सीधी बात है विमानफोड़ू हों या गगनचुंबीफोड़ू, अमरीकी अंधविश्वासी कतई नहीं हैं। सोमनाथ पर १७ बार आक्रमण होने पर पूजा पाठ करने नहीं बैठ जाता। यही तो उसकी सफलता का राज़ है। कुछ सीखो आर्यों! कुछ सीखो। कब तक उप्साला जा के घंटामर्दाला करते रहोगे? लेकिन जब तक तुम्हें अपने रंगीन टीवी पर बरखा दत्त की बत्तीसी दिख रही है तुम खुश ही रहोगे।
हो ही जाता है शरद में परिवर्तित श्राद्ध, समय बीतते बीतते। इसीलिए आर्यपुत्र अंतिम संस्कार के बाद किसी संस्कार में विश्वास नहीं रखते। नहीं तो अंतिम काहे का? कब तक आईने में तमाशा देखा जाएगा? असली दुनिया में भी तो है। पर क्या करें अंधविश्वास के ढेर के ढेर लगे हुए हैं हिंदुस्तान में। एक वैद्य बहुत धाँसू था, टपक गया, अब उसके नाम का मंदिर बन गया वैथीस्वरन कोईल ये नहीं कि वैद्य जी के ज्ञान को बाँटो, वैद्य मीट के साथ, उसके बजाय मंदिर बना डालो, और पूजा करो, उम्मीद करो कि हो जाओगे बिल्कुल ठीक। बिल्कुल आइने में तमाशे की तरह। इससे तो फौजी ताऊ ही बेहतर हैं।
हे बांग्लादेश बना के प्रसन्न होने वाले लोगो! समय रहते जाग जाओ, अपनी वातानुकूलित फिएट सिएना के शीशे खोल के याद करो लाल-बाल-पाल को। पर क्यों करोगे, शीला दीक्षित का ज़माना है अब तो।
भइया बैंकाक में तो गिरगिट भी नोट छापते हैं तुम क्या चीज़ हो। पर यहाँ आँसू पोंछते हैं कि दोबारा रोने का समय आ जाता है। अपने नेता लोग गिरगिटों को प्रशिक्षण दें या घड़ियालों से आँसू बहाने का प्रशिक्षण लें? कम से कम दो पल हँसने मुस्कुराने के लिए कुछ तो है। दोहे, चौपाई, सवैये छोड़ो अब नात पढ़ो।
रीतिकाल को रीतिकाल क्यों कहते हैं? पता नहीं। वैसे यह सवाल किताब में था भी नहीं। लेकिन आज शिक्षक दिवस नहीं है इसलिए इस विषय में और बात नहीं होगी, शिक्षक लोग नाराज़ हो जाते हैं। नंबर कटवाने हैं क्या? आज हम सिर्फ़ सेक्स और समाज पर आधारित रहेंगे। वैसे हिंदी इज़ सच ए पुअर लैंग्वेज, इसमें सेक्स के लिए एक भी डीसेंट वर्ड नहीं है।
प्लैटिनम की खोज यहाँ हो रही है, चचा, यहीं कहीं होगा, देख लो। काफ़ी लंबी चौड़ी तालिका है। इस काम के लिए रवीना को काफ़ी चर्बी चढ़ानी पड़ेगी। नहीं सेक्स के लिए नहीं, इनका अमूर्त रूप बनने के लिए।
रोज़ा के लाभ पढ़ लियो। मणिरत्नम वाली नहीं, बल्कि रहमान साहब जो रखते हैं वह वाले रोज़े। लेकिन अगर वामपंथी हो तो इसके बजाय कुछ कार्य करि आना अपनी लाल कारजसाला में। वो भी नहीं हो तो पी के जिओ, सब कुछ अपने आप लाल दिखेगा।
घुटने टेकने हैं? लिमिटेड टाइम ऑफ़र, चीनियों की ओर से। या तो उनके खिलौने खरीदो या गीदड़भभकियाँ सुनो। वैसे नेपाल ने तो चीन को बेस्ट फ़्रेंड बना ही लिया है। फिर क्या हुआ, चीनी बच्चे तो हिंदुस्तानी बड़ों जैसे बनना चाहते हैं! माना कि साहित्य ही समाज का दर्पण होता है पर जैसा कि हमने पहले कहा था, हम आईना वाईना नहीं देखते हैं।
पर छोड़ो यह सब टंटे, हम चलते हैं आल्प्स की वादियों पर।
अंत में विवेक सिंह ने कह ही दिया,
अरे तू अब बस भी कर यार !
सो हम बस करते हैं। फिर भी आज की चर्चा में चिट्ठा रूपी गगनचुंबी में विकिपीडिया रूपी विमान फोड़ने की कोशिश की गई थी, पता नहीं सफल हुई या असफल।
इस देश में ये सब टंटे तो चलते ही रहेंगे, और पड़ोसी पंगे लेते ही रहेंगे।
तो क्या हुआ। हम अमरीकी थोड़े ही हैं। सुसंस्कृत हैं भई। हज़ारों सालों से।
बढ़िया चिटठा चर्चा :)
जवाब देंहटाएंआज आठवीं सालगिरह है।
जवाब देंहटाएंमगर आज तक भी समस्या का हल नही निकला है।
इतना विस्तार ! इतने लिंक !
जवाब देंहटाएंचर्चा अच्छी लगी । आभार ।
charch to hoti rahe.narayan narayan
जवाब देंहटाएंसुंदर चर्चा। यह तरीका मन भाया।
जवाब देंहटाएंबहुत विस्तार से लिकिंत किया है चर्चा को..अच्छा लगा. आपका आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर चर्चा. बधाई हो.
जवाब देंहटाएंमेहनत से की गयी चर्चा...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आलोक साब!
आठवीं सालगिरह पर सोक....पर अब एक अमरीकी कहता हैकि उन्होंने ही ढांचा गिराया था!!!!
जवाब देंहटाएंफिर भी, "हम अमरीकी थोड़े ही हैं। सुसंस्कृत हैं भई। हज़ारों सालों से।"
आर्यपुत्र जो ठहरे:)
बाप रे, अभी तक समझने की कोशिश कर रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंइतने सारे सन्दर्भ| विस्तृत चर्चा रही आज की|
अच्छी रही चर्चा काफी कुछ समाहित, बधाई और धन्यवाद
जवाब देंहटाएंyeh charcha bahut hi achchi lagi........
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