अब नहीं आएगा तो नहीं आएगा. जाने के बाद ना जाने क्या-क्या वापस नहीं आता. और दिन वगैरह के आने का तो कोई सवालिच नहीं है.
लेकिन ऐसे विकट समय पर मंसूर अली जी ने कविता/गजल लिख डाली. वे लिखते हैं;
9--९ सुनते दिन गुजरा था,
No--No सुनते रात गुज़र गई.
खैर यही की खैर से गुजरी,
पंडित जी की जेब भी भर गई.
रस्ता काट न पाई बिल्ली,
हम सहमे तो वह भी डर गई.
काम बहुत से निपटा डाले,
काम के दिन जब छुट्टी पड़ गई.
एक सदी तक जीना होगा,
जिनकी नैना ९ से लड़ गई.
टक्कर मार के भी पछताई,
NAINO आज ये किससे भिढ़ गई.
तमाम घटनाएं कविता लिखने की प्रेरणा देती हैं. हमारे मंत्री होटल में रहकर कविता लिखने की प्रेरणा देते हैं. गोविन्द जी लिखते हैं;
महंगे
होटल में
रहतें हैं
एस एम कृष्णा
शशि थरूर,
इसे ही तो
कहते हैं
सत्ता का गरूर।
आप पूरी कविता यहाँ पढ़ लें लेकिन टिप्पणी गोविन्द जी के ब्लॉग पर जाकर करें.
आज घोस्ट बस्टर जी ने चंद अशआर पेश किये हैं. शीर्षक है; "लगता है अब हमें भी टिप्पणी मॉडरेशन चालू कर ही लेना चाहिये."
शीर्षक पढ़कर हमें लगा कि ब्लागिंग और उसकी दिक्कतों पर कुछ लिखा होगा. लेकिन पढ़ना शुरू किया तो पता चला कि मामला कुछ और है. ऐसा शीर्षक देकर उन्होंने गुमराह करने की कोशिश की है. सरप्राइज देना, यू नो...!
खैर, उनके अशआर पढिये. वे लिखते हैं;
चुपके चुपके से रात और दिन टसुओं का बहाना याद हैगा
हमको तो अभी तक आशिकी का वो जमाना याद हैगा.
'हैगा' शब्द का इस्तेमाल गजल को मिट्टी/जमीन से जोड़ता है....:-)
बाकी के 'अशआर' आप उनके ब्लॉग पर पढिये. बीच का एक 'अशआर' बहर में नहीं लगता. वो है;
हमें पता है कि आपका दिल वाह-वाह करने को मचल उठा होगा.
पर दाद देने की जल्दी मत कीजिये. आगे और भी हैं. सुनिये
खैर, ऐसा क्यों है, आप वहीँ जाकर पढिये. यह रहा लिंक.
क्या हम संसार की आधी भाषाओं को दम तोड़ते देखते रहेंगे?
यह सवाल पूछा है सुयश सुप्रभ ने. वे लिखते हैं;
"भाषा का सवाल राजनीति और बाज़ार से जुड़ा है। आज अप्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के दौर में बाज़ार की ताकतें यह निर्धारित करती हैं कि किन भाषाओं को जीवित रखना है और किन्हें इतिहास के कूड़े पर फेंक देना है। अस्तित्व की लड़ाई में केवल ताकतवर के बचे रहने की बात करने वाले जंगल राज की वकालत करते हैं।"
सुबोध लिखते हैं; "तुम्हारा न्यूज सेंस तुम्हें मुबारक". सुबोध न्यूज चैनल वालों से कहते हैं;
"तुम्हारे न्यूज सेंस की हदें दिल्ली और मुंबई से आगे बढ़ नहीं पाती। पैसे की मलाई यहीं है तुम यहीं की मलाई चाटते रहो। टीवी पर इंटरटेनमेंट चैनल के फुटेज दिखाकर तुम खुद को भले क्रिएटिव कहो। लेकिन हम तो इसे चोरी कहते हैं।"
अवधेश आकोदिया जी की पोस्ट पढिये. वे लिखते हैं;
"सफलता के कंगूरों को देखते वक्त क्या आपके मन में यह नहीं आता कि इसके नींव के पत्थर से मुलाकात की जाए कहा जाता है कि हर इंसान की जिंदगी में उसकी पत्नी कहीं प्रेरणा बनकर, कहीं साथ चलकर तो कहीं सहयोग देकर नींव के पत्थर का काम करती है।"
अवधेश जी की यह पोस्ट हास्यास्पद रस के उन कवियों को भी पढ़ना चाहिए जो अभी तक पत्नियों पर कविता रुपी चुटकुले ठेलते हैं.
