दक्षिण अफ़्रीका में हुये विश्वकप में स्पेन और पॉल बाबा की जीत हुई है। स्पेन पहली बार विश्व कप जीता है। वहां जश्न शुरू हो चुका है और टीवी वाले चमत्कारी पॉल बाबा के किस्से दोहरा रहे हैं। वे सुपरस्टार कहे जा रहे हैं। खेल खत्म हो चुका है अब उससे जुड़ी बातें होंगी। मशहूर शकीरा के जलवे बार-बार दिखाये जायेंगे। इसी क्रम में अभय तिवारी की बात को फ़िर से देखा जाये।
आउटलुक पत्रिका में पिछले महीने साहित्य से संबंधित सामग्री प्रकाशित की थी। उसमें हिन्दी साहित्य के कुछ वरिष्ठ दिग्गजों ने नयी पीढी के लेखकों के बारे में अपने विचार जाहिर किये। उनके अनुसार नयी पीढी बेहद प्रतिभावान है लेकिन उस पर बाजार हावी हो रहा है। यह लेख पढ़कर मैं भूल चुका था लेकिन कल मुझसे फ़ोन करके किसी ने पूछा -सुना है चंदन पांडेय ने पुराने लोगों को खूब गरियाया है नेट पर तो हमने सर्चियाया और पता चला कि नयी पीढी के प्रतिनिधि के रूप ने चंदन पाण्डेय ने पुरानी पीढी के लोगों को चुका हुआ, मठाधीश और न जाने क्या-क्या बताते हुये उनको उनकी औकात बताते हुये श्रद्धासहित अपनी बात कही।
उनकी इस बात पर शशिभूषण ने अपनी अलग से प्रतिक्रिया दी । डा.अनुराग आर्य ने अपनी बात कहते हुये लिखा-
सिर्फ इतना जानता हूँ ....के सचिन की जब आलोचक कड़ी आलोचना करते है .....वे अगले दूसरे या तीसरे मेच में शतक लगा देते है .....ओर जम कर खेलते है ......यही एक तरीका है .......
वैसे एक बात नोट करने वाली है। जिन मित्र ने मुझसे फोन करके इस मसले पर पूछा उनको जिस व्यक्ति ने बताया वे नेट और कम्प्यूटर से पर्याप्त दूरी पर रहते हैं। लेकिन उन तक ब्लॉगिंग की लिखी सूचनायें पहुंच रही हैं और लौटकर नेट प्रयोग करने वाले तक आ रही हैं कि देखो ये भी गुल खिल गये।
गाली-गलौज की बात चली तो देखा जाये रवीश कुमार इस मसले पर क्या फ़र्माते हैं। उनको अंग्रेजी गालियों में वो मजा नहीं आता जो शुद्ध देशज गालियों में आता है। इंगलिश गालियां इमोशन हीन होती हैं। वे लिखते हैं:
दिल्ली आकर बास्टर्ड और रास्कल से साक्षात्कार हुआ था। लेकिन इन गालियों से सांस्कृतिक सामाजिक संबंध न होने के कारण गाली विरोधी स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुंचती थी। कोई किसी को बास्टर्ड बोले या रास्कल बोले लगता था कि क्विन विक्टोरिया का मेडल ही होगा। बकने दो गालियां। ऐसा क्यों होता है कि इंग्लिश की गालियों पर प्रतिरोध कम होता है। हिन्दी की भदेस गालियां सर फोड़ देने के लिए प्रेरित करती हैं।
यह अंग्रेजी गालियों का ही प्रभाव है कि अमरेन्द्र के की बोर्ड से हिन्दी की कविता फ़ूट पड़ी:
' गालियों !
आओ -
वहन कर लूंगा तुम्हें .
आखिर तुम भी तो ,
भद्र व्यक्तित्व के स्याह पक्ष की अचूक सच्चाई हो ..
