।
नहीं जानती - सत्य और असत्य
सही और गलत
स्वप्न और यथार्थ
पर कुछ तो है
जो मेरी धडकनें सुनाई देने लगी हैं
कुछ तो है
तभी तो
आत्मा परमात्मा को छू लेने को व्याकुल है
दार्शनिक सोच के साथ इस मनोरम प्रस्तुती में अज्ञात की जिज्ञासा, चित्रण की सूक्ष्मता और रूढ़ियों से मुक्ति की अकांक्षा परिलक्षित होती है। तीव्र संवेदनशीलता उन्हें प्रकृति के हर रंग-रूप में स्त्रीत्व का पता बताती है।
शिनाख़्त करो खुद की जज़्बात पर M VERMA की कविता काफी अर्थपूर्ण है, और ज़्यादा समकालीन। इस कविता के द्वारा वर्तमान स्थिति में जहां भी सार्थक एवं दिशावान जनांदोलन हैं वहां अपनी आशा और आस्था का बीजारोपण करें, समर्थन दें, कवि ये चाहता है।
आसमाँ की बुलन्दियों पर
तुम्हारी पहचान उभरेगी
तुम अपनी मुट्ठियाँ
हवा में लहराकर तो देखो
आज इसकी सख्त जरूरत है। हर किसी की पहचान खोती जा रही है इस भाग-दौर भरी दुनिया में! क्योकि भ्रष्ट लोगों ने सामाजिक असंतुलन की भयावहता खरी कर दी है सरकारी खजाने को बुरी तरह लूटकर जिसके खिलाफ सबको मुट्ठियाँ एकजुट होकर हवा में लहराने की जरूरत है!
गीत............... पर संगीता स्वरुप ( गीत ) जी की ज़िंदगी का गणित कविता को पढने के उपरांत लगा कि उनकी कला साधना और भी गंभीर तथा परिपक्व हुई है। यह कविता एक ऐसा प्रश्न खड़ा करती है कि उत्तर देने में सदियां बीत जाएं और शायद तब भी प्रश्न का उत्तर अधूरा रह जाए।
कोणों में बंटी
ज़िंदगी
कब कितने
डिग्री का एंगल
बन जाती है
पाईथागोरस प्रमेय
की तरह .
लोग
यूँ ही तो
नहीं कहते
कि गणित
कठिन होता है |
जीवन के गणित को समर्पित इस कविता को पढकर यह समझ आया कि विकट समस्याओं का आसान हल ढूँढ निकालना सबसे मुश्किल काम है। ज़िंदगी के गणित को बहुत सुलझे हुए भावों के साथ समझाती यह कविता, बहुत सरल बना देती है एक ऐसे विषय को जिसे हमेशा कठिन माना जाता है। बस आवश्यकता है बुने हुए स्वेटर के एक खुले सिरे के पकड में आने की, हाथ आया तो कठिन से कठिन गणित उधड़ता चला जाता है।
बारिश? शीर्षक कविता अमिताभ पर अमिताभ श्रीवास्तव द्वारा प्रस्तुत की गई है। इस कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों और व्यंजक मुहावरे से निर्मित हैं। आज का दौर विचलनों का दौर है। विचलनों के इस दौर में कविताओं में धरती दिखाई नहीं देती। लेकिन यह दिलचस्प है कि इनकी रचना में धरती और आकाश का दुर्लभ संयोग दिखता है।
पहाड टूटना बस एक मुहावरा भर है
कोई सचमुच थोडी टूट जाता है माथे पर।
और अगर टूट भी जाये तो
यकीन रखो तुम्हारे माथे पर तो नहीं ही गिरेगा।
तब लगता है हां
निश्चित ही बारिश का मौसम होगा।
यह कविता बरसात के पहले लोगों द्वारा अपना घर सहेजने की प्रक्रिया मत्र नहीं है बल्कि कंक्रीट युग के बरक्स पूरी एक संस्कृति इस कविता में दृश्यमान हो उठी है।
जब भंवर लयबद्ध नहीं होती
जीवन की दिशायें एक सीध खो देती हैं
मुहफेरी की खिडकियों से
झांकने लगते हैं दोस्त,
पीठ के पीछे छूरा घोपने की घटनायें आम हो जाती हैं,
मुंह के सामने मीठी छुरियों का बाज़ार लगने लग जाता है
और वे कन्धे ऊंचे व बडे हो जाते हैं एक दम से
जिनके सहारे गले में हाथ डाला जाता था
तब लगता है बारिश सावन की चमक खो चुकी है
कविता में मुहावरों लोकोक्तियों के प्रासंगिक उपयोग, लोकजीवन के ख़ूबसूरत बिंब कवि के काव्य-शिल्प को अधिक भाव-व्यंजक तो बना ही रहे हैं, दूसरे कवियों से उन्हें विशिष्ट भी बनाते हैं। मनुष्य होने और बने रहने की बिडंबनाएं अमिताभ जी की इस कविता में जगह-जगह मौज़ूद हैं। कवि जब बरसात को कल्पित करता है तो जैसे मौसम को ही नहीं, ख़ुद को भी उदास पाता है। इस संदर्भ में ही इस कविता को देखा जा सकता है।
दर्द विछोह पर्याय हैं मेरे.... कविता काव्य मंजूषा पर 'अदा' जी की प्रस्तुति है। यह कविता नारी पराधीनता अथवा उससे संबंधित कड़वे सच को बयान करती है।
दूर जाना यूँ माँ से है
जाँ का जाना जानो
झुकते हैं कभी बिछते हैं
मानो या न मानो
याद की कलसी
फिर छलकी है
आँख का आँचल भीगा है
ये दुनिया क्या समझेगी
तुम धैर्य की चादर तानो
मैं बेटी
किस्मत मेरी है
दूरी की ही जाई
दर्द विछोह पर्याय हैं मेरे
मान सको तो मानो....!!
