माधव मत आना उस रात, तीन पाये और चार ईंटों पर टिके तखत की इस दुनिया का सब सन्तुलन तोड़ जाओगे, मैं आईने के सामने खड़ा सीटी बजाने से फिर कतराता फिरुंगा, वैसे भी उस रात न खत्म होने वाली बारिश बरसती होगी, छत के टपरे से ज़्यादा दिलों पर बजती, किसी और घर रात काट लेना, माधव, यहां मत आना. मेरी हर बात पर हंसने लगते हो, ईश्वर के लिए उस रात बख्शना.
तीन पाये और चार ईटों पर टिके इस तखत की कथा तो आप आराम से बांचियेगा लेकिन इसके पहले आप प्रमोद जी का लेख सिनेमा का गल्प बांचिये।
सिनेमा की हमारी नजर बहुत सीमित है। किसी सीन पर सुबुकने लगने और किसी पर ताली पीटने की सहज आदत तक सीमित। कोई गम्भीर बात अगर देखनी होती है तो वही देखते हैं जिसे समीक्षक दिखाते हैं। मजाल है किसी फ़िलिम को कोई सिनेमाखोर अच्छा कहे और हम उसको कह सकें न भैया आप ये कह रहे हैं ऊ सही न है। ये तो हम आजतक कह ही नहीं सकते कभी कि फ़लाना सिनेमा ढिकाने की नकल है।
प्रमोद जी बचपने से ही सिनेमा देखने लगे थे। ऐसा उनके इस खुलासे से पता लगता है:
बच्चे थे जब बाबूजी अपनी लहीम-शहीम देह सामने फैलाकर, बंदूक की तरह तर्जनी तानकर हुंकारते, ‘जाओ देखने सिनेमा, बेल्ट से चाम उधेड़ देंगे!’ चाम उधड़वाने का बड़ा खौफ़ होता, मगर उससे भी ज्यादा मोह खुले आसमान के नीचे 16 एमएम के प्रोजेक्शन में साधना, बबीता और आशा पारेख को ईस्टमैनकलर में देख लेने का होता
इसके बाद लेख में भारतीय सिनेमा के कुछ नास्टेल्जिक किस्से हैं जिनमें उन सिनेमाओं की यादे हैं जिनको देखकर बहुत तमाम सिनेमा प्रेमी पगलाये और प्रौढ़ और बूढे होते गये लेकिन उन सिनेमाओं की हसीन यादें दिल में कैद हैं तिरछी नजर की तरह:
तिरछी नजर का तीर है मुश्किल से निकलेगा
गर दिल से निकलेगा तो दिल के साथ निकलेगा।
इन यादों की ही कशिश है कि लेखक कहता है:
पता नहीं क्या होता है सिनेमा कि जीवन में इतने धक्के खाने के बाद अब भी ‘आनन्द’ के राजेश खन्ना को देखकर मन भावुक होने लगता है, जबकि बहुत संभावना है स्वयं राजेश खन्ना भी अब खुद को देखकर भावुक न होते होंगे.
शुरुआती भावुकता में एकाध डुबकी लगाने के बाद शुरू होता है समकालीन सिनेमा का हिसाब-किताब और आज के सिनेमा की सोच के बारे में कहा जाता है:
अच्छाई के दिन गए. जीवन में नहीं बचा तो फिर सिनेमा में क्या खाकर बचता. जो बचा है वह पैसा खाकर, या खाने के मोह में बचा है. बॉक्स ऑफिस के अच्छे दिनों की चिंता बची है, अच्छे दिनों की अच्छाई की कहां बची है, क्योंकि आदर्शों को तो बहुत पहले खाकर हजम कर लिया गया
भारतीय सिनेमा का आजमाया फ़ार्मूला भी देखते चलिये इसी लेख में:
अच्छे रुमानी भले लोगों का इंटरवल तक किसी बुरे वक़्त के दलदल में उलझ जाना, मगर फिर अंत तक अच्छे कमल-दल की तरह कीचड़ से बाहर निकल आना के झूठे सपने बेचने की ही हिंदी सिनेमा खाता है.