रंगनाथ सिंह अपने ब्लॉग पर कथाकार पंकज विष्ठ की अपने बारे में लिखी बातें बता रहे हैं। तीसरे अंक में अपने बारे पंकज विष्ठ अपने बारे में लिखते हैं:
एक सीमा तक मैं स्वाभिमानी व्यक्ति रहा और वह भी ऐसे दौर में,जबकि स्वाभिमान पाखण्ड का दूसरा नाम हो गया है। मैंने न कभी किसी आलोचक को ढोक दी,न किसी मठाधीश के दरबार में हाजिरी। अपनी विचारधारा में मैं जीवनपर्यंत वाम की ओर रहा पर कभी भी मैंने कोई पार्टीलाइन नहीं मानी। सच है कि मैं मिडियाकर धंधेबाजों से धृणा करता रहा ओर इस घृणा को कभी छिपाया भी नहीं। जब चाहा,जिस किसी की आलोचना की और खिल्ली उड़ाई।
इस पोस्ट में ही किन्ही अनुराग के किस्से टिप्पणियों में छाये हैं जिनकी विवेक को रंगनाथ सिंह ने बालविवेक कहा। उसको देखना होगा। वैसे पंकज विष्ट के बारे में पढ़ना अधिक रोचक है।
हाल की कोलकता यात्रा के दौरान प्रियंकर जी ने सबद ब्लॉग की जी खोलकर और मुंह खोलकर तारीफ़ की थी। आज इसकी सबसे ताजी पोस्ट देखी। इसमें ईरानी फ़िल्मकार जफ़र पनाही के बारे में जानकारी दी गयी है। जफ़र पनाही अपनी बात कहते हुये बताते हैं:
मैं राजनीतिक आदमी नहीं हूँ,समाजी मसलों में दिलचस्पी रखने वाला इंसान हूँ.किसी भी शख्स को लीजिए – आप पाएंगे कि उसके हालात उसके परिवार,उसकी शिक्षा और उसकी आर्थिक दशा के कारण हैं.मैं इंसानियत और उसकी जद्दो-जहद की फ़िल्में बनाता हूँ.जहां तक मेरे सिनेमा में इतालवी नव-यथार्थवाद का सवाल है तो जो कुछ भी बहुत कलात्मक तरीके से समाज के सच को दिखाता है वह अपना नव-यथार्थवाद खुद खोज लेगा.मेरी फिल्मों में इंसानी बर्ताव और किस्सागोई मिले-जुले रहते हैं.सरकारी ज़ुल्मों को लेकर उनका छोटा-सा वक्तव्य है : “कोई भी निजाम मुस्तकिल तो होता नहीं.मैं इंतज़ार कर सकता हूँ”.
आज तक चैनल के अधनंगी पत्रकारों से शर्मशार होती दिल्ली में देखिये रजनीश के झा क्या कहते हैं
चैनल ने इस खबर को तैयार करने में जिस तरह से महिला पत्रकारों को अधनंगी वस्त्रों में सड़क पर उतारा मानो वे पत्रकार ना हो कर कुछ और ही हों और ऐसे वस्त्रों में निहारना कोई बड़ा अजूबा तो पेज थ्री के पन्ने वाले लोगों में भी होता है जहाँ वस्त्र कोई मायने नहीं रखते।
गिरिजेश राव ने इतिहास का मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत की जानकारी देते हुये पहली पोस्ट में विद्वान लोगों की उक्तियां बोले तो जुमले पोस्ट किये थे। दूसरे भाग में मार्क्सवाद के बारे में बताते हुये लिखा था:
मार्क्सवादी अर्थशास्त्र की भ्रांति का सार हमें इसमें मिल जाता है। मार्क्स का यह विश्वास है कि इतिहास की द्वन्द्वात्मकता के विकास के साथ साथ उत्पादन की नई विधियों का विकास होगा। इससे उत्पादकता बढ़ेगी और अधिक पूँजी का सृजन होगा जिससे अंतत: मज़दूर को अलगाव और शोषण से मुक्ति मिलेगी। लेकिन, मार्क्सवादी मूल्य सिद्धांत में इस बढ़ी हुई उत्पादकता को सुनिश्चित करने वाला कोई कारक (variable) नहीं है। यदि श्रमिक ( या ‘सामाजिक रूप से आवश्यक’ श्रम) मूल्य का सृजन करता है तो अधिक श्रम अधिक मूल्य सृजित करेगा लेकिन यह वैविध्य लिए हुए न होकर केवल मात्रात्मक होगा। पिरामिड बनाने के लिए किया जाने वाला अधिक श्रम केवल अधिक पिरामिडों की ही रचना करेगा (कुछ और नहीं**)।
कल इस कड़ी की तीसरी पोस्ट पेश करते हुये उन्होंने बताया :
मार्क्सवाद में उत्पादकता को ही हीन दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति भी है। जैक लंडन, जो अब कम्युनिस्ट के बजाय एक लेखक के रूप में अधिक जाने जाते हैं, ने कहा था कि अपने दूसरे साथियों की तुलना में अधिक उत्पादक मज़दूर पहले से ही ‘हड़ताल भेदी’ होता है। यह विचार तो ऐसा ही है कि उत्पादकता में वृद्धि को मज़दूर के शोषण का हिस्सा मान लिया जाय।
डा. केली रॉस के अंग्रेजी लेख का हिन्दी अनुवाद पेश करते हुये गिरिजेश आम पाठकों को मार्क्सवाद की सामान्य जानकारी देने का बड़ा अच्छा प्रयास कर रहे हैं। शायद इसके बाद कुछ और जानकार अपनी बात कहें।
जुवा पीढी के बारे में पुरानी पीढी के लोगों ने जो कहा कि वह मेहनत नहीं करना चाहती। लेकिन पंकज उपाध्याय की पोस्ट का खंडन करती है। उनकी पोस्ट पढ़ने के बाद पता चलता है कि जुवा पीढ़ी सोचने-समझने में कित्ता मेहनत करती है। वह यहां तक सोचती है कि खाना-पीना, दाना-पानी का जुगाड़ सोचते-सोचते ही हो जाये। सोचने की नौकरी इंटरव्यू के बारे में सोचते हुये वे लिखते हैं:-
पहले कभी ’सोंचा’ है?? हमारी कंपनी में वीकेंड पर भी ’सोंचते’ हैं… क्या तुम इतना ’सोंच’ पाओगे?
