.क्या सचमुच चौबीस घंटे उम्र है किसी विचार की नेट पर .....मै इत्तेफाक नहीं रखता ....शायद कुछ लोग असहमत हो ...पर तमाम कवायदों के बीच भी कुछ लेख ...लिखने वाले आशवस्त करते है ....
हथकड़ खालिस पाठको के लिए है ..लिखने वाला भी इसी दुनिया का है ...हर पोस्ट एक कन्फेशन सी मालूम होती है ..थोड़ी बेधड़क .थोड़ी उलझी हुई....फिर भी अजनबी सी नहीं लगती ..कहने वाले इसे भदेस कह सकते है ...पर जाने क्यों हेंग ओवर की ये शल्य क्रिया अपनी ओर आकर्षित करती है ...इसे पढता हूँ तो रविन्द्र कालिया का" ग़ालिब छूटी शराब" याद आता है .ओर एक ओर शख्स महेन..
मेरी मांसपेशियों और मस्तिष्क के तनाव भले ही दूर न होतें हों मगर मैं उन पर केन्द्रित हुए ध्यान से मुक्त होता महसूस करता हूँ. मैं अपने पास संगीत को बजते हुए सुनना चाहने लगता हूँ. मित्रों के प्रति उनकी सदाशयता के लिए आभार से भरने लगता हूँ. बड़ी मौलिक बातें करता हूँ, ऐसी बातें जिन्हें आप होश में इसलिए नहीं कहते कि आपको अपने प्रेम का क्रेडिट कार्ड आल रेड्डी फ्रीज हुआ दीखाई देता है मगर पीते ही मैं कह पाता हूँ कि 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ' उस समय प्रेम की उत्त्पत्ति का स्रोत महत्वपूर्ण नहीं होता कि ये वासना से है या चाहना से. बस ऐसे ही कई साल बीत गए हैं.
दीप्ति ऐसी ही है .जैसी आजकल की लडकिया है ..बेबाकी से बोलने ओर जीने वाली ...वे बोल चाल की भाषा लिखने में इस्तेमाल करती है ...उनका लिखा पढने पर लगता है उन्होंने कही एडिट नहीं किया है .कही रुकी नहीं है ....बस कंप्यूटर खोला है ओर मन उतार दिया है ....
लड़कियाँ ऑफ़िस में कम काम करती हैं। काम चोरी करती हैं। बस में सीट के लिए झगड़ती हैं। ऊंची आवाज़ में बात करती हैं। ये वही लड़कियाँ हैं जो मासिक चक्र के दौरान भी भरी बस में चढ़कर ऑफ़ीस जाती हैं। वहाँ दिनभर काम करती है और घर आने पर पूरा काम करती हैं। ये वही लड़कियाँ है जो बस में चढ़े चंचल नौजवानों की फ़ब्तियाँ सुनती हैं। ऑफ़ीस में कई पढ़े लिखें साथियों की बेहूदा बातें सुनती हैं। घर में घरवालों की सुनती है और बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी निभाती हैं। बावजूद इसके उन्हें चाहिए कि वो चुप रहे। रातों को जागकर पढ़े ज़रूर, लड़कों को पढ़ाई में पछाड़े ज़रूर लेकिन नौकरी ना करें। नौकरी करें अगर तो महीने का कोई भी दिन हो बस में सीट के लिए लड़ाई ना करें। ऑफ़ीस में भाग भागकर काम करें। घर पर भी काम करें। ये तो धर्म है हमारा। ये सब कुछ करें और चुप रहे।
सीख रहा हूं इसलिए आपसे फाइनेंस लेना पड़ता है। बिना किसी डिग्री के अपने दिमाग, क्रिएटिविटी के दम पर कुछ करना चाहता हूं। ऐसी लाइन में जहां सबकुछ मेरा हो। न कोई रिश्वत देनी पड़े। न अहसान लेना पड़े। जरूरत पड़ी तो लिखूंगा, सब करुंगा पर कभी भी किसी कीमत पर सरकारी जॉब, एमबीए, नौ से पांच रुटीन ऑफिस जॉब नहीं करूंगा। वही करुंगा जो अच्छा लगता है।