अच्छे सिनेमा कैसे बनते हैं पता नहीं लेकिन सवाल तो हैं ही:
कोई वज़ह होती होगी अपने यहां हीरोगिरी की हवा छोड़ने वाले ढेरों एक्टर मिलते हैं, कोई जॉर्ज क्लूनी या शान पेन नहीं होता जो सिर्फ़ अपने स्टारडम की ही नहीं खाता, समय और अपने समाज के बारे में साफ़ नज़रिया भी बनाता हो. इव्स मोंतों जैसी कोई शख्सीयत नहीं मिलती जिसके चेहरे की हर लकीर, हर भाव बताते कि बंदे ने सख्त, एक समूची ज़िंदगी जी है. दुनिया में डिज़ाइनर कपड़ा पहनने आए थे और टीवी के लिए सजीली मुस्की मुस्कराने की अदाकारियां मिलती हैं, परदा अभिनय की भव्यता और मन जीवन की उस समझ के आगे नत हो जाए, एक्टिंग की जेरार् देपारर्द्यू वाली वह ऊंचाई नहीं मिलती.
आगे इसी बात को और खोलकर कहा जाता है:
अपने यहां एक्टर चार पैसे कमाकर एक दुबई में और दूसरा अमरीका में फ्लैट खरीदने के पैसे जोड़ता है, दूसरी ओर चिरगिल्ली भूमिकाओं की ज़रा सी कमाई को जॉन कसेवेट्स ऐसी अज़ीज़ फ़िल्मों को बनाने, बुनने में झोंकता है जो फ़िल्म नहीं, लगता है हमसे जीवन की अंतरतम, अंतरंग गुफ़्तगू कर रही हों. तुर्की का स्टार अभिनेता यीलमाज़ गुने अपने विचारों के लिए जेल जाता है, जेल में रहकर फ़िल्में बनाता है, हमारे यहां स्टार होते हैं, राजनीति में वह भी जाते हैं, कभी दूर तो कभी अमर सिंह को पास बुलाते हैं. कोई वज़ह होती होगी कि अपने यहां फ़िल्मों से जुड़े लोगों को हम जो इज़्ज़त देते हैं, क्यों देते हैं.
इसके बाद सिनेमा के बारे में बहुत सारी बातें हैं उनके टुकड़े यहां सटाने से आपको मजा न आयेगा। आप पूरा लेख बांचिये तभी मजा आयेगा और लगेगा कि सिनेमा के गल्प लेख लिखने की क्या वजह है। अपनी बात खतम करने से पहले प्रमोद जी कहते हैं:
कविता की ऊंचाइयां, समझ की गहराइयों तक, उड़ने, उड़ाये जाने का काम बखूबी करती है सिनेमा, सवाल है फ़िल्म बनानेवाला निर्देशक जीवन से, व अपने माध्यम से ऐसे गहरे संबंध रखता हो, फ़िल्म देखनेवाले दर्शक सिनेमा में जीवन को मार्मिकता से उतरता देखने का मान, ऐसे अरमान रखते हों..