लेकिन आप हास्यास्पद रस के कवि न भी हों तो भी पोस्ट पढें.
दर्शन शाह 'दर्पण' जी की 'त्रिवेनियाँ' पढिये. दर्पण लिखते हैं;
"भौतिकी की हर प्रयोगशाला में
रेड शिफ्ट साफ़ दिखता है
दूरियां बढ़ रही हैं शायद"
और त्रिवेनियाँ टाइप नहीं कर पा रहा हूँ. कारण यह है कि उनकी त्रिवेनियाँ कॉपी प्रोटेक्टेड हैं. आप उनके ब्लॉग पर पढिये.
जी के अवधिया जी गूगल ऐडसेंस से कमाई का उपाय बता रहे हैं. जानने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये.
रमेश दीक्षित जी की गजल पढिये. रमेश जी लिखते हैं;
पानी , हवा , जमीन और बादल चुरा लिया ।
इंसान की वहशत ने ये जंगल चुरा लिया ।
चौपाल सूनी हो गईँ , अमराइयाँ उदास ,
किसने हमारे गाँव का पीपल चुरा लिया ।
पूरी गजल आप उनके ब्लॉग पर पढिये.
राजीव ओझा जी की पोस्ट पढिये. कुछ सवाल हैं, जो उन्होंने उठाये हैं. राजीव जी लिखते हैं;
"जब हम क्वालिटी एजुकेशन की बात करते हैं तो इसका मतलब सिर्फ अच्छी फैकल्टी और स्टूडेंट्स ही नहीं होता. क्वालिटी एजुकेशन का मतलब अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर, माहौल और कैम्पस भी होता है."
एक दुर्घटना में लखनऊ में पढ़ रहे आई आई टी के दो छात्रों की मृत्यु हो गई. इसी दुर्घटना को केंद्र में रखकर ये सवाल उठाये गए हैं.
अंत में
चिट्ठा-चर्चा को गुटबाजी की चौपाल माना जाता है. कुछ मित्रों की मानें तो अपना समय खर्च करके चर्चाकार गुटबाजी करने और सीखने आते हैं. अब इसके बारे में क्या कहा जा सकता है? जब कोई बात कई बार कही जाती है तो उसे सच भी मान लिया जाता है. यही कारण था कि आज मैंने एक ब्लॉग पोस्ट पर यह टिप्पणी की;
"अपनी दूसरी टिप्पणी में अरविन्द जी ने स्पष्ट कर दिया नहीं तो मैं पूछने वाला था कि; "सर आप किससे सहमत हैं? एकलव्य जी से या समीर भाई से?"
बाकी अनूप जी ने जो भी कहा है, वह सही है. चिट्ठा-चर्चा हिंदी ब्लॉग-जगत में गुटबाजी का केंद्र है. अभी हाल ही में आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी के समर्थन में जो गुटबाजी देखी गई, वह चिट्ठा-चर्चा में की जाने वाली गुटबाजी से प्रेरित थी. चिट्ठा-चर्चा से जुड़े कई चर्चाकारों को विदेशी और देसी विश्वविद्यालय गुटबाजी की क्लास लेने के लिए आमंत्रित करते हैं. कुछ को तो गुटबाजी में उनके योगदान के लिए जल्द ही मेगसेसे पुरस्कार मिल सकता है जो जाहिर है कि फ्रांस वालों से गुटबाजी करके लिया जाएगा. एक बार एक चर्चाकार को मिल गया तो फिर बाकी के नम्बर भी वही लगवा देगा. आपको शायद पता न हो, अभी हाल ही में शिकागो ब्लागर्स असोसिएशन ने एक चर्चाकार को (पद और गोपनीयता की शपथ की वजह से उसका नाम नहीं बता सकता) शिकागो आमंत्रित किया था ताकि वहां के चर्चाकारों को गुटबाजी सिखाई जा सके.
क्या कहें, आप तो बहुत सच्चे इंसान हैं नहीं तो आपको भी अपने गुट का विस्तार करने के लिए आमंत्रित करवा देता. लेकिन वही बात है न, सच्चे लोगों को गुटबाजों के साथ रहने में बड़ी परेशानी होगी."
अब मित्रों को चाहे जो लगे लेकिन गुटबाजी वाली बात को इतनी बार सुनकर मुझे यह सच लगने लगी सो ऐसी टिप्पणी करनी पड़ी....:-)
शिवकुमार जी,
जवाब देंहटाएंचर्चा का होना ही चर्चा हो रहा है या चर्चे में बना रहना भी चर्चा में शुमार है, शायद इसिलिये गुटबाजी का शोर होता है। लेकिन इसे दूसरे नज़रिये से देखें तो एक अवस्था वो आती है कि सारे विरोध के स्वर एक हो जाते हैं और एक गुट फिर बन जाता है।
दराअसल जहाँ लोग जुटेंगे तो गुट तो बनेगा ही, चाहे जो कर लीजिये।
चर्चा रोचक रही।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
Badhiyaa lekhan aur saar .
जवाब देंहटाएंआपके महत उदगार सुन उद बुध हुए....चर्चा आपने भली करी है....लिंक पकड़ कर पोस्ट कल पढेंगे....आज ९९९ नहीं है न एक कदम आगे बढ़ गया दिन सो फुर्सते नहीं मिला..
जवाब देंहटाएंगर्व से कहो, 'हम गुटबाज हैं'
जवाब देंहटाएंअच्छे गुटबाज अपने चेलों की चर्चा तो कर ही लेते हैं,
आप तो वह भी नहीं कर सके,
आपको गुटबाज कहते हुए भी हमें शर्म आ रही है,
कैसे गुटबाज हैं आप,
समीर जी का नाम पूरा मिट्टी मेँ मिलाइ दिये, क्यों ? :)
निसंदेह यदि विरोध के सारे स्वर एक हो जाये तो विश्व स्तर पर हिंदी ब्लागिंग चरम सीमा पर होगी और दुनिया में हिंदी भाषा स्जीर्ष स्थान पर होगी .
जवाब देंहटाएंगुटबाजी के चक्कर में हम जबरदस्ति बिला रहे हैं..फिर छूट गये..अब बार बार किसी के यहाँ टिप्पणी थोडई करना है कि फिर उदाहरण देने जायें कि हमारी भी नहीं छपी..जबकि सेम टू सेम गुट के हैं.
जवाब देंहटाएंआपे के भरोसे थे, सो भी जाता रहा. अब नये लोगों के साथ नया गुट बनायेंगे. उसमें आपको नहीं लेंगे और सुकुल जी को तो रिक्यूवेस्ट के बाद भी नहीं.
:)
हां, ये एक शेर कुछ बन नहीं पा रहा था. गुरुदेव किन्हीं और ब्लॉग से सामान जुटाने में व्यस्त थे तो उन्हें दिखा नहीं पा रहे थे. जल्दी ही उनसे दुरुस्त करवा लेंगे. :-)
जवाब देंहटाएंगुटबंदी के फायदे ज्यादा हैं नुकसान कम
जवाब देंहटाएं"हर इंसान की जिंदगी में उसकी पत्नी कहीं प्रेरणा बनकर, कहीं साथ चलकर तो कहीं सहयोग देकर नींव के पत्थर का काम करती है।"
जवाब देंहटाएंBEHIND EVERY SUCCESSFUL MAN THERE IS ANOTHER WOMAN STANDING :)
हम तो गुटबाज़ी का गुटखा खा रहे हैं। इससे हमारी सेहत बन रही है :-)
चटपटी चर्चा
जवाब देंहटाएं---
Tech Prevue: तकनीक दृष्टा
जवाब देंहटाएंनो.. नो.. नो..आपने मेरे पोस्ट का लिंक न दिया, धन्यवाद शिवभाई ।
वरना मैं भी कहीं चर्चाकार के चहेते गुट का गुटखा, करार दिया जाता ।
शुभकामनायें ।
पानी , हवा , जमीन और बादल चुरा लिया ।
जवाब देंहटाएंइंसान की वहशत ने ये जंगल चुरा लिया ।
चौपाल सूनी हो गईँ , अमराइयाँ उदास ,
किसने हमारे गाँव का पीपल चुरा लिया ।
बहुत अच्छी रोचक चर्चा. बधाई.
आपने भी बख्शा नहीं बस धो दिया !
जवाब देंहटाएं९ ९ ९ बड़े बड़े अखबरों ने भी भुनाया एक अन्धत्व
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रोचक चर्चा
जवाब देंहटाएंरोचक चर्चा!!!!!!
जवाब देंहटाएंआपकी चर्चा के साथ एक बेहतर बात है कि चर्चा की फीड अपडेट हो रही है। अब थोड़ा बेहतर रहेगा चर्चा तक पहुँचना ।
जवाब देंहटाएंबेह्तर चर्चा । मारक दृष्टि । आभार ।
सुन्दर चर्चा। आनन्दित हुये गुटबाजी के चर्चे से। मंसूर अली की कविता आन्नदित कर गई। घोस्ट बस्टर का हैगा झकास हैगा!
जवाब देंहटाएंशिवकुमार जी हम किस गुट में हैं ई भी तो बताइए ना। और किसी भी गुट की हो चिट्ठाचर्चा चालू रहे।
जवाब देंहटाएंROCHAK CHARCHA ......
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