- तो आप पहले किस कंपनी में ’सोंचते’ थे?
- अच्छा… तो आप पिछले दस सालों से ’सोंचते’ हैं? क्वाईट इंट्रेस्टिंग …
- अच्छा प्रोफ़ाईल है आपका… तो अभी तक आप किन किन चीज़ो पर सोंच चुके है??
- कुछ सोंच के दिखाओ? (दो इंटरव्यूवर सोंचते हुये सामने वाले से सवाल पूछते है)
मौलिक ब्लॉगरी का ज्वलंत उदाहरण। हाल में पढ़ी गई पोस्टों में सर्वश्रेष्ठ। यह टिप्पणी है गिरिजेश राव की जो उन्होंने सतीश पंचम की पोस्ट पर की। अब आप देखना तो जरूर चाहेंगे मौलिक ब्लॉगरी का ज्वलंत उदाहरण! देखिये।
छुट्टियां बीत जाने के बाद सफ़ाई का ध्यान आया वंदनाजी को और उसी के साथ निकली यह पोस्ट जिसमें चिट्ठी और संदेशों के दिन याद किये गये हैं:
पोस्ट ऑफिस का अपना अलग ही रुतबा था. और पोस्ट-मास्टर से ज्यादा पोस्ट मैन का. हम घर में पोस्ट मैन का इंतज़ार इस तरह करते थे, जैसे किसी ख़ास मेहमान का. सुबह ग्यारह बजे और दोपहर में एक बजे डाक आती थी. हम सब भाई-बहन इस कोशिश में रहते कि पत्र उसी के हाथ में आये, भले ही वो हमारे काम का हो या न हो. हमारे कान बाहर ही लगे रहते.
अपने देश में जब पारा चालीस से पचास के बीच टहल रहा था तब लंदन 32 डिग्री पर भुन रहा था। शिखा वार्ष्णेय ने लंदन की गर्मी के किस्से अपनी पोस्ट भुन रहा है लंदन में बताये हैं। देखिये :
जहाँ लन्दन के पार्क और समुंद्री तट लोगों से भरे पड़े हैं वहीँ ऑफिस में लोग ब्रेक में सूर्य किरणों का आनंद ले रहे हैं. अस्पतालों में आपातकालीन दुर्घटनाओं के लिए बन्दोबस्त्त किये जा रहे हैं... NHS (नेशनल हेल्थ सर्विस ) ने लोगों को हिदायत दी है कि खुले हुए सूती कपडे पहने ,अपने मुँह और गर्दन पर बराबर ठंडे पानी के छींटे मारते रहे और जहाँ तक हो सके घर के सबसे ठंडे कमरे का प्रयोग करें.(आमतौर पर यहाँ कहीं भी पंखे तक नहीं लगे होते.).ये वाला और नीचे वाला चित्र शिखाजी की पोस्ट से है।
उधर समीरलाल देखिये मजाक-मजाक में चाकलेटी हो गये हैं।
चलते-चलते सिद्धार्थ त्रिपाठी की पोस्ट दिखी-हाय, मैं फुटबॉल का दीवाना न हुआ… पर हिंदी का हूँ !! में इलाहाबाद छोड़ने के लिये ताने सुनने पड़ रहे हैं भाईजी को:
मुझे न चाहते हुए भी इलाहाबाद छोड़ने का पछतावा होने लगा। श्रीमती जी कि फब्तियाँ सुनना तो तय जान पड़ा- अच्छा भला शहर और काम छोड़कर इस वीराने में यही पाने के लिए आये थे- बच्चों का स्कूल सात किलोमीटर, सब्जी बाजार आठ किलोमीटर, किराना स्टोर पाँच किलोमीटर, दूध की डेयरी छः किलोमीटर… हद है, नजदीक के नाम पर है तो बस ईंट पत्थर और सूखा- ठिगना पहाड़… ले देकर एक पार्क है तो वह भी पहाड़ी पर चढ़ाई करने के बाद मिलता है। वहाँ भी रोज नहीं जा सकते…
आगे उन्होंने विवेक सिंह की अंग्रेजी कविता हिन्दी तर्जुमा ठेला है। शानदार है, जानदार च! देखियेगा।
फिलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी। देश बड़ी इस्पीड में चल रहा है आप भी चलना शुरू करिये। आपका दिन, हफ़्ता और आने वाला हर समय चकाचक बीते।
जवाब देंहटाएंचर्चा की बात ही क्या लेकिन आज एक लाइना कहाँ हैं ?
इंगलिश गालियां इमोशन हीन होती हैं - भदेस गालियाँ अपनाइये, यह तीव्र असरकारक होती हैं ।
...अब तो भदेस गालियाँ भी सुनते सुनते असरहीन सी लगती जा रही हैं !!...सो इंग्लिश गालिओं का क्या ?
जवाब देंहटाएंशशिभूषण ने अपनी अलग से प्रतिक्रिया दी
का लिंक ठीक किया जाए ना ?
बहुत बढ़िया चर्चा ..
जवाब देंहटाएंअच्छे लिंक .. अभय जी के यहाँ टीपों से भी ज्ञानवर्धन होता है .
जवाब देंहटाएंगालियों के इस माहौल को भी रचनात्मक - सिरजन दिया आपने .
रंगनाथ जी की तीनों प्रस्तुतियां अच्छी हैं और एक जगह '' बस यूँ ही ''
का सुन्दर स्पष्टीकरण भी ..
निस्संदेह सबद ब्लॉग प्रियंकर जी जैसी ही तारीफ का पात्र है !
गिरिजेश जी का अनुवाद कार्य सराहनीय है , धारा के विरुद्ध नाव खेने जैसा !
सुन्दर चर्चा .. आभार !
देख कर लग रहा है कि लंदन सच में भुन जायेगा।
जवाब देंहटाएंसच है अंग्रेज़ी की गालियों में वो असर कहां, जो हमारी हिन्दी की गालियों में है.... वैसे कई बार अंग्रेज़ी गालियां इसलिये भी असरहीन हो जाती हैं, क्योंकि उनका अर्थ ही नहीं मालूम :). शिखा जी की पोस्ट पढ के लगा कि सचमुच हम लोग कितने सहनशील हैं.... बहुत बढिया चर्चा.
जवाब देंहटाएंमजेदार चर्चा हमेशा की तरह आभार.
जवाब देंहटाएंतुस्सी ग्रेट हो सरजी...:) धाँसू च फाँसू... चर्चा
जवाब देंहटाएंहमारे यू. पी में तो देश की "नेशनल गाली 'तकरीबन हर मिनट बाद बोली जाती है .....हमारे कजिनो में सबसे शरीफ लड़का वैसे भी आई पी एस होकर' बिगड़" गया .......
जवाब देंहटाएंbadhiya charcha.
जवाब देंहटाएंझकास.
जवाब देंहटाएंजितनी बड़ी गाली आदमी उतना सभ्य..
जवाब देंहटाएंचर्चा तौली हुई है बराबर
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जवाब देंहटाएंगालियो पर वर्षा जी भी कुछ लिखती है.. टिप्पणिया भी पढने लायक है..
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा.. काफ़ी लिन्क्स बुकमार्क करने लायक है.. गिरिजेश की की वो तीनो पोस्ट्स एक साथ पढनी है.. सतीश जी की ये वाली पोस्ट भी सही से देख नही पाया हू अभी तक.. देखिये जल्द ही कवर करता हू सबको..
*गिरिजेश जी की
जवाब देंहटाएंआपके महीन चुटकी लेने का कायल हुआ। संदर्भ आप समझ ही गए होंगे। :-)
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