इस लेख में भारतीय सिनेमा की दुनिया के सिनेमा से तुलना करते हुये प्रमोदजी बार-बार भन्नाते हैं कि हम कुछ सीखने और डूबकर अपने समाज के अनुरूप सिनेमा बनाने की बजाय नकल के दम पर पैसा पीट लेना ही जानते हैं।
सिनेमा की बिल्कुल भी समझ न होने के बावजूद लेख मुझे बहुत अच्छा लगा। इसलिये सोचा आप लोगों को भी पढ़ा दिया जाये सिनेमा के गल्प
अनंत अन्वेषी जी के माध्यम से मिलिये पी सी एस परीक्षा में टॉप करने वाले पुष्पराज सिंह से। पुष्पराज सिंह ने उप्र पीसीएस परीक्षा में टॉप किया। अपनी मेहनत और लगन और विश्वास से उन्होंने जो सपना देखा था उसे पूरा किया। स्कूली पढ़ाई में सेकेन्ड और थर्ड डिवीजन लाने के बाद लगातार सफ़लता के लिये जुटे रहना और सफ़ल होना अपने आप में एक मिसाल है। आप पुष्पराज सिंह से यह मुलाकात पढिये और अपने आसपास के लोगों को पढ़ाइये। एक सवाल के जबाब में पुष्पराज सिंह कहते हैं:
गाँव में रहते हुए, अधिकारियों की हनक, ग्लैमर, पावर देखी थी | गावों में यह सब चीजें अधिक होती हैं | मैं भी इससे बहुत प्रभावित था और मुझे प्रेरणा मिली कि मुझे भी समाज में अपना स्थान अलग बनाना है और फिर बी.ए.प्रथम वर्ष में यह निश्चित किया कि मुझे तैयारी करनी है |
बाद में मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैंने काफी समय नष्ट कर दिया है - माहौल, जागरूकता, संसाधनों, मार्गदर्शन और दिशानिर्धारण के अभाव में | लेकिन फिर मैंने तय किया कि मैं मेहनत करूंगा, इलाहाबाद आने का निश्चय किया और सब कुछ, सारी तैयारी नये सिरे से शुरू की | खुद के अनुभवों से सीखा और खुद में निरन्तर सुधार किया | यही सब कारण रहे जो मुझे यह सफ़र तय करने में 10-12 वर्ष लग गये |
अपने तैयारी के अनुभव बताते हुये उन्होंने लिखा:
मैं यही कहना चाहूँगा कि इस प्रतियोगिता का कोई शार्टकट नहीं है | यह 100 मीटर की रेस नहीं है अपितु मैराथन दौड़ है | सिर्फ 10-15 प्रतिशत प्रतियोगी ही इसमें 2-3 सालों के प्रयास में सफल हो पाते हैं बाकी 90 प्रतिशत को सफलता के लिए इन्तजार करना पड़ता है, उन्हें समय लगता है | पहली चीज धैर्य बनाये रखें | पूरे मनोयोग, तन्यमता से लगे रहें | नकारात्मकता को मन में बिलकुल स्थान न दें, आलोचनाओं से घबराएँ नहीं | आलोचकों की बातों को भी सकारात्मकता से लें, उससे तैश में न आएं | जिस दिन आपकी आलोचना हो उस दिन 2 घण्टे ज्यादा पढ़ें | अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रहें | पढ़ें ज्यादा दिखाएँ कम | ज्यादा से ज्यादा पढ़ें | पढाई को समय में न बाधें कि मैं 10 या 12 घण्टे पढूंगा, इससे दिमाग पर अनावश्यक तनाव बनता है | जिस दिन आप उस समय सीमा को किसी भी कारणवश पूरा नहीं कर पाएंगे, तो तनावग्रस्त होंगे | पढाई का लक्ष्य रखें, समय का नहीं | अपने आप पर विश्वास करें, ईश्वर पर आस्था रखें, कटिबद्ध रहें, अपने लक्ष्य पर समर्पित रहें | सफलता जरूर मिलेगी |
स्तुति आमतौर पर हल्की-फ़ुल्की पोस्ट लिखती हैं। लेकिन कल उन्होंने ऐसी पोस्ट लिखी जिसको पढ़कर मन दुखी हो गया। उन्होंने अपनी सहेली से जुड़ी कई यादें साझा करते हुये उनकी मां की हत्या के बारे जानकारी दी। सहेली राशि की मां का नाम सिन्धु था जिसे स्तुति मौसी कहती थीं। स्तुति लिखती हैं:
करीब १८ साल पहले सिन्धु मौसी की हत्या कर दी गयी थी. उनके पति ने उन्हें जला कर मार डाला. रिपोर्ट से ये भी पता चला था उनके जले हुए शरीर पर चीनी चिपकी हुई थी. राशी तब बहुत छोटी थी, लेकिन उसे ये अच्छी तरह याद है की जब उसकी मम्मी जल रही थीं, तब उसके "पापा" उनपर चीनी छिड़क रहे थे. आरा में केस दर्ज किया गया, मेरी मम्मी भी गवाह की लिस्ट में मौजूद थीं. पापा और मम्मी ने पटना-आरा का कई सालों तक बहुत चक्कर लगाया. हत्यारे को मात्र ४ साल की सज़ा हुई.