जब फुरसत मिलेगी सीधे घर आऊंगा क्योंकि मुझे आप लोगों से बेइंतहा प्यार है। अगर आप लोग डॉली से ऐसी चिट्ठी लिखवाएंगे तो मैं बेवजह परेशान ही होऊंगा। आप लोग प्यार से इनकरेजिंग चिट्ठी लिखेंगे तभी मैं कुछ कर पाऊंगा। आप लोग मेरी वजह से इतने इनसिक्योर होते हैं इसीलिए मैंने निश्चय किया है कि कुछ भी करूंगा, जो सही सोचूंगा वही करूंगा पर आपको रेग्युलर चिट्ठी लिखूंगा। अब आप लोगों को मुझसे शिकायत नहीं होगी।आपको सिर्फ मेरे ऊपर भरोसा रखना होगा। इतना कि आप सोचें मैं जो भी करूंगा अपने भले के लिए ही करूंगा। आपके प्यार के लिए। आपकी इज्जत के लिए। आप भी नहीं चाहोगे कि आपकी खुशी के लिए कुछ ऐसा करूं कि मैं सारी ज़िंदगी त्रस्त रहूं। कुढता रहूं। वो न कर सकूं जो मैं तहे दिल से चाहता हूं।
ओर देखिये दुनिया की हर मां एक उम्र में आकर जीरोक्स कोपी सी लगती है .......
कुंवारे ... युवा ओर हेंड्ससम लड़के भी दिमाग रखते है ...ओर साथ में उसे इस्तेमाल करना भी जानते है ....शक -शुबह दूर करने के लिए यहाँ चटका लगाए ......मय फोटो सबूत मिलेगा ...
मां, मुझे सिर्फ मेरी आज़ादी दे दो। रो कर या प्यार से मुझे वापस न बुलाओ। मैं घर आने से सिर्फ इसलिए डरता हूं कि अगर घर पर ये सब बातें कहूं तो आप लोगों की आंखों में आंसू आ जाते हैं और मैं खुद को गलत साबित करने लग जाता हूं। परेशान होता हूं। जब नॉर्मल हालात में सोचता हूं तो यही ख्याल में आता है कि आपने पूरी आज़ादी तो दी है पर मैं मानसिक तौर पर अब भी अपने आपको आपकी सोच विचारों से आज़ाद नहीं कर पाया हूं। हमारे बीच में प्यार है, इमोशन है। सब है। पर साथ ही में एक कम्यूनिकेशन गैप भी है। मैं कोई औरों के बेटे की तरह आवारा नहीं हूं। नालायक नहीं हूं, पर मैं जो सोचता हूं, जो इच्छा रखता हूं वो करना चाहता हूं। मुझे अपनी रिस्पॉन्सबिलिटी ज्ञात हैं पर अभी उन्हें भूल कर सीखना चाहता हूं। मैं आपका नाम ऊंचा करना चाहता हूं। सिर्फ चाहने से तो कुछ नहीं होगा। करना भी होगा। और अगर काम में बिजी रहता हूं खाली वक्त में पढ़ता हूं, सोचता हूं तो कोई गुनाह नहीं करता।
प्रेम कविताये भी ऐसे लिखी जाती है .......शायद आवारा लोग ऐसे ही लिखते है .बड़ी गोल्ड फ्लेक फेफड़ो के नीचे उतार कर ...वे हर कविता लिखने के बाद तसल्ली करना चाहते है ..के उनकी कविता पूरी हुई के नहीं......
अब ये सब तो ठीक... ऐसा ही जुगाड़ तंत्र अपने काम में भी चलता है. गनीमत है अपनी नौकरी में बस काम से मतलब होता है. कैसे हो रहा है इससे किसी को मतलब नहीं है. एक दिन मेरे बॉस बड़े खुश हुए तो कहा डोक्यूमेंट कर दो ये काम कैसे हो रहा है... अब तिकड़म और जुगाड़ का डोक्यूमेंटेशन और नामकरण होने लगा तब तो... खैर बिना नामकरण और डोक्यूमेंटेशन के ही सब कुछ चल रहा है. ठीक वैसे ही जैसे इन तस्वीरों में सब कुछ सही सलामत चल रहा है. ऐसे तंत्र हर जगह चल जाते हैं हर क्षेत्र में ! आप जहाँ भी जिस क्षेत्र में भी काम करते हों... ऐसे तिकड़म लगाया कीजिये कभी कुछ नहीं रुकेगा.
...आखिर प्रेम कवितायेँ तो 'टूटी कलम' से भी लिखी जा सकती हैं.जब,
बौद्धिकता के ऊसर खेत में,
मृत इतिहास के उर्वरक से पोषित,
'पालतू खरपतवार'
के बीच में से ही कोई,
'जंगली फूल' पल्लवित होगा.
जब,
'प्रेम' और 'कविता' का,
कोई भी यौगिक...
खालिस 'प्रेम कविता' होगा.
जब,
'लज्जा' और 'कौमार्यता'...
जैसे शब्दों के,
पुल्लिंग गढ़े जा चुके होंगे.
जब,
एकलव्य और अंगुली-माल के,
अनैतिक सम्बन्ध...
...समाप्त होंगे.
और जब,
लाल स्याही ख़त्म हो चुकी होगी,
मेगी कि आराधना (लिओनार्डो डा विन्ची ) - यूफिजी, फ्लोरेंस
तब,
सरोकारों को मृत्यु दंड देके,
हम,अपनी कलम की नोक तोड़ देंगे.
हाँ तब,
हे, विश्व की अभिशप्त प्रेमिकाओं !
हम लिखेंगे तुम्हारे लिए...
दूसरी ओर ये महाशय है ....इस तरह प्रेम कहानिया कहना इनका शगल है ......ओर इन्हें इससे कोई गुरेज नहीं ......एक ही स्केच में मोहब्बत ..बेवफाई ओर दुनियादारी के रंग.....बिना किसी ओर कलर पेन्सिल का इस्तेमाल किये हुए .....
बना रहे बनारस में पंकज बिष्ट के लिखे एक लेख को सिलेवार पोस्ट किया गया है ....उसी में एक लेख के कुछ हिस्से है ......
अमृता ने कान में सोने की बालियाँ पहनी है... मैं उनमें ऊँगली घुमाते हुए कहता हूँ “तुम्हारा बाप सचमुच चोर था”. अगली चिठ्ठी में वो लिखती है “साले, इस अंदाज़ से तो तुमने मेरी तारीफ़ भी नहीं की थी, याद है तब मैं कटे शीशम की तरह गिरी थी !”
हम दोनों हरी दूब पर लेट कर आसमान देख रहे हैं... फिलहाल हमपे आसमान गिरा है. उहापोह की स्थिति है मैं क्या संभालूं क्या नहीं.
बाहर/सड़क/दोपहर/करीब एक बजे
“आज के डेट में पचास लड़का किसी कॉलेज से घसीट के लाइए... और यहीं डाकबंगला चौराहा पर सबको गोली से उड़ा दीजिए, कोई आंदोलन नहीं होगा, मेरा गाईरेंटी है.”मेरे मित्र जब यह बात उत्तेजना में कहते हैं तो एक इंकलाबी मुहिम में शामिल हुआ युवा, पेट्रोल के बढे दाम पर एक चुनावी दल के बिहार बंद के आह्वान पर कहता है “मादरच*** केंद्र में समर्थन करता है यहाँ के लोग को चूतिया बना रहा है... हम लोग जो मुख्य विपक्षी हुआ करते थे, इसी के कारण आज हासिये (सही पढ़ा) पर चले गए हैं”
एक पल को मैं कल्पना तो कर सकता हूं कि मैंने एक शब्द भी न लिख होता,पर क्या मैं यह सोच भी सकता हूं कि मैं अपने बच्चों के बगैर भी रह सकता था ! इसलिए अगर उनके लिए ही मैंने अपनी अमूल्य जिंदगी का इतना लम्बा समय कतर-ब्यौंत में गंवाया तो भी अफसोस कैसा ? इसलिए अब तक यह लेखक नहीं,एक थके और हताश आदमी का प्रलाप था। क्या एक लेखक का मूल्यांकन करते समय यह याद किया जाएगा कि उसने कितने ऐंन्द्रिय सुख भोगे,कितनी औरतों के साथ वह सोया। वह विला या बंगले में रहा या नहीं,और कितने पुरस्कारों से उसे सम्मानित किया गया?शायद सेनेका ने कहा है कि 'अंधेरे में सब औरतें एक-सी होती हैं।' पहली बार जब मैंने यह बात पढ़ी थी तो मुझे बहुत बुरा लगा था। पर बात का मर्म मेरी समझ में अब आ गया। अगर आप औरत को सिर्फ एक शारीरिक इकाई,एक भोग्य वस्तु मानते हैं तो वास्तव में सब एक बराबर हैं। ईमानदारी की बात है,मैंने औरतों को प्रकाश में भी देखने की कोशिश की,इसलिए अफसोस कैसा ? क्या जानवर (स्टड वुल) न हो पाने का ?
नेट ने इस दुनिया को एक ओर नयी शै दी है ....'नेट बेवफाई .'.......इस पर मनीषा कुलश्रेष्ट का लिखा बहुत ही दिलचस्प लेख है ...वे लिखती है
इमोशनल बेवफाई वन नाईट स्टेंस से भी ज्यादा खतरनाक है दामपत्य के लिए .सोशल नेटवर्किंग साइट्स चाहे कितनी ही लोकप्रिय क्यों न हो मगर वे खिडकिय है जहाँ से न केवल अजनबी ,बल्कि अतीत में छूटे गए लोग भी हमारे घरो में झाँक जाते है ओर हम उनके घरो में ......आगे वे एक जगह लिखती है .
हम मानव अपनी मूल पाशविक प्रवर्ति (भाई लोग स्पेलिंग मिस्टेक सुधार ले ) से बहुत ऊपर उठ तो गये है पर पोली गेमि अब भी रोमांच देती है .खास तौर से पुरुषो को ".चेंजिंग गेम "!पीछा करना ओर हस्तगत करना ! फिर वही ढाक के तीन पात !रोमांच काफूर उब तारी !फिर थोड़े समय मानव रह कर बिता दिए फिर आदमिता जगी ,ऐसे में साइबर संसार कितना "हेंडी" है .......
पूरा लेख आप इस माह के नया ज्ञानोदय(जुलाई 2010 का अंक यहां से डाउनलोड कर सकते हैं) में पढ़िए .
चलते चलते डा. सुषमा नैथानी की स्वपनदर्शी पर कहा गया एक फलसफा ......
किसी अबावील की तरह दिन उड़ते है
पंजों में दबाये जीवन
हर रोज़ कुछ शब्द बचे रहते है
कुछ प्यार बचा रहता है
सौ संभावनाएं सर उठाती हैं
उम्मीद बची रहती है
उसी का बँटवार है
उसी में कुछ बचे रहते है हम ...
पुनश्च ;.. सीरिया और अरब जगत के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवियों में से एक निज़ार क़ब्बानी ... इस कवि की कविताओं का अनुवाद सिद्धेश्वर सिंह जी ने किया है ....उनके ब्लॉग कर्मनाशा पर ये कविता ..बताती है आदमियत के तमाम हिस्से एक से है ...भले ही वे किसी देश ..काल के हो
बारिश से भरी रात की तरह
हैं तुम्हारी आँखें
जिनमें डूबती जाती है मेरी नाव।
अपनी ही प्रतिच्छाया में
लुप्त होती जाती है
मेरी तहरीर।
नहीं होती
होती ही नहीं
आईनों के पास
याददाश्त जैसी कोई चीज।
शुभ रात्रि
आपके सुझाए लिंक से नए पते देखने को मिले हैं। अब कुछ और परींदों के घोसलों में तांम-झांक का अवसर मिलेगा।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संकलन। कई पोस्ट तो यहीं आकर पढ़ी गयी। आभार।
जवाब देंहटाएंसुबह-सुबह नेट खोला तो देखा कि चर्चा आयी है। मन खुश हो गया देखकर।
जवाब देंहटाएंजो लिंक डा.अनुराग आर्य देते हैं उनको देखकर लगता है कि अरे ये शानदार पोस्टें कैसे रह गयीं। अभी सब लिंक खोलकर देखे। नया ज्ञानोदय भी डाउनलोड कर लिया लेकिन खरीदकर लाना पड़ेगा बेवफ़ाई सुपर विशेषांक-1|
बहुत प्यारी सी चर्चा। मन खुश हो गया।
बढ़िया चर्चा ,हथकड़ की तो फैन हूँ ... नियम से पर कमेन्ट का विकल्प ही नहीं दिया है , जो नए लिनक्स मिले है उन्हें आराम से पढूंगी
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और बहुत प्यारी चर्चा...
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने, हथकड खालिस पाठको के लिये है.. लास्ट टु लास्ट पोस्ट मे जब वो हार्टअटैक की बात करते है.. मै परेशान हो जाता हू कि कही सच मे तो नही.. मेल करके कुछ भी पूछना नही चाहता.. पाठक और लेखक के रिश्ते को और कोई नाम नही देना चाहता... उनकी पोस्ट बज़ पर शेयर करते वक्त मै कमेन्ट्स डिसेबल कर देता हू.. जब उन्होने ही कर रखे है तो कोई वहा डिस्कशन क्यू करे..
"कुंवारे ... युवा ओर हेंड्ससम लड़के भी दिमाग रखते है"
इसके विरोध मे कैन्डल लाईट मार्च तो बनता है :)
दर्पण का एक खास सिग्नेचर है और सागर का अपना... दोनो की ये पोस्ट खालिस उन्ही की लगती है.. उन्हे पढने वाला जब भी इन्हे किसी भी फ़ार्म मे पढेगा वो उन्ही से रिलेट करेगा.. सागर की तो वापसी है जोरदार.. :)
’बना रहे बनारस’ को कुछ समय पहले ही पढना शुरु किया है.. बहुत रेगुलर तो नही हो पाया हू.. कुछ दिन पहले ही एक पोस्ट पढी थी, बहुत पसन्द आयी थी.. देखियेगा..
कैमीभूड़ मर रहा है ! हाथी नहीं मरा है महाराज !!
बहुत बढिया चर्चा और अच्छेसे अच्छे लिंक पढने को मिले |हथकढ़ एक इमानदार पोस्ट लगी बाकि पढना बाकि है |
जवाब देंहटाएंआभार
- रजनीश की बात मजेदार है और काबिल-ए-गौर भी...
जवाब देंहटाएं- हथकढ़ महज़ कच्ची शराब के कारण अपना फेवरेट है... इसमें दो मत नहीं कि जहाँ शराब होगी वहां मौलिक बातें नहीं होंगी.
- दीप्ती, ओझा साहेब और अनुराग कश्यप वाली लिंक का आभार...
- दर्पण को तो पढना ही था... सोचा था उसके ब्लॉग पर लिखूंगा पर यहीं कहना ठीक होगा कि उसमें वैचारिक स्थिरता और प्रौढ़ता बहुत ज्यादा है, कई बार चौंकता है वो जो है उससे अलग हट कर लिखता है, अच्छी बात यह है कि बिना चिक-चिक में शामिल हुए ऊँची बात करता है
बना रहे बनारस को भी शुरूआती दिनों से पढता हूँ... अभी पढ़ा नहीं है पर पढूंगा... परसों उसपर अमरेन्द्र और आपके कमेंट्स देखे थे...
- नया ज्ञानोदय डाऊनलोड तो चार दिन पहले ही किया था पर कोई फायदा नहीं लगा. इसे खरीदना पड़ेगा... इसके प्रेम और मीडिया विशेषांक भी बहुत बेहतर थे... अभी बेवफाई बेस्ड टोपिक खासा आकर्षण का केंद्र है.
- सिधेश्वर अनुवाद में माहिर हैं... निजार साहब पर तो उन्होंने लगता है शोध सा किया है... सबद पर भी अभी छाए हुए हैं.
चलते-चलते आपकी तारीफ़...
पुण्य प्रसून वाजपेई की एक किताब है "एंकर-रिपोर्टर" उसमें वो लिखते हैं.
"सफल एंकर वही हो सकता है जो देश, समाज के सभी पहलुओं को न केवल जानता-समझता हो, बल्कि अवसरानुकूल उन पर टिप्पणी करने की क्षमता भी रखता हो"
आप इसमें सफल हैं, क्योंकि आप सिर्फ चर्चा ही नहीं करते कुछ होलसम बातें भी कहते हैं. इसलिए बधाई.
एक बात और...
मैं इम्तेहान से लौटा हूँ, बहुत असमंजस कि स्थिति थी कहाँ से शुरू करूँ साथ में दफ्तर का काम भी. आपने कुछ अच्छे लिंक दिए. शुक्रिया. यह चर्चा फिलहाल मेरे लिए छोटी है... अमूमन आपकी चर्चा लम्भी होती है और इस वक़्त तो मेरे लिए कुछ ज्यादा ही छोटी है. चाहूँगा कि अगले हफ्ते तक आप कुछ और शेयर करें.
प्रश्न : क्या सचमुच चौबीस घंटे उम्र है ?
उत्तर: नहीं, मैं भी इससे इत्तेफाक नहीं रखता.
अगले हफ्ते की दरख्वास्त के साथ, शुक्रिया.
और हाँ हथकढ़ पढ़ते हुए मुझे कल्पित जी की एक शराबी की सूक्तियां याद आती हैं....
जवाब देंहटाएंhttp://krishnakalpit.blogspot.com/
यहां आकर हमेशा की तरह आज भी बहुत अच्छा लगा.....अच्छी चर्चा विषय की तारीफ करूंगी
जवाब देंहटाएंmere shahar main kitne achche log hai....kitna accha likhte hai ....kitna achcha sochte h ai ....samiksha ki najar bhi bahut achchi rakhte hain,,,,,,,bahad khoobsurat samiksha ke liya bhadhaaee .....
जवाब देंहटाएंआपने कुछ नए लिंक पढवाए , आभार
जवाब देंहटाएंshukriya, shukriya.. hathkad padhna hamesha hi ek alag ehsas de jata hai..... fir se shukriya itne links ke liye
जवाब देंहटाएंएक छोटी सी चर्चा मैं भी किये देता हूँ... इसके जादू से बचना फिलहाल तो नामुमकिन लग रहा है.
जवाब देंहटाएंhttp://cilema.blogspot.com/2010/07/blog-post.html
बहुत कुछ नया है इस बार ..
जवाब देंहटाएं* देर से आया हूँ - तनिक फुरसत से।
जवाब देंहटाएं* डा० अनुराग का कविता प्रेम और और उनका प्रस्तुति कौशल दोनों का मैं कायल हूँ|
* यहाँ इस ठिकाने पर केवल लिंक्स चस्पा नहीं किए जाते बल्कि उन्हें पढ़कर 'कुछ' कहा भी जाता है - एक तरह से समीक्षा जैसी कोई चीज।
यह कम से कम मुझे तो अपने मूल्यांकन और आत्मानुशास्नन की राह दिखाती है।
* और अंत में डा० अनुराग सभी के प्रति शुक्रिया!
* देर से आया हूँ - तनिक फुरसत से।
जवाब देंहटाएं* डा० अनुराग का कविता प्रेम और और उनका प्रस्तुति कौशल दोनों का मैं कायल हूँ|
* यहाँ इस ठिकाने पर केवल लिंक्स चस्पा नहीं किए जाते बल्कि उन्हें पढ़कर 'कुछ' कहा भी जाता है - एक तरह से समीक्षा जैसी कोई चीज।
यह कम से कम मुझे तो अपने मूल्यांकन और आत्मानुशास्नन की राह दिखाती है।
* और अंत में डा० अनुराग सभी के प्रति शुक्रिया!
जिंदगी के रंगो की तरह यहाँ भी हर रंग बिखरा पड़ा है। बैशक वो विचार का रंग हो, होंसले का रंग, जुगाड़ का रंग,या फिर ...........। एक शानदार पोस्ट।
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