एक नारी द्वारा रचित नारी विषयक इस कविता में उनकी स्वानुभूति और सहानुभूति का मसला यहां प्रधान है। कविता सीधे-सादे सच्चे शब्दों में स्वानुभूति को बेहद ईमानदारी से अभिव्यक्ति करती है। इसमें सदियों से मौज़ूद स्त्री-विषयक प्रश्न ईमानदारी से उठाया गया हैं।
पुरानी खांसी कविता बिगुल पर राजकुमार सोनी ने प्रस्तुत की है। जब से सोनी जी कविताएं प्रस्तुत करने लगे हैं उनका असल व्यक्तित्व उभर कर सामने आया है। यह ग्रामगंधी कविता नहीं बल्कि गांव या लोक जन जीवन से पगी कविता है।
कहते हैं कि यह देश किसानों का देश है, लेकिन दुनिया के पेट को रोटी देने वाला किसान जिस तरह से भूखा रहता है। दाने-दाने को तरसता है, उसे देखकर नहीं लगता है कि वास्तव में यह देश किसानों का सम्मान करना भी जानता है।
अब क्या बताऊं आपको
अचानक दोनों छोटी लड़कियों के
कपड़े छोटे पड़ गए
मजबूरी थी
पीले करने पड़ गए उनके हाथ
गिरवी रखना पड़ा
हीरा-मोती को
अरे.. हीरा.. मोती .. नहीं.. नहीं बाबू
हीरा-मोती तो बैल का नाम है.
किसान की स्थिति के मार्मिक शब्दचित्र इस कविता में मौज़ूद हैं।
इतना सब कुछ बताते-बताते
किसान ने बंडी से बीड़ी निकाली
और सुलगाते हुए कहा-
अरे.. बाबू.. बड़े लोगों को
होती है बड़ी बीमारी
अपनी खांसी तो पुरानी है
बस जाते-जाते जाएंगी
इस कविता को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि सोनी जी किसानों के जीवन को उसकी विस्तृति में बूझने का यत्न करने वाले कवि हैं। जो मिल जाए, उसे ही पर्याप्त मान लेने वाले न तो दुनिया के व्याख्याता होते हैं और न ही दुनिया बदलने वाले। दुनिया वे बदलते हैं जो सच को उसके सम्पूर्ण तीखेपन के साथ महसूस करते हैं और उसे बदलने का साहस भी रखते हैं। यह कवितामहज़ एक समय कवि द्वारा किसन से मिलने का बयान भर नहीं है। इसमें ऐसा कुछ है जो इसे संश्लिष्ट और अर्थ सघन बनाता है। ऐसा इसलिए है कि सोनी जी तथ्यो, चीज़ों और घटनाओं को सतह पर ही मूल्यांकित कर परम संतोष पा जानेवाले अघए हुए कवि नहीं हैं।
title unknown)
भड़ास blog पर अजित त्रिपाठी की इस छोटी कविता में मनुष्य होने और बने रहने की बिडंबनाएं मौज़ूद हैं।
उसे शौक है
गीली मिट्टी के घरौंदे बनाने का
सजा सजा कर रखता जा रहा है
जहां का तहां
निश्चिंत है न जाने क्यूं,
अरे!
कोई बताओ उस पागल को
कि
सरकार बदलने वाली है।
कविता काफी अर्थपूर्ण है, और ज़्यादा समकाली। ये हमारी श्रमजीवी समाज के चरित्र हैं – अपने बहुस्तरीय दुखों और साहसिक संघर्ष के बावज़ूद जीवंत।
खुली आँखों के सपने कविता मनोज करण समस्तीपुरी की पेशकश है। यह कविता इस बात का सबूत है कि कवि की निगहबान आंखों न तो जीवन के उत्सव और उल्लास ओझल हैं और न ही जीवन के खुरदुरे यथार्थ। बदली हुई आवाज़ों के बरक्स अपनी आवज़ के जादू के साथ सन्नाटों के कई रंग इस कविता में मौज़ूद हैं।
आज मेरी आँखें खुली हैं,
बिलकुल खुली !
और मैं देख रहा हूँ,
खुली आँखों से सपने !!
जिनमें हैं कई चेहरे,
कुछ धुंधले,
कुछ साफ़,
कुछ गैर,
और बहुत से अपने !!
कविता सीधे-सादे सच्चे शब्दों में स्वानुभूति को बेहद ईमानदारी से अभिव्यक्ति करती है।
एक और सपना देख रहा हूँ,
मैं सपनों में !!
परन्तु ये आँखें फिर भी खुली हैं,
और
प्रतीक्षा कर रही हैं,
कि
कब आयेगी वह भोर ?
जब हर चेहरे में होगी,
सच्चाई की चमक !
विश्वास की झलक !!
आपकी जागी आँखों का ख़्वाब बहुत ही हसीन था... दर्द भी हसीन होते हैं, क्योंकि मांजते हैं इंसान को ताकि उनकी चमक और बढे.!!
atyant uttam charchaa............
जवाब देंहटाएंwaah waah
dhnyavaad !
इतनी समग्रता से कविताओं की चर्चा
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
बहुत शानदार यह काव्य चर्चा!
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद मनोजजी
जवाब देंहटाएंआपकी चर्चा केवल चर्चा के लिहाज से लिखी गई है ऐसा नहीं लगता. एक रचना के साथ जो सही ट्रीटमेंट होना चाहिए वह स्पष्ट दिखाई देता है.
मेरा पढ़ने वालों से भी यह आग्रह बना रहा है कि वे रचना को केवल टिप्पणी देने के लिहाज से न पढ़े. रचना क्या कहती है..उसकी मांग क्या है इस पर भी जोर होना चाहिए.
खैर..ब्लागजगत में बहुत से ब्लागर इस विषय पर ध्यान दे रहे हैं
आपको शुभकामनाएं
मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंअधिकाँश कवियों पर आत्ममुग्धता के सँग रूमानियत हावी रहती आयी है,
अक्सर यही लगता है, कि वह दीन दुनिया से बेखबर अपने सँत्रास को बिसूरने के लिये ही जीवित हैं ।
इसी चलते मैं काव्यात्मकता का पक्षधर होते हुये भी अमूमन कविताओं में अनुपस्थित रहता आया ।
शायद तभी अरूणकमल पूछ बैठते हैं...
कहाँ है कवि ?
क्या किसी रतजगे में ?
किसी दिवास्वप्न में
सम्मोहन में या एहतियात में ?
दूसरी तरफ़ विजय कुमार को मलाल है कि...
हर शहर के अपने पापी
उच्चके, तिकड़मी, लोफ़र और पाकेटमार होते हैं
ये अन्ततः थक कर सो जाते हैं
सोते हुये इन लोगों की आँखों से
निकलते आँसुओं के कतरों को भी परखना चाहिये
विडँबना यह है कि कविता को माध्यम बना कर आम जन से ताल्लुक रखने वाले भी एक बिन्दु पर आकर सुविधाभोगी हो जाते हैं ।
अस्तु, कभी कभी मुझे स्वयँ ही लगता है कि शायद मैं ही ज़ाहिल हूँ, जो बुद्धिविलास के इस विधा के सौन्दर्य से प्रभावित न हो पाया ।
लम्बी चर्चा की है आपने मगर जितना पढ़ पाया बहुत रुचिकर ...शुभकामनायें आपकी मेहनत के लिए !
जवाब देंहटाएंअमूमन मैं टिप्पणियों पर टिप्पणी नहीं करता। पर आज मन कर गया, डा० अमर कुमार जी को थैंक यू बोलने का, उनकी इतनी लंबी और सारगर्भित टिप्पणी पढके! इससे काफ़ी हौसलाआफ़ज़ाई होती है।
जवाब देंहटाएंइनकी टिपाणियों से हमेशा मैंने कुछ सीखा है, इस बार भी।
और सोनी जी, आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूं। साथ ही यह भी कि चर्चा सिर्फ़ पोस्ट तक पहुंचाने का लिंक भर नहीं होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंसब शीर्षस्थ हैं...
जवाब देंहटाएंबढ़िया ब्लॉग-चर्चा सभी अच्छे -अच्छे लिंक ..प्रस्तुति के लिए धन्यवाद मनोज जी..
जवाब देंहटाएंअरे वाह! कवितायें ही कवितायें जरा पढ़ तो लें। सुन्दर! अति सुन्दर!
जवाब देंहटाएंडा.अमर कुमार की टिप्पणी पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
आपकी चर्चा में जो विश्लेषण होता है, उसके सम्मोहन में आ उन्हें पढ़ा आवश्यक है. धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबढ़िया जी , बहुत - बहुत !
जवाब देंहटाएंमनोज जी ,
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा पढ़ कर नि:शब्द हूँ...हतप्रभ हूँ...हर रचना के साथ कवि और कविता का जो वर्णन किया है वाह काबिलेतारीफ है..कवि के मन के उद्वेगों को आपने सार्थक अर्थ दिए हैं और हर रचना अपने में विशिष्ट हो उठी है...आपका भाषा ज्ञान और व्याकरण लाजवाब है...यहाँ प्रस्तुत हर रचना पर आपकी सापेक्ष टिप्पणी हर रचना तक पहुँचने के लिए प्रेरित करती है....और हर रचनाकार को आपकी टिप्पणी तुष्टि प्रदान करेगी..ऐसा मुझे विश्वास है..आपकी इस चर्चा ने बुलंदी की नयी ऊँचाई को छुआ है....और सबके लिए प्रेरणास्रोत का काम करेगी यह चर्चा....मेरी रचना को यहाँ स्थान मिला और आपके शब्द रुपी आशीर्वचन....इसके लिए धन्यवाद छोटा ही लगता है ..पर यह भी ना करूँ तो मेरी तरफ से गलती होगी....बहुत बहुत धन्यवाद ..आभार
पूरी चर्चा को पढकर एक ही बात कहूंगी .. ब्लॉग जगत के प्रति अपके समर्पण का जबाब नहीं !!
जवाब देंहटाएंBah ji Bah.......
जवाब देंहटाएंBah ji Bah.......
जवाब देंहटाएंBah ji Bah.......
जवाब देंहटाएंBah ji Bah.......
जवाब देंहटाएंBah ji Bah.......
जवाब देंहटाएंYe charcha nahi apne aap mein poori post hai ... aapki kavita aur kavi man ko pahchaan ne ki sookshm drishti kamaal ki hai ... mera soubhaagy hai ki aapne meri rachna ko bhi shaamil liya ...
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट आज चर्चा मंच पर भी है...
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com/2010/07/217_17.html
आज तो चर्चा में बहुत कुछ बहुत सुन्दरता से समेंट लिया!
जवाब देंहटाएं--
इतनी सुन्दर चर्चा के लिए बधाई!
जबाब नहीं आपका सुन्दरतम चर्चा.
जवाब देंहटाएंइस चर्चा का रूप सही है... चर्चा में व्याख्या ज़रूरी है . यूँ ही उधृत करना थोडा अधुरा लगता है, विचारों के साथ प्रस्तुत करना पूर्णता है
जवाब देंहटाएंउम्दा चर्चा , बधाई
जवाब देंहटाएंसही मायनों में की गई चर्चा!
जवाब देंहटाएंवाह... ! यह पोस्ट तो महाकाव्य की गरिमा रखता है ! इस महासागर में एक बूँद मेरी कविता 'खुली आँखों के सपने' को भी मिलाने के लिए शुक्रिया !!!
जवाब देंहटाएंचर्चा हो तो ऐसी हो, वरना ....!
जवाब देंहटाएंआज बहुत से नये लिंक दे दिये आपने, पढ़ते रहने के लिये।
जवाब देंहटाएंचर्चा की जाये तो ऐसे ही………………बिल्कुल समीक्षक की तरह्…………………एक एक पहलू को उजागर किया है …………………बेहद उम्दा और सबसे बेहतरीन चर्चा।
जवाब देंहटाएंमनोज जी, चर्चा बड़े विस्तार से और गहनता के साथ की है। मैंने देखा नही था आप की चर्चा स्ड्यूल्ड है वरना मैं शायद स्किप कर देता। आज की चर्चा से संबन्धित एक बात कहनी थी जो कि अलग से ग्रुप में उठाऊँगा। बाकि सब चकाचक।
जवाब देंहटाएंआज आपका चिटठा इतना आकर्षक है की पढने वाले को मजबूर कर देता है हर पोस्ट पढने के लिए. और उस पर आप के भाषा ज्ञान ने तो मेरी आँखे विस्मय से फैला दी. शब्दों का जादू...सोने पे सुहागा है . सच कहूँ तो आप के शब्दों ने चिटठा की ख़ूबसूरती बढ़ा दी है. यह एक अविस्मर्णीय चर्चा है.
जवाब देंहटाएंसारे लिनक्स बहुत अच्छे लगे.
मेरी रचना को चिटठा में लेने के लिए आभार.
अमिताभ जी की कविता काफी पसंद आई....
जवाब देंहटाएंसंगीता पुरी जी ने जो कहा, उसे हमारा भी कहा माना जाये...
जवाब देंहटाएंsundar charcha...aabhar !
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