कुछ पोस्टों के अंश
- बाहर बारिश अभी भी जारी है। रिया और लैम्पपोस्ट की रोशनी के बीच बारिश की कुछ बूँदें आ जाती हैं। रिया उन्हे पकड़ने के लिये हथेली खोलती है… हथेली पर रोशनी की एक चादर सी है और उस चादर में बारिश की बूँदें इकट्ठी होने लगती हैं… वो धीरे धीरे मुट्ठी बंद कर लेती है…
वो उस बारिश मे जमकर भीगना चाहती है… वो कमरे से बाहर आकर आसमान की तरफ़ देखते हुये अपने हाथों को पंख जैसे फ़ैला लेती है… सारी बारिश को खुद में समा लेना चाहती है… वो खुद एक ’मुट्ठी’ बन जाना चाहती है… पंकज उपाध्याय - आज कल क्रोस ब्रीडिंग से अच्छी नस्ल के जानवर , फल और सब्जियां तो उगा रहे हैं, लेकिन अफ़सोस है कि उत्तम गुणों से युक्त संतान प्राप्ति के लिए बहुत विरले लोग ही प्रयासरत हैं। दिव्या
- खुशबू मेरे तन का हिस्सा
हर रंग मुझी से बावस्ता
ना जाने कब किस क्यारी में
रजनीगंधा बन महक उठूँ सोनल रस्तोगी - खुश रहना बहुत सीधी-सादी बात है पर सीधा-सादा बनना बहुत मुश्किल है! जी.के.अवधिया
- वह आई साड़ी पहनकर
चाय की ट्रे में लिये आस
सभी ने बान्धे तारीफों के पुल
अभिनय प्रतिभा का किया गुणगान
चले गये लोग
वह हुई नाराज़
उसने दी धमकी
बन्द कर दी बातचीत
घरवालों ने नाटक नहीं छोड़ा । शरद कोकास - बेचैन उमंगो का दरिया
पल पल अंगडाई लेता है
आकर फिर सहला दो ना
छु कर के अपनी सांसो से
मेरे हिस्से का चाँद कभी
मुझको भी लौटा दो ना सीमा गुप्ता - जब साथ मिला तो खूब कमा लिया
लक्ष्य दृढ़ रहे तो मुकाम भी पा लिया
जो कल तक दूर थे, वे पास आने लगे
कांटे बिछाते थे कभी, फूल बरसाने लगे
बिन बादल आसमां भी कहाँ है बरसता
यूँ ही अचानक कहीं कुछ भी नहीं घटता कविता रावत - बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ नीरज गोस्वामी - अब हमारी परंपरा है कि हवलदार से जमादार तक को अपनी पावर दिखाने का हक़ है .तो कुछ फर्ज़ तो उनका भी बनता है विदेश में देसी परंपरा निभाने का. सामने बुड्ढा हो या बच्चा ,पढ़ा - लिखा हो या गँवार, उनकी अफसरशाही में कोई बदलाव नहीं ला सकता. एक गुट निरपेक्ष देश है हमारा सबके प्रति समान व्यवहार . शिखा वार्ष्णेय
- चाहती हूँ नहाना
सिर से पाँव तक
तुम्हारी बारिश में,
तुम्हारे शब्दों की परतों में
चाहती हूँ फैल जाना
शबनमी छुअन बनकर सुशीला पुरी
मेरी पसन्द
मेरे सामने जो तौलिया टंगा है
अर्शिया लिखा है उस पर और कानपुर
न कानपुर को जानता हूं मैं
न किसी अर्शिया को जानता हूं जानने की तरह
वे कविताओं में आती हैं जैसे कभी-कभार
ज़िंदगी में भी अक्सर नितांत अपरिचित की ही तरह
जिस इकलौती परिचित सी लड़की का नाम था उसके सबसे करीब
कालेज़ के दिनों में थी वह मेरे साथ
प्रणय निवेदन के जवाब में कहा था उसने
‘बहुत ख़तरनाक हैं मेरे ख़ानदान वाले
कभी नहीं होने देंगे हमारी शादी
हो भी गयी तो मार डालेंगे हमें ढ़ूंढ़कर’
मैं बस चौंका था यह सुनकर
शादी तब थी भी नहीं मेरी योजनाओं में
और अख़बारों में इज़्जत और हत्या इतने साथ-साथ नहीं आते थे…
उन दिनों तौलिये एक कहानी थी किसी कोर्स की किताब की
जिससे शिक्षा मिलती थी
कि परिवार में हरेक के पास होनी ही चाहिये अपनी तौलिया
मुझे नहीं याद कि उस कहानी के आस-पास था किसी तौलिये का विज्ञापन
यह भी नहीं कि क्या थी उन दिनों तौलिये की क़ीमत
आज सबसे सस्ता तौलिया बीस रुपये का मिलता है
और रोज़ बीस रुपये से कम में ही पेट भर लेते हैं
सबसे देशभक्त सत्तर फीसदी लोग
उनके बच्चे यक़ीनन नहीं पढ़ेंगे वह कहानी
कानपुर तक जाता रहा हूं तमाम रास्तों से
भगत सिंह के पीछे-पीछे
शिवप्रसाद मिश्र[1] की रोमांच कथाओं सी स्मृतियों के रास्ते
कमाने गये रिश्तेदारों की कहानियां जोड़ती-घटाती रही इसमें बहुत कुछ
सींखचों के पीछे क़ैद सीमा आज़ाद[2] की रिपोर्ट
थी आख़िरी मुलाकात उस शहर के साथ मेरी
जिसमें कथा थी उसके धीरे-धीरे मरते जाने की
और नाम था हत्यारों का
पता नहीं उनके आरोप पत्र में
शामिल था भी कि नहीं यह अपराध
ख़ैर
अरसा हुआ दंगे नहीं हुए कानपुर में
तो ठीक ही होगी जो भी है अर्शिया
बशर्ते सावधान रही हो वह भी प्रणय निवेदनों से
अशोक कुमार पाण्डेय
और अंत में
फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन शुभ हो।
बशर्ते सावधान रही हो वह भी प्रणय निवेदनों से
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर चर्चा... बहुत सारी पोस्ट पढनी बाकि हैं अभी...
regards
बहुत बढिया चर्चा .. पुष्पराज सिंह जी को बधाई !!
जवाब देंहटाएंढ़िया रचनाओं से परिचय कार्य आपने पढने में थोडा और समय चाहिए ! बरसाती चर्चा के लिए धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा...
जवाब देंहटाएंप्रमोद जी का सिनेमा पर आलेख पढ़कर मेरा तो २ साल का ब्लोगिंग सफल हो गया.. मैंने ऐसा आलेख ब्लॉग पर कहीं नहीं पढ़ा था... चाहूँगा की जो सिनेमा के विद्यार्थी हैं वो भी इसे पढ़ कर अपना लोक परलोक सुधार लें... वैसे उमेश ने भी पिक्चर होल पर यह लिंक लगाया है...
जवाब देंहटाएंपंकज की कलम करवटें ले रही है, वहीँ स्तुति के लिखने का स्वाद बड़ा अपना सा यानि देसी है. इन दिनों सुशीला पूरी को पढ़ा... कविता में जबरदस्त ताजगी है और पढ़ कर अच्छा महसूस होता है. शरद कोकस जी की लिखी कविता भी पसंद आई वहीँ अशोक जी के कविता ने शिल्प के रूप में बहुत प्रभावित किया.
लेकिन भाई यह चर्चा किसने की ?
सुन्दर चर्चा. बधाई.
जवाब देंहटाएंआभार.
बढ़िया चर्चा...आभार.
जवाब देंहटाएंshukriya is badhiya charcha aur shandar links ke liye,
जवाब देंहटाएंhar bar pramod jee ko padhna maane fir se ek baar shabdo ko naye maane paanaa aur unka prayog kiya jana sikhna hota hai...
स्तुति की पोस्ट पढ़कर मन अजीब सा हो गया...उस बच्ची ..को कितना मेंटल ट्रोमा मिला होगा....महज़ चार साल.... सिस्टम के सड़े होने का सबूत है .ऐसे लोगो का तो सामाजिक बहिष्कार कर देना चाहिए ......
जवाब देंहटाएंयहाँ आकर भी अच्छा लगता है। पोस्टें तो ख़ैर ज़्यादातर मेरी पढ़ी हुई थीं, जिससे मेरी और चर्चाकार की पसन्द का एक सा होना पता चलता है। सो आगे भी आते रहने में फ़ायदा है।
जवाब देंहटाएंभाई आपकी चर्चा अच्छी लगी - पढ़वाई पंकज उपाध्याय ने बज़ करके सो अलग बात है - सो पंकज का भी शुक्रिया।
आपने कविता चर्चा में शामिल की…आभार…इन प्रतिक्रियायों से बल मिलता है…सूचना के लिये सागर का भी आभार
जवाब देंहटाएंबाबू अशोक कुमार पांड ने हमारे मन की बात चुराकर पहले ही लिख दी है. मगर चोरी गई चीज़ों की लिस्ट की तरह फिर से उन्हें याद कर लेता हूं.
जवाब देंहटाएंऔर हां, ओह, पंडिजी, इस उम्र में भी आप इतनी सारी मोहब्बत कहां-कहां से पकड़ लेते हैं?
वाह चर्चा का ये इश्टाइल भी अच्छा है... सारे मेरे मनपसंद ब्लॉगर हैं जिनके लिंक आपने दिए...कुछ पढ़ लिए कुछ बाकी हैं.
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंदेर से आया किन्तु दुरुस्त आया,
इनमें कोई भी पोस्ट अभी तक नहीं पढ़ पाया हूँ ।
पर रात तो अपनी है, और रात अभी बाकी है !
एकसत्थै बहुते होमवर्क दई दिहे हो, भाई !
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंअब आपकी चर्चाओ पर ज्यादा बोलने लायक तो बचा नही.. लगता है ’नाईस’ का यूज शुरु कर देना चाहिये मुझे..
जवाब देंहटाएंअनूप जी,
जवाब देंहटाएंआपकी चर्चा बारिश की फुहारों में भीगते हुये गर्म भुट्टों के स्वाद सी लगी। श्री अशोक पाण्डेय जी का प्रणय निवेदन न जाने कितनी ही यादों से भिगा गया......
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
FOR ME
जवाब देंहटाएंPRAMOD SINGH
IS SINGLE PICE
IN BLOGWOOD
RELATE TO GULP-SHAHITYA
MANY MANY THANKS FOR
MADHAV MAT ANA/SALIMA-SALIMA.
KNOWLEDGE & THOUGHTS IS
MIRROR OF A INDIVISUAL
SO I LIKE BOTH THOUGHTS AND INDIV.
THIS IS FOURTH COMMENTS WHICH START FROM
TODAY SPECIALLY FOR YOU.
CHALA BIHARI BLOGER BANNE.
DIVYA/ZEAL
FHURSATIYA
AND CHITTHA CHARCHA.
SHAILENDRA JHA.
CHANDIGARH
धन्यवाद अनूप जी , इस चर्चा का उद्देश्य स्प्ष्ट है । यह केवल पोस्ट की लिंक देना नहीं है अपितु यह विश्लेषण पाठक को रचना को समझने में भी मदद करता है । आभार ।
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा का "कुछ पोस्टों के अंश" भाग सबसे सुंदर लगा